Wednesday, 8 February 2017

हिन्दू धर्मग्रंथों के मुद्रण

हिन्दू धर्मग्रंथों के मुद्रण का सिलसिला 1923 ईस्वी से शुरू हुआ था। इस मुद्रण का श्रेय अंग्रेज द्वारा स्थापित "गीता प्रेस" और उसके मालिक सेठ जय दयाल गोयंका के नाम जाता है। क्योकि भारत में मुद्रण कला का जन्मदाता "लार्ड चार्ल्स मेटकॉफ" को जाता है जिसने भारत में 1780 ईस्वी में मुद्रण की विज्ञान और उपकरण दिया था। हैरत की बात है की इससे पहले हिन्दूधर्म ग्रन्थों का पुस्तक के रूप में आस्तित्व ही नहीं था। 
वेदों में ब्राह्मणी विज्ञान की डींगे मारने वाले लोग कागज तक से अपरिचित थे, छपाई की तकनीक तो बहुत दूर की बात है। 
 1779 में राजा जय सिंह को ताड़पत्र पर लिखी कुछ वेदों की पाण्डुलिपि हाथ लगी, जिसे उन्होंने अपने राजपंडित से जंचवा कर सर पोलियर को दी। यह उस अंग्रेज के लिए बहुत ही विस्मयकारी क्षण था, उसे लगा की अनजाने में भारतीय ज्ञान के खजाने की कुंजी उसके हाथ लगी है। इस तरह अंग्रेजों द्वारा ब्राह्मणी साहित्यों की खोज का सिलसिला शुरू हुआ। अंग्रेज अधिकारी ने भारत के ब्राह्मणी अतीत को ठीक से समझने के लिए लार्ड मैकाले को संस्कृत सिखाया और ताड़पत्रों भोजपत्रों में छुपे ब्राह्मणी ज्ञान को खंगालना शुरू किया। इस तरह उसने रामायण, महाभारत, वेद, पुराणों के ब्राह्मणी अस्तित्व के रहस्य पर से धीरे धीरे पर्दा हटाते हुए एक तरह से इसे नग्न कर दिया।
आगे इन ग्रन्थ को एक विशिष्ट वर्ग का थोथी दलील कहते हुए अंग्रेज ने इसका अंग्रेजी और हिंदी में अनुवाद कर ब्राह्मणी वर्गों के चंगुल से सदा के लिये मुक्त कर दिया, जो पूर्व में सिर्फ ब्राह्मण अपनी बपौती समझता था।
आज इस धर्मग्रंथों पर इतराने वाले ब्राह्मण और ब्राह्मणी भक्त को उस अंग्रेजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना चाहिए कि उस अंग्रेजी ज्ञान और कूटनीति से ही गीता प्रेस द्वारा मुद्रित धर्मग्रन्थ सर्व सुलभ हुआ है। अगर ऐसा नही होता तो शायद आज ये ब्राह्मणी भों भों ज्ञान सही में ब्राह्मणी ज्ञान बनकर कही पाण्डुलिपि में अदृश्य रहता। गीता प्रेस की स्थापना का मूल उद्देश्य था कि ब्राह्मणी पुस्तक को कम कीमत पर सर्व सुलभ करना। जिससे भारत में बहुसंख्यक वर्ग के लोग उस ब्राह्मणी ज्ञान के झूठी महिमा मंडन से प्रभावित होकर आगे ज्यादा से ज्यादा संख्या बल में ब्राह्मणी आडम्बर से जुड़े। इसके पूर्व काल में भारत के बहुजन को ब्राह्मणी पुस्तक छूने, रखने या देखने का अधिकार नही था। 
अत्त दीपो भव

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