Sunday, 26 February 2017

अमित शाह से बड़ा कोई भी 'कसाब' नहीं हो सकता

अमित शाह से बड़ा कोई भी 'कसाब' नहीं हो सकता : बसपा प्रमुख मायावती

अंबेडकरनगर / बहराइच: बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के 'कसाब' वाले विवादास्पद बयान पर पलटवार करते हुए कहा है कि अमित शाह से बड़ा 'कसाब' नहीं हो सकता. अमित शाह ने बुधवार को एक चुनावी सभा में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए संक्षिप्त शब्द 'कसाब' ('क से कांग्रेस, ‘स’ से सपा और ‘ब’ से बसपा) गढ़ते हुए कहा था कि जब तक यूपी में इनका खात्मा नहीं होगा, तब तक राज्य का भला नहीं होगा. अमित शाह के इस बयान के जवाब में मायावती ने गुरुवार को अंबेडकरनगर में एक रैली में कहा, "आज अपने देश में अमित शाह से बड़ा कोई भी कसाब नहीं हो सकता है." मायावती ने कहा कि अमित शाह ने बुधवार को 'कसाब' वाली बात कहकर साबित कर दिया है कि भाजपा नेता की सोच कितनी घटिया है. दरअसल अजमल कसाब मुंबई आतंकवादी हमले का दोषी था, जिसे बाद में फांसी दी गई थी. मुंबई आतंकी हमले में शामिल पाकिस्तानी नागरिक कसाब के सभी साथी मार दिए गए थे और अकेला कसाब ही जिंदा पकड़ा गया था.

मायावती ने गुरुवार को ही बहराइच की एक चुनावी सभा में कहा कि उत्तर प्रदेश में सपा के लगभग पांच साल और केंद्र में भाजपा के पौने तीन वर्ष के कार्यकाल के दौरान दोनों ही सरकारों की गलत नीतियों और कार्यकलापों के कारण प्रदेश की 22 करोड़ जनता नाराज और आक्रोशित है. उन्होंने कहा कि भाजपा अपने किसी भी चेहरे को प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में पेश करने की अभी तक हिम्मत नहीं जुटा पाई है. सपा के मुख्यमंत्री पद का चेहरा अपनी सरकार में शुरू से ही कानून-व्यवस्था और अपराध नियंत्रण के मामले में जबर्दस्त दागी चेहरा रहा है.

मायावती ने कहा कि जिस सपा को अराजक, आपराधिक, सांप्रदायिक, भ्रष्टाचारी और जंगलराज आदि का खास प्रतीक माना जाता है, उसके साथ कांग्रेस भी गठबंधन में चुनाव लड़ रही है. ऐसी स्थिति में अब यहां प्रदेश की आम जनता को तय करना है कि क्या वह सपा-कांग्रेस गठबंधन के दागी चेहरे को वोट देंगे या इसके स्थान पर इन सभी तत्वों का सफाया कर हर स्तर पर कानून का राज करने वाली बसपा के 'बेदागी' चेहरे को अपना वोट देंगे.                        

जैसा कि आप संबको पता है कि डीयू के रामजस कॉलेज में एक सेमिनार था जहाँ पर कुछ अपने विषय के जानने वालों का लेक्चर होना था लेकिन खुद को देशप्रेमी कहने वाले ABVP के गुंडों जो संघ की औलादें हैं उन्होंने इस सेमिनार का विरोध किया और जम के पत्थर बाज़ी की जिसका नतीजा निकला कि यह सेमिनार नहीं हो पाया ... हालांकि बाद में ये सेमिनार हुआ और इसका प्रसारण किया गया, जिससे पहले से अधिक लोगों ने इसे देखा। 
  आखिर क्या था इस सेमिनार में जिसका विरोध हुआ ??? 
 इस सेमिनार में JNU के छात्र उमर खालिद का लेक्चर था ...उमर खालिद जो अभी बेल पर हैं जिनपर देशद्रोह का मुक़दमा है लेकिन एक साल हो चुका है और ना ही आरोप पत्र बना है और ना ही ट्रायल हुआ है।उमर खालिद बस्तर में आदिवासियों  के विरोध प्रदर्शन पर पीएचडी कर रहे हैं और इसी पर बोलने गए थे ...
 माया राव का विषय था ...बॉडीज इन प्रोटेस्ट मतलब शरीर की बनावट के कारण भेदभाव ...
  माया कृष्णन राव थिअटर कलाकार हैं और उनका प्रोग्राम था कि आम विरोध प्रदर्शन और थियेटर और नाटक के ज़रिये प्रदर्शन में क्या अंतर है।
  सृष्टि श्रीवास्तव ' पिंजड़ा तोड़ ' अभियान चलाती हैं और यह इस विषय पर बोलना चाहती थी कि कैम्पस को लोकतान्त्रिक बनाया जाना चाहिए मतलब जैसे लड़कों को कोई रोक टोक नहीं है उसी तरह की आज़ादी लड़कियों को भी मिलनी चाहिए। ' पिंजड़ा तोड़ ' समय समय पर ऐसे विषयों को उठाता रहता है ...
   सुमंगला दामोदरन स्वतंत्रता संग्राम में गाये गए गीतों और उसके बाद के देशभक्ति के गीतों को लोगों तक पहुंचाना चाहती थीं ...
    अब आप बताएं कि इन प्रोग्रामों में ऐसा क्या था जिसका विरोध होना चाहिए ???
 अगर छात्र इनके प्रोग्राम देख लेते तो क्या देशद्रोही होने की संभावना थी ??? 
फिर आखिर क्या कारण था इस प्रोग्राम के विरोध का ?? किस डर से इस सेमिनार का विरोध किया गया? उमर ख़ालिद का विरोध एक बार के लिए समझ आता है लेकिन जिसे अदालत ने खुद अब तक गुनाहगार नहीं माना है, अभी तक मुकदमा तक शुरू नहीं किया है उस उमर ख़ालिद को ले कर  एबीवीपी ये कहती है कि हम "देशद्रोही" उमर का आखिरी सांस तक विरोध करेंगे और उसे दिल्ली विश्विद्यालय में पैर रखने नहीं देंगे। यहाँ एबीवीपी की मानसिकता देखने वाली है। पहले तो वो खुद को अदालत से कहीं ऊपर और समर्थ मान कर निष्कर्ष निकाल रहे हैं, अन्यथा उमर को देशद्रोही कह कर विरोध अदालत की तौहीन नहीं करते। दूसरा , किसी भी कीमत पर डीयू में पैर न रखने देने की धमकी एक तो अपने आप में हिंसक है, साथ ही ये भी दिखा रही है कि संगठन डूसू के कुछ पद जीतने के बाद डीयू को अपनी बपौती समझने लगा है। एबीवीपी के ज़्यादातर कार्यकर्त्ता और डीयू की अध्यक्षा प्रियंका एक पढ़े लिखे वातावरण से आती हैं, ऐसे में किसी शैक्षणिक गतिविधि का राजनितिक वजहों से विरोध करना, वो भी उस गतिविधि के ब्यौरे को देखे बिना। निहायत घटिया है। ऐसा मानना असम्भव है कि ऊपर लिखे वक्ताओं के विषयों की जानकारी एबीवीपी को नहीं होगी, और वो सिर्फ़ उमर ख़ालिद का विरोध कर रहा था। वैसे भी उमर का विरोध करना कितना घटिया है ये समझ आ जाता है जब उमर रेड कॉरिडोर में हो रहे आदिवासियों के दमन की बात करते हैं।

कहीं ऐसा तो नहीं कि एबीवीपी के ज़रिये आदिवासियों की किसी भी किस्म की आवाज़ को उठने न देने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है? अन्यथा, डीयू जैसे पढ़े लिखे और बुद्धिजीवी पैदा करने वाले विश्वविद्यालय में व्यक्ति के अंधविरोध की ऐसी लहर पहले तो नहीं दिखी थी।

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