गुरुवाणी
ऐसा चाहूं राज्य मैं, जहां मिलै सबन को अन्न। छोट, बड़ों सभ सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।। वैचारिक क्रान्ति के प्रणेता सदगुरू रैदास की एक वैज्ञानिक सोच हैं, जो सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते हैं। स्वराज ऐसा होना चाहिए कि किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो, एक साम्यवादी, समाजवादी व्यवस्था का निर्धारण हो इसके प्रबल समर्थक संत रैदास जी माने जाते हैं. उनका मानना था कि देश, समाज और व्यक्ति की पराधीनता से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है. पराधीनता से व्यक्ति की सोच संकुचित हो जाती है. संकुचित विजन रखने वाला व्यक्ति बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय की यथार्थ को व्यवहारिक रूप प्रदान नहीं कर सकता है. वह पराधीनता को हेय दृष्टि से देखते थे और उनका मानना था कि तत्कालीन समाज व लोगों को पराधीनता से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए. सन्त रैदास के मन में समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति आक्रोश था. वह सामाजिक कुरीतियों, वाह्य आडम्बर एवं रूढ़ियों के खिलाफ एक क्रान्तिकारी परिवर्तन की मांग करते थे. उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा नहीं होगी, वैचारिक विमर्श नहीं होगा. और जब तक यथार्थ की व्यवहारिक पहल नहीं होगी, तब तक इंसान पराधीनता से मुक्ति नहीं पा सकता है. भारत की सरजमीं पर सदियों से जातिवादी व्यवस्था का प्राचीन इतिहास रहा है. जातिवादी व्यवस्था में मनुष्य एवं मनुष्य के बीच झूठा अलगाव उत्पन्न करके मानवता की हत्या कर दी गयी थी. जातिवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा देश या समाज हित में कोई भी क्रान्तिकारी कार्यक्रम ही नहीं दिये गये. इस कुटिल व्यवस्था के रोग को सदगुरू रैदास ने पहचाना. उन्होंने मानव एकता की स्थापना पर बल दिया. उनका मानना था कि जातिवादी व्यवस्था को बगैर दूर किये देश व समाज की उन्नति सम्भव नहीं है. ओछा कर्म और परम्परागत जाति व्यवस्था को रैदास ने धिक्कारा है. वह कहते थे कि मानव एक जाति है. सभी मनुष्य एक ही तरह से पैदा होते हैं. मानव को पशुवत जीवन जीने के लिए बाध्य करना कुकर्म की श्रेणी में आता है. कुकर्म से मनुष्य बुरा बनता है औक सत्कर्म से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है. जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को रैदास ने नकार दिया. उन्होंने कर्म प्रधान संविधान को अपने जीवन में सार्थक किया. सन्त रैदास ने सामाजिक परम्परागत ढांचे को ध्वस्त करने का प्रयास किया जय गुरुदेव
ऐसा चाहूं राज्य मैं, जहां मिलै सबन को अन्न। छोट, बड़ों सभ सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।। वैचारिक क्रान्ति के प्रणेता सदगुरू रैदास की एक वैज्ञानिक सोच हैं, जो सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते हैं। स्वराज ऐसा होना चाहिए कि किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो, एक साम्यवादी, समाजवादी व्यवस्था का निर्धारण हो इसके प्रबल समर्थक संत रैदास जी माने जाते हैं. उनका मानना था कि देश, समाज और व्यक्ति की पराधीनता से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है. पराधीनता से व्यक्ति की सोच संकुचित हो जाती है. संकुचित विजन रखने वाला व्यक्ति बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय की यथार्थ को व्यवहारिक रूप प्रदान नहीं कर सकता है. वह पराधीनता को हेय दृष्टि से देखते थे और उनका मानना था कि तत्कालीन समाज व लोगों को पराधीनता से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए. सन्त रैदास के मन में समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति आक्रोश था. वह सामाजिक कुरीतियों, वाह्य आडम्बर एवं रूढ़ियों के खिलाफ एक क्रान्तिकारी परिवर्तन की मांग करते थे. उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा नहीं होगी, वैचारिक विमर्श नहीं होगा. और जब तक यथार्थ की व्यवहारिक पहल नहीं होगी, तब तक इंसान पराधीनता से मुक्ति नहीं पा सकता है. भारत की सरजमीं पर सदियों से जातिवादी व्यवस्था का प्राचीन इतिहास रहा है. जातिवादी व्यवस्था में मनुष्य एवं मनुष्य के बीच झूठा अलगाव उत्पन्न करके मानवता की हत्या कर दी गयी थी. जातिवादी व्यवस्था के पोषकों द्वारा देश या समाज हित में कोई भी क्रान्तिकारी कार्यक्रम ही नहीं दिये गये. इस कुटिल व्यवस्था के रोग को सदगुरू रैदास ने पहचाना. उन्होंने मानव एकता की स्थापना पर बल दिया. उनका मानना था कि जातिवादी व्यवस्था को बगैर दूर किये देश व समाज की उन्नति सम्भव नहीं है. ओछा कर्म और परम्परागत जाति व्यवस्था को रैदास ने धिक्कारा है. वह कहते थे कि मानव एक जाति है. सभी मनुष्य एक ही तरह से पैदा होते हैं. मानव को पशुवत जीवन जीने के लिए बाध्य करना कुकर्म की श्रेणी में आता है. कुकर्म से मनुष्य बुरा बनता है औक सत्कर्म से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है. जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था को रैदास ने नकार दिया. उन्होंने कर्म प्रधान संविधान को अपने जीवन में सार्थक किया. सन्त रैदास ने सामाजिक परम्परागत ढांचे को ध्वस्त करने का प्रयास किया जय गुरुदेव
संत शिरोमणि गुरु रविदास जी महाराज की 640 वीं जयंती पर कोटि कोटि नमन
★ जीवनकाल 151 वर्ष ★
जन्म----------------सन् 1377 ई०
परिनिर्वाण ---------सन् 1528 ई०
→ गुरु रविदास जी का जन्म विक्रम संवत 1433 ,सन् 1377 ई० में माघ पूर्णिमा, दिन रविवार को बनारस के नज़दीक सीरगोवर्धनपुर अथवा मांडूर्गढ़ नामक स्थान में एक चमार परिवार में हुआ था. रैदासी समुदाय में प्रचलित एक पद
“चौदह सौ तेंतीस को, माघ सुदी पन्दरास. दुखियों के कल्याण हित, प्रगटे सिरी रविदास”
- उनकी इस जन्मतिथि की पुष्टि करता है।
→वहीँ एक और रैदासी पद
“पन्द्रह सौ चौरासी भई चित्तोर मह्भीर. जर-जर देह कंचन भई रवि मिल्यो सरीर”
इनके शरीर त्यागने की पुष्टि करता है।
→ गुरुग्रंथ साहब में संकलित पदों में रैदास जी के चमार होने का उल्लेख बार-बार आया है.
“कही रविदास, खालसा चमारा. जो हम सहरी मीतु हमारा”
यानि
“मैं खालिस चमार हूँ, जो मेरे जैसे बोलता या सोचता है वह मेरे जैसा जागृत है और मेरा मित्र है”
→ गौरतलब है कि ऋग्वेद के पुरुषसुक्त में कहा गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का जन्म क्रमशः ब्रह्मा के मुख , भुजा ,जंघा और पैरों से हुआ है. यह सूत्र ही जातिवाद का आधार भी है। परंतु गुरु रविदास ने इस झूठी बात को सिरे से नकारते हुए कहा-
“ब्राह्मण खतरी, वैस सूद जनम ते नाही. जो चाइह सुबरन कउ, पावै करमन माहि”
→ अर्थात, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का जन्मगत आधार समाज विरोधी है। जन्म के आधार पर कोई प्रज्ञावान, बलवान और धनवान नहीं होता, बल्कि व्यक्ति अपने कर्म से ही श्रेष्ठ और निकृष्ट होता है।
गुरु रविदास जी आगे कहते हैं-
“रविदास एके ब्रह्म का, होई रह्यो सगल पसार. एके माटी सब सजरे, एके सभ कूं सिरजनहार”
→ अर्थात, संसार के सारे प्राणी एक ही मिट्टी से निर्मित हैं. इस सब का रचनाकार भी एक ही है. अर्थात सभी मानव का शरीर एक ही जैसा है और सभी की उत्पत्ति भी एक बिंदु से होती है. ऐसे में ब्राह्मण और शूद्र के भेद का भला क्या आधार है।
→ वर्णवाद से होने वाले नुकसान को बताते हुए गुरु रविदास जी कहते हैं -
“जात-पांत के फेर महि, उरझी रही सभ लोग. मानुषता कूं खात हई, रविदास जात का रोग”
→ अर्थात जात-पांत के चक्कर में सारा समाज ही जटिल हो चूका है। सब लोग जाति के जाल में उलझे हुए हैं और उन्होंने अपनी सोच एकदम संकीर्ण बना रखी है। जिससे मानवता के लिए कोई जगह नहीं बची। इस जाति रुपी रोग ने मनुष्यता को नष्ट कर डाला है।
※ रविदास जी के ये शब्द उन्नीसवीं सदी में डॉ बाबासाहेब आम्बेडकर द्वारा तैयार भाषण ‘एन्हीलेशन ऑफ कास्ट’ में उभरे है। जहाँ मानवता के मसीहा डॉ आंबेडकर पृ. ५६ में कहते हैं,
“जाति ने जन-चेतना को नष्ट कर डाला है, जाति ने लोगों में कल्याणकारी भावों को कुचल दिया। दया, प्रेम सहानुभूति, अपनत्व जैसे भावों को केवल अपनी जाति में ही सीमित कर दिया। यह सब केवल अपनी जाति से ही शुरू होता है और अपनी जाति के साथ ही खत्म हो जाता है”
गुरु रविदास जी के विचारों को आगे बढाते हुए डॉ० आंबेडकर ने जाति व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए सहभोज और अंतरजातीय विवाह की आवश्यकता पर बल दिया था।
गुरु रविदास भी तो समाज को आगाह करते हुए कहा करते थे-
“जात-पांत में जात है, जो केलन की पात. रविदास न मानुष जुड सकैं, जो लौ जात न जात”
→ यानि जिस प्रकार केले के एक पत्ते के बाद दूसरा और फिर तीसरा और अंतहीन पत्तों का सिलसिला शुरू हो जाता है उसी प्रकार जाति से उत्पन्न वर्गीकृत असमानता से मानवता के लिए कोई जगह नहीं बचती.
→जात पाँत पर गहरी चोट करते हुए गुरु महाराज कहते हैं —
रविदास बाह्मन मत पूजिए
जेऊ होवे गुण हीन
पूजहिं चरण चण्डाल के
जेऊ होवे गुण परवीन
→ जात पांत के विरुद्ध इस प्रकार उठाई जा रही आवाज के विरोध में पण्डा पुजारियों ने काशी नरेश वीर सिंह बाघेला से शिकायत की , कि एक शूद्र होकर भी रविदास ऐसे उपदेश देकर अधर्म कर रहा है।
राजा ने गुरु रविदास जी से कहा कि वह अपनी विद्वत्ता साबित करने के लिए अपने आराध्य देव की मूर्ति लाकर गंगा में तैराकर दिखलाए।गुरू महाराज अपनी पत्थर की सिला ले आये। पूछने पर उन्होंने बताया कि मेरा कर्म ही मेरा "आराध्य" हैं और इसी पर मैं अपना कर्म करता हूँ।
और रविदास जी महाराज ने उस सिला को जल पर तैरा कर सबके सामने अपनी विद्वत्ता साबित की।क्योंकि वह डूबने वाली लकड़ी और तैरने वाले पत्थर का ज्ञान रखते थे।
→ कालांतर चित्तौड़गढ़ के राजा राणा सांगा ,उनकी पत्नी रानी झाली तथा पुत्रवधू ( राजा भोज की पत्नी ) मीरा उनकी शिष्य बन गये। इसके उपरांत गुरू जी महाराज चित्तौड़गढ़ रियासत के राजगुरू बना दिए गये।
→ गुरु रविदास एक क्रांतिकारी महाकवि थे, जिन्होंने अपनी वाणी और विचार के माध्यम से ब्राह्मणवादी व्यवस्था पर करारे प्रहार करते हुए इसकी नींव हिला दी थी। इसलिए ब्राह्मणवादियों ने अपनी संस्कृति को बचाने के लिए उल्टा रविदास को ही चमत्कारी व्यक्तित्व घोषित कर दिया और उनके जीवनी का उल्लेख करते हुए बहुत सी झूठी और मनगढंत घटनाएं गढ़कर उनके क्रांतिकारी और वैज्ञानिक विचारों को दबाने का कुत्सित प्रयास किया।
जैसे- उनका कठौते से कंगन निकालना, अपने शरीर को चीर कर जनेऊ दीखाना, अपने पूर्वजन्म में ब्राह्मण होने के कारण अपनी पैदाइश के समय से ही अपनी चमार माँ का स्तनपान पान करने से इनकार करना आदि।
→ जाहिर है इन सब अवैज्ञानिक बातों को रविदास के जीवन से जोड़कर ब्राह्मणवादियों ने दलित-बहुजनों को रविदास की क्रांतिकारी-तार्किक शिक्षा से दूर कर उन्हें अंधविश्वास और कल्पनालोक में ढकेलकर वर्णवाद को सफलता से मजबूत किया।
→ गुरु रविदास जी आजीवन पथिक और पथप्रदर्शक बने रहे। उनका स्पष्ट मानना था कि संसार की प्रत्येक वस्तु अनित्य है, क्षणभंगुर है। यानि सभी चीज़ों को एक दिन जाना ही है। इसलिए क्यों न इस शरीर को समाज के निर्माण में लगाया जाए। उनके अनुसार किसी बात को ठीक से सोच विचार कर बुद्धि की कसौटी पर परख कर ही मानना चाहिए। उन्होंने श्रम की महत्ता पर अत्यधिक बल दिया और आजीवन वैज्ञनिक-मानववाद के प्रचार में सक्रीय रहे।
परन्तु बड़े दुःख कि बात है कि आज लोग गुरु रविदास जी को उनके विचारों से कम और उनके चमत्कारों के लिए अधिक जानते हैं।
जय मूलनिवासी
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