Wednesday 27 September 2017

भाजपा रंडीबाजों का अड्डा है !

भाजपा रंडीबाजों का अड्डा है !
 विश्वास नही हो रहा है तो खुद देख लीजिये !!

* आसाराम :- धर्म का चादर ओढ़कर नाबालिग लड़कियों का करता था बलात्कार ये भाजपाइयों के थे आध्यात्मिक गुरु इनके सामने भाजपा के अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण अडवाणी, नरेंद्र मोदी समेत तमाम बड़े से छोटे नेता इस बलात्कारी के चरण वन्दना करते थे अब यह बलात्कारी बाबा जेल में अपने गुनाहो का सजा काट रहा है ।

* बाबा राम रहीम :- धर्म का चादर ओढ़कर यह दरिंदा 209 लड़कियों को साध्वी के वेश में कैद कर रखा था इन सबों के साथ लम्बे समय से यौन शोषण करता आ रहा था भाजपा के नरेंद्र मोदी मनोहर लाल खट्टर मनोज तिवारी सहनवाज हुसैन ....जैसों का धर्म गुरु और मार्गदर्शक था अब अपने कुकर्मो का सजा जेल में काट रहा है ।


* स्वामी नित्यानंद :-तमिलनाडु के ढोंगी बाबा नित्यानंद का अश्लील सीडी जगजाहिर हो चूका है जिनके ताल्लुकात गुजरात के राजनीतिक हलकों में भी रहे हैं। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ महीने पहले सितंबर में नित्यानंद की दो किताबों का विमोचन किया था और बाबा की तारीफ में जमकर कसीदे पढ़े थे

* स्वामी परमानंद :- रामशंकर तिवारी उर्फ बाबा परमानंद को 3 दिन की रिमांड पर ले कर पूछताछ की तो पता चला कि बाबा के पास करोड़ों रुपयों की जायदाद है.

* टुन्ना पाण्डेय :- चलती ट्रेन में नाबालिग के साथ दुष्कर्म करने के आरोप में गए जेल बेल पर है मालूम हो कि यह दुष्कर्मी भाजपा के टिकट पर एमएलसी है

* लालबाबू गुप्ता-भाजपा के एमएलसी हैं अपने ही दल के विधायक नीरज बबलू के पत्नी लोजपा एमएलसी के साथ बिहार विधान सभा में सरेआम किया छेखानी परिणामस्वरूप सदन में ही जमकर हुई लात घूसों से कुटाई ।

* भाजपा मुख्यालय के कार्यालय का नाली यूज़्ड कंडोम से मिला चॉक

* भाजपा नेता टिकट के लिए सीनियर लीडर के पास परोसता था अपनी बेटी का जिस्म,हत्या @ स्रोत-hindi.oneindia.com

* नारायण सांई :-अपने कुकर्मी पिता आशाराम की तरह कुकर्मो का बाजार सजा रखा था भाजपा का प्यारा था अब जेल में अपने पाप का हिसाब चूका रहा है।

* बीजेपी विधायक सौरभ श्रीवास्तव के लखनऊ आवास पर लड़की से बलात्कार  स्रोतwww.hindi.indiasamvad.co.in

* भाजपा नेता ने किया भतीजी से रेप पीड़िता ने खुद को जिंदा जलाया @स्रोत-

* साक्षी महराज :-भाजपा सांसद साक्षी अपनी शिष्या के साथ बलात्कार का आरोपी है ।

* ॐ स्वामी :- भाजपा नेता ॐ स्वामी का सेक्स वीडियो एवं चाल चरित्र सर्वविदित है ।

* मनोज तिवारी :- इनकी चाल चरित्र को देखते हुए पत्नी ने तालाक दे रखी है फ़िलहाल दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष हैं सांसद मनोज तिवारी ।

* नरेंद्र मोदी :-अपनी विवाहिता पत्नी को कभी साथ नही रखा ! पीएमओ के सुरक्षा में लगी महिला एसपीजी कमांडो रात में ड्यूटी करने से मना कर चुकी है  ! गुजरात में लड़की का जासूसी करने का भी आरोप लग चूका है !

* अमित शाह :- भाजपा सांसद सह अध्यक्ष का कार्यालय का नाली यूज़्ड कंडोम से चौक हो चूका है गुजरात में लड़की का जासूसी करने का आरोप भी सर्वविदित है

* स्मृति ईरानी :-बुरे वक्त में सहारा देने वाली सहेली मोना के पति जुबिन ईरानी को हाइजेक कर शादी करके मानवीय मूल्यों को शर्मसार किया है ।

* नीतीश कुमार :- अपनी विवाहिता को कभी उचित सम्मान नही दिया ! अर्चना और उपासना एक्सप्रेस की कहानी तो जगजाहिर है ।

* प्रवीण मांझी :- बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जित्तन राम मांझी के पुत्र हैं इनपर महिला कांस्टेबल से यौन शोषण करने का आरोप है मांझी भाजपा के सहयोगी हैं

* एन डी तिवारी :- एनडी तिवारी उस कुकर्मी का नाम है जिसने अपनी रसूख के बलपर उज्ज्वला का यौन शोषण किया जिससे उतपन्न नाजायज बेटा को पितृत्व अधिकार दिलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक को दखल देना पड़ा ।

* शुभाष बराला - हरियाणा भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के पुत्र है । आईएस की बेटी से छेड़खानी मामले में जेल में बंद है ।

* श्याम बहादुर सिंह :- भाजपाई का यार नीतीश का प्यार है नचनिया श्याम बहादुर बार बालाओं के साथ ठुमके लगाने के लिए जाना जाता है

* विधायक राजकिशोर केसरी-स्कूल संचालिका अनुपम पाठक एवं उसकी पुत्री के साथ यौन शोषण के आरोप में चाकू से गोद कर पीड़ित अनुपम पाठक ने विधायक की हत्या कर दी ।

* भीमानंद उर्फ राजीव रंजन द्विवेदी उर्फ इच्छाधारी। वो धर्मनगरी चित्रकूट से दिल्ली आया था पर महज 21 साल में 60 करोड़ का मालिक बन गया सेक्स रैकेट की बदौलत। इस ढोंगी बाबा भीमानंद को दिल्ली की एक अदालत ने 5 दिन के लिए पुलिस रिमांड पर भेज दिया है। अब पुलिस सेक्स माफिया भीमानंद से और राज उगलवायेगी। आश्रम से मिली एक सीडी से पता चला कि उसकी भजन संध्या में बीजेपी सांसद और पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद भी थे।

* लक्ष्मण सावदी :-भाजपा के कर्नाटक सरकार में सहकारी मंत्री हैं विधान सभा में मोबाईल पर ब्लू फ़िल्म देखते हैं

*  सीसी पाटिल :- भाजपा के कर्नाटक सरकार में महिला एवं बाल विकास कल्याण मंत्री हैं।विधान सभा में मोबाईल पर ब्लू फ़िल्म देखते हैं ।

बुद्ध ने घर क्यों छोड़ा?

🔥 🙏 !! बुद्ध ने घर क्यों छोड़ा?  
 ब्राह्मणवादीओ का झूठा प्रचार....... 🙏 🔥

नीच समझ जिस भीम को, देते सब दुत्कार |
कलम उठाकर हाथ में, कर गये देश सुधार ||१||

जांत-पांत के भेद की, तोड़ी हर दीवार |
बहुजन हित में भीम ने, वार दिया परिवार ||२||

🙏 !! धर्म वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत ब्राह्मणवादी लोगों ने मूलनिवासियों को मानसिक गुलाम बनाया है और जब तक मूलनिवासी धर्म को नहीं छोड़ेंगे तब तक ना तो मूलनिवासी समाज एक हो सकता है और ना ब्राह्मणवाद से मुक्त। !!
शायद मेरे कुछ भाई मेरी इस पोस्ट से मुझे गलत समझने लगेंगे। लेकिन यही सच है और हमे इस सच को स्वीकार करना ही पड़ेगा। 🙏   

👉 सवर्ण स्त्रियों में आजकल एक नया फ़ैशन है बुद्ध को गाली देकर स्त्री विरोधी बताने का, कि वो पत्नी को धोके से छोड़ गए थे।
जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने एक भयंकर युद्ध के ख़िलाफ़ अपने ही मंत्रिमंडल से बग़ावत कर युद्ध करने से इनकार कर दिया था,
तब उन्हें जबरन देश निकाला दे दिया गया था।

👉उनके देश निकाले की ख़बर से उनकी पत्नी और पिता बहुत शोकाकुल हुए, और उन्हें जाते वक्त राज्य की सीमा तक छोड़ने आये थे।

👉ब्राह्मणों ने इस कहानी में अपना विषाक्त मेरिट घुसेड़ते हुए उन्हें रात के अंधेरे में भगोड़ा साबित करने की सैंकड़ो किताबें लिख ड़ाली,
लेक़िन पुरातन ओरिजिनल स्क्रिप्ट और हज़ारों सालों पहले दीवारों पर उकेरे गयी तस्वीरों की कहानी से बुद्ध का सच स्पष्ट पता चलता है।

👉 इसी सच को पूरे रेफरेंस के साथ, जैसे के वैसे डॉ. आंबेडकरजी ने जब ‘बुद्ध एंड हिज़ धम्म’ में लिखा, तो ब्राह्मणों के होश फाख्ता हो गए और उन्होंने बुद्ध को बदनाम करने वाली किताबें, सबूतों के अभाव में छापना कम कर दिया।

👉यदि इन सो कॉल्ड सवर्ण फेमिनिस्टों को ब्राह्मणों के तथ्यहीन बुद्ध कहानी पर इतना ही भरोसा है तो ब्राह्मणों के दूसरे धुरंधर महाग्रंथ मनुस्मृति को भी आँख मुंद कर स्वीकार क्यों नही कर लेती, क्यों नही मानती कि वें नर्क का द्वार है, शुद्र है और मात्र ब्राह्मणवाद से भरी शुद्रो के उत्पीड़न करने का और उपभोग की वस्तु या ग्रन्थ है ?

👉रोहिणी नदी के जल बटवारे का विवाद (शाक्य व कोलिय राज्य के मध्य) जो युद्ध का रूप ले रहा था ,को रोकने के लिये बुद्ध को देश छोड़ने पडा।परिणामस्वरूप युद्ध टल गया।
बुद्ध ने सोचा कि थोडी अवधि के लिये देश छोड़ने से दो राज्यों में शान्ति आयी है तो उन्होंने विश्व शांति हेतु महाभिनिष्क्रमण का विचार किया।
परिणाम विश्व के सामने है।

👉मनुवादियों ने तथ्यों को तोडकर कहानियों को गढा है। इसका कारण यह है कि इनके द्वारा ही बौद्ध धर्म का विनाश किया गया परन्तु जन मानस की भावना को दृष्टिगत रखते हुए पूरा यू टर्न भी तो नहीं लिया जा सकता था अतः बुद्ध को विष्णु का नवां अवतार भी घोषित करना पडा।

👉कपिलवस्तू की संघ सभा मे सिद्धार्थ गौतम ने जो देशत्याग की घोषना की थी उसका पता माता यशोधरा को सिद्धार्थ के महल पहुँचने से पहले ही चल गया था।
महल पहुँचने के बाद यशोधरा से कैसे सभा की बाते और उनकी देशत्याग की घोषना के बारे मे खुलासा किया जाए यह सोचकर सिद्धार्थ स्तब्ध हो गए थे, की यशोधरा ने ही स्तब्धता को भंग करते हुए कहॉं, संघसभा मे आज जो कुछ भी हूआ उसका पुरा वृतांत मुझे मिल चुका है।
आपकी जगह मै होती तो मै भी कोलींयो के विरुद युद्ध मे सहभागी न होते हूए मै भी वहीं कदम उठाती जो आपने उठाया है।
मै भी आपके साथ प्रवज्या का स्वीकार करती, लेकीन “राहूल” की जिम्मेदारी की वजह से मै ऐसा नही कर सकती।

!! बुद्ध धर्म का सार “दी इन्सेंस ऑफ बुद्धिज्म” नामक किताब का हिंदी रूपांतर है। जिसमें बुद्ध धम्म को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है कृपया पाठकगण इस किताब को जरुर पढ़े और अन्य लोगों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित करे। !!

💐 बहुजन हिताए बहुजन सुखाये।।। 💐
 

संकल्प-दिवस

संकल्प-दिवस
 ( 23 सितम्बर )

*संकल्प के सौ साल*
 भारत के इतिहास व बहुजनों के लिए विशेष महत्व है | घटना 23 सितम्बर 1917 की है | इस घटना का गवाह बड़ौदा के कमेटी बाग में मौजूद वट वृक्ष है | कम से कम सौ साल पुराना वह वट वृक्ष भारत की इस निर्णायक घटना का मूक गवाह है | यह घटना आज के वक्त मे इसलिए महत्वपूर्ण है कि वर्ष 2017 में उस घटना के सौ वर्ष पूर्ण हो गये हैं |
बड़ौदा नरेश सर सयाजीराव गायकवाड़ ने एक प्रतिभाशाली, होनहार गरीब नौजवान को छात्रवृति देकर कानून व अर्थशास्त्र के अध्ययन करने हेतु लंदन भेज दिया | छात्रवृति के साथ अनुबंध यह था कि विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवक बड़ौदा रियासत को अपनी दस वर्ष की सेवाऐं देगा |
अध्ययन कर उच्च शिक्षा हासिल करने के उपरांत 28 वर्षीय वह युवक करार के मुताबिक अपनी सेवाऐं देने हेतु बड़ौदा नरेश के सम्मुख उपस्थित हुआ | बड़ौदा नरेश ने उस युवक को सैनिक सचिव के पद पर तत्काल नियुक्त कर लिया | एक सामान्य सी घटना आग की लपटों की तरह पूरी रियासत में फैल गयी | बस एक ही चर्चा चारों और थी कि बड़ौदा नरेश ने एक अछूत व्यक्ति को सैनिक सचिव बना दिया है |
विडम्बना यह थी कि इतने उच्च पद पर आसीन अधिकारी को भी मातहत कर्मचारी दूर से फाईल फेंककर देते | चपरासी पीने के लिए पानी भी नहीं देता| यहां तक की बड़ौदा नरेश के उस आदेश की भी अनदेखी कर दी गयी जिसमें जिसमें कहा गया था कि इस उच्च अधिकारी के रहने की उचित व्यवस्था की जावे | दीवान उनकी मदद करने से स्पष्ट ही इन्कार कर चुका था | इस उपेक्षा और तिरस्कार के बाद अब उन्हें रहने व खाने की व्यवस्था खुद ही करनी थी | किसी हिंदू लॉज या धर्मशाला में उन्हें जगह नहीं मिली | आखिरकार वह एक पारसी धर्मशाला में असली नाम छुपाकर एवं पारसी नाम एदल सोराबजी बताकर दैनिक किराये पर रहने लगे | लोगों ने धर्मशाला में भी उनका पीछा नहीं छोड़ा | उन लोगों ने जातिसूचक शब्दों से अपमानित किया व सामान बाहर फेंक दिया | बहुत निवेदन के बाद उस युवक को धर्मशाला खाली करने के लिए आठ घंटे की मोहलत दी गयी | चूंकि उस समय बड़ौदा नरेश मैसूर जाने की जल्दी में थे, अतः उस युवक को दीवान जी से मिलने की सलाह दी गयी लेकिन दीवान उदासीन बने रहे | विवश होकर उस युवक ने दुखी मन से बड़ौदा नरेश को अपना त्याग-पत्र सौंप दिया और रेल्वे स्टेशन पंहुचकर बम्बई जाने वाली ट्रेन का इंतजार करने लगा | ट्रेन चार-पांच घंटे विलम्ब से चल रही थी | अतः वह कमेटी बाग के वट वृक्ष के नीचे एकांत में बैठकर फूट-फूट कर रोया | रूदन सुनने वाला उस वृक्ष के अलावा कोई नहीं था|
"लाखों-लाख से योग्य, प्रतिभावान एवं सक्षम होकर भी वह उपेक्षित था | दोष केवल इतना था कि वह अछूत था | उसने सोचा कि मैं इतना उच्च शिक्षित हूं, विदेश में पढा हूं, तब भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है तो देश के करोड़ों अछूत लोगों के साथ क्या हो रहा होगा ?"
वो तारीख थी 23 सितम्बर 1917 थी |
जब आंसू थमे तो उस युवक ने एक विराट संकल्प लिया कि----
" अब मैं अपना पूरा जीवन इस देश से छुआछूत निवारण और समानता कायम़ करने के कार्य करने में लगाऊंगा तथा ऐसा न कर पाया तो स्वयं को गोली मार लूंगा |"
यह एक साधारण संकल्प नहीं था बल्कि महान संकल्प था, न तो यह संकल्प साधारण था न ही इसको लेने वाला व्यक्ति खुद साधारण था |
बड़ौदा के कमेटी बाग के उस वट वृक्ष के नीचे असाधारण संकल्प लेने वाला व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि देश का महान सपूत व महान विभूति बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर थे | बाबा साहब के इस संकल्प से उपजे संघर्ष ने भारत के करोड़ों लोगों के जीवन की दिशा बदल दी | कहा जाता है कि दीप राग से ज्योति जल उठती है, व बुझे दीपक में प्रकाश आ जाता है | बाबा साहब का पूरा जीवन दीपरागमय रहा | उन्होंने सनातन, आडम्बरवादी सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं के विरूद्ध संघर्ष किया व उत्पीड़ित लोगों को जीने का नया रास्ता दिखाया |
आज उसी सम्यक संकल्प के शताब्दी वर्ष में हम सब भी मिलकर संकल्प लें कि असमानता व अन्याय का हम समन्वित प्रतिरोध/प्रतिकार करेंगे |
आज संकल्प दिवस पर बाबा साहब के विराट संकल्प को सलाम करते हुए महामानव को कोटिशः नमन |
जय भीम !
नमो बुद्धाय !!

कौन है अनादिकाल से गाय और भैंस के सेवक ?????

*📮 महिषासुर की हत्या पर जश्न 📮*
                    *क्यों❓*
कौन है अनादिकाल से गाय और भैंस के सेवक  ?????
*महिषासुर से इस देश के शोषित लोगों का खून का रिश्‍ता है,

वे हमारे पूर्वज हैंं*

   *❣महिषासुर और दुर्गा का ❣*
                      *मिथक*
महिषासुर बंग प्रदेश के महाप्रतापी राजा थे. बंग प्रदेश अर्थात गंगा युमुना के दोआबा में बसा हुआ उपजाऊ मैदान जिसे आज बंगाल, बिहार और उड़ीसा मैसूर के नाम से जाना जाता है. आर्यों ने जब बाहर से आक्रमण किया तो उनका सबसे पहला निशाना उपजाऊ जमीन ही थी. आर्यों में भंडारण की प्रवृति सबसे ज्यादा थी. कृषि आधारित समाज में भूमि का वही महत्व था जो आज ऊर्जा के स्रोतों का है. आर्य इस प्रदेश पर कब्जा जमाना चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने कई बार हमले किए परंतु प्रत्येक बार उन्हें राजा महिषासुर की संगठित सेना से हारना पड़ा था.

*तब आर्यों ने छल कपट से “दुर्गा” नामक एक नृत्यागंना को राजा के दुर्ग में प्रवेश करा दिया*

महिषासुर का प्रण था कि वह महिलाओं पर हाथ नहीं उठाएंगे और पशुओं का वध नहीं करेंगे क्योंकि वे स्वयं पशुपालक समाज से थे. परंतु यही मानवीय गुण ही महिषासुर की कमजोरी बन गया.

*दुर्गा को राजा महिषासुर की हत्या करने में नौ दिन लगे. इन दिनों में देवता/ आर्य महिषासुर के किले के चारों तरफ जंगलों में भूखे-प्यासे छिपे रहे. जिसके कारण दुर्गा को मानने वाले लोगों में आठ दिनों के व्रत-उपवास का प्रचलन है. आठ दिनों तक दुर्गा महिषासुर के किला में रही और और नौवे दिन उसने द्वार खोल दिये जिससे सारे आर्य उनके किला में प्रवेश करने में सफल हो गए और सबों ने मिलकर महिषासुर की हत्या कर दी. महिषासुर की हत्या को आज तक वध कह कर न्यायसंगत ठहराया जाता रहा परंतु वह एक प्रतापी राजा की नृशंस हत्या थी.*

*असुर कौन थे ???????❓*
असुर शब्द से भयानक और विकराल मनुष्‍येत्तर तस्वीर सामने आती है.
असुर, राक्षस, दानव ,दाना ,दैत्य आदि उपनामों से जाने वाले असुर भी मनुष्‍य ही थे. इस सत्य को आज तक छुपाया जाता रहा है. ‘असुर यानी जो सुर नहीं हैं.

सुर अर्थात कामचोर जो काम नहीं करते थे और असुर अर्थात जो सुर नहीं थे और काम करके अपना भरण पोषण करते थे और करते हैं, देश के श्रमजीवी लोग.

*दरअसल इस देश के शोषित वर्ग जिन्हें संवैधानिक भाषा में एसटी, एससी और ओबीसी कहा जाता है और जिन्हें हिन्दू धर्म ने शूद्र और अछूत की संज्ञा दी है, इन सभी लोगों का पौराणिक नाम असुर है.*

झारखंड में आज भी असुर नाम की एक आदिवासी जाति पाई जाती है जो आज भी महिषासुर और अन्य असुरों को अपना पूर्वज मानते हुए उनकी पूजा करती है.

*दरअसल महिषासुर की हत्या के पीछे संसाधनों की लड़ाई ही है. उनकी हत्या के बाद बंग प्रदेश के उपजाऊ भूमि पर आर्यों का कब्जा हो गया और उनकी प्रजा को गुलाम बना लिया गया. आज पिछड़ों की दीनदशा का कारण ही उनके नायक की हत्या के परिणामस्वरूप उनकी गुलामी ही है.*

❣👉 कर्नाटक में मैसूर से 15 KM दूर चामुन्डा हिल पर महाराजा *महिषासुर* की विशाल प्रतिमा आज भी प्रतिष्ठापित है,जिसके दर्शन करने दूर दूर से लोग उमड़ते हैं. 👇👇👇👇

        *महा पुरूष महिषासुर को*
   *🌹🙏कोटि कोटि नमन🙏🌹*


जिन 9 देवियों के लिए नवरात्रा मनाये जाते हैं उनके बारे में क्या जानते हैं आप ?
     अब ध्यान देने वाली बात यह है कि आखिर ये 9 देवियों का राज क्या है ?

     विदेशी आर्यों का सन 2001 में डी एन ए जाँच हुआ था एवं इनका डी एन ए 99.99 प्रतिशत मूल निवासियों से मिलान नहीं किया बल्कि यूरेशियन लोगों से मैच किया लेकिन इन विदेशी लोगों के घरों में जो महिलाएं हैं उनका डी एन ए 100 प्रतिशत मूल निवासियों के डी एन ए से मैच कर गया, इसका सीधा सा अर्थ यह है कि विदेशी आर्य लोग अपने साथ में सिर्फ 9 महिलाओं को लेकर आये थे, यह एक लड़ाकू कोम थी और इन्होंने तलवार के बल पर हमारी महिलाओं को हमसें छिना था, तभी तो यह लोग अपने घरों की महिलाओं को पढ़ने का अधिकार नहीं दिया बल्कि उनकी तुलना भी ढोल, शुद्र और पशु के साथ की है।

     इन 9 देवियों के हाथों में हथियार दिखाये गये हैं और कई देवियों के गले में नर मुंडियों की माला पहनी हुई दिखाई गई है और कई देवियों को राक्षशों का वध करते हुए दिखाया गया है, इन सब का राज यह है कि ये विदेशी आर्य लोग जिन 9 महिलाओं को अपने साथ लेकर आए थे वे कि हथियार चलाने और लड़ाई लड़ने में निपुण थी उन्होंने मूल निवासियों की रक्षा करने वाले रक्षकों को मौत के घाट उतारने में कोई कोर कसर नहीं रखी थी, हमारे उन रक्षकों को इन विदेशियों ने राक्षस नाम देकर नफरत फैलाने का काम किया, जबकि पूरी दुनिया में कहीं भी राक्षस नाम का कोई जीव नहीं पाया जाता है, कहने का तात्पर्य यह कि जिनकी ये देवियाँ तलवार और खंजरों से हत्या कर रही हैं वे कोई और नहीं बल्कि हमारे रक्षक मूल निवासी पूर्वज ही हैं।

इन 9 हत्यारिणी विदेशी आर्य महिलाओं को इन लोगों ने विद्या की मालकिन अर्थार्त विद्या की देवी, धन की मालकिन अर्थार्त धन की देवी, अन्न की देवी, सुख स्मृद्धि की देवी इत्यादि के नाम से पूजवाया गया है।
     इन आर्यो का पूरा ध्यान इन 9 विदेशी लड़ाकू महिलाओं के इर्द गिर्द ही घूमता रहता है और इन्हीं के जगह जगह मंदिर बनाये गये हैं, जबकि वास्तविक विधा की देवी मूल निवासी महिला सावित्री बाई फुले का ये लोग नाम तक लेना पसन्द नहीं करते हैं लेकिन लोग अपना दिमाग लगाने को तैयार नहीं हैं और अपने ही पूर्वजों की हत्यारिनों की पूजा अर्चना कर रहे हैं और नवरात्रा मना रहे है



��महिषासुरमर्दिनी दुर्गा का इसली इतिहास हमसे क्यों छिपाया जाता है????��
��महिषासुर यादव वंश के राजा थे । जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी दिल्ली (JNU) में वर्ष 2011 से महिषासुर परिनिर्वाण दिवस मनाने का क्रम जारी होने से
देशभर में एक बहस की शुरूआत हुई है।
HYDERABAD UNIVERSITY में भी BAHUJAN STUDENT FRONT (BSF) महिषासुर परिनिर्वाण दिवस मनाता है।
��महिषासुर से बरसों लड़ने
के बाद जब आर्य(ब्राम्हण) राजा इंद्र परास्त कर पाने के बजाय परास्त होकर भाग खड़ा हुआ तो आर्यो ने छल बल का सहारा लिया और आर्य(ब्राम्हण-विषकन्या)कन्या दुर्गा को महिषासुर के पास भेजकर महिषासुर का दिल जीतकर उसे मारने की रणनीति बनाई इसी रणनीति के तहत आर्य(ब्राम्हण) कन्या दुर्गा ने भिन्न मोहक रूपों एवं अदाओं से महिषासुर (मूलनिवासी बहुजन राजा) जैसे प्रतापी राजा को अपनी रणनीति के तहत फँसाया और दिल जीतकर एवं इतिहासकार डी॰डी॰ कौशम्बी के मतानुसार गवलियों (यादवों) के पुरूष देवता महिषासुर एवं खाद्य संकलन कर्ताओं की मातृदेवी (दुर्गा) का विवाह हो गया। गवलियों से आशय यादवों एवं अनार्यो (मूलनिवासी बहुजन)से है। जबकि खाद्य संकलन कर्ता से आशय आर्यो (ब्राम्हणों)से है। इतिहासकार भगवत शरण उपाध्याय ने कहा है कि हम ब्राह्मण(आर्य) भारत भूख से आहार की तलाश में चले थे इसी प्रक्रिया के तहत दुर्गा ने महिषासुर का विश्वास जीतकर महज दस दिनों में धोखे से मार ड़ाला।
��इस देश के मूलनिवासी असुर यादव राजा के कुल खानदान, माता-पिता का नाम, ब्राह्मण एवं आर्य इतिहासकारों केही मुताबिक ज्ञात है लेकिन आर्य इतिहास में दुर्गा की
उत्पत्ति बड़ा दिलचस्प है।
दुर्गा के माता-पिता, कुल-खानदान का कोई अता-पता नहीं है। दुर्गा को शिव, यमराज, विष्णु, इन्द्र, चन्द्रमा, वरूण,पृथ्वी, सूर्य, ब्रह्मा वसुओं कुबेर, प्रजापति, अग्नि,सन्ध्या, एवं वायु आदि के विभिन्न अंशों से उत्पन्न कर अन्यान्य देवताओ से अस्त्र-शस्त्र दिलवाया गया है।
कोई धर्म भीरू अवैज्ञानिक सोंच का व्यक्ति ही इन बातों को स्वीकार कर सकता है।
��दुर्गा पूजा का जोरदार चलन कोलकाता एवं पश्चिम बंगाल में है। मै 1977 से 1982 तक कोलकाता में ही रहा और पढ़ा हूँ। मैने कोलकाता का दुर्गापूजा बारीकी से देखा है। कोलकाता में दुर्गा प्रतिमा बनाने वाले कारीगर वेश्यालय से थोड़ी मिट्टी जरूर लाते है। इस प्रक्रिया का सजीव चित्रण ”देवदास“ फिल्म में भी किया गया है।
वेश्याऐं दुर्गा को अपनी कुल देवी मानती हैं।�� इसलिए दुर्गा प्रतिमा बनाने में वेश्यालयों से मिट्टी लाने का चलन है।
(कोलकाता,पश्चिम बंगाल विदेशी ब्राम्हणों का प्रतिक्रांति का केंद्र भी था। सत्य शोधक आंदोलन से भी बड़ा मतुआ धर्म आंदोलन यहीं से नष्ट कर दिया गया था। हमें महात्मा फुले जी सत्यशोधक आंदोलन पता है लेकिन हम मतुआ धर्म आंदोलन के बारे में आज भी नहीं जानते.ब्राम्हणों ने कितनी सफाई से इसे नष्ट किया.किसी को खबर तक नहीं...सबको ब्राम्हण दुर्गा बराबर पता है��
यह दुर्गा etc कहाँ से आ टपकी? कहीं ये ब्राम्हणीकरण इसलिए तो नहीं किया गया था ना???
मूलनिवासी बहुजनों के ये दोनों आंदोलन विदेशी ब्राम्हणों और उनकी व्यवस्था के विरुद्ध किये गए आंदोलन थे।)
��असुर होने एवं आर्यो द्वारा इतिहास लिखने के बावजूद महिषासुर के कुल-खानदान का पता चलता है लेकिन आर्यपुत्री(ब्राम्हण) होने के बावजूद दुर्गा के कुल-खानदान का पता नहीं है। गुण एवं लक्षण के आधार पर मेरे जैसा दो-दो विषयों से परास्नातक शिक्षक महिषासुर को यादव मान रहा है तो निश्चय ही वेश्याओं द्वारा दुर्गा को कुल देवी मानने के पीछे एक बहुत बड़ा राज छिपा होगा जो सदियों से चला आ रहा है। ��
दुर्गा और महिषासुर की गाथा आर्यो द्वारा हजारों वर्ष पूर्व छल पूर्वक अपनी संस्कृति थोपकर हमें गुलाम बनाने की कहानी का एक हिस्सा है जिस पर पढ़े-लिखे पिछड़े(OBC) एवं दलितों को व्यापक पैमाने पर शोध करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए तथा परम्परावादी बनकर सड़ी लाश को कंधे पर ढ़ोने की बजाय उसे दफन कर एक नई सभ्यता और संस्कृति विकसित करनी चाहिए जो कमेरों की पक्षधर हो।
��भारत में ब्राम्हणों के नवरात्री उत्सव में कंडोम की बिक्री सबसे जादा होती है। ऐसा मिडिया के कुछ सर्वे द्वारा सामने आया है।
�� महिषासुर अगर इतना ही बलवान था तो एक औरत के हाथों कैसे मारा गया ????
पुरूषों की सबसे बड़ी कमजोरी औरत ही होती है ,अतः औरत चाहे तो बड़े -बड़े महाबली को क्षणभर में ही काल के गाल में भेज सकती है ।ये अलग बात है
कि महिषासुर को मारने में नौव दिनों या दस दिनों का समय लगा । राजा शंकर,महिषासुर जैसे और भी मूलनिवासी महापुरुषों को मारने के लिये ब्राम्हणों ने औरतों याने "विषकन्याओं" का सफल उपयोग/प्रयोग किया है और करते हैं।
��मूलनिवासी बहुजन राजा महिषासुर विनाशनी ब्राम्हण दुर्गा के प्रचंड भक्त हैं। ये पिछड़े(OBC) दलित नौ दिन नवरात्र व्रत से लेकर हवन, पूजन बलि दुर्गा मूर्ति स्थापना आदि में लाखों-लाख रुपयों का वारा-न्यारा कर रहें हैं। ये कमजोर वर्ग के लोग दुर्गा को शक्तिशाली मानकर नवरात्र में पूरे मनोयोग से पूजा कर रहें हैं और ये उम्मीद लगाते हैं कि महान बलशाली महिषासुर को मारने वाली दुर्गा प्रसन्न होकर इन्हें प्रतापी बना देगी।��(जो राजा इनका ही पूर्वज है।)इसी उम्मीद में देश का सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा(OBC) तबका अपना पेट काटकर शक्ति की प्रतीक दुर्गा(ब्राम्हण विषकन्या) की आराधना में लगा हुआ हैं। वह इस पर विचार नहीं करता है कि सुर-असुर संग्राम(ब्राम्हण-राक्षस/मूलनिवासी बहुजन) अर्थात आर्य-अनार्य संग्राम में आर्य संस्कृति (ब्राह्मणवाद) के घोर विरोधी महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा ने प्रकारान्त से हम पिछड़ो को अपना सामाजिक एवं सांस्कृतिक गुलाम बनाने के लिए हमारे पूर्वज महिषासुर की हत्या छल पूर्वक किया था..
ब्राम्हणों की मूलनिवासी बहुजनों से आमने सामने की लढाई छोड़ ही दो,उनकी छल-कपट तक ही मर्दानंगी रहती है। आखिर में वो ब्राम्हण विषकन्याओं का ही प्रयोग करतें है

जागरूकता अभियान
   
             *आकाश महिषासुर* 


ऐतिहासिक दृष्टि में #दुर्गापूजा ।

#दुर्गापूजा पठान युग में आरम्भ हुआ।
पठान युग के आरंभिक काल में बरेंद्रभूमि अर्थात उत्तरी बंगाल में राजशाही जिले के राजा थे ।उनका नाम था कंसनारायन राय।वे बहुत बड़े जमींदार थे ।उन्होंने अपने समय के पंडितो को बुलाकर कहा कि मै राजसूय या अश्वमेध यज्ञ करना चाहता हूँ ,ताकि लोगो को पता चले कि मेरे पास कितना धन व ऐश्वर्य है और मैं दोनों हाथो से दान करूँगा ।यह सुनकर पंडितों ने कहा कि "इस कलयुग में अश्वमेध ,राजसूय यज्ञ नहीं हो सकते इस कारण #मार्कण्डेय पुराण में जो #दुर्गापूजा की कहानी है ; #दुर्गोत्सव की कहानी है , उसमे भी बहुत खर्च किया जाता है । आप भी #मार्कण्डेय पुराण की ही दुर्गा पूजा कीजिए ।
उस समय राजा कंसनारायन राय  ने #सात लाख स्वर्ण मुद्राओ का व्यय करके पहली बार #दुर्गापूजा की थी ।
उसके बाद रंगपुर जिला के एकताकिया के  राजा  जगद्बल्लभ ने साढ़े आठ लाख स्वर्णमुद्राओं व्यय करके और भी बड़ी धूम के साथ #दुर्गापूजा की ।

उन्हें देखकर भी अन्य जमीदारो ने भी अपने बड़ी धूम -धाम से #दुर्गा पूजा आरम्भ किया ।इस तरह हर-एक जमींदार के घर में दुर्गापूजा का आरम्भ हुआ ।उसी समय में हुगली जिले के  बालगढ़ थाने में  बारह मित्रो ने मिलकर पूजा किया जिसे 'बारह यारी '  पूजा कहा गया । इस प्रकार यह सार्वजनिक रूप से मानाने लगा ।
#दुर्गा एक पौराणिक देवी है ।जो काल्पनिक है। इसकी  कहानी #मार्कण्डेय पुराण में है ,जिसकी रचना तेरह सौ वर्ष पूर्व पौराणिक शाक्ताचार के समय हुआ ।
श्री श्री Anandmurti ji की पुस्तक 'नमः शिवाय शान्ताय " से ।
 

!!!दीपावली पर षढयंत्र!!!

!!!दीपावली पर षढयंत्र!!!
 
एक लाख का इनाम यदि कोई ब्राह्मण सिद्ध कर दे कि दशहरे के दिन रावण मारा गया था और राम दीपावली को अयोध्या वापिस आया था ।
एक बार भंते सुमेधानंद दीपावली के समय पर बाजार में एक दुकान पर बैठे हुए थे । बाजार में  दुकानों पर बहुत भीड़ थी । भंते जी ने उस दुकानदार से पूछा कि दुकानों पर आज इतनी  भीड़ क्यों है । दुकानदार ने बताया कि भंते जी कल दीपावली है , इसलिए दुकानों पर भीड़ अधिक है । भंते जी ने उस दुकानदार से पूछा कि ये दीवाली का त्यौहार क्यों मनाया जाता है ? दुकानदार ने वहाँ बैठे पंडित को इशारा करते हुए कहा कि हे भंते जी ये पण्डित जी बतायेंगे । उस ब्राह्मण ने भंते जी को बताया कि दीवाली के दिन भगवान राम वनवास से वापिस आये थे , उस ख़ुशी में दीवाली का त्यौहार मनाया जाता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप मनगढ़ंत कहानियों से भारत के आस्थावादी लोगों को खूब मूर्ख बनाते हैं ।
ब्राह्मण - हे भंते ! कैसे ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! कभी तुम राम के नाम पर दीपावली की मनगढ़ंत कहानी रचते हैं , कभी तुम सबरी के राम द्वारा झूठे बेर खाने का पाखण्ड रचते हैं , कभी सोने की लंका का पाखण्ड रच कर लोगों को मूर्ख बनाते हैं ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इसमें क्या गलत है , राम दीपावली के दिन ही वनवास से वापिस आये थे ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपकी किसी भी रामायण में लिखा है कि राम दीपावली के दिन वन से वापिस आये थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा किसी भी रामायण में नही लिखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपकी किसी भी रामायण में लिखा है कि राम ने सबरी के झूठे बेर खाये थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा किसी भी रामायण में नही लिखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप लोग फिर मनगढ़ंत बातों से लोगों को दिग्भ्रमित क्यों करते हैं ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ये आस्था का सवाल है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आस्था के पाखण्डों से लोगों को मूर्ख बनाना अधर्म नही है । आपको अपने ग्रंथों के सम्बंध में ज्ञान है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! अच्छा ज्ञान है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! राम का जन्म तुम कब मनाते हैं ।
ब्राह्मण - हे भंते ! राम का जन्म चैत्र माह में नवमीं को मनाते हैं।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! वनवास के समय राम की आयु 17 वर्ष की थी , क्या आपको पता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! मुझे मालूम नही है , परन्तु आपको कैसे पता ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! राम वनवास के समय  कौशल्या ने राम से कहा कि बेटा तेरे जन्म से आजतक इन सत्तरह वर्षों में कैकेयी से मैंने बहुत दुःख झेले हैं , यदि तुम न होते तो मैं मर जाती । वाल्मीकि रामायण
ब्राह्मण - हे भंते ! इससे क्या सिद्ध होता ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ था और चौदह वर्ष के बाद अपने जन्म दिन चैत्र नवमीं के बाद ही वन से वापिस लौटे थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ये कैसे प्रमाणित होता है कि राम चैत्र माह के बाद अर्थात मई माह में वन से वापिस आये थे ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! पंचवटी से सीता का अपहरण कितने वर्ष बाद हुआ था ?
ब्राह्मण - हे भंते ! वनवास के 13 वर्ष बाद और वन से आने से एक वर्ष पूर्व ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप कैसे जानते हैं ?
ब्राह्मण - हे भंते ! जब सीता रावण के साथ जा रही थी , तब सीता ने रावण को कहा था कि मुझे वन में रहते 13 वर्ष हो गए हैं ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! ऐसा कौनसी रामायण में लिखा है ?
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा वाल्मीकि रामायण में लिखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! सीता का अपहरण चैत्र महीने के बाद ग्रीष्म ऋतु में हुआ था ।
ब्राह्मण - हे भंते ! यह कहाँ लिखा है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जब राम और लक्ष्मण सीता की खोज करते हुए सुग्रीव के पास पहुँचे तो उस समय ग्रीष्म ऋतु का समय था ।
ब्राह्मण - हे भंते ! यह कैसे प्रमाणित होता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! यह आपकी तुलसीकृत रामायण से प्रमाणित होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा तुलसीकृत रामायण में कहाँ लिखा है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! यह किष्किन्धाकाण्ड के पृष्ठ संख्या - 597 पर लिखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इस सम्बंध में क्या लिखा है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! तुलसीदास ने लिखा है -
गत ग्रीषम बरषा रितु आई । रहिहुँ निकट सैल पर छाई ।। अर्थात - हे सुग्रीव ! ग्रीष्म ऋतु बीतकर वर्षा ऋतु आ गयी । अतः मैं पास के पर्वत पर ही रहूँगा ।
ब्राह्मण - हे भंते ! फिर हनुमान सीता की खोज में लंका कब गए थे ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! हनुमान सीता की खोज में अक्टूबर अर्थात कार्तिक महीने के आरम्भ में लंका गया था ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ये कैसे ज्ञात हुआ ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! तुम अपने आपको बड़े बुद्धिमान समझते हैं और आपको अपने ग्रंथों के सम्बंध में कुछ भी ज्ञान नही है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! कैसे ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! तुलसीकृत रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के पृष्ठ संख्या - 602 पर साफ साफ लिखा है कि-
बरषा गत निर्मल रितु आई । सुधि न तात सीता की पाई ।। अर्थात - हे लक्ष्मण ! वर्षा ऋतु बीत गई , निर्मल शरद ऋतु आ गयी , परन्तु अभी तक सुग्रीव ने सीता की खबर की कोई व्यवस्था नही की है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! बिल्कुल सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! सीता की खोज में हनुमान कार्तिक माह की शरद पूर्णिमा को लंका में पहुंचा था ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा कहाँ लिखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! ऐसा वाल्मीकि रामायण के पृष्ठ संख्या - 527 सुन्दरकाण्ड दूसरा सर्ग के श्लोक - 57 में लिखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इसका तात्पर्य है कि दीपावली पर राम का वन से आना एक पाखण्ड है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप बिल्कुल सही पकड़े हैं । हनुमान सीता की खोज खबर लेकर एक महीने बाद आधे आश्विन में वापिस लौटा था अर्थात 15 नवम्बर के आस पास ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ये कैसे प्रमाणित होता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! यह तुलसीकृत रामायण के पृष्ठ - 605 पर चौपाई 4 में लिखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इसके बाद राम को लंका पर फतह करने में कितना समय लगा ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपकी रामायण के अनुसार राम रावण युद्ध 6 महीने चला था ।
ब्राह्मण - हे भंते ! वन से राम अयोध्या वापिस कब लौटे ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! राम चैत्र महीने के बाद वन से वापिस लौटे थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! उस समय बहुत गर्मी होगी ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जब राम अयोध्या वापिस लौट रहे थे तो भरत ने मजदूरों को आदेश दिया था कि सम्पूर्ण रास्ते और उसकी आस पास की जमीन पर बर्फ के समान ठण्डा पानी छिड़क कर भूमि को बिल्कुल ठण्डा कर दो ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा आदेश कहाँ लिखा है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! ऐसा आदेश वाल्मीकि रामायण के पृष्ठ संख्या - 873 युद्धकाण्ड के श्लोक 7 में है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! उस रास्ते से राम को अयोध्या पैदल लाते समय  छाते की भी आवश्यकता हुई होगी ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जब राम पैदल पैदल अयोध्या आ रहे थे , तब कुछ नौकर राम के ऊपर सफेद रंग का छाता लेकर चल रहे थे और कुछ हाथ के पंखे से हवा करते हुए चल रहे थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! रामायण में ऐसा वर्णन कौनसी जगह है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! ऐसा वर्णन वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के पृष्ठ संख्या - 873 के श्लोक 19 में है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इसका तात्पर्य है कि राम वैशाख अर्थात मई महीने में वापिस आये थे ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जब राम अयोध्या वापिस आये , तब गगन में इतनी धूल छा गई कि गगन से धूल की वर्षा होने लगी ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इससे क्या तात्पर्य है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! इससे सिद्ध होता है कि उस समय ग्रीष्म ऋतु थी ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा कहाँ लिखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! ऐसा वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के पृष्ठ संख्या 874 के श्लोक 29 में लिखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में सभी वृक्ष फल फूलों से लदे रहते हैं ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जब राम की सेना राम के साथ अयोध्या की तरफ बढ़ रही थी , उस समय सभी मीठे फलदार वृक्ष फल फलों से आच्छादित थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ऐसा कहाँ लिखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! ऐसा वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड में पृष्ठ संख्या - 874 के श्लोक संख्या - 26 में लिखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इससे क्या सिद्ध होता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! इन सभी कथनों से सिद्ध होता है कि जब राम अयोध्या वापिस आये , उस समय वैशाख का महीना था ।
ब्राह्मण - हे भंते ! जब राम वैशाख में आये तो दीपावली का त्यौहार राम के वन से वापिस आने की ख़ुशी में क्यों मनाया जाता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! बुद्धिस्ट लोगों के त्यौहारों को नष्ट करने के लिए आप लोगों ने उनके सभी त्यौहारों का हरण कर लिया ।
ब्राह्मण - हे भंते ! दीपावली का त्यौहार बुद्धिस्ट लोगों द्वारा क्यों मनाया जाता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! तथागत बुद्ध ने उपदेश के रूप में 84 हजार गाथाएं गायी थी , उन गाथाओं को सम्यक रूप देने के लिए सम्राट अशोक ने पूरे देश में 84 हजार स्तूप बनवाये थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इससे दीपावली का क्या सम्बंध है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! कार्तिक की अमावस्या की रात देश के समस्त 84 हजार स्तूपों पर एक ही समय पर सभी बौद्ध भिक्षुओं द्वारा दीपदान किया था।
ब्राह्मण - हे भंते ! सम्राट अशोक द्वारा ये ही दिन क्यों चुना था ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! बौद्ध भिक्षुओं का वर्षावास शरद पूर्णिमा को समाप्त होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इसका क्या तात्पर्य है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! उस समय वर्षावास समाप्त होने के उपरांत सभी बौद्ध भिक्षु अपनी व्यस्तता से स्वतंत्र हो गए थे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सभी बौद्ध भिक्षु अमावस्या की अँधेरी रात में सभी स्तूपों पर एक साथ दीपदान कर सकें , इसलिए सम्राट अशोक ने अमावस्या का ये दिन चुना था ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपने बिल्कुल सत्य कहा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! शरद पूर्णिमा मनाने का क्या तात्पर्य है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! वर्षावास समाप्त होने पर बौद्ध उपासकों द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को खाने के लिए अपने निवास पर आमन्त्रित कर उनका स्वागत खीर से किया जाता था , उस दिन से शरद पूर्णिमा का त्यौहार मनाया जाता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! हम लोग शरद पूर्णिमा के दिन सुन्दरकाण्ड करते हैं ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप लोगों द्वारा बुद्धिस्टों के सभी त्यौहारों का हरण करके अपनी भगवान रूपी दुकानदारी में बदल दिया ।
ब्राह्मण - हे भंते ! आपने सौ आना सिद्ध कर दिया कि दीपावली और शरद पूर्णिमा बुद्धिस्टों के त्यौहार हैं , इन पर हम लोगों द्वारा अवैध कब्जा कर रखा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप लोगों द्वारा बुद्धिस्टों के त्यौहारों का दुरूपयोग करके पाप कर्म किया है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इन पाप कर्मों से मुक्ति कैसे मिलेगी ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप देश की सम्पूर्ण जनता के साथ इस दीपावली को भगवान बुद्ध , सम्राट अशोक और बाबा साहेब अम्बेडकर की सम्पूर्ण विधि विधान के साथ वंदना करके मनाने से आपको अपने पाप कर्मों से मुक्ति मिलेगी ।
ब्राह्मण - हे भंते ! अब मैं हर दीपावली को भगवान बुद्ध , सम्राट अशोक और बाबा साहेब की वंदना के साथ ही मनाऊंगा ।
श्रमण
 - हे बुद्धिमान ब्राह्मण ! आपका कल्याण हो ।
भारतीय समाज को मूर्ख बनाने वाली रामायण कथा ।

मुसलमान ना होते तो हिन्दु भी ना होते

अगर मुसलमान ना होते तो हिन्दु भी ना होते,

यकीन ना हो तो मुसलमानों के भारत में आने से पहले के शास्त्र देख लो,

कहीं हिन्दु शब्द था ही नहीं,

हम क्षत्रीय, ब्राहमण, शूद्र, शैव, वैष्णव, गोंड, भील, बौद्ध, जैन थे,

लेकिन कोई भी हिन्दु नहीं था,

आज भी कोई हिन्दु नहीं है,

कल्पना कीजिये अगर भारत में मुसलमान ना रहें,

और दलितों का आरक्षण समाप्त कर दिया जाय,

तो क्या सवर्ण जातियां दलितों को पूरी मज़दूरी देने लगेंगी ?

क्या दलितों की पिटाई और उनकी बस्तियां जलाना बन्द हो जायेगा,

क्या सवर्णों की लड़कियां  दलित युवकों से प्रेम विवाह करेंगी तो सवर्ण लोग राष्ट्र एकता के वास्ते उसे खुशी खुशी स्वीकार करेंगे ?

नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा ?

बस यही होगा कि तुम्हारी फर्जी श्रेष्ठता का घमंड जो मुसलमानों से नफरत की गन्द में मजा ले रही है,

मुसलमानों की बजाय दलितों से नफरत में मजा लेने लगेगी,

लेकिन घबराओ मत, सिर्फ तुम ही इस बीमारी से पीड़ित नहीं हो,

गोरा काले से खुद को श्रेष्ठ मानता है,

शिया सुन्नी से सुन्नी शिया से,

कैथोलिक प्रोटेस्टेंट से,  यूरोपियन अफ्रीकी से,  खुद को श्रेष्ठ मानता है,

यह बीमारी इतनी ज्यादा है कि हम जो ब्राह्मण है वह अपने से अलग तरह के ब्राह्मणों को अपने से नीच मानते हैं,

जैसे हम सनाढ्य है तो हम कान्यकुब्ज मैथिल सारस्वत उत्कल बंग सभी ब्राह्मणों को अपने से नीच मानते हैं,

तो यह जो अपने को ऊंचा मानने की बीमारी है इसका कोई अंत नहीं है,

इसलिए हे मूर्ख हिंदुओं,

अपनी बीमारी को पहचान लो और मुसलमानों, ईसाईयों और दलितों से नफरत करना बंद कर दो और इंसान बन जाओ,

आत्मा का अस्तित्व एक पाखण्ड

आत्मा का अस्तित्व एक पाखण्ड ।
एक बार भंते सुमेधानंद एक व्यक्ति के मृत्यु शोक में बैठे हुए थे और भी काफी लोग वहाँ विराजमान थे । उनमें एक ब्राह्मण भी वहाँ बैठा हुआ था । वहाँ उपस्थित लोगों में ब्राह्मण कह रहा था , बेटा आत्मा तो अजर अमर है , वह एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है , जैसे हम पुराने कपड़े को उतार कर फेंक देते हैं और नया कपड़ा पहन लेते हैं , उसी प्रकार आत्मा मात्र शरीर बदलती है , इसलिए शोक करना व्यर्थ है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपने या आपके किसी पूर्वज ने आत्मा को देखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि उसको न तो पानी से धो सकते हैं और न ही तलवार से काट सकते हैं ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! कार्बन डेटिंग द्वारा डीएनए जांच से पुष्टि हुई है कि आज से लगभग 400 करोड़ वर्ष एक कोशीय जीव की रचना से सम्पूर्ण सजीव जगत की रचना हुई है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! ये पुष्टि कैसे होती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! डीएनए की जांच से ये पुष्टि हुई है । एक कोशीय जीव बाद में डीएनए के रूप में परिवर्तित हो गया ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! उस समय भगवान ने आत्मा की रचना की होगी , जिससे उस एक कोशीय जीव की रचना हुई होगी ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! लेकिन हम डीएनए जांच से पुनर्जन्म की पुष्टि कर सकते हैं ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! वह कैसे कर सकते हैं ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जो मनुष्य ये कहता है कि मेरा जन्म उस मनुष्य से हुआ है तो पुनर्जन्म वाले व्यक्ति का डीएनए उसके पूर्व परिवार से मिलने पर ही ये पुष्टि हो सकती है कि उसका पुनर्जन्म हुआ है । यदि उनका डीएनए आपस में नही मिलता है तो इससे पुष्टि होती है कि मनुष्य का पुनर्जन्म एक बकबास है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! ये सत्य है , लेकिन जिस प्रकार हवा बिजली दिखाई नही देते हैं , उसी प्रकार आत्मा दिखाई नही देती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! हवा को हम श्वसन क्रिया द्वारा प्रमाणित कर सकते हैं और बिजली को हम उसके तार को छूकर पता कर सकते हैं , लेकिन आत्मा का पता कैसे चलेगा ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! इसका मतलब है कि आत्मा का कोई अस्तित्व नही होता है । तो फिर जीव की उत्पत्ति कैसे होती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! सम्पूर्ण सौरमण्डल में अणु और परमाणुओं से निर्मित वस्तु का ही अस्तित्व होता है |
ब्राह्मण - हे भंते ! बिल्कुल सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! उस अस्तित्व को मनुष्य की पाँचों इन्द्रियों में से किसी भी इंद्री द्वारा महसूस किया जा सकता है |
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! वर्तमान में परखनली के माध्यम से बच्चों की उत्पत्ति की जाती है और प्रक्रिया से पूर्व उस परखनली को पूरी तरह पैक कर दिया जाता है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! सत्य है , वर्तमान में परखनली से बच्चों की उत्पत्ति की जाती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! उस परखनली को इस प्रकार पैक किया जाता है कि न तो बाहर का वातावरण अंदर प्रवेश कर सकता है और न ही अंदर का वातावरण बाहर आता है तो उस परखनली में आत्मा के प्रवेश किये बिना ही जीव की उत्पत्ति होती है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! सत्य है , लेकिन बिना आत्मा के उस परखनली में जीव की उत्पत्ति कैसे होती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! मीथेन , अमोनिया और जलीय ऊष्मा के संयोग से जिस प्रकार जीवों की रचना होती है , उसी प्रकार शुक्राणु , रज और जलीय ऊष्मा से जीव की उत्पत्ति होती है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! वह कैसे होती है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! वर्षात के पानी में अमोनिया , मीथेन उपस्थित रहते हैं , जो जल के माध्यम से ऊर्जा उत्पन्न करते हैं । उनके संयोग से एक कोशीय और उसके बाद डीएनए की रचना होती है और डीएनए से सेल की रचना होती है और धीरे धीरे सेल से सेल की रचना होती चली जाती है और सम्पूर्ण जीव बन जाता है । इस पानी को एक डिब्बे में भर कर पैक करके रख दो और बिना आत्मा की कृपा के तीनों पदार्थ और उनकी ऊर्जा के मिश्रण से उस बन्द डिब्बे में जीवाणु की उत्पत्ति हो जाती है , इसलिए जीवन की उत्पत्ति के लिए किसी आत्मा की जरूरत नही होती है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! सत्य है । इससे ये ही प्रमाणित होता है कि आत्मा नही होती है । लेकिन आत्मा के बिना मनुष्य कोई भी कार्य नही कर सकता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! सम्पूर्ण दुनिया में पदार्थ तीन अवस्थाओं में पाया जाता है । गैस , तरल और ठोस और इन सभी पदार्थों की संरचना परमाणु से होती है और पदार्थों की क्रियाओं के कारण से ही ऊर्जा उत्पन्न होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! बराबर सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जीव – जन्तु और पेड़ – पौधे एक पानी के बुलबुले की तरह पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं |
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे भंते ! सचेतन प्राणी कुछ भौतिक तत्वों और कुछ मानसिक तत्वों से बना होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! वह कैसे ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! भौतिक पदार्थों से शरीर में अस्थि, माँस , माँस – पेशियाँ और चर्म की उत्पत्ति होती है और मानसिक तत्वों से चेतना भाग निर्मित होता है , जिससे एक सचेतन प्राणी की रचना होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सचेतन प्राणी की रचना कैसे होती है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! अनुभूति , संज्ञा और संस्कार से सचेतन प्राणी की रचना होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! अनुभूति से सचेतन प्राणी की रचना कैसे होती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! कानों से ध्वनि की , आँखों से दृष्टि की , नाक से गंध की , जीभ से स्वाद की और त्वचा से स्पर्श की अनुभूति होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! संज्ञा से सचेतन प्राणी की रचना कैसे होती है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! संज्ञा से प्राणी की जाति का पता चलता है और यह पता चलता है कि प्राणी नर है या मादा ।
ब्राह्मण - हे भंते ! संस्कार से सचेतन प्राणी की रचना कैसे होती है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! संस्कार के अनुसार बालक वंश परम्परा से अपने माता – पिता के गुण उत्पन्न करता है |
ब्राह्मण - हे भंते ! सचेतन प्राणी का संचालन कौन करता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! सचेतन प्राणी का संचालन चित्त द्वारा किया जाता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सचेतन प्राणी का संचालन चित्त द्वारा कैसे किया जाता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! भौतिक तत्व , मानसिक तत्व और चित्त के एक ही समय और एक ही स्थान पर क्रियाशील होने से सचेतन प्राणी का चित्त द्वारा संचालन किया जाता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! चित्त कैसे उत्पन्न होता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जिस प्रकार चुम्बक से चुम्बकीय क्षेत्र की उत्पति होती है , उसी प्रकार मनुष्य के जन्म के समय चित्त की उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार चुम्बक से चुम्बकीय क्षेत्र खत्म हो जाता है , उसी प्रकार मृत्यु के साथ चित्त खत्म हो जाता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! चित्त का संचालन कौन करता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! चित्त का संचालन प्राकृतिक रूप से होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! चित्त का संचालन प्राकृतिक रूप से कैसे होता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! प्रकृति के हर पदार्थ के अणु गतिशील होते हैं । जिस प्रकार चुम्बक के अणुओं को एक लय में लाकर चुम्बकीय शक्ति उत्पन्न की जाती है , उसी प्रकार भौतिक और मानसिक तत्वों के एक लय में आने से चित्त की शक्ति उत्पन्न होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है , शरीर में आत्मा का कोई कार्य नही होता है , परन्तु लोग कहते हैं कि मृत देह से आत्मा फुर्र करके निकल जाती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! किसी ने आत्मा को मृत देह से निकलते देखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! आत्मा के निकलने के वैज्ञानिक सबूत हैं कि आत्मा बंद शीशे को तोड़ कर भी निकल जाती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपकी अवधारणा के अनुसार आत्मा चौरासी लाख यौनियों से गुजरती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! वही आत्मा कीड़े मकौड़ों में भी होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! होती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! एक पारदर्शी प्लास्टिक की थैली लो और उसमें कुछ केंचुए , छींगर और कॉकरोज रखकर कुछ जहरीला पदार्थ डालकर उस थैली को पैक कर दो । अब बताओ कि थैली के कीड़े मकौड़े मरे ।
ब्राह्मण - हे भंते ! कीड़े मकौड़े सभी मर गए ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! अब कीड़े मकौड़ों से आत्मा को निकल कर थैली के टुकड़े टुकड़े करने चाहिए , क्या किये ?
ब्राह्मण - हे भंते ! नही किये ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! इससे सिद्ध होता है कि आत्मा नही होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है , परन्तु लोगों की अवधारणा है कि अकाल मृत्यु के कारण आत्मा भटकती रहती है 
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपने या आपके किसी बुजुर्ग ने आत्मा को भटकते हुए देखा है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! नही देखा ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपकी अवधारणा है कि सभी सजीव वस्तुओं में आत्मा होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जब  पेड़ – पौधों , जीव – जन्तुओं एवं कीड़े – मकौडों की अकाल मृत्यु होती है तो उनकी आत्मा की शान्ति के लिए आप अनुष्ठान करवाते हैं |
ब्राह्मण - हे भंते ! नही करवाते , लेकिन वे पेड़ पौधे और जानवर होते हैं , उनकी आत्मा के अनुष्ठान की क्या आवश्यकता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आत्मा तो वही है , जो आप में है । उनकी भी अकाल मृत्यु पर आत्मा भटकनी चाहिए ।
ब्राह्मण - हे भंते !  सत्य है , प्रतिदिन हजारों पेड़ काटे जाते हैं और लाखों जीव जन्तु मरते हैं , लेकिन उनकी आत्मा को भटकते हुए आजतक नही देखा गया है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप लोगों की दुकानदारी के लिए यह एक पाखण्ड है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है , धर्म के ठेकेदारों की दुकानदारी आत्मा के ही नाम पर चलती है । परन्तु ये बताइये , आत्मा के बिना मनुष्य जीवित कैसे रहता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! तीनों पदार्थ और उनसे उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से मनुष्य जीवित रहता है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! तीनों पदार्थ और ऊर्जा मनुष्य में ही रहते हैं , लेकिन जब आत्मा बाहर निकलती है , तभी मनुष्य मरता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपका कहना है कि आत्मा रहने पर ही मनुष्य जिंदा रहता है।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! जब तक आत्मा शरीर में है , तभी तक मनुष्य शरीर जिंदा रहता है ।
  श्रमण - हे ब्राह्मण ! एक जिंदे मनुष्य को एक हवा रहित काँच के बॉक्स में बंद कर देते हैं , तो मनुष्य मरेगा कि जिंदा रहेगा ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! वह मनुष्य दम घुटने से मर जायेगा ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! अभी तुम कह रहे थे कि आत्मा के रहने तक मनुष्य जिंदा रहता है । लेकिन आत्मा तो उसी मनुष्य में मौजूद है , फिर वह मनुष्य क्यों मरेगा ?
ब्राह्मण - हे भन्ते ! सत्य है , उसमें आत्मा है , लेकिन वायु के बिना वह मर जायेगा ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! अब बताइये कि शरीर के संचालन के लिए महाशक्ति आत्मा है या वायु है ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! सत्य है , मनुष्य शरीर के संचालन के लिए वायु ही महाशक्ति है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! इसी प्रकार आत्मा सहित एक जीवित व्यक्ति को अन्न , जल और ऊर्जा से वंचित कर दिया जाए तो वह व्यक्ति जिंदा रहेगा या मरेगा ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! वह व्यक्ति मर जायेगा ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! मनुष्य संचालन के लिए महाशक्ति अन्न , जल और ऊर्जा हैं या आत्मा ।
ब्राह्मण - हे भन्ते ! सत्य है मनुष्य शरीर को संचालित करने वाली महाशक्ति अन्न , जल और ऊर्जा ही हैं ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपका कहना है कि जब तक आत्मा रहती है , तभी तक मनुष्य जीवित रहता है । आत्मा के निकलने पर मनुष्य जीवित नही रह सकता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपका मतलब है कि आत्मा नहीं मरती है ?
ब्राह्मण - हे भंते ! लोगों की ऐसी धारणा है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आप लोग कहते हैं कि आत्मा कभी मरती नहीं , आत्मा अमर है। तो ये बताइये आत्मा शरीर छोड़ती है या शरीर आत्मा को ।
ब्राह्मण - हे भंते ! आत्मा शरीर को छोड़ती है।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आत्मा शरीर क्यों छोड़ती है ?
ब्राह्मण - हे भंते ! जीवन ख़त्म होने के बाद छोड़ती है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपका कहना है कि जिस शरीर में आत्मा रहती है , वही शरीर जिन्दा रहता है और जिस शरीर में आत्मा नही होती है वह शरीर मृत होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! परन्तु आपका कहना है कि शरीर के मृत होने पर आत्मा शरीर को छोड़ देती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आपकी दोनों बात सत्य नही हो सकती । एक तरफ आपका मत है कि आत्मा बिना शरीर जिन्दा नही रह सकता और दूसरी तरफ मत है कि शरीर के मरने पर आत्मा शरीर से निकल जाती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! आत्मा बाद में निकलती है तो फिर शरीर मरता क्यों है ? आत्मा के निकलने तक शरीर को जिन्दा रहना चाहिए ।
ब्राह्मण - हे भंते ! सत्य है । ये दोनों बात एक साथ नही हो सकती , इसका तात्पर्य है कि आत्मा का सचेतन शरीर पर कोई प्रभाव नही पड़ता है ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! सत्य यह है कि मनुष्य के जन्म के समय चित्त का जन्म होता है और मृत्यु के समय चित्त समाप्त होता है । चित्त से ही सचेतन प्राणी का संचालन होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! ये सब सत्य है , लेकिन लोगों की धारणा है कि मनुष्य के अंदर कोई प्राण होते हैं ।
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जिस प्रकार दीपक , बाती , तेल अर्थात ऊर्जा से प्रज्वलित दीपक की रचना होती है , उसी प्रकार प्राणी , मानसिक तत्व और ऊर्जा से चित्त अर्थात सचेतन प्राणी की रचना होती है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! फिर शरीर का संचालन कैसे होता है ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जिस प्रकार प्रज्वलित दीपक से चारों तरफ प्रकाश का संचालन होता है , उसी प्रकार चेतना से प्राणी शरीर का संचालन होता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! मनुष्य के अंदर प्राण नष्ट कैसे होते हैं ?
श्रमण - हे ब्राह्मण ! जिस प्रकार दीपक , बाती और ऊर्जा का किसी भी प्रकार से एक दूसरे से सम्पर्क टूट जाता है तो प्रज्वलित दीपक बुझ जाता है , उसी प्रकार प्राणी , मानसिक तत्व और ऊर्जा का एक दूसरे से किसी भी माध्यम से सम्पर्क समाप्त हो जाता है तो सचेतन शरीर नष्ट हो जाता है ।
ब्राह्मण - हे भंते ! इसका तात्पर्य है कि जब तक दीपक , बाती और ऊर्जा का मिलन है , तभी तक प्रज्वलित दीपक है , उसी प्रकार जब तक शरीर , मानसिक तत्व और ऊर्जा का मिलन है , तभी तक सचेतन प्राणी है । तीनों के बिखरने से जिस प्रकार प्रज्वलित दीपक बुझ जाता है , उसी प्रकार सचेतन प्राणी भी नष्ट हो जाता है ।
श्रमण - हे बुद्धिमान ब्राह्मण ! आपने सत्य को जान लिया , आपका कल्याण हो ।
सुमेध जग्रवाल

कौन हम पर राज कर रहा है

🔥 🙏 !! वास्तव में कौन हम पर राज कर रहा है:  
 मुद्राराक्षस से बातचीत के प्रस्तुत हैं कुछ अंश.. 🙏 🔥

🔥 कृपा करके इस पोस्ट को जरुर पढे.. और शेयर करे ...  🔥 > 

रमेश भारती Cont.. 9226480007,
 WhatsApp No . 9158756400  ✍✍✍✍

!!  हमें देखना होगा कि भारत पर कौन राज करता है। हम जानते हैं कि लोग जो हम पर राज करते हैं वे हिंदू हैं जिनको आकार और संस्कार देने वाले ब्राह्मण हैं, एक ऐसा कुल जिसके मन में मानव मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं। .......!!

👉 मुद्राराक्षस जाने-माने हिंदी लेखक हैं जिनके नाटक, लघुकथाएं और अन्य कृतियां क्रांतिकारी रूप में बहुजन सशक्तिकरण के मुद्दे उठाती हैं। स्वयं एक ओबीसी लेखक, मुद्राराक्षस ने भारत के स्वतंत्रता दिवस पर फॉरवर्ड प्रेस से बातचीत की। प्रस्तुत हैं कुछ अंश:

!! इस महीने भारत अपना 63वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है। आपके इस बारे में क्या विचार हैं? क्या हम अपने समाज में प्रजातांत्रिक और मानवतावादी मूल्यों का प्रसार करने में सफल रहे हैं? !!

👉15 अगस्त 2010 के इस दिन हमें देखना होगा कि आज भारत पर राज कौन कर रहा है। हम जानते हैं कि लोग जो हम पर राज करते हैं वे हिंदू हैं जिनको आकार और संस्कार देने वाले ब्राह्मण हैं, एक ऐसा कुल जिसके मन में मानव मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं।
19 वीं सदी के एक क्राँतिकारी समाजशास्त्री थोस्रटीन वेबलेन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द थ्योरी ऑफ़ द लिबरल’ क्लास में उचित ही कहा है कि ब्राह्मण विलासी वर्ग का हिस्सा हैं, जिन्होंने मानव इतिहास में कोई सृजनात्मक भूमिका नहीं निभाई।
भारत में सत्तासीन वर्ग के साथ सांठगांठ करके उन्होंने हमारे समाज के बहुसंख्यक वर्ग को मान न देकर ”पिछड़ा’’ बनाए रखा है, बिना किसी सामाजिक, सांस्कृतिक या आर्थिक अधिकार के।

👉 आप हिंदू बौद्धिक उपलब्धियों की काफी निराशाजनक तस्वीर पेश कर रहे हैं। अक्सर यह दावा किया जाता है कि ब्राह्मणवादी विचारधारा ही सच्ची भारतीय विचारधारा है। ब्राह्मणवादी लेखकों ने भारतीय राष्ट्रवाद में काफी योगदान दिया है: वे तो मातृभूमि की भी पूजा करते हैं, भारत माता की जय बोलकर

👉भारत में हिंदू मनुष्य को छोड़ हर वस्तु को आदर्श बनाता और उसकी पूजा करता है।
 हिंदू एक विचित्र समुदाय है जो जानवरों के मल की भी पूजा करता लेकिन मनुष्य से घृणा करता है। केवल यहीं नहीं, हिंदू सीखने से और किसी भी प्रकार के ज्ञान और वैज्ञानिक खोज से भी घृणा करता है।

!! शंकराचार्य जैसे महान दार्शनिकों के बारे में आपका क्या कहना है? !!

👉यदि हम भारतीय इतिहास को देखें तो हम पाते हैं कि शंकराचार्य के भक्ति आंदोलन के आने के बाद हिंदू धर्म ने बौद्ध धर्म का दमन किया।
यह जानना दिलचस्प है कि इस हिंदू विचारक ने दार्शनिक विचार पर एक भी पुस्तक नहीं लिखी। वह न तो मौलिक चिंतक थे और न ही दार्शनिक।
उन्होंने किन्हीं प्राचीन कृतियों की विवेचना मात्र ही की है, जैसे कि गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषद।    भारत में मौलिक दार्शनिक कृतियाँ बौद्ध विचारकों ने रची थीं न कि हिंदू ब्राह्मणों ने।

!! ब्राह्मण भारत के शिक्षक रहे हैं  फिर भी आप कहते हैं कि उन्होंने मानवतावादी मूल्यों का प्रसार नहीं किया। !!

👉यह गलत प्रचार किया गया है कि भारत में ब्राह्मणों का काम शिक्षा देना और शिक्षा लेना था। उपनिषद हमें साफ बताते हैं कि ब्राह्मण मात्र अपनी धार्मिक पुस्तकों की शिक्षा ब्राह्मण छात्रों को देते थे जिसका एकमात्र उद्देश्य था उन्हें हिंदू कर्मकांडों में कुशल बनाना।
प्रत्येक उपनिषद साफ-साफ कहता है कि सीखने का वास्तविक लक्ष्य था ब्रह्म को जानना, अर्थात्, ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त करना, और जो कुछ एक ब्राह्मण जानता है ब्रह्म ज्ञान वही है। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ब्राह्मण की मूर्खता भी ब्रह्म ज्ञान है।

!! यह तो घुमावदार तर्क हुआ। !!

👉गौर करने वाली दिलचस्प बात यह है कि किसी भी ब्राह्मण के लिए ज्ञान का सर्वोच्च रूप ब्रह्म का ज्ञान है लेकिन कोई ब्राह्मण पुस्तक हमें यह नहीं बताती कि ब्रह्म क्या है।
ब्राह्मण पुस्तकें केवल यह कहती हैं कि ब्रह्म वह है जो केवल एक ब्राह्मण को पता है।
यदि एक ब्राह्मण मूर्खता को भी ब्रह्म कहे तो उस पर विवाद नहीं करना चाहिए क्योंकि ब्राह्मण से न तो सवाल किया जा सकता है और न उसका विरोध किया जा सकता है।
महाभारत का भीष्म पर्व, [ वह अध्याय जो भीष्म से संबंधित है,]  कहता है कि वह जो ब्राह्मण को अपने तर्क से पराजित करता है उसे दुष्ट माना जाए और डंडों से उसकी पिटाई की जाए।

!! कई आधुनिक राष्ट्रीय नेता, जैसे कि गांधी, इस प्रकार की भाषा का इस्तेमाल नहीं करते। क्या उन पर भी आरोप लगाएंगे? !!

👉 दु:ख की बात है कि गांधी ने भी जाति-आधारित हिंदू धर्म की इस मानव विरोधी सामाजिक व्यवस्था को समर्थन दिया।
हमारी लगभग आधी जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे रहती है
और इस सारे तबके — दलित, ओबीसी या फिर अनुसूचित जनजाति — की नियति धरती के बदकिस्मत लोग बन कर ही रहने की होगी यदि हिंदू धर्म राज करना जारी रखता है।

!! आप बहुजन के लिए आशा कहां देखते हैं? समकालीन, स्वतंत्र भारत में उनके लिए क्या सकारात्मक होता दिखता है? !!

👉 जब तक ब्राह्मणवाद पराजित नहीं होता तबतक कोई आशा नहीं है।
ब्राह्मणवादी धार्मिक विचारों और कृतियों की आलोचनात्मक रीति से समीक्षा करनी होगी ताकि लोग समझ पाएँ कि किसने उन्हें गुलाम बना रखा है और किस प्रकार।
भारतीय मनस पर ब्राह्मणवादी परछाई छाई हुई है और जब तक यह परछाई मिट नहीं जाती कोई भी सकारात्मक विचार उभरने वाला नहीं।
यदि गरीबों और निस्सहायों की वर्तमान स्थिति को बदलना है तो वह तभी होगा जब हम सबसे पहले प्रचलित ब्राह्मणवादी विचारों की आलोचना करें।

ब्राह्मणवादी धार्मिक पुस्तकों को आलोचनात्मक ढंग से जांचना होगा और ऐसे लोग हैं जो यह काम कर रहे हैं। लेकिन उनमें से कई संस्कृत नहीं जानते, इसलिए यह काम अभी आधा ही हुआ है।

 !!  मेरे बहुजन मूलनिवासी भाईयो ब्राह्मणवाद के नियमो को अपने समाज तक पहुचावो, साथ ही अपने सभी भाईयो को इससे अवगत करावो। की आखिर ये ब्राह्मणवाद क्या है??
 जिस के कारण हमारे पूर्वज से लेकर आज भी हम इनके गुलाम है....

💐 बहुजन हिताए बहुजन सुखाये।।। 💐


यह रमेश भंगी की फ़ेसबुक से प्राप्त हुआ है। हमारी सोच को मूर्त रूप दिया है ब्रायन ने। मैं पहले से कहता रहा हूँ कि हमारी हर समस्या की जड़ हमारी तथाकथित संस्कृति में ही है।हर अपराध और समस्या के लिए धर्म और संस्कृति जिम्म्मेदार है और आज इसे बढ़ावा देने वाले अधिक जिम्मेदार हैंAn eye opener for us Indians.
दुनिया के भ्रष्टाचार मुक्त देशों में शीर्ष पर गिने जाने वाले न्यूजीलैंण्ड के एक लेखक ब्रायन ने भारत में व्यापक रूप से फैंलें भष्टाचार पर एक लेख लिखा है। ये लेख सोशल मीडि़या पर काफी वायरल हो रहा है। लेख की लोकप्रियता और प्रभाव को देखते हुए विनोद कुमार जी ने इसे हिन्दी भाषीय पाठ़कों के लिए अनुवादित किया है।
*न्यूजीलैंड से एक बेहद तल्ख आर्टिकिल।*
*भारतीय लोग  होब्स विचारधारा वाले है (सिर्फ अनियंत्रित असभ्य स्वार्थ की संस्कृति वाले)*
भारत मे भ्रष्टाचार का एक कल्चरल पहलू है। भारतीय भ्रष्टाचार मे बिलकुल असहज नही होते, भ्रष्टाचार यहाँ बेहद व्यापक है। भारतीय भ्रष्ट व्यक्ति का विरोध करने के बजाय उसे सहन करते है। कोई भी नस्ल इतनी जन्मजात भ्रष्ट नही होती।
*ये जानने के लिये कि भारतीय इतने भ्रष्ट क्यो होते हैं उनके जीवनपद्धति और परम्पराये देखिये।*
भारत मे धर्म लेनेदेन वाले व्यवसाय जैसा है। भारतीय लोग भगवान को भी पैसा देते हैं इस उम्मीद मे कि वो बदले मे दूसरे के तुलना मे इन्हे वरीयता देकर फल देंगे। ये तर्क इस बात को दिमाग मे बिठाते हैं कि अयोग्य लोग को इच्छित चीज पाने के लिये कुछ देना पडता है। मंदिर चहारदीवारी के बाहर हम इसी लेनदेन को भ्रष्टाचार कहते हैं। धनी भारतीय कैश के बजाय स्वर्ण और अन्य आभूषण आदि देता है। वो अपने गिफ्ट गरीब को नही देता, भगवान को देता है। वो सोचता है कि किसी जरूरतमंद को देने से धन बरबाद होता है।
*जून 2009 मे द हिंदू ने कर्नाटक मंत्री जी जनार्दन रेड्डी द्वारा स्वर्ण और हीरो के 45 करोड मूल्य के आभूषण तिरुपति को चढाने की खबर छापी थी। भारत के मंदिर इतना ज्यादा धन प्राप्त कर लेते हैं कि वो ये भी नही जानते कि इसका करे क्या। अरबो की सम्पत्ति मंदिरो मे व्यर्थ पडी है।*
*जब यूरोपियन इंडिया आये तो उन्होने यहाँ स्कूल बनवाये। जब भारतीय यूरोप और अमेरिका जाते हैं तो वो वहाँ मंदिर बनाते हैं।*
*भारतीयो को लगता है कि अगर भगवान कुछ देने के लिये धन चाहते हैं तो फिर वही काम करने मे कुछ कुछ गलत नही है। इसीलिये भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्ट बन जाते हैं।*
*भारतीय कल्चर इसीलिये इस तरह के व्यवहार को आसानी से आत्मसात कर लेती है, क्योंकि*
1 नैतिक तौर पर इसमे कोई नैतिक दाग नही आता। एक अति भ्रष्ट नेता जयललिता दुबारा सत्ता मे आ जाती है, जो आप पश्चिमी देशो मे सोच भी नही सकते ।
2 भारतीयो की भ्रष्टाचार के प्रति संशयात्मक स्थिति इतिहास मे स्पष्ट है। भारतीय इतिहास बताता है कि कई शहर और राजधानियो को रक्षको को गेट खोलने के लिये और कमांडरो को सरेंडर करने के लिये घूस देकर जीता गया। ये सिर्फ भारत मे है
भारतीयो के भ्रष्ट चरित्र का परिणाम है कि भारतीय उपमहाद्वीप मे बेहद सीमित युद्ध हुये। ये चकित करने वाला है कि भारतीयो ने प्राचीन यूनान और माडर्न यूरोप की तुलना मे कितने कम युद्ध लडे। नादिरशाह का तुर्को से युद्ध तो बेहद तीव्र और अंतिम सांस तक लडा गया था। भारत मे तो युद्ध की जरूरत ही नही थी, घूस देना ही ही सेना को रास्ते से हटाने के लिये काफी था।  कोई भी आक्रमणकारी जो पैसे खर्च करना चाहे भारतीय राजा को, चाहे उसके सेना मे लाखो सैनिक हो, हटा सकता था।
प्लासी के युद्ध मे भी भारतीय सैनिको ने मुश्किल से कोई मुकाबला किया। क्लाइव ने मीर जाफर को पैसे दिये और पूरी बंगाल सेना 3000 मे सिमट गई। भारतीय किलो को जीतने मे हमेशा पैसो के लेनदेन का प्रयोग हुआ। गोलकुंडा का किला 1687 मे पीछे का गुप्त द्वार खुलवाकर जीता गया। मुगलो ने मराठो और राजपूतो को मूलतः रिश्वत से जीता श्रीनगर के राजा ने दारा के पुत्र सुलेमान को औरंगजेब को पैसे के बदले सौंप दिया। ऐसे कई केसेज हैं जहाँ भारतीयो ने सिर्फ रिश्वत के लिये बडे पैमाने पर गद्दारी की।
सवाल है कि भारतीयो मे सौदेबाजी का ऐसा कल्चर क्यो है जबकि जहाँ तमाम सभ्य देशो मे ये  सौदेबाजी का कल्चर नही है
3- *भारतीय इस सिद्धांत मे विश्वास नही करते कि यदि वो सब नैतिक रूप से व्यवहार करेंगे तो सभी तरक्की करेंगे क्योंकि उनका “विश्वास/धर्म” ये शिक्षा नही देता।  उनका कास्ट सिस्टम उन्हे बांटता है। वो ये हरगिज नही मानते कि हर इंसान समान है। इसकी वजह से वो आपस मे बंटे और दूसरे धर्मो मे भी गये। कई हिंदुओ ने अपना अलग धर्म चलाया जैसे सिख, जैन बुद्ध, और कई लोग इसाई और इस्लाम अपनाये। परिणामतः भारतीय एक दूसरे पर विश्वास नही करते।  भारत मे कोई भारतीय नही है, वो हिंदू ईसाई मुस्लिम आदि हैं। भारतीय भूल चुके हैं कि 1400 साल पहले वो एक ही धर्म के थे। इस बंटवारे ने एक बीमार कल्चर को जन्म दिया। ये असमानता एक भ्रष्ट समाज मे परिणित हुई, जिसमे हर भारतीय दूसरे भारतीय के विरुद्ध है, सिवाय भगवान के जो उनके विश्वास मे खुद रिश्वतखोर है।*"
【लेखक-ब्रायन】 



 सदियों के चली आ रही मानसिक गुलामी को बेड़ियों को तोड़कर पिछड़े वर्ग के विभिन्न समुदाय अब ब्राह्रणवादी संस्कृति से बाहर निकलने के लिए छटपटा रहे हैं। महात्मा ज्योतिबा फुले ने बहुचर्चित ‘गुलामगिरी’ पुस्तक में लिखा भी है कि जब तक गुलाम को अपनी गुलामी का अहसास ही नहीं होगा वो अपनी आजादी के लिए प्रयास भी नहीं करेगा।

बाबा साहेब को मानने वाले अनुसुचित जाति को इस गुलामी का अहसास बहुत पहले हो गया था लेकिन अब समय के साथ खेती-किसानी कम होने और नौकरी को समाज में सम्मानित स्थान मिलने की वजह से क्षत्रित्व का लवादा ओढ़े पिछड़ों को भी अहसास हो रहा है कि कि शारीरिक रूप से ना सही लेकिन मानसिक रूप से वो ब्राह्मणवादी सिस्टम में फंसकर अपना बहुत कुछ गवां चुके हैं।

आदर्श जाट महासभा राजस्थान व वीर तेजा सेना के तत्वाधान में 23-24 सितंबर को पुष्कर अजमेर में आयोजित राष्ट्रीय जाट चिंतन शिविर में जो प्रस्ताव पारित किए गए हैं। वो इसी जागरूकता और सामाजिक न्याय के बढ़ते दायरे का एक उदाहरण नजर आता है-

महत्वपूर्ण प्रस्ताव-

1-.ब्राह्मणवादी तीर्थ यात्राओं को बंद करेंगे व वीर तेजाजी धाम खरनाल, धन्ना भगत, सांपला व सिरसौली की यात्रा करेंगे व जाट के युवाओं को इन चारों धाम के इतिहास से रूबरू होने के लिए प्रेरित करेंगे एक जाट पर्यटन सर्किट विकसित करेंगे।

2-सिख, विश्नोई बंधुओं की तरह ब्राह्मणवादियों के लिए घर के दरवाजे बंद करने की मुहिम चलाएंगे व हर जाट को इसके लिए समझाकर राजी करेंगे।

3-कांग्रेस-बीजेपी के टिकट पर जो भी जाट चुनाव के मैदान में उतरेगा उसको हम वोट नहीं देंगे।जब किसानों की जमीन छिनने का SIR कानून पास हुआ तो एक भी विधायक ने मुंह नहीं खोला।

4.पाखंड व अंधविश्वास को छोड़ने से जो भी बचत होगी वो कौम के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए तेजा फाउंडेशन में जमा करवाएंगे।

5.कौम की बेटियों की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

https://www.nationaljanmat.com/adarsh-jat-mahasabha-no-vote-bjp-congress-rajsthan-ajmer/



*🇮🇳बाबा साहब द्वारा लिखीत बुक्स जात-पात का विनाश (Annihilation of Caste) नामक बुक्स से लिया गया है।🙏*

*नोट: मान्यवर कांशी राम साहब ने यही एक बुक्स को पढ़कर देश में इतनी बड़ी क्रांति ला दिए थे कि भारत के सबसे बड़े प्रदेश में अस्पृश्यों का शासन आ गया था।*

*_👉बाबा साहब लिखते है महाराष्ट्र में पेशवाओ के शासनकाल में यदि कोई सवर्ण हिन्दू सड़क पर चल रहा होता था तो अछूतो को वहाँ चलने की आज्ञा नही होती थी। यह ब्राह्मण धर्म की मान्यता थी कि अछूत की छाया किसी हिन्दू पर पड़ जाने से वह उसे अपवित्र हो जाएगा। अछूत को अपनी कलाई पर या गले में निशानी के तौर पर एक काला डोरा बाधना पड़ता था। (जो कि आजकल नौजवान फैसन में बांध कर अपने आपको अछूत का प्रमाण देते है) ताकि हिन्दू भूल से उसे छूकर अपवित्र न हो जाए। पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों को कमर में एक झाड़ू भी बांध कर चलना पड़ता था। क्योंकि उनके चलने से पैरों के द्वारा जमीन पर जो निशान बने वह कमर में बंधे झाड़ू से मिटता जाए। ताकि कोई हिन्दू अछूत के पैरों के निशानों पर अपने पैर रखने से अपवित्र न हो जाए।_*
*_👉पेशवा के राज्य में अछूत कही भी जाए उनको अपने गले मे मिट्टी की हांडी लटका कर चलना पड़ता था ताकि उसे थूकना हो तो उसी हांडी में ही थूके क्योंकि जमीन पर थूकने से यदि उसके थूकने पर किसी हिन्दू का पैर पड़ गया तो वह अपवित्र हो जाएगा। बाबा साहब लिखते है कि मैं हालही की कुछ घटनाओं को साक्ष्य के रूप में बता रहा हूँ।➡_*
*_सेंट्रल भारत में बलाई नाम की एक अछूत जाति रहती है। हिंदुओं द्वारा उन पर किए गए अत्याचार मेरी बात स्पष्ट कर देंगे। 4⃣ जनवरी 1⃣9⃣2⃣8⃣ के टाइम्स आफ इंडिया अखबार में इन जुर्मों की रिपोर्ट छपी है। इस रिपोर्ट में लिखा है कि हिन्दूओ ने अर्थात कटोलिया, राजपूत, और ब्राह्मणों ने जिसमें लगभग 15 से बीस गाओं हिंदुओं ने अपने-अपने गांव के अछूतों को धमकी दी कि यदि तुम हमारे सहारे जिंदा रहना चाहते हो तो तुम्हे हमारी यह आज्ञाएं माननी पड़ेगी।_*
*1⃣ अछूत जाति के लोग सुनहरी गोटा की किनारी वाली पगड़ी नहीं पहनेंगे।*
*2⃣ अछूत जाति के लोग रंगीन या सुंदर किनारे वाली फैशनेबल धोती नहीं पहनेंगे।*
*3⃣ वे किसी भी हिन्दू की मौत की खबर उसके कितने ही दूर रिस्तेदारों को जरूर पहुचायेंगे।*
*4⃣ वे सभी हिंदुओं के विवाह समारोह में बारात में बाजा बजाते हुवे चलेंगे।*
*5⃣ अछूत (बलाई, चमार, धोबी, पासी, वाल्मीकि, सोनकर, खटिक, चमार जो आजकल जाटव लिखने लगे है, डोम, धरकार आदि) की स्त्रियां सोने चांदी के गहने व सुंदर गोटे व फैशनदार कपड़े भी नही पहनेंगी।*
*6⃣आछूट जाति की औरतें हिन्दू औरतों के बच्चों के जन्म के समय प्रसूति में उनकी सेवा करेंगी।*
*7⃣ अछूत लोग हिंदुओं की सेवा करने की एवज में कोई मेहनताना नही मांगेंगे तथा हिन्दू उन्हें अपनी इच्छा से जो कुछ भी देंगे वे उसे स्वीकार कर संतुष्ट हो जाएंगे।*
*8⃣ यदि अछूत लोगों को यह शर्त स्वीकार नहीं हो तो वे गांव छोड़कर निकल जाए।*
*_👉 अछूतों ने इन आज्ञाओं को मनाने से इन्कार कर दिया तो हिंदुओं ने उनके खिलाफ सामाजिक कार्यवाही शुरु कर दी। अछूतों को गांव के कुओ से पानी भरने और अपने पशु चराने से रोक दिया (ऐसी घटनाएं आज के डेट में भी भारत में हो रही है।) अछूतों को हिंदुओं के जमीन से होकर जाने से भी रोक दिया। ताकि यदि अछूतों के खेत के आस-पास हिंदुओ के खेत हो तो अछूत अपने खेत मे न जा सके। हिंदुओं ने अछूतों के खेतों में अपने पशु चरने के लिए छोड़ दिए। अछूतों ने इस अत्याचार के खिलाफ इंदौर दरबार में अर्जी दाखिल की लेकिन उचित समय पर मदद नही मिल सकने और जुर्म जारी रखने के कारण सैकड़ो अछूत परिवार अपने बीबी-बच्चो सहित अपनी पुस्तैनी जगह व जमीन छोड़ने पर मजबूर हो गए जिनमें उनके बाप दादा पीढ़ियों से रहते आए। अछूत लोग उस इलाके के आस पास की रियासतों  के गांवों में चले जाने के लिए मजबूर हो गए। उनके नए घरों में उनके साथ क्या बीती इसका वर्णन करना बाबा साहब को बहुत कठिन लगा।_*
*_👉 सन 1935 के आस-पास की घटना है जो गुजरात के कविथा गांव में हुई एक घटना इस गांव के हिंदुओ ने अछूतों को आदेश दिया कि वे गांव के सरकारी स्कूल में अपने बच्चों को भेजने के लिए हाथा-जोड़ी नही करे। हिंदुओं के इच्छा के खिलाफ अपने नागरिक अधिकारों के उपयोग करने का साहस करने के लिए बेचारे अछूतों को कितना जुर्म सहन करना पड़ा, यह लगभग हर कोई जानता है। इसको ज्यादा वर्णन करने की जरूरत नही है। जब आज के डेट में ऊना जैसी घटना हो रही है तो सन 1928 व 1935 व उसके आस-पास क्या स्थिति रही होगी आप खुद समझ सकते है।_*
*_👉 गुजरात की एक घटना और हुई थी गुजरात के अहमदाबाद जिले के जुहू नामक गांव की नवम्बर 1935 में कुछ सम्पन्न अछूत परिवारों की औरतों ने धातु के बर्तनों में पानी लाना शुरू कर दिया । हिंदुओं ने अछूतों द्वारा धातु के बर्तनों का प्रयोग करना अपनी शान के खिलाफ अपना अपमान समझा। इन गुस्ताखी के लिए अछूत औरतों को हमला करके निर्दयता से मारा पीटा। जिससे कि परिवार की बहुत छति हुई।_*

*नोट: बाबा साहब के विचार को पढ़िये जागरूक होइए और समाज को जागरूक करिये।*
 


हरिजन कहने या लिखने पर अब होगी कड़ी कार्रवाई

*⚖👊हरिजन  कहने या लिखने पर चली बड़ी मुहिम।👊⚖*
*_😡हरिजन कहने या लिखने पर अब होगी कड़ी कार्रवाई यदि लापरवाही की तो कानून का डंडा सरकारी अफसरों पर भी चलेगा।😡_*

*Order No.: NENB-IFLHC/ND/HDWB/2017-007*
E-mail: indiafreelegalhelpcell@gmail.com
nawabsatpaltanwar@gmail.com
*_Contact:_*
*नवाब सतपाल तंवर*
*_9310003886_*
*_9911189986_*
*_Operated By:_*
*निगाहें (एक नया बदलाव)*

*विषय: जारी पत्र के अनुसार *_हरिजन * शब्द का प्रयोग ना करने संबंधी संवेधानिक चेतावनी।*

*बहुजन समाज यानी समस्त SC/ ST, OBC नागरिकों को, सभी सरकारी एजेंसियों, पुलिस विभाग, समस्त सरकारी विभागों और समस्त देशवासियों को सूचित किया जाता है।*
*_हरिजन शब्द, धोबी शब्द_* किसी भी सरकारी/ प्राइवेट दस्तावेज जैसे पुलिस जांच, बयान, जाति प्रमाण पत्र, नौकरी फ़ार्म, स्कूल रिकार्ड आदि किसी भी सरकारी/ प्राइवेट दस्तावेज पर लिखने पर अनुसूचित जाति/ जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग कानूनों के तहत अपराध घोषित किया गया है। पब्लिक प्लेस पर लिखने जैसे चौपाल, कॉलोनी, नगर, पंचायत आदि के नाम से बनाने, लिखने पर अनुसूचित जाति/ जनजाति अधिनियम के तहत अपराध घोषित किया गया है। (यदि पहले से लिखा या दस्तावेजों में है तो तुरंत हरिजन की जगह कोई अन्य नाम रखें जैसे अम्बे‍डकर कॉलोनी, नगर आदि)। सामुहिक अथवा व्यक्तिगत तौर पर उपरोक्त शब्दों हरिजन अथवा धोबी शब्द को बोलने पर भी उपरोक्त कानूनों के तहत अपराध माना गया है।
इस बारे में संसद में कानून भी कई वर्ष पहले पारित किया जा चुका है और सभी राज्य सरकारों और सभी विभागाध्यक्षों को केंद्र सरकार के पत्रों द्वारा सूचित भी किया जा चुका है।
ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कई वर्ष पहले केंद्र के द्वारा जारी किए गए नए विधान की सूचना मिलने के बावजूद सरकारी दस्तावेजों, पब्लिक प्लेस, आम बोलचाल की भाषा में और मीडिया में इन शब्दों का प्रयोग धड्डले से किया जा रहा है। अनेकों सूचनाएं और शिकायतें हमें प्राप्त हुई हैं। हरियाणा एंव गुड़गांव के कई पटवारियों के बारे में भी जानकारी मिली है कि वे और नंबरदार, सरपंच, पार्षद आदि भी जमकर उक्त शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। पुलिस जांच में जांच अधिकारी जब पीड़ित का बयान लिख रहे होते हैं तो इसी शब्द का इस्तेमाल धड्डले से कर रहे पाए गए हैं। हरियाणा गुड़गांव के अलावा उत्तर भारत के अनेकों राज्यों से हमारे पास शिकायतें पहुंची हैं और सूचना अधिकार अधिनियम के तहत भी अनेकों चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। साथ ही हमें यह भी मालूम हुआ है कि गांवों के अंदर अनुसूचित जाति के लोगों को यह कह कर भ्रमित किया जाता है कि *_आप तो हरि के जन हो यानी आप हरिजन हो और उनको पर हरिजन यानी हरि भगवान के पुत्र जन बताकर संबोधित करने के साथ-साथ साथ मानसिक दवाब बनाया जाता है। जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों और कानूनों में किए गए प्रावधान रिकार्ड के अनुसार पौराणिक मनुवादी व्यवस्था में संविधान लागू होने से पूर्व एवं भारत गणराज्य के स्वतंत्र होने से पूर्व देवदासी व्यवस्था पाई गई है। अलोकतांत्रिक एवं असंवेधानिक देवदासी व्यवस्था के अनुसार अनुसूचित जाति/ जनजाति, पिछड़ा वर्ग एंव अति पिछड़ा वर्ग की कन्याओं को तथाकथित विशेष स्वर्ण जाति पोंगा-पंडित अपहरण करके बंधक बनाकर अपना गुलाम बना लेते थे उनसे जो संताने पैदा होती थी उन्हे #हरिजन# कहकर पुकारा जाता था। आज भी इस शब्द का प्रयोग और कानून पारित होने के बावजूद इस घृणित शब्द का प्रयोग वास्तव में चिंताजनक विषय है।_*
नतीजन हमें यह पत्र जारी करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। इस पत्र की प्रतियां सभी राज्य सरकारों को भेजी जा रही हैं। राज्य सरकारें अपने सभी विभागों को इस पत्र का रेफ़्रांस देकर सूचित करें और कानूनों को लागू कराएं अन्यथा हमें आपके दोषी अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही करने हेतु मजबूर होना होगा। साथ ही पुलिस विभाग को गृह मंत्रालय भारत सरकार के माध्यम से सचेत किया जाता है कि इस संबध में आपके पास कोई भी शिकायत आती है तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार बिना विलंब किए अनुसूचित जाति/ जनजाति अधिनियम में एफआईआर दर्ज करके कार्यवाही अमल में लाएं अन्यथा इस अधिनियम के तहत दोषी पुलिस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान भी है।
Cc: Forward by post.
*_इस पत्र का मूल रूप सोशल मीडिया में जारी किया जा रहा है ताकि लोकतांत्रिक रूप से सभी को यह जानकारी मुहैया कराई जा सके। सीआईडी, आईबी आदि इस पत्र के मूल रूप तक अपने अधिकारों तक अवश्य पहुंचा दें।_*
*साथ ही समस्त देशवासी और संबंधित समाज यानी अनुसूचित जाति/ जाति, पिछड़ा वर्ग से संबंध रखने वाले सभी नागरिक इस पत्र के मूल रूप इस संदेश को अपने सभी सोशल नेटवर्क, फेसबुक, ट्विटर, Whatsapp आदि पर सभी ग्रुप और व्यक्तिगत सभी संपर्क सूत्रों पर भेज दें।*
*_यदि आपके पास_* *हरिजन अथवा धोबी* *_शब्द के प्रयोग की कोई जानकारी है तो 

indiafreelegalhelpcell@gmail.com अथवा nawabsatpaltanwar@gmail.com 
पर ईमेल करें अथवा नवाब सतपाल तंवर के मोबाइल नंबर 
9310003886, 9911189986 
पर फोन करके सूचित करें।_*

*👍अधिक से अधिक शेयर करें और हरिजन शब्द का नामोनिशान मिटा दें।👍*
 😢😢😢🙏🙏🙏😢😢😢

आरक्षण से आया है तो बीड़ी ही पियेगा अफ़सर?

आरक्षण से आया है तो बीड़ी ही पियेगा अफ़सर?
 
एक गोरा-चिट्टा लंबा सा सुदर्शन नौजवान नौकरी के लिए इंटरव्यू देने के लिए अपनी बारी के इंतज़ार में एक दफ़्तर में बैठा है.
इंटरव्यू लेने वाला अधिकारी जिस कमरे में बैठा है उसके बाहर उसके नाम की तख़्ती लगी है, जिस पर बड़े अक्षरों में लिखा है- जगन नाथ.
व्हॉट्सऐप और सोशल मीडिया पर पिछले छह महीने से शेयर की जा रही एक छोटी सी मगर खुले तौर पर आरक्षण विरोधी फ़िल्म का पहला दृश्य है.
आरक्षण के ख़िलाफ़ संदेश देने के अलावा ये फ़िल्म अपने दर्शकों को इशारे ही इशारे में दलितों और कथित ऊँची जातियों के बारे में बहुत सारे स्टीरियोटाइप्स को और मज़बूत करती है, मसलन:
दलित काले, भदेस और देहाती होते हैं.
ऊँची जाति के लोग लंबे, गोरे, शहरी और डैशिंग होते हैं
दलित लोग मंदबुद्धि होते हैं और ऊँची जाति के बच्चों की नक़ल करके पास हो जाते हैं
दलित पढ़ाई में फिसड्डी होने के बावजूद वो आरक्षण के कारण अफ़सर बन जाते हैं
जबकि अगड़े पढ़ाई में तेज़ होने के बावजूद नौकरी के लिए दर दर भटकते रहते हैं


मेज़ पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर

हमें पता चलता है कि गोरे और सुदर्शन नौजवान का नाम मयंक शर्मा (यानी ब्राह्मण) है और इंटरव्यू लेने वाला 'जाति-विहीन' जगन नाथ.
अपनी बारी आने पर मयंक शर्मा दरवाज़ा खटखटाता है और अंदर आने की इजाज़त चाहता है. दरवाज़ा खुलने पर हमें एक ख़ाली कुर्सी दिखती है. इंटरव्यू लेने वाला पीठ फेरकर खिड़की के पास खड़े-खड़े विलेन की तरह बीड़ी फूँक रहा है.
उसकी मेज़ पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और महात्मा गाँधी की तस्वीर नज़र आती है. ये पहली निशानी है जो दर्शकों को बताती है कि इंटरव्यू लेने के लिए अंदर बैठा अफ़सर 'अंबेडकरवादी' हो सकता है.
कैमरा फिर उस अफ़सर पर जाता है जो खिड़की के पास पीठ मोड़े खड़ा है और सिगरेट फूँक रहा है और वो अचानक फ़िल्मी अंदाज़ में पलटता है. सुदर्शन नौजवान उसे देखता है और चौंक जाता है.
गोरे और सुदर्शन नौजवान से उलट ये अफ़सर साँवले - बल्कि काले - रंग का है और जब बोलता है तो देहाती लहज़े की हिंदी में किसी विलेन की तरह सुदर्शन नौजवान से पूछता है - क्यों, चौंक गए?
फ़िल्म ब्लैक-एंड-व्हाइट के ज़रिए फ़्लैशबैक में जाती है और मयंक शर्मा परीक्षा देते हुए नज़र आता है. पिछली सीट पर बैठा एक काले रंग का छात्र रुआँसा होकर मयंक से नक़ल करवाने की चिरौरी करता नज़र आता है. "मयंक, दोस्त… दिखा दो ना.. मैं फ़ेल हो जाऊँगा."
ये जग्गू है. और वही जग्गू अब जगन नाथ बन चुका है और अफ़सर के तौर पर मयंक शर्मा का इंटरव्यू लेने को तैयार है.


मयंक शर्मा और जगन नाथ के बीच का संवाद पढ़िए:

जगन नाथ - चौंक गए जग्गू को जगन नाथ बना देखकर. देखो भाय, ये सब किस्मत का खेल है.
मयंक - जग्गू, ये किस्मत का नहीं हमारे देश के सिस्टम का खेल है. जिन्हें कभी क़लम चलानी भी नहीं आई उन्हें देश चलाने के लिए दे दिया जाता है.
जगन नाथ - तुम यहाँ इंटरव्यू देने के लिए आए हो.
मयंक - ये मेरी बदक़िस्मती है कि मैं इंटरव्यू देने के लिए आया हूँ.
जगन नाथ - ये मत भूलो कि मैं तुम्हें फ़ेल भी कर सकता हूँ.
मयंक - जो कभी अपने दम पर पास नहीं हुआ वो मुझे क्या फ़ेल करेगा.
इमेज कॉपीरइट grab of short film

सोशल मीडिया पर शेयर हो रहा

मयंक शर्मा बाहर निकलता है और स्क्रीन पर शब्द उभरते हैं - ग़रीबी जाति देखकर नहीं आती, फिर आरक्षण जाति देखकर क्यों?
पर ये सवाल सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही छह मिनट की इस फ़िल्म के ज़रिए ही नहीं उठाया गया है. हिंदू समाज को एकजुट करने और उसे एक राजनीतिक ताक़त में बदलने के काम में लगे तमाम संगठन इस सवाल को अलग-अलग बार अपने तरीक़े से उठा चुके हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले ये सवाल उठाया गया और भारतीय जनता पार्टी को उसके नतीजे भुगतने पड़े. इसके बाद फिर से जयपुर में हिंदुत्ववादी नेताओं ने आरक्षण पर प्रश्न चिन्ह लगाया लेकिन तुरंत उन्हें सफ़ाई देनी पड़ी. मगर आरक्षण के ख़िलाफ़ अभियान चलता रहा.
महाराष्ट्र में मराठा आंदोलन हो, गुजरात का पाटीदार आंदोलन, या फिर हरियाणा में खाती-पीती जातियों की ओर से आरक्षण की माँग. इन सभी में एक बात साफ़तौर पर कही जाती रही है कि अगर आरक्षण ख़त्म नहीं किया जा सकता तो ऊँची जातियों को भी आरक्षण दिया जाए.

आरक्षण विरोधी माहौल बनेगा

अगले दो से पाँच बरसों में ये माँग कमज़ोर पड़ने की बजाए और तेज़ की जाएगी और आरक्षण विरोधी माहौल बनाने की कोशिश की जाएगी. ठीक उसी तरह जैसे सबसे पहले बीस बरस पहले लालकृष्ण आडवाणी ने धर्मनिरपेक्षता के पेड़ की जड़ों में मट्ठा डालने की कोशिश की और उसे छद्म या विकृत धर्मनिरपेक्षता कहा.
इसी तरह उदारवाद या लिबरल शब्द की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े किए गए जिसका नतीजा ये हुआ कि लोग ख़ुद को धर्मनिरपेक्ष, लिबरल कहने में हिचकने लगे.
नज़रिया: क्रोसना चूहे का स्वाद याद है आपको, लालू जी?
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दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को आरक्षण की व्यवस्था के ख़िलाफ़ समाज में पहले से ही मौजूद संवेदनाओं को और मज़बूत करने के लिए ये ज़रूरी हो गया है कि दलितों को नक़लची, मंदबुद्धि और आरक्षण के बल पर सफल होने वालों की तरह दिखाया जाए.
और इस कोरस को इतना तेज़ कर दिया जाए कि आरक्षण का लाभ लेने वाला ख़ुद को समाज से बहिष्कृत महसूस करे.
देहाती दिखने वाले जगन नाथ को खलनायक और लंबे-गोरे शहरी युवक मयंक शर्मा को उसका पीड़ित दिखाने वाली ये सतही-सी दिखने वाली फ़िल्म गहरी राजनीतिक समेटे हुए है. और ये राजनीति बराबरी और सामाजिक न्याय के विरोध में खड़ी है. इसे समझना होगा.

  http://www.bbc.com/hindi/india-41295595?ocid=wshindi.chat-apps.in-app-msg.whatsapp.trial.link1_.auin

दलित गुलामी का दस्तावेज- पूना पैक्ट

🏝पूना पैक्ट दिवस (24 सितंबर) पर विशेष🏝
" 😱पूना पैक्ट: दलित गुलामी का दस्तावेज😱 "


(To know the realities of Communal Award; Separate Electorate and Poona Pact please read this article in complete and SHARE it to maximum citizens of India so that they may be awakened)

हिन्दू समाज में जाति को धर्म और समाज की आधारशिला माना गया है। इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं जिन्हें 1935 तक सरकारी तौर पर ‘डिप्रेस्ड क्लासेज (Depressed Classes)’ कहा जाता था।  मोहन दास कर्म चंद गांधी ने उन्हें ‘हरिजन’ के नाम से स्थापित करने की कोशिश की थी  जिसे 1981-82 में अधिकतर अछूतों ने अस्वीकार तो कर दिया परंतु उन्होंने अपने लिए ‘दलित’ नाम की स्वीकृति आँख मींच कर दे दी। दलित शब्द तो हरिजन से भी घटिया है।वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (16.20 %) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13 %) हैं। अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक व भौमिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं।

दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं। उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है।  जब श्री. ई. एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण घोषणा की थी कि ‘”अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है " तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें कर के अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया। परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमिशन को पेश करने का मौका मिला।  तदोपरांत विभिन्न कमिशनों , कांफ्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला चला.  सन 1918 में मान्तेग्यु चैमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसलों में डिप्रेस्ड क्लासेज के नगण्य प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कही गयी। साईमन कमीशन (1928) ने स्वीकार किया कि "डिप्रेस्ड क्लासेज " को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए। सन 1930 से 1932 तक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंसें (Round table Conferences)  हुई जिन में अन्य अल्पसंख्यकों के साथ साथ दलितों को भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली। यह एक ऐतिहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी। इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन द्वारा दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित ‘Communal Award ' में दलितों को 'पृथक निर्वाचन' का स्वतन्त्र राजनैतिक अधिकार मिला। इस अवार्ड से दलितों को  double voting अधिकार मिल रहा था जिसके द्वारा उन्हें आरक्षित सीटों पर अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार और साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु भी वोट का अधिकार प्राप्त होने वाला था।  इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली बार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था।

 मुसलमानों, सिक्खों, ऐँग्लो इंडियन्स तथा अन्य अल्प सँख्यको को  गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 में  मिली मान्यता के आधार पर पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायिकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी। उसी प्रकार दलितों को भी प्रथक निर्वाचन अधिकार द्वारा अपने प्रतिनिधी स्वयं चुनने का अधिकार मिला और उनके लिये 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित भी की गई थी। लेकिन 18 अगस्त 1932 को मिले इस प्रथक निर्वाचन अधिकार के विरोध में मोहनदास करमचंद गाँधी यरवदा (पूना) की जेल में  ही 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन (indefinite hunger strike unto death) पर बैठ गये। गाँधी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित और कमजोर हो जायेगा। यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कभी कोई विरोध नहीं किया। गाँधी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री, श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की। इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांकित 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया , ” ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे ताकि उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके। वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है। जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा। इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा – एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए। हम ने जानबूझ कर – जिसे आप ने अछूतों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फैसला दिया है। दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उमीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उमीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है.” कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था।
परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न – भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता। उन्होंने आगे कहा, ” मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है। इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा।”  गांधी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. अंबेडकर ने गाँधी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभ चिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग होकर अलग देश बनाने की।  परन्तु गाँधी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था। यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह एक विकट स्थिति थी। एक तरफ गाँधी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर और उनका कमजोर अछूत समाज। अंतत भारी दबाव एवं अछूतों के संभावित जनसंहार के भय तथा गाँधी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ. आंबेडकर तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और  सवर्ण हिन्दुओं के  साथ 24 सितम्बर , 1932 को

तथाकथित पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा।  इस प्रकार अछूतों को गाँधी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा जिसके कारण आज हमें प्रतिनिधि की बजाय गुलाम चुनने पड़ रहे हैं जो हमारे अधिकारों को बचाने व दिलाने में नाकाम रहे हैं . यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ‘ कम्युनल अवार्ड ‘ में सुरक्षित सीटों की संख्या 78 से बढ़ा कर 151 की गई परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है। उन्हें सच्चे और जुझारू प्रतिनिधि मिले ही नहीं। क्योंकि कोई भी पा्र्टी दलित समाज के  जुझारू, अच्छे पढे लिखे और सच्चे-सुलझे को कोई टिकट देता ही नहीं।

पूना पैकट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1935 में शामिल करने के बाद सन 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे। गाँधी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ.बी.  आर. आंबेडकर ने कहा था, ” पूना पैकट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है।”
कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों को जो पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से स्वर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया। इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें उनका गुलाम/बंधुआ बन कर रहना पड़ता है।  सभी राजनैतिक पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और उनकी पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या उस पर बोलने की इजाजत नहीं देतीं। यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभाओं में दलित प्रतिनिधियों कि स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि ” जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?” इस पर उन का उत्तर था, ” मैंने कौरवों का नमक खाया था.”
वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे।  इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते। इससे हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता।  परन्तु गाँधी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई देकर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर दिया जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनैतिक गुलाम बन गए। वास्तव में गाँधी की चाल काफी हद तक राजनीतिक ही थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है:
” अछूतों के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ. दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा। वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा। अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे। क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता।” (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ट 301, प्रथम खंड).
गाँधी के इस सत्य कथन से आप गाँधी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं।

दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है चाहे वह डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो। इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है। इसी कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं। पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढाती चली आ रही है क्योंकि इससे उन्हें दलित सांसदों और विधायकों के रूप में अपने मनपसंद गुलाम चुनने की सुविधा रहती है।

सवर्ण हिन्दू राजनीतिक पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो कर टूट जाती हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम रही है और ”हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” जैसे नारों को स्वीकार करने के लिए वाध्य है। अब तो उसका रूपान्तारण बहुजन से सर्वजन में हो गया है। इन परिस्थितयों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है, वे राजनीतिक तौर प़र सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं। अतः इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा। क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ?

यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों में छुआ-छूत को समाप्त करने, राजनैतिक सीटों (constituencies) और सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए अलग बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 70 वर्ष बाद भी उनके किर्यान्वयन की स्थिति दयनीय ही है. डॉ. आंबेडकर ने अपने इन अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी 25 सितम्बर , 1932 को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था, ” हमारी एक ही चिंता है. क्या हिन्दुओं की भावी पीढियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी ? ” इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, ” हाँ, हम करेंगे.” डॉ. आंबेडकर ने यह भीं कहा था, ” हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संघटित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे.” क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोडा बहुत आत्म चिंतन नहीं  करना चाहिए? यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए?
(इस लेख के मूल लेखक श्री एस आर दारापुरी,  वरिष्ठ IPS अधिकारी (Regd.



 *“गांधी को गरीब दिखाने के लिए लाखों ,करोडो रूपये खर्च करने पड़ते है!” -सरोजनी नायडू.*

उक्त कथन को समझना है तो अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में जाकर देख सकते हो।
मोहनदास करमचंद गांधी ने देश का सत्यानाश किया है ।गांधी,नेहरू ने आरएसएस की स्थापना की ,कांग्रेस और आरएसएस,बीजेपी एक ही है ।गांधी का सपना राम राज था यानि मनु का राज लाना यह उनका उद्देश्य था उसे ही साकार करने का काम अब बीजेपी,आरएसएस,कम्युनिस्ट एकसाथ evm घोटाला करके साकार कर रहे है ।
गांधी को तीन बार नोबल प्राइज़ से रिजेक्ट किया।नोबल प्राइज़ कमिटी का कहना था कि गांधी नोबल प्राइज़ के हकदार इसलिए नहीं है क्यों की वे रेसिस्ट यानि वंशवादी थे।अभी साऊथ अफ्रीका से एक किताब प्रकाशित हुई है जिसमे यह बात गांधी जी के ही दस्तावेजों के आधार पर लिखी है कि गांधी जी ने अंग्रेजो को खत लिखा था कि हम बनिया और ब्राम्हणो को आप लोग काले लोगो साथ न देखे आप जैसे ही हम लोग विदेशी है ।आप हमारे खून के भाई है ।गांधी बहुत बड़ा षड्यन्त्रकारी था ।पूना पैक्ट इस बात का सबूत है ।डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी का राउण्ड टेबल कॉन्फ्रन्स में गांधी ने सेपरेट एलोक्ट्रेट का विरोध करते हुए कहा था कि मैं सेपरेट एलोक्ट्रेट का इसलिए विरोध करता हूँ क्यों की इससे हिंदुत्व खतरे आता है !!!
गांधी का चरित्र हमें ही लिखना है क्यों मक्कार और धोकेबाक गांधी को उसी के जुबान के आधार पर एक्सपोज करना जरुरी है ।
एक बार गांधी ने एक मीटिंग में कहा कि "इन मुसलमान और अछूत गुंडों को आज़ादी मिलती है तो मैं ऐसे आज़ादी को लात मारता हूं!"
साथियो,अब गांधी जैसे गुंडे की समाधी तक उखाड़ने की तैयारी में है !
हम जब आज़ाद होंगे तब साबरमती आश्रम को उखाड़ फेकेंगे और उस जगह पर अस्पताल खोलेंगे!!!
 आखरी बात इन तस्वीरों में गांधी ने भंगियो को गालिया दी है । गांधी बहुत धोकेबाज़ और मक्कार व्यक्ति थे ।एक बार यूपी के मुझफरनगर के एक ग्र्यजुएट लड़के ने गांधी की बिनती की उसे संविधान सभा में कांग्रेस की तरफ से चुनकर भेजे ।तब गांधी ने उसका खत हरिजन पत्रिका में छापा और उसे जवाब देते हुए कहा कि तुम नीच जाति के हो तुम वही काम करो जो तुम्हारे बाप जादे करते आए है।बल्कि तुम पढ़े लिखे हो इसलिए पैखाना शरीर पर कैसे न गिरे ऐसा तुम काम करो।ऊंचा ध्येय मत रखो जिससे ब्राम्हण नाराज हो जाए!!!
गांधी की धोखेबाजी को हम एक्सपोज करेंगे।हमें मालूम है कि गांधी को जब हम नंगा करेंगे तब गांधी की नाजायज अवलाद आरएसएस,बीजेपी हमें विरोध करने के लिए सामने आएगी।तब बहुत मजा आएगा।
राहुल गांधी हमारा विरोध करने के लिए सामने आएगा तब उसे तुरंत इटली भेजेंगे सोनिया के साथ!!!

पूना करार धिक्कार बार बार।
गाँधीजी को और पूना करार से पैदा हुए दलाल और भड़वो का जाहिर धिक्कार।

मुख्यमंत्री (पू.) का सुसाइड नोट



मुख्यमंत्री (पू.) का सुसाइड नोट : उपराष्ट्रपति ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया- क्यों?

माननीय उपराष्ट्रपति जी ने अपने संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य का पालन नहीं किया. क्यों नहीं किया, ये सवाल हम उपराष्ट्रपति जी से विनम्रता से पूछना चाहते हैं. क्या हम उपराष्ट्रपति जी से ये पूछ सकते हैं कि उनके कर्तव्य पालन न करने के पीछे कहीं ये कारण तो नहीं है कि वे मुसलमान हैं और उन्हें लगा हो कि छद्म हिन्दूवादी उनके पीछे पागलों की तरह पड़ जाएंगे. या फिर ये कि जो पत्र उन्हें दिया गया है, उस पत्र में देश के वित्त मंत्री रहे हुए व्यक्ति का नाम है, जो इस समय उनसे ऊंचे पद पर आसीन है. या फिर ये कि उसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का नाम है और आने वाले संभावित मुख्य न्यायाधीश का नाम है. या फिर ये कि उनके सभापतित्व में चलने वाली राज्यसभा के कुछ भूतपूर्व सदस्यों के नाम हैं और कुछ वर्तमान सदस्यों के भी नाम हैं.
उपराष्ट्रपति जी के कर्तव्य पालन में खरा न उतरने का परिणाम भविष्य में शायद ये निकले कि कभी कोई राष्ट्रपति, कभी कोई प्रधानमंत्री, कभी कोई मुख्य न्यायाधीश या कभी कोई उपराष्ट्रपति अगर आत्महत्या करे और मृत्यु से पहले अपना आखिरी बयान छोड़ कर जाए, तो उसके ऊपर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी. क्योंकि ईश्वर न करे, लेकिन व्यवस्था मिलकर उनके मृत्यु पूर्व बयान को दबा देगी. एक फिल्म अभिनेत्री जिया खान आत्महत्या करती है, पूरा सिस्टम नामजद लोगों के पीछे ईमानदारी से पड़ जाता है. लेकिन इस देश में पच्चीस साल तक विधानसभा का सदस्य रहने वाला व्यक्ति, जो वित्त मंत्री रहा और फिर बाद में मुख्यमंत्री बना, उसने मुख्यमंत्री निवास में आत्महत्या कर ली, आत्महत्या से पूर्व 60 पृष्ठ का खत लिखा, एक दस्तावेज लिखा, जिसे उसने ‘मेरे विचार’ का शीर्षक दिया, लेकिन उसकी जांच नहीं हुई. सारे कागज देखने पर पुलिस की रिपोर्ट में ये साफ संकेत है कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री की आत्महत्या के पीछे के कारण उनके द्वारा छोड़े गए दस्तावेज में मौजूद हैं. लेकिन खुद पुलिस ने उसकी कोई जांच नहीं की. ये कैसा कमाल है कि राज्य सरकार ने केन्द्र को सिफारिश भेजी कि वो जैसी जांच चाहे वैसी जांच करवा ले, लेकिन केन्द्र ने सीबीआई की जांच का आदेश अबतक नहीं दिया है. देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मृत मुख्यमंत्री की विधवा मिलीं. उन्होंने कहा कि चार-पांच दिन के बाद मैं इसका अध्ययन करूंगा. लेकिन मार्च के बाद से अब तक उनके वो चार-पांच दिन पूरे नहीं हुए. मृत मुख्यमंत्री की विधवा प्रधानमंत्री से मिलने का आज तक समय मांग रही हैं, लेकिन प्रधानमंत्री के पास उनसे मिलने का समय नहीं है.
मैं अरुणाचल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की बात कर रहा हूं. पुल ने मुख्यमंत्री आवास में आत्महत्या की. उन्होंने 60 पृष्ठ का मौत पूर्व दस्तावेज लिखा. उस दस्तावेज में उन्होंने हर पृष्ठ पर अपने दस्तखत किए. फुट नोट पर कुछ लिखा और मरने से पहले उसके सारे पन्ने आसपास फैला दिए, ताकि वो अनदेखा न रह जाए. उन्होंने मृत्यु पूर्व बयान में ये आशा व्यक्त की कि इस पत्र में भ्रष्टाचार की जो कहानी लिखी है, उसके ऊपर जनता ध्यान देगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाएगी. भ्रष्टाचार की उस कहानी में उनकी पार्टी के राज्यसभा के सदस्य, बड़े वकील और सुप्रीम कोर्ट के जजों के प्रतिनिधि शामिल हैं. उसमें इसका संपूर्ण विवरण शामिल है कि राज्य में जो पैसा आता है, वो पैसा कैसे जनता के पास नहीं पहुंचता और उस पैसे की कैसे लूट हुई है. लेकिन कलिखो पुल को क्या मालूम था कि उन्हीं के साथी, उन्हीं की बिरादरी के राजनीतिज्ञ उनके इस मृत्यु पूर्व बयान को उस जगह पहुंचा देंगे, जहां से इसकी कहीं झलक भी नहीं आ पाएगी. उन्हें क्या पता था कि इस देश का मीडिया इस तरह के सवालों पर ध्यान नहीं देगा. श्री पुल को शायद ये भी नहीं पता था कि जिस राज्य में भारतीय जनता पार्टी का कोई नामलेवा नहीं था और जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने में उन्होंने जितनी मेहनत की, उसी सरकार और केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री उनकी मौत पर आंसू तो नहीं ही गिराएंगे, बल्कि उनकी पत्नी को मिलने का समय भी नहीं देंगे.
उनकी पत्नी ने उपराष्ट्रपति महोदय को अपना विस्तृत विवरण दिया, क्योंकि वे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास नहीं जा सकतीं. कलिखो पुल के मृत्यु पूर्व बयान में तत्कालीन वित्त मंत्री श्री प्रणब मुखर्जी जी का नाम है. उनके कोलकाता के घर का पता है, जहां उन्होंने उन्हें पैसे दिए. श्री प्रणब मुखर्जी आज देश के राष्ट्रपति हैं, उनकी पत्नी उनके पास नहीं जा सकती थीं, इसलिए वे उपराष्ट्रपति महोदय के पास गईं.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का नाम कलिखो पुलो ने मृत्यु पूर्व वक्तव्य में लिखा है. सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को अप्राकृतिक मौत देने की तैयारी कर ली थी, जो उनकी पत्नी ने खत के रूप में सुप्रीम कोर्ट में जमा कराया था. उन्होंने ये अनुमति मांगी थी कि जिन लोगों के नाम पुल के मृत्यु पूर्व बयान में हैं, उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई जाए. लेकिन जब उन्हें पता चला कि उस पत्र की हत्या हो जाएगी, क्योंकि उस पत्र को ज्यूडिशियल याचिका में बदल दिया गया था. जिस तरह से याचिका की सुनवाई से एक दिन पहले शाम को रजिस्ट्रार के ऑफिस से उनके पास दिल्ली पहुंचने की सूचना फोन से दी गई, उससे उन्हें लगा कि उनको उस याचिका को वापस ले लेना चाहिए. इसके बाद वे सबसे वरिष्ठ उपलब्ध अधिकारी उपराष्ट्रपति के पास गईं और उन्हें सारी बातें बताते हुए, सारे कागज लगाकर ये कहा कि वे इसकी जांच कराएं. लेकिन उपराष्ट्रपति महोदय ने पता नहीं किन कारणों से, शायद ये वही कारण होंगे जिनका मैंने शुरू में जिक्र किया, उस फाइल को किसी के पास नहीं भेजा, लेकिन ये हमारा अंदाजा है. हम चाहते हैं कि उपराष्ट्रपति महोदय देश को ये बताएं कि उनके राज्यसभा के सदस्य जिनका नाम श्री पुल के मृत्युपूर्व नोट में है, क्या उन्होंने श्री पुल के उस नोट का खंडन किया है? क्या राज्यसभा भ्रष्टाचारी नेताओं को संरक्षण देने का अड्‌डा बन गई है? सुप्रीम कोर्ट की बेंच कहती है कि अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ कोई शिकायत है, तो राष्ट्रपति से अनुमति लेकर इसकी जांच कराई जा सकती है. लेकिन जब स्वयं राष्ट्रपति के पद पर आसीन व्यक्ति का नाम राष्ट्रपति के नाते नहीं, लेकिन किसी समय देश के वित्त मंत्री रहते हुए अगर आया हो, तो फिर उपराष्ट्रपति के अलावा इस पत्र को देने की कोई जगह बचती नहीं है. उपराष्ट्रपति जी ने संविधान और नैतिकता के सवाल को दरकिनार कर इस फाइल का क्या किया, उस पत्र का क्या किया, किसी को कुछ नहीं पता? क्या उपराष्ट्रपति जी संवैधानिक प्रमुख होने के नाते और राज्य सभा के सभापति होने के नाते देश को इसका कारण बताएंगे? सुप्रीम कोर्ट के फैसले, सुप्रीम कोर्ट की गतिविधियां, कुछ लोगों की वजह से सवालों के घेरे में आ गई हैं. खुद राज्यसभा सवालों के घेरे में आ गई है. क्या उपराष्ट्रपति जी इसकी जांच के लिए राज्यसभा की कोई समिति बनाएंगे या अपने संवैधानिक अधिकार के तहत एक एसआईटी गठित करने का आदेश गृहमंत्रालय को देंगे? ये सवाल है और बहुत बड़ा सवाल है.
आखिर सवालों के दायरे से बाहर कौन है? क्या स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. जब 2014 में उन्होंने सरकार बनाई, तो भारत को दिए गए उनके सबसे पहले वचनों में एक वचन था कि वे भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस की पॉलिसी पर चलेंगे. उन्होंने शायद इसीलिए अपने मंत्रिमंडल के राजनीतिक सदस्यों की हैसियत कम की और नौकरशाहों की हैसियत ज्यादा बढ़ाई. यद्यपि भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला पहले का या उनके समय का, कानून के दायरे में अपने अंतिम परिणाम पर नहीं पहुंचा. लेकिन यहीं सवाल खड़ा होता है कि उनकी मदद करने वाले व्यक्ति, अरुणाचल के मुख्यमंत्री, जिन्होंने अरुणाचल में भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी, उसकी सरकार बनवाई, कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने मरते समय 60 पृष्ठ का एक लंबा नोट लिखा, जिसमें ये सब विस्तार से लिखा कि कहां-कहां भ्रष्टाचार होता है, कौन-कौन भ्रष्टाचार करता है. ये भी लिखा कि उनसे किसने पैसे मांगे, क्यों पैसे मांगे और सरकार की किन योजनाओं के लिए पैसे मांगे. वो खत, वो उनका मृत्यु स्वीकारोक्ति बयान, प्रधानमंत्री के पास जरूर पहुंचा होगा. प्रधानमंत्री ने क्यों उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया. भ्रष्टाचार की परत-दर-परत खोलने वाला एक दस्तावेज, उसी राजनीतिक बिरादरी के मुख्यमंत्री ने लिखा था, जिस राजनीतिक बिरादरी से प्रधानमंत्री हैं. उस दस्तावेज का नोटिस प्रधानमंत्री जी ने क्यों नहीं लिया. वो भारतीय जनता पार्टी के भ्रष्टाचार की कहानी नहीं कह रहा है, वो तो कांग्रेस के भ्रष्टाचार की कहानी कह रहा है. उसमें भारतीय जनता पार्टी से जुड़े किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं है. उसमें कांग्रेस से जुड़े सभी लोगों के नाम हैं. वो चाहे आज कितने भी बड़े पदों पर हों. राज्यसभा के जितने भी सदस्यों के नाम उसमें आए हैं, वो सब कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए हैं. तब आखिर प्रधानमंत्री मोदी ने उस मृत्यु पूर्व बयान का संज्ञान क्यों नहीं लिया. क्यों प्रधानमंत्री ने उस बयान के आधार पर जांच नहीं बैठाई. क्यों प्रधानमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट और राज्यसभा की ऐसी छवि बनने की इजाजत दे दी, मानो संपूर्ण सुप्रीम कोर्ट और संपूर्ण राज्यसभा भ्रष्टाचार के कीचड़ में नाक तक सनी है. अगर वे जांच करा देते, अगर वे एसआईटी बनवा देते, अगर वे सीबीआई को जांच सौंप देते, जिसमें निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट और राज्यसभा के सदस्य बरी हो जाते, तो कम से कम एक लाछंन धुल जाता. लेकिन प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया. मैं आज भी मानता हूं कि प्रधानमंत्री साफ छवि के व्यक्तिगत रूप से ईमानदार व्यक्ति हैं. लेकिन उन्होंने क्या सोच कर स्वर्गीय पुल द्वारा लिखे गए उस 60 पृष्ठ के नोट को अनदेखा कर दिया और अनदेखा करने दिया.
मैं पूछता चाहता हूं, प्रधानमंत्री जी क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? मैं सर्वोच्च न्यायालय से भी पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? मैं उपराष्ट्रपति जी से पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? मैं राज्यसभा से भी पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? अगर आपको लगता है कि हमारा सवाल उठाना गलत है, तो क्या हम आपसे इन सवालों को उठाने के बदले सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगें. लेकिन मुझे लगता है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था के जंगल में कुछ ऐसे लोग जरूर हैं, जो अन्याय, भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना हाथ खड़ा करेंगे. मैं इसीलिए आखिर में संवैधानिक रूप से उपराष्ट्रपति जी से सवाल करता हूं और ये अपेक्षा भी जाहिर करता हूं कि आप जा रहे हैं, जाते-जाते अपने संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य का पालन करेंगे. आपको श्रीमती पुल द्वारा भेजे गए 60 पेज के नोट के साथ उनकी ये अपेक्षा कि इसकी जांच एसआईटी के द्वारा या सीबीआई के द्वारा कराई जाए, आप इसपर ध्यान देंगे और अपने ऊपर लगने वाला लांछन स्वतः समाप्त करेंगे. मैं इतना और बता दूं कि पुलिस की रिपोर्ट में ये माना गया है कि श्री पुल की मृत्यु के कारण, उनके द्वारा लिखे 60 पृष्ठ के नोट में हैं. पुलिस ने जांच नहीं की, किसी संस्था ने जांच नहीं की, अरुणाचल सरकार की जांच की विनती को गृह मंत्रालय ने दबा दिया, तब प्रधानमंत्री जी, हम कैसे मानें कि आपमें भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस है. या फिर राजनैतिक सुविधा के लिहाज से, कुछ लोगों को धमकाने के लिए, चाहे वो सुप्रीम कोर्ट के जज हों, या कांग्रेस पार्टी हो, आपने इस जांच को फिलहाल निलंबित कर रखा है. जब इन दोनों, एक राजनीतिक पार्टी या सुप्रीम कोर्ट के जजों को दबाना होगा, तब आप इस जांच की कार्रवाई शुरू करेंगे. ईश्वर करे, ये सच न हो. क्योंकि प्रधानमंत्री को किसी भी प्रकार के अतिरिक्त दबाव पैदा करने की कम से कम भारत में आवश्यकता नहीं है. भ्रष्टाचार की परत-दर-परत खोलने वाला स्वर्गीय पुल का ये पत्र पूरा का पूरा हम इस अंक में छाप रहे हैं. सरकार से, राज्यसभा से और उपराष्ट्रपति जी से हम ये अपेक्षा करते हैं कि इस पत्र की सच्चाई और इसमें लिखी हुई बातों को जांच कर, दूध का दूध और पानी का पानी करने की जिम्मेवारी उनके ऊपर है. इस देश में लोकतंत्र के प्रति और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति इज्जत बनी रहे. इसके लिए आवश्यक है कि उपराष्ट्रपति जी अपने कर्तव्य का पालन करें. वरना वे लोकतंत्र को खत्म करने के षड्‌यंत्र के हिस्सेदार माने जाएंगे.
देश की जनता से हम पूछना चाहते हैं कि जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो पुलिस उसकी जांच करती है और अगर उसे ऐसे व्यक्तियों के नाम मिलते हैं, जो आत्महत्या के लिए उकसाने का काम करते हैं, तो पुलिस उन्हें गिरफ्तार करती है और अदालत उन्हें सजा देती है. इस केस में ऐसा क्यों नहीं किया गया, कारण तलाशें. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का नाम और उनके बाद मुख्य न्यायाधीश बनने वाले व्यक्ति का नाम श्री पुल ने अपने पत्र में लिखा है. उनके ऊपर लगा आरोप यदि सही नहीं है, गलत है, तो इसकी जांच कौन कराएगा? पुलिस ने जांच नहीं की, प्रधानमंत्री ने अनदेखा कर दिया, उपराष्ट्रपति ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया, राष्ट्रपति स्वयं इसमें शामिल बताए गए हैं. आखिर किसी ने खंडन क्यों नहीं किया? मरा हुआ व्यक्ति साधारण व्यक्ति नहीं है, आम आदमी नहीं है. वो व्यक्ति जिसने आत्महत्या की, जिसने ये आरोप लगाए और मरने से पहले लगाए, उसके मृत्यु पूर्व दस्तावेज को क्यों अनदेखा कर दिया गया? ये माना जाता है कि 90 प्रतिशत वो बातें सही होती हैं, जो मरने वाला मरने से पहले लिखता है. ये सवाल, सवाल, सवाल, सवाल, सवाल… एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हैं. इसका जवाब आज नहीं तो कल, इस व्यवस्था को, सुप्रीम कोर्ट के जजों को, प्रधानमंत्री को और उपराष्ट्रपति को देना ही होगा.

एक सुसाइड नोट की हत्या की यात्रा
   17 फरवरी 2017 को कलिखो पुल की पत्नी दंगविम साई ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस खेहर को पत्र लिख कर मांग की कि कलिखो पुल के सुसाइड नोट में जिन न्यायाधीशों के नाम रिश्वत के आरोपों में दर्ज हैं, उनके विरुद्ध जांच कराई जाए.
    कलिखो पुल ने अपने सुसाइड नोट में आरोप लगाया था कि जुलाई, 2016 में उनकी सरकार को अपदस्त करने का आदेश देने वाली संविधान पीठ के जजों ने अनैतिक/अवांछित प्रभाव में आकर ये आदेश पारित किए है.
    सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने दंगविम साई के पत्र पर सुनवाई की और इसे क्रिमिनल रिट पिटीशन के रूप में दर्ज़ करने के आदेश दिए.
    सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ने रिट पिटीशन दर्ज़ करते हुए इसे जस्टिस ए. के गोयल और जस्टिस यू.यू. ललित की बेंच में सुनवाई हेतु भेजा.
    कोर्ट के रजिस्ट्रार ने सुनवाई होने के 1 दिन पूर्व श्रीमती पुल (दंगविम साई) को उनके मोबाइल नंबर पर रिट पिटीशन दर्ज़ होने की आधिकारिक सूचना दी.
    मामले की सुनवाई के दौरान श्रीमती कलिखो पुल के वकील दुष्यंत दवे ने इस मामले की न्यायिक सुनवाई के बारे में कई सवाल खड़े किए.
    श्री दवे ने कोर्ट में खुलासा किया कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने हाल ही में उनसे मुलाक़ात की और कई सनसनीखेज जानकारियां दी. लेकिन उन सब का खुलासा कोर्ट में किया जाना उचित नहीं है.
    उन्होंने कहा कि याची ने सुसाइड नोट में न्यायाधीशों पर लगाए गए करप्शन के आरोपों की प्रशासनिक जांच की याचना की है न कि इसके न्यायिक परीक्षण की.
    उन्होंने श्रीमती पुल के पत्र को रिट पिटीशन में तब्दील करने को लेकर भी सवाल खड़े किए.
    श्री दवे ने ये भी टिप्पणी की कि इस रिट पिटीशन को जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित की बेंच में भेजा जाना भी संदेह पैदा करता है. उन्होंने बताया कि जस्टिस गोयल काफी जूनियर जज हैं तथा वे सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर के साथ पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में बतौर जज काम कर चुके हैं.
    दवे ने कहा कि कलिखो पुल के सुसाइड नोट में जस्टिस खेहर पर भी करप्शन के आरोप हैं और ये भी कहा गया है कि उन्होंने 36 करोड़ की हुई डील में अपने बेटे का इस्तेमाल किया.
    श्री दवे ने के. वीरास्वामी वर्सेज यूनियन ऑ़फ इंडिया केस का हवाला दिया तथा इसी आधार पर सुसाइड नोट में न्यायाधीशों पर लगे करप्शन के आरोपों की प्रशासनिक जांच करने की मांग की.
    के. वीरास्वामी मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. रामास्वामी के ससुर थे. वीरास्वामी पर आय के ज्ञात स्त्रोतों से अधिक सम्पति अर्जित करने के आरोप लगाए गए थे. इन आरोपों के खिलाफ उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया.
    वे हाई कोर्ट के पहले चीफ जस्टिस थे, जिनके विरूद्ध महाभियोग चलने का आदेश दिया गया.
    वीरास्वामी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और अंततः वीरास्वामी को पदच्युत कर दिया गया.
    श्री दवे ने ये भी कहा कि इस मामले को सुनवाई हेतु कोर्ट नंबर 13 में भेजा जाना तथा इसकी सुनवाई का समय भोजनावकाश के दौरान 30 पीएम पर तय किया जाना भी संदेह पैदा करने वाला है, क्योंकि सुनवाई का ये अस्वाभाविक समय था.
    सुनवाई के दौरान जस्टिस यू. यू. ललित और ए. के. गोयल की बेंच ने कहा कि अगर श्री दवे या उनकी याचिकाकर्ता अभी पिटीशन को वापिस लेना चाहें, तो ले सकते हैं. लेकिन दुष्यंत दवे ने प्रशासनिक जांच को लेकर ज़ोर देना जारी रखा. बेंच द्वारा दवे की दलीलों पर जब विचार करने से इंकार कर दिया गया, तब ये मान कर कि पिटीशन खारिज हो जाने पर उनके लिए पैरवी के सभी रास्ते बंद हो जाएंगे, श्रीमती पुल की सहमति से श्री दवे ने याचिका वापस ले ली. श्रीमती पुल ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट में पैरवी के लिए हमने प्रशांत भूषण से सम्पर्क साधा था, लेकिन वे किसी अन्य केस में व्यस्त थे. इस बीच प्रशांत भूषण ने दुष्यंत दवे से कुछ बातचीत की और श्री दवे ने मेरिट के आधार पर ही इस मामले में पैरवी की. हमने ये याचिका भी प्रशांत भूषण की सलाह पर वापिस ली थी.
    मामले की सुनवाई करने के उपरांत बेंच ने रिट पिटीशन को ये कह कर खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका वापिस ले ली है.
    बेंच ने ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या अन्य जजों के विरुद्ध यदि गंभीर आरोप हैं, तो सरकार राष्ट्रपति से अनुमति लेकर वरिष्ठ जजों की बेंच बनाकर जांच करा सकती है.
    लेकिन बाद में इसपर राष्ट्रपति, केंद्र सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी ने चुप्पी साध ली और एक मुख्यमंत्री की ख़ुदकुशी रहस्य बनकर रह गई.

उपराष्ट्रपति को पत्र
28 फरवरी 2017 को श्रीमती दंगविम साई ने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को पत्र लिख कर मांग की कि एसआईटी (स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम) गठित कर श्री पुल के सुसाइड नोट में दर्ज़ जजों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की निष्पक्ष जांच कराई जाए.
    श्रीमती पुल ने कहा कि श्री पुल के सुसाइड नोट को मृत्यु पूर्व बयान के रूप में देखा जाना चाहिए. चूंकि सुसाइड नोट में लगाए गए आरोप गंभीर प्रकृति के हैं, इसमें सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान चीफ जस्टिस और एक दूसरे वरिष्ठ जज के नाम हैं, इसलिए इसकी जांच एक ऐसी एजेंसी से कराया जाना आवश्यक है, जो सरकार के नियंत्रण से बाहर हो, जिससे न्यायपालिका के सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा हो सके. उन्होंने मिसाल के तौर पर वीरास्वामी बनाम भारत सरकार केस का उद्धरण भी पेश किया.
    उन्होंने ये भी तर्क दिया कि सामान्यतः सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत होने पर राष्ट्रपति के माध्यम से जांच कराने का प्रावधान है. लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एक वरिष्ठ जज तथा राष्ट्रपति महोदय का भी नाम है, इसलिए मैं उपराष्ट्रपति महोदय को पत्र लिख कर जांच कराने की मांग कर रही हूं.
    श्रीमती पुल ने उपराष्ट्रपति से ये आग्रह भी किया कि वे इस मामले की जांच के लिए एसआईटी गठित करने हेतु जस्टिस खेहर व जस्टिस दीपक मिश्रा के अतरिक्त किन्ही अन्य 3 या 5 वरिष्ठ जजों की एक बेंच बनाने हेतु निर्देशित करें, जिससे मामले की सही ढंग से जांच हो सके. अन्यथा उन राजनेताओं और जजों की निष्ठा और ईमानदारी पर संदेह के बादल छाए ही रहेंगे, जिनके नाम श्री पुल ने अपने सुसाइड नोट में लिखे हैं. श्रीमती पुल के इस पत्र पर भी उपराष्ट्रपति ने आज तक कोई कार्यवाही नहीं की.
गृह मंत्री को पत्र
श्रीमती पुल 03.2017 को देश के गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह से दिल्ली में मिलीं और उन्हें पत्र लिख कर एसआईटी के माध्यम से सारे मामले की जांच कराने की मांग की. उन्होंने आग्रह किया कि ये जांच सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में होना ज़रूरी है, क्योंकि दोनों जजों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे होने के कारण इसमें न्यायपालिका की गरिमा भी दाव पर लगी है. उन्होंने अपने और अपने परिवार के लिए केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी से सुरक्षा उपलब्ध कराए जाने की भी मांग की.
    श्रीमती दंगविम साई के साथ गृह मंत्री से मिलने वालों में उनका बेटा ओज़िंग-सो पुल तथा कालिखो पुल के सचिव रहे आर.एन. लोलूम शामिल थे. गृह मंत्री ने श्रीमती पुल को ये कह कर टरका दिया कि वे अभी 4-5 दिनों के लिए बाहर जा रहे हैं, लौट कर आने के बाद मामले का अध्ययन करेंगे. बावजूद इसके, गृह मंत्री ने आज तक इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की.
    श्रीमती पुल ने बताया कि मार्च 2017 में ही अरुणाचल सरकार ने ये मामला गृह मंत्रालय को इस अनुशंसा के साथ भेज दिया था कि वे जांच के बारे में उचित फैसला लें, लेकिन गृह मंत्रालय ने इसे दबा दिया.
जुएल ओरांव को पत्र
श्रीमती पुल ने इसी तरह जनजाति मामलों के मंत्री जुएल ओरांव को 03.2017 को पत्र लिख कर न्याय दिलाने की मांग की. पत्र में उन्होंने ये भी कहा कि वे एक जनजातीय महिला हैं और सम्बंधित विभाग के मंत्री होने के नाते उनका ये दायित्व भी बनता है कि वे श्री कलिखो पुल की मृत्यु के कारणों तथा उनके सुसाइड नोट में लगाए गए आरोपों की जांच कराने में मदद करें. श्री ओरांव ने भी इस पर कार्यवाही नहीं की.
    03.2017 को ही श्रीमती पुल ने राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष को भी पत्र लिख कर इस मामले में हस्तक्षेप और सहायता करने की मांग की, लेकिन महिला आयोग ने भी चुप्पी साध ली.
    04.2017 को श्रीमती पुल ने सुप्रीम कोर्ट के तीनो वरिष्ठ जजों जस्टिस जे.चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस मदन बी लोकुर को पत्र लिख कर सुसाइड नोट में लगाए गए आरोपों के बारे में एफआईआर दर्ज़ कराने और जांच कराने की मांग की. उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि श्री पुल के सुसाइड नोट में चीफ जस्टिस खेहर, वरिष्ठ जज दीपक मिश्रा और राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी का भी नाम है और इस कारण आप तीनो वरिष्ठ जज हीं इस बारे में निर्णय लेने में सक्षम हैं, इसलिए वे ये अपील कर रही हैं.
    पत्र के साथ उन्होंने सुसाइड नोट तथा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को लिखे गए पत्र की प्रतिलिपि भी संलग्न की. इन तीनो जजों ने भी आजतक कोई जवाब नहीं दिया.
    श्रीमती पुल इसी दौरान केंद्रीय गृह सचिव राजीव महर्षि से भी मिलीं और सारे प्रकरण की निष्पक्ष एजेंसी से जांच कराने की मांग की. श्री महर्षि ने कहा कि वे इस मामले में कानूनी राय ले रहे हैं, लेकिन कोई कार्यवाही अभी तक नहीं हुई.
    श्रीमती पुल ने अपनी फरियाद लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने की कई बार कोशिश की, लेकिन अ़फसोस की बात ये है कि पीएमओ द्वारा उन्हें आजतक मुलाक़ात का समय ही नहीं दिया गया. दिलचस्प ये है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार उस मुख्यमंत्री के परिजनों के साथ कर रहा है, जिसने भाजपा के सहयोग से ही अरुणाचल में सरकार बनाई थी.
    श्री कालिखो पुल की रहस्यमय मृत्यु और उनके द्वारा सुसाइड नोट में कई शीर्ष नेताओ और जजों के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कराए जाने की मांग को लेकर अरुणाचल प्रदेश में अभी भी पुल समर्थक धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र की भाजपा सरकार इसका संज्ञान ले रही है. ये तब है, जब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू संसद में उसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते है.

मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा
• अरुणाचल के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या के पहले खोल दी थी नेताओं और जजों की पोल
• सुप्रीम कोर्ट, राजनीतिक दलों और मीडिया ने दबा दिया कालिखो पुल का सनसनीखेज सुसाइड नोट
• सुसाइड नोट जैसा ठोस आखिरी सबूत पेश किए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने नहीं की सुनवाई
• पहली बार ‘चौथी दुनिया’ हूबहू छाप रहा मुख्यमंत्री कलिखो पुल का 60 पेज का सुसाइड नोट
मैंने एक बहुत ही गरीब और पिछड़े हुए घर में जन्म लिया. मैंने उम्र भर दुःख देखे हैं. दुःख सहा है और बहुत बार दुख पर विजय भी पाई है. लेकिन विधाता ने मेरे जन्म से ही हर एक कदम पर मेरी कठोर परीक्षा ली है. आम लोगों को मां-बाप से दुलार मिलता है, प्यार मिलता है, शिक्षा मिलती है, समझ मिलती है. वहीं मेरे जन्म के 13 महीने बाद ही मां का साया छीन गया और जब मैं छह साल का हुआ, तो पिता भी भगवान को प्यारे हो गए. मेरे अपने कोई नहीं हैं. मां पिता और परिवार के प्यार से मैं हमेशा वंचित रहा हूं.
खुद अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूं
मैं समझता हूं कि इस दुनिया में मैं अकेले ही आया हूं और अकेले ही जाऊंगा. मैं मानता हूं कि इस दुनिया में हर इंसान मां के पेट से नंगा ही आता है और नंगा ही जाता है (कोई भी यहां से कुछ भी लेकर नहीं जाता है). मतलब जन्म से हर कोई खाली हाथ ही आता है और एक दिन खाली हाथ ही चला जाता है. अगर हर इंसान इस बात को समझ ले तो कभी भी, कहीं भी, धर्म, जाति, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के नाम पर झगड़े नहीं होंगे और न ही धन-दौलत, जमीन, जायदाद, सत्ता, शक्ति और प्रतिष्ठा की लड़ाई होगी.
मैं जानता हूं कि जब इंसान जन्म लेता है तो वह नाम, जाति, धर्म, समाज, भाषा, क्षेत्र, धन-दौलत, जमीन-जायदाद कुछ भी अपने साथ नहीं लेकर आता है. लेकिन आज इंसान इन बातों को भूलता चला जा रहा है. वो इन चीजों के लिए मरने-मारने तक को तैयार हो जा रहा है. जबकि इस अटल सच को भूल जाता है कि मैं सिर्फ एक आत्मा हूं. मैंने जिंदगी को हमेशा से सच दिखाने वाले आईने की तरह देखा है.
मैं ये मानता हूं कि इस दुनिया में मेरा कुछ भी नहीं है. अपने शरीर के अलावा, हम जो भी चाहते हैं, घर में जो भी सामान है, रुपया-पैसा, धन-दौलत, गाड़ी-घोड़ा, जमीन-जायदाद, शक्ति-सत्ता और प्रतिष्ठा, जिनके ऊपर मैं-मैं-मैं और मेरा-मेरा-मेरा कह कर उसके लिए हम लड़ते हैं और हम मालिक बनते हैं, वह असल में मेरा है ही नहीं.
जो आज मेरा है, वह कल किसी और का था. परसों किसी और का हो जाएगा. परिवर्तन ही संसार का नियम है. लेकिन परिवर्तन को नियम के तहत और सही ढंग से होना चाहिए.
मैंने बचपन से ही जिंदगी से लड़ना सीख लिया था. फिर चाहे वह लड़ाई रोटी की हो या अपने हक की. बचपन में एक वक्त की रोटी के लिए मैं मीलों दूर रास्ता तय कर जंगल से लकड़ियां लाता था. गरीबी और लाचारी की मार झेलते हुए मैंने दिन में डेढ़ रुपए मजदूरी पर बढ़ई (लरीशिपींशी) का काम किया है, जिससे मैं 45 रुपए महीने कमाता था. आज भी बढ़ईगीरी का सामान मेरे पास रखा है.
मैं बचपन में नियमित स्कूल नहीं जा पाया. लेकिन अपने बढ़ईगीरी के काम के साथ-साथ मैंने वयस्क शिक्षा केंद्र (Aअर्वीश्रीं एर्वीलरींळेप उशपींीश, थरश्रश्रर) से पढ़ाई की. मेरी मेहनत और लगन देखकर स्कूल प्रशासन ने मेरी परीक्षा ली और मुझे सीधे कक्षा छह में दाखिला दे दिया गया. फिर मैंने जब दिन के स्कूल में दाखिला लिया, तब 6 से 8 कक्षा तक कैजुअल नौकरी भी की. दिन में पढ़ता और रात में चौकीदारी करता था, जिसमें सुबह पांच बजे राष्ट्रीय झंडा फहराता था और शाम को पांच बजे झंडा उतार लेता था. इसमें मुझे 212 रुपए महीने की आमदनी होती थी.
अपने जीवन में मैने सबसे पहले 400 रुपए में एक ओबीटी घर बनाने का ठेका लिया था. जिसके बाद अपने जिले और राज्य में बहुत सी सड़कें, सरकारी मकानों और पुलों का निर्माण किया. 11-12 कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते मेरे पास खुद की जिप्सी गाड़ी और चार ट्रक गाड़ी थी. जिसे मैं व्यापार के काम में लगाता था.
कॉलेज पहुंचने तक मेरा व्यापार काफी आगे बढ़ गया, मेरे पास गाड़ी-घोड़ा, नौकर-चाकर और खुद का एक छोटा सा पक्का मकान भी था, जिसमें 3 कमरे थे. आज 23 साल तक मंत्री पद पर रहते हुए भी मैंने उससे आगे एक भी कमरा नहीं बढ़ाया है. खूपा में एक छोटा सा घर है, जिसे मैंने 1990 में तीनसुकिया एसबीआई बैंक से पर्सनल लोन लेकर बनाया था. हेउलियांग में एक घर हैं, जिसे मैंने भारतीय स्टेट बैंक तेजू से लोन लेकर बनाया था.
विधायक बनने से पहले मेरे पास आरा मशीन और काष्ठकला की फैक्ट्री भी थी, जिससे मुझे हर साल 46 लाख रुपए की आमदनी होती थी. मैं अपने छात्र जीवन में ही करोड़पति बन गया था. इसपर मैंने कभी घमंड नहीं किया. भगवान गवाह है कि मैंने कभी धन-दौलत, घर-बंगला, गाड़ी-घोड़ा, नौकर-चाकर, सत्ता और प्रतिष्ठा को अपनी जागीर नहीं समझा और न ही इन चीजों पर कभी गर्व व घमंड किया है. मैंने हमेशा से ही इंसानियत की सुरक्षा और गरीबों की सेवा को अपना कर्म समझा है और अब तक उन्हीं के हित के लिए काम कर रहा हूं.
मैं बड़े फक्र से कह सकता हूं कि मैं खुद अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूं. लेकिन मैंने कभी इस बात पर गुमान नहीं किया. मैंने अपने रुपयों से हमेशा गरीब, लाचार, अनाथ और जरूरतमंद लोगों की सहायता की है. आज भी मैं 96 गरीब लड़के-लड़कियों को पढ़ाने के साथ उनका सालाना खर्च भी उठाता हूं.
26 दिसम्बर 1994 को जब मैं राजनीति से जुड़ा, उसके अगले ही दिन मैंने अपने दो बिजनेस ट्रेडिंग लाइसेंस को डीसी कार्यालय में वापस कर समर्पण कर दिया. क्योंकि जब मैं राजनीति में आ गया, तो इसे व्यापार के साथ मिलाना नहीं चाहता था. मैं कभी भी राजनीति में नहीं आना चाहता था, लेकिन मुझे जनता ने जबरदस्ती राजनीति में उतारा है. लोग राजनीति में अपने स्वार्थ के लिए आते हैं, लेकिन अगर कोई इसे ईमानदारी से अपनाए तो इससे अच्छा, सेवा और भलाई का काम कोई हो ही नहीं सकता. क्योंकि एक नेता के कह देने से, एक फोन कर देने से, एक सिफारिश कर देने से या किसी सभा में प्रस्ताव रख देने से समाज और जनता का काम हो जाता है, तो इससे बड़ा और अच्छा भलाई या खुशी का काम क्या हो सकता है.
वर्ष 2007 में भी मुझे मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था, लेकिन उस वक्त मैंने मना कर दिया था. वर्ष 2011 में भी मुझे फिर से मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी दी गई, जिसे मैंने फिर से ठुकरा दिया. मैं जानता था कि मेरे साथी विधायक और मंत्री मुझे सिस्टम से, नीति से, कानून से और संविधान के तहत चलने नहीं देंगे.

लोगों की सेवा के लिए सीएम बना
जब तीसरी बार मुझे मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, तो मैंने उसे स्वीकार किया. मेरी इच्छा, मेरा सपना और मेरी कोशिश थी कि मेरा पिछड़ा राज्य और गरीब जनता हर क्षेत्र में आगे बढ़ें. सड़क-यातायात ठीक हो, लोगों को शुद्ध-स्वच्छ और नियमित पानी मिले और अच्छी व उच्च शिक्षा मिले. मैं चाहता था कि लोगों को बेहतर और मुफ्त स्वास्थ्य सेवा मिले और बिना रुके 24 घंटे हर घर-हर परिवार को बिजली मिले, हर जाति और समाज को शांत और सुरक्षित माहौल मिले, लोगों के रहन सहन का स्तर व उनकी आमदनी बढ़े, सभी लोग उन्नत और विकासशील हों, राज्य के हर घर में खुशहाली हो और आम जन हर प्रकार से आगे बढ़े. इन बातों को ध्यान में रखते हुए और उन कामों को मुकाम देने के लिए मैंने अपने तन-मन, दिमागी-चिंतन, सोच-विचार, कठिन मेहनत और लगन से राज्य को ऊंचाई देने व जनता की भलाई, उन्नति और बेहतर कल के लिए हर घड़ी हर पल काम किया. लेकिन शायद मेरे साथी मंत्रियों और विधायकों को यह बात मंजूर नहीं थी. क्योंकि उनके लिए मंत्री व विधायक बनने का मतलब कुछ और ही होता होगा. यही कारण है कि मैं राजनीति से दूर रहना चाहता था.
मैंने अपने 23 सालों की राजनीति में अलग-अलग मंत्री पदों पर रहते हुए राज्य के विकास में हर संभव योगदान दिया है. अपने विधानसभा क्षेत्र और पूरे राज्य में काम किया है. लेकिन इन कामों पर हर किसी की नजर नहीं गई. अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने बहुत से मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया, लेकिन अपने अनुभव से मैंने देखा व समझा कि किसी भी मुख्यमंत्री व मंत्री की योजना स्पष्ट नहीं थी, वे किसी भी योजनाओं को सही से प्राथमिकता नहीं दे पाए. उन्होंने हमेशा राजनीति की नजरों से ही फैसला लिया, हमेशा जनता के हितों को नजरअंदाज किया. विधायक व मंत्री हमेशा आपस में हिसाब-किताब कर एक दूसरे को लाभ देने व खुश करने में ही लगे रहे.
जबकि मेरी परिभाषा ये है कि नेता बनने का मतलब केवल अपने घर-परिवार, सगे-संबंधी और दोस्तों को फायदा पहुंचाना नहीं होता. मंत्री, विधायक व बड़े अधिकारी एक-दूसरे की मदद के लिए नहीं आए हैं, बल्कि राज्य के पूर्ण विकास व गरीब जनता की सेवा के लिए उन्हें चुना जाता है. अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने नेताओं को इसके बिल्कुल उल्टा ही काम करते देखा है. वे लोग सिर्फ एक-दूसरे को या बड़े नेता, बड़े अधिकारी और बड़े व्यापारियों को ही मदद व फायदा पहुंचाने का काम करते रहे हैं.
साढ़े चार महीने के अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में मैंने अपना सुख-चैन, घर-परिवार, नींद-आराम को त्यागकर 24 घंटे जनता के हित में काम किया. मैंने सही अर्थों में राजधर्म का पालन किया है. इतना ही नहीं मैंने राज्य में विभिन्न विभागों में स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस और कानून में 11,000 से ज्यादा पदों की जगह निकाली थी, जिन्हें बिल्कुल पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से लागू किया जाना था. मैंने प्लान, नॉन-प्लान फंड को सही और योजनाबद्ध तरीके से पेश किया था. मैंने राज्य में ट्रांसफर-पोस्टिंग, प्रमोशन और अपॉएंटमेंट के लिए मंत्रियों को पैसे लेने से मना किया था, जिसका शायद उन्हें बुरा लगा. प्लान फंड, नॉन-प्लान फंड, कॉन्ट्रैक्ट वर्क, टेंडर वर्क और बिल पेमेंट में कमीशन लेने के लिए भी मनाही थी. शायद यह बात भी उन्हें बुरी लगी.
मैं केवल इतना जानता हूं कि 14-15 लाख की जनसंख्या वाले राज्य में 60 एमएलए को चुना जाता है. उनमें से 12 मंत्री बनते हैं. मैं सोचता हूं कि वे 60 एमएलए उच्च शिक्षा, सामाजिकता, बेहतर नेतृत्व और उदार सोच के साथ-साथ सभी तरह से अच्छे इंसान हों. वे जनता की सेवा और सुरक्षा को अपना धर्म मानते हों, इंसानियत को अपना ईमान और जनता की भलाई को अपना कर्म समझते हों. हमारे नेताओं को परिवार, समुदाय, जाति, धर्म और समाज से ऊपर उठकर काम करना चाहिए. लेकिन ऐसे नेताओं की आज जैसे कमी ही आ गई है. आज राज्य में हर एक मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा मुझसे 86 करोड़ मांगे गए नेता अपनी जेब भर रहा है. अपने स्वार्थ पूरे कर रहा है. जनहित से ज्यादा वह अपने लिए, अपने परिवार और रिश्तेदारों के बारे में ज्यादा सोच रहा है. मैंने ये महसूस ही नहीं किया, बल्कि अपनी आंखों से देखा भी है. इस बात से मैं बहुत ही आहत और दुखी हूं. इस राज्य के पिछड़ने का कारण भी यही है. राज्य में मंत्री-विधायक आपसी सहयोग से केवल खुद को ही आगे बढ़ाते हैं और गरीब जनता को नजरअंदाज करते हैं. वहीं, मुख्यमंत्री बड़े नेताओं, बड़े अधिकारियों, बड़े व्यापारी को खुश करने में लगा रहता है. ऐसी स्थिति में राज्य, समाज और जनता का क्या होगा?

नेताओं ने राजनीति को धंधा बना लिया है
राज्य में सड़क, पानी, बिजली, कानून, शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई व्यवस्थाओं को सुचारू करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. जिससे आम जनता नेताओं को शक की नजरों से देखती है. यहां हर एक विधायक को मंत्री बनना है, वह भी वर्क्स डिपार्टमेंट में, जहां उन्हें ज्यादा और मोटी कमाई हो. सभी को ज्यादा से ज्यादा नगद पैसा चाहिए. नेताओं और विधायकों ने इसे अपना धंधा बना लिया है. यही सब कारण है कि राज्य में सरकार बार-बार बदलती है. जिसका नुकसान आम जनता और राज्य को उठाना पड़ता है. सरकार बदलने से बहुत सी योजनाएं और प्रोग्राम बदलते हैं, जिससे विकास की राह और गति रुक जाती है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. इस बात से मैं बहुत ही आहत और दुखी हूं. मैं लोगों में जागरूकता लाना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि वे विचार-विमर्श करें, इन बातों को समझें और अपनी सोच-समझ, कर्म-कार्य, हाव-भाव और नीतियों को बदलें. ताकि हम अपने राज्य और देश के सुनहरे भविष्य के सपने को साकार कर सकें.
आज जनता को मंत्रियों और विधायकों से पूछना चाहिए कि पांच साल में उनके पास धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, बंगला-गाड़ी कहां से आ गए? जनता को भ्रष्टाचार पहचानना चाहिए और सवाल करना चाहिए कि विधायक या मंत्री बनने से पैसा बनाने का क्या सर्टिफिकेट मिल जाता है? या पैसा छापने की फैक्ट्री और मशीन मिल जाती है? मैं मानता हूं कि जनता जनार्दन है और उन्हें सच को पहचानना चाहिए.
दोरजी खांडू सेना के आम सिपाही थे, विधायक बनने के बाद भी उनके पास कुछ नहीं था. लेकिन जब वे रिलीफ मंत्री बने, तब उन्होंने सरकारी ठेकों को 50 प्रतिशत में बेचकर अपनी जेब में भरना शुरू कर दिया. जब वे पावर (ऊर्जा) मंत्री बने, तब उन्होंने पूरे अरुणाचल प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट योजना में नदी नालों को बेचकर पैसे गबन किए. उन्होंने 30 लाख प्रति मेगावाट के हिसाब से कंपनी को प्रोजेक्ट बेचकर मोटी कमाई की थी.
उसके बाद उन्होंने अपांग की सरकार को गिरा दिया और खुद मुख्यमंत्री बन गए. आज उनके (दोरजी खांडू) तवांग, ईटानगर, गुवाहाटी, दिल्ली, कोलकाता और बेंगलुरु में बड़े-बड़े आलीशान मकान और बंगले हैं. बहुत से फार्म हाऊस, होटलें और कॉमर्शियल इस्टेट हैं. आज लोग कहते हैं कि दोरजी खांडू ने घोटाले कर 1700 करोड़ रुपए से ज्यादा धन कमाया, सम्पत्ति बनाई. लेकिन आज वे तो इस दुनिया में नहीं हैं, फिर ये धन-दौलत क्या काम आया? इससे जिन्दगी तो नहीं खरीद सकते और न ही इस धन-दौलत को दूसरी दुनिया में ले जा सकते हैं. कहने का मतलब है, हर किसी को मेहनत-मजदूरी कर अपनी किस्मत में जो है और अपनी जरूरत तक ही कमाई करनी चाहिए. सोशल मीडिया, फेसबुक और वॉटसअप पर लोग कह रहे और पूछ भी रहे हैं कि पेमा खांडू के पास आज जो 1700 करोड़ नगद पैसा है, वो पैसा कहां से आया?
जनता ये खुद सोचे और विचार करे कि मंत्री बनने से पहले उनके पास क्या था और आज क्या है? उनके पास कोई पैसा बनाने की मशीन या फैक्ट्री तो नहीं थी और न ही कुबेर का कोई खजाना था. फिर इतना पैसा कहां से आया? ये जनता का पैसा है. मंत्री बने ये लोग इसी पैसों का रोब दिखाकर जनता को डराते-धमकाते हैं और लोग उसके पीछे भागते हैं. आज जनता को इसका जवाब मांगना चाहिए और इस मामले को पूरी छानबीन होनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट में चल रहे केस का पूरा खर्च नबाम तुकी और पेमा खांडू ने मिलकर उठाया था. जिसका फैसला मेरे खिलाफ दिया गया था. ये रकम करीब 90 करोड़ रुपए थी. इस केस में मेरे हित में फैसला देने के लिए मुझे भी फोन किया गया और मुझसे भी 86 करोड़ रुपए की मांग की थी. लेकिन मुझे और मेरे जमीर को ये मंजूर नहीं था. मैंने भ्रष्टाचार नहीं किया, मैं कमाया नहीं और न ही राज्य को कुएं में गिराने की मेरी इच्छा थी. मैं अपनी सत्ता को बचाने के लिए सरकार और जनता के पैसे का दुरुपयोग क्यों करूं? इसका नतीजा आप सबके सामने है.
राहत का पैसा नेताओं की जेब में
तवांग में आज से ही नहीं बल्कि वर्षों से विकास के नाम पर बहुत सा पैसा जा रहा है, लेकिन वहां पैसों का दुरुपयोग हुआ है और नेताओं ने अपनी जेबें भरी हैं. 2005 से रिलीफ फंड के नाम से वहां बहुत पैसा जा रहा है. जनता आरटीआई से इसकी जानकारी ले सकती है. प्रोजेक्ट का दौरा करने पर वहां जमीन पर कुछ भी नहीं मिलेगा. टूरिज्म के नाम पर बहुत पैसा जा रहा है. अर्बन डेवलपमेंट के नाम पर बहुत पैसा जा रहा है. पावर के क्षेत्र में बहुत पैसा जा रहा है. किटपी हाइड्रो प्रोजेक्ट के नाम से वर्ष 2010-11 में बिना सैंक्शन और बिना काम के 27 करोड़ रुपए ‘एलओसी’ (लाइन ऑफ क्रेडिट) किया गया, बिना बिल के पैसे उठाए गए. उन पैसों का गबन किया गया. इसी प्रकार खान्तांग और मुकतो हाइड्रो प्रोजेक्ट के नाम से भी झूठा बिल बनाकर 70 करोड़ से भी ज्यादा पैसों का गबन किया गया.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में हुए भीषण घोटाले (पीडीएस स्कैम) की असली जड़ नबाम तुकी और दोरजी खांडू हैं, उन्होंने ही इस घोटाले की शुरुआत की थी. गेंगो अपांग जब मुख्यमंत्री थे, तब राज्य में पीडीएस का साल भर का काम 61 लाख रुपए में ही हो जाता था. गेंगो अपांग इसे सुधारना चाहते थे, पर सभी ने मिलकर उन्हें फंसाया था. जब नई सरकार बनी तब नबाम तुकी फूड एंड सिविल सप्लाई मिनिस्टर थे. तुकी ने ही राज्य में सिर पर अनाज ढो कर ले जाने की व्यवस्था (हेड लोड सिस्टम) की शुरुआत की थी. एक साल में ही पीडीएस का काम 68 करोड़ रुपए तक बढ़ गया था. वही, अगले ही साल इस काम की लागत 164 करोड़ रुपए तक बढ़ गई थी. इस पर केंद्र सरकार को राज्य सरकार पर शक हो गया था और उन्होंने एफसीआई को जांच और ऑडिट करने का आदेश दिया, जिसमें राज्य सरकार को दोषी पाया गया था. इसके बाद केन्द्र सरकार ने पेमेंट रोक दिया था. पीडीएस घोटाला खुलने पर गेंगो अपांग ने ‘हेड लोड’ का काम बंद करवा दिया, जिससे ये पेमेंट वहीं रुक गया था.
पीडीएस भारत सरकार की योजना थी, जिसका पैसा एफसीआई के जरिए भारत सरकार से ही आता है. राज्य सरकार के पैसों से इसका पेमेंट नहीं होता था. जब 2007 में दोरजी खांडू मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने सार्वजनिक वितरण के काम से सम्बद्ध अपने ही ठेकेदारों को अपनी ही सरकार के खिलाफ केस करने के लिए उकसाया और इस काम के लिए उनकी मदद भी की. इस केस में राज्य सरकार फास्ट ट्रैक कोर्ट, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी कई बार जान-बूझकर हारती गई. दोरजी खांडू के नेतृत्व में राज्य सरकार ने कोर्ट में जान-बूझकर सही रिकॉर्ड और जानकारी नहीं दी थी और बहुत सी फाइल और रिकॉर्ड को मिटा दिया गया. 50 प्रतिशत हिस्सा लेकर दोरजी खांडू ने ही प्राइवेट पार्टियों को राज्य सरकार के खिलाफ अदालती आदेश (कोर्ट डिक्री) लेने में मदद की थी और पहला पीडीएस पेमेंट उन्हीं के समय में हुआ था.
   30 नवम्बर 2011 तक जब मैं राज्य का वित्त मंत्री था, तब अदालती आदेश होने पर भी, मैंने और कृषि मंत्री सेतांग सेना ने पेमेंट नहीं दिया था. केवल पीडीएस पेमेंट देने के के कारण ही नबाम तुकी ने मुझे वित्त मंत्री के पद से हटाया था. मेरे वित्त मंत्री के पद से हटते ही चोउना मीन वित्त मंत्री बने और चार दिनों के अंदर ही 4/12/2011 को नबाम तुकी और चोउना मीन ने पीडीएस कॉन्ट्रैक्टर से पैसों में 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी लेकर ‘हेड लोड’ का भुगतान कर दिया.
अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने पीडीएस बिल की फोटो-कॉपी पर पेमेंट होते पहली बार देखा था. ऐसा किसी और राज्य में नहीं होता है. 600 करोड़ रुपए से भी ज्यादा पैसों का पीडीएस पेमेंट हुआ. इन पैसों को राज्य के डेवलपमेंट फंड से दिया गया था. जबकि ये भारत सरकार की स्कीम थी और भारत सरकार ने इसमें घोटाला देखकर एक भी पैसा राज्य सरकार को नहीं दिया था. पीडीएस घोटाले के मुख्य दोषी दोरजी खांडू, पेमा खांडू, नबाम तुकी और चोउना मीन ही हैं.
पूर्व मंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्री और अधिकारियों ने फाइल और तथ्यों को गायब कर दिया

जब मैं मुख्यमंत्री बना, तब मैंने इस केस की जांच की और राज्य सरकार को बचाने की कोशिश की थी. हमारी सरकार ने एफसीआई के खिलाफ केस किया, भारत सरकार के खिलाफ केस किया और सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका भी दाखिल की थी. मुझे इस बात का बहुत ही दुख है कि राज्य के पूर्व मंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्री और अधिकारियों ने मिलकर सभी फाइल, डॉक्युमेंट्स और जरूरी तथ्यों को गायब कर दिया और मिटा दिया. जिसकी वजह से मैं राज्य सरकार को मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा पीडीएस घोटाला इस केस में बचा नहीं सका. इस केस में मुख्य सचिव, सचिव, निदेशकों और अफसरों को जेल तक होने वाली है.
आज इस पीडीएस केस में वास्तविक ठेकेदारों को पैसा नहीं मिला, जबकि उन्होंने सही टेंडर भरा और सही काम भी किया, उचित मूल्य की दुकानों (फेयर प्राइस शॉप्स) तक चावल भी पहुंचाया था. वहीं, दूसरी ओर पीडीएस स्कैम में पेमा खांडू का नाम शामिल है, जिसका आज भी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (एसजीएसवाई) के चावल घोटाले में भी दोरजी खांडू और पेमा खांडू खुद फंसे हुए हैं. आज इसका केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. अगर दोरजी खांडू जिंदा होते, तो अभी जेल में होते. पेमा खांडू आज मुख्यमंत्री हैं, फिर भी इस केस में बहुत जल्द जेल में जाएंगे. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना ही गलत थी, क्योंकि इस योजना में एक भी दाना चावल गांवों तक नहीं पहुंचा और न लोगों को चावल मिला. ये सारा चावल असम में बेचा गया, वो एक घोटाला है. जो चावल गया ही नहीं, उसके लिए झूठा ट्रांसपोर्टेशन बिल बनाया गया, ये दूसरा घोटाला है. इन बाप-बेटों ने घोटालों पर घोटाले किए हैं. इस घोटाले पर कोई भी साधारण व्यक्ति या जनता पेमा खांडू से आज पूछे कि इस योजना में केंद्र से कितना चावल आया था? किसके लिए आया था? कब आया था? और किसको चावल मिला? और इस चावल घोटाले में कितने पैसों की कमाई हुई? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इन सवालों के जवाब पेमा खांडू के पास नहीं हैं. उनका सिर्फ एक ही जवाब है, उनके पास आज ढेर सारा नगद पैसा है, जिनके पीछे जनता भागती है. लेकिन ये बात जनता को जानना और समझना चाहिए की ये इन सब घोटालों का पैसा है.
कमजोर, भ्रष्ट, बदमाश और लुटेरों को ही प्राथमिकता देना कांग्रेस पार्टी की नीति है. ऐसे ही लोगों को कांग्रेस नेता बनाती है, ताकि वो सरकार और जनता के पैसों को मिलकर लूटे और कांग्रेस आला कमान को पहुंचाता रहे, जिससे लगातार उनकी कमाई होती रहे. घोटालों और भ्रष्टाचार का पता होते हुए भी नेताओं और विधायकों ने आज तक कुछ नहीं किया. क्योंकि विधायकों और मंत्रियों को भी पीके थुंगन, गेगांग अपांग, दोरजी खांडू, नबाम तुकी और पेमा खांडू जैसे ही भ्रष्ट मुख्यमंत्री चाहिए. जिनके खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहे हैं. लेकिन यही लोग अधिकारियों, न्यायालयों और जजों को पैसा दे सकते हैं.
अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान मैंने हर जिले को सोशल एंड इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट फंड (एसआईडीएफ), ग्रामीण अभियंत्रण (रूरल इंजीनियरिंग) और ‘नॉन प्लान’ में बराबर फंड दिया था. इसके बाद भी पेमा खांडू और उनके दोनों भाईयों ने एक प्रोजेक्ट में मुझसे तत्काल 6 करोड़ रुपए हाईड्रो प्रोजेक्ट मैंन्टेनेंस के लिए मांगे थे, जिसे मैंने पूरा दिया. इन पैसों को अभी काम में ही नहीं लिया गया था कि उन्होंने फूड रिलीफ में मुझसे पैसे मांगे. उन्होंने 10 करोड़ की और मांग की थी. उस समय राज्य में फ्लड रिलीफ के लिए कुल 14 करोड़ रुपए ही थे, फिर भी मैंने सबसे ज्यादा 6 करोड़ रुपए तवांग में दिए थे.
अरुणाचल जैसे छोटे राज्य में हमारे पास एनडीआरएफ में केवल 51 करोड़ रुपए ही थे, जिसे 20 जिलों और 60 विधायकों को जरूरत होने पर देना था और उस समय में बहुत से जिले बाढ़ से पीड़ित थे. मुख्यमंत्री होने के नाते मुझे हर जिले और 60 विधायकों को बराबर देखना था. लेकिन पेमा खांडू और उनके दोनों भाईयों ने मुझसे 100.88 करोड़ रुपए की मांग की थी. मैंने उन्हें राज्य की स्थिति के बारे में बताया और समझाया. लेकिन इस बात से वे मुझसे नाराज हो गए और उन्होंने मेरे खिलाफ चाल चल दी थी.
तवांग गोलीबारी के पीछे भी पेमा खांडू
एक और बात मैं बताना चाहूंगा कि 2 मई को तवांग में हुई गोलीबारी की घटना के पीछे भी पेमा खांडू का ही हाथ है. गिरफ्तार हुए लामा आदमी को पेमा खांडू ने बेल नहीं देने दी थी. इस घटना के जिम्मेदार भी पेमा खांडू ही हैं. डीसी और एसपी तवांग की हुई फोन वार्ता में पेमा खांडू का जिक्र है. तवांग में हुई गोलीबारी की घटना में पेमा खांडू ने डीसी, एडीसी और मजिस्ट्रेट पर बेल न देने का दबाव बनाया था. मुझे और चीफ सेक्रेटरी को इस घटना के मामले में अधिकारियों पर कार्रवाई न करने का भी दबाव डाला था. उसके बावजूद हमने अधिकारियों पर कार्रवाई की, शायद इस बात का उन्हें बुरा लगा हो. इस घटना में कितने लोगों की जाने गईं, कितने लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे, उनका आज भी शिलांग और गुवाहाटी में इलाज चल रहा है. जबकि मैं खुद मृतकों के परिजनों से मिला, गंभीर रूप से घायल हुए लोगों से भी तवांग, शिलांग और गुवाहाटी में मिलकर हर संभव मदद की थी. जबकि पेमा खांडू को इस घटना पर कोई दुख और चिंता नहीं थी. लोगों को सोचकर फैसला करना चाहिए कि कौन सही और कौन गलत है?
विधायक से मंत्री और मुख्यमंत्री का फासला नबाम तुकी ने बहुत ही कम समय में तय कर लिया. विधायक बनने से पहले उनके पास कुछ भी नहीं था और आज आधे ईटानगर-नहारलागुन में उनकी जमीनें और सम्पति हैं. वहीं कोलकाता, दिल्ली और बेंगलुरु में भी उनके आलीशान बंगले, फार्म हाउस व जमीनें हैं. सोशल मीडिया, फेसबुक-व्हाट्सएप पर फोटो और वीडियो के साथ उनकी सम्पत्ति का ब्यौरा उपलब्ध है. इनका काला चिट्‌ठा कुछ इस तरह है:
गुवाहाटी हाईकोर्ट ने नबाम तुकी के खिलाफ की गई सुनवाई में उन्हें दोषी ठहराते हुए सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. लेकिन उसी केस में तुकी ने सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एच. एल. दत्तू को 28 करोड़ रुपए घूस देकर स्टे ले लिया और आज भी खुलेआम घूम रहे हैं.
अरुणाचल प्रदेश में हुए पीडीएस स्कैम पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अल्तमस कबीर ने कांट्रैक्टरों के हित में फैसला दिया था. जबकि केंद्र सरकार और एफसीआई ने भी इस फैसले को गलत ठहराया था.
फूड एंड सिविल सप्लाई के डायरेक्टर एन.एन. ओसीक के बैंक खाते से नबाम तुकी के खाते में 30 लाख रुपए ट्रांसफर किए गए थे. इस बात को गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी माना है. जिसका रिकॉर्ड हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास भी है. इस केस में भी घूस देकर कोर्ट का फैसला खरीदा गया था.
नबाम तुकी ने पीडीएस घोटाले की शुरुआत की थी
फूड एंड सिविल सप्लाई के मंत्री रहते समय नबाम तुकी ने ही पीडीएस घोटाले की शुरुआत की थी. सड़क रास्ता होने पर भी ‘हेड लोड’ का झूठा फार्मूला आविष्कार किया. 20 किलोमीटर को 46 किलोमीटर का रास्ता बताया और 40 किलोमीटर को 90 किलोमीटर का रास्ता बताकर पैसों का गबन किया था. जहां जनसंख्या ही नहीं थी, वहां चावल का कोटा बढ़ाया गया. चावल पर लोन दिखाकर कोटा बढ़ाया गया और भारी मात्रा में पैसों का गबन किया. जहां चावल, चीनी और गेहूं गया ही नहीं, वहां झूठा बिल बनाकर घोटाला किया गया. कुरुंग कुमे और सुबानसीरी के चावल के कोटे को एफसीआई बेस डिपो से निकालकर लखीमपुर (असम) में बेचा गया था. तवांग, पूर्वी कामेंग और पश्चिमी कामेंग के चावल के कोटे को तेजपुर (असम) में बेचा गया था. पूर्वी-पश्चिमी सियांग के चावल के कोटे को धेमाजी (असम) में बेचा गया. एक ही बिल से बार-बार झूठा बिल बनाकर 6-7 बार पैसे निकाले गए. राज्य में जिस समय 61 लाख रुपए में साल भर के पीडीएस चावल की सप्लाई होती थी, वहीं नबाम तुकी के मंत्री रहते हुए, ये रकम 168 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच गई थी.
पुराने कामों और फोटो दिखाकर नबाम तुकी ने 70 प्रतिशत तक रिलीफ फंड का घोटाला किया था. उन पैसों का नबाम तुकी ने दुरुपयोग किया और जनता और केंद्र सरकार को गुमराह किया. इसकी पीआईएल आज गुवाहाटी हाईकोर्ट में चल रही है. राज्य में ऐसे घोटाले कर वे अपनी सम्पत्ति बढ़ाते हैं. उससे न्यायालय में न्याय खरीदते हैं. कांग्रेस आलाकमान को खरीदते हैं और मीडिया को भी खरीदते हैं. जिसे जनता चुपचाप देखती रहती है.
राज्य में नॉन प्लान फंड आंवटित कर 60 प्रतिशत पैसे वापस लेकर दुरुपयोग किया गया, जिसकी वजह से राज्य में केंद्र की बहुत सी योजनाएं आज भी बंद पड़ी हैं. जिसके कारण राज्य में वर्ष 2013, 2014 और 2015 तक लगातार ओवरड्राफ्ट की समस्या होती रही. जिसके चलते सरकारी अधिकारियों की तनख्वाह, भत्ते, चिकित्सा बिल, गवर्नमेंट प्रॉविडेंट फंड/न्यू पेंशन स्कीम, छात्रों के भत्ते और ठेकेदारों के भुगतान समय पर नहीं हो पाते थे. इस पर भी सरकारी अधिकारी, छात्र, ठेकेदार और जनता इन्हें सहती गई, कभी इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाया और न ही इसका विरोध करने की कभी हिम्मत दिखाई. जिससे भ्रष्ट लोगों के हौसले बुलंद होते गए और वे राज्य में ज्यादा भ्रष्टाचार करते गए.
13वें वित्त आयोग (टीएफसी) के सारे पैसों का दुरुपयोग हुआ है. स्पेशल प्लान असिस्टेंस (एसपीए) के पैसों का दुरुपयोग हुआ है, जिसका काम आज भी बंद पड़ा है. स्पेशल सेंट्रल असिस्टेंट (एससीए) फंड का भी दुरुपयोग हुआ है. राज्य के पास फंड नही है, फिर भी भोली जनता को गुमराह करने के लिए कहा गया कि सिविल डिपॉजिट में फंड है. जब मैं मुख्यमंत्री बना, तो सबसे पहले छानबीन कर पता लगाया, लेकिन वहां कोई पैसा नहीं था.
दोरजी खांडू जहां रिलीफ फंड और नॉन प्लान फंड में 60 प्रतिशत दलाली/घूस लेते थे, वहीं मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा कांग्रेस के बड़े नेताओं को मैंने पैसे दिए नबाम तुकी ने इसमें 10 प्रतिशत इजाफा किया और 70 प्रतिशत दलाली लेकर राज्य के फंड को लूटा.
यही सब कारण है कि पिछले तीन सालों से राज्य में ओवरड्राफ्ट की समस्या चल रही थी और राज्य बजट भी घाटे में चल रहा था.
नबाम तुकी ने अपनी पत्नी नबाम न्यामी के नाम पर राज्य के सभी शहरों मसलन, ज़ीरो, पासीघाट, तेजू, इटानगर, हवाईसमेत सभी जिलों में सरकारी ठेकेदारी के काम किए. वहीं उनके भाई और परिवारजन नबाम तगाम, नबाम आका, नबाम हारी और नबाम मारी ने भी बहुत सी सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं में अलग-अलग काम कर राज्य के खजाने को लूटा था. राज्य में इन सभी घाटे और घोटालों के जिम्मेदार नबाम तुकी ही हैं, जिन्होंने राज्य को कुएं में धकेल दिया और भोली जनता को बेवकूफ बनाया.
नबाम तुकी की हरकतों का मैंने विरोध किया
सोशल मीडिया, फेसबुक और व्हाट्सएप पर लोग पूछ रहे है कि ये पैसे कहां से आए? लेकिन अगर इनसे सच पूछा गया, तो ये आपसे नजर मिलाकर वे बात भी नहीं कर सकेंगे. नबाम तुकी की इन्हीं हरकतों से तंग आकर मैंने और राज्य के ज्यादातर विधायकों ने एक सुर में उनका विरोध किया. उनकी सरकार अल्पमत में होने पर भी उन्होंने अपने स्पीकर भाई नबाम रेबिया के साथ मिलकर और उनकी मदद से दो विधायकों को निष्कासित कर दिया और अपनी सरकार चलाते रहे.
विधानसभा अध्यक्ष पर महाभियोग (इम्पीचमेंट) का मामला होने पर भी नबाम रेबिया अपने पद पर बने रहे, जबकि 14 दिनों के अंदर ही इस पर कार्यवाही होनी चाहिए थी. वहीं अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग होने पर भी नबाम तुकी सीएम पद पर बने रहे, जबकि राज्यपाल ने उन्हें बहुमत सिद्ध करने को कहा था. 13 जनवरी 2016 को गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के बाद भी वे अपनी सरकार चलाते रहे और राज्य को लूटते रहे. ऐसे में नबाम तुकी को अपना त्याग पत्र पेश करना चाहिए था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
एक राज्य में राज्यपाल ही सबसे बड़े होते हैं. राज्यपाल की ही इजाजत से मुख्यमंत्री व मंत्री तय होते हैं. ट्रांसफर, पोस्टिंग और अपॉएंटमेंट भी राज्यपाल के दिशा-निर्देश में किए जाते हैं. लेकिन नबाम तुकी ने हमेशा कानून, न्याय और जनता का मजाक उड़ाया. मैंने अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में पांच मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया, लेकिन नबाम तुकी जैसा भ्रष्ट और खराब तंत्र (सिस्टम) कहीं नहीं देखा. इनकी सरकार ने राज्य में बंद, हड़ताल और दंगे करवाए. जनता को जाति, धर्म व क्षेत्र के नाम पर बांटा और उनमें लड़ाईयां करवाईं. उन्होंने सरकार, कानून, लोकतंत्र, संविधान, न्यायालय और जनता के साथ खिलवाड़ किया है और हमेशा इनका अपमान किया है. इन्होंने हमेशा जाति, धर्म, समाज, मजहब, भाषा और क्षेत्र के नाम पर राजनीति की है.
जिस इंसान ने जनता की सेवा के बजाय अपना घर भरा है, आज जनता को उससे जवाब मांगना चाहिए कि जो भी जमीन जायदाद, धन-सम्पत्ति उन्होंने बनाई है, वो कहां से आई? क्या कहीं पैसा छापने की मशीन मिली थी या पैसों की फैक्ट्री मिली थी? इन पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और जनता को उसका हक मिलना चाहिए.
चोउना मीन सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं
चोउना मीन राज्य के बड़े मंत्रियों में से सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं. मीन जिस भी विभाग में गए, वहां बदनामी के छींटे अपने दामन पर झेले हैं. मैं इनका असली चेहरा जनता के सामने रखता हूं. अरुणाचल के ग्रामीण विकास मंत्रालय में कभी कोई लेनदेन नहीं किया गया था, पर चोउना मीन ने एक पीडी (प्रोजेक्ट डाइरेक्टर) से 10 लाख रुपए लेकर इसकी शुरुआत की थी. एपीओ की पोस्टिंग के लिए 5 लाख रुपए घूस लेते थे. बीडीओ के लिए 3 लाख रुपए घूस लेते थे. रूरल वर्क्स डिपार्टमेंट (आरडब्लूडी) और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) में भी ठेकेदारों से पर्सेंटेज तय कर घूस लेते थे. चोउना मीन ट्रांसफर और प्रमोशन के लिए भी घूस लेते थे. इसके लिए उनका रेट ही तय था- एक्जेक्यूटिव इंजीनियर के लिए 15 लाख रुपए, असिस्टेंट इंजीनियर के लिए 5 लाख रुपए, जूनियर इंजीनियर के लिए 3 लाख रुपए.
शिक्षा मंत्री बनने पर चोउना मीन ने 3 से 4 लाख रुपए लेकर लोगों को बिना इंटरव्यू के शिक्षक की नौकरी दी थी. पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग और लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) में भी ट्रांसफर और पोस्टिंग पर 10-15 लाख रुपए घूस लेकर ढेर सारा पैसा कमाया था. लाइन ऑफ क्रेडिट के लिए भी चोउना मीन ने पैसों की मांग की थी, जिसके कारण बहुत से अधिकारियों ने डिवीजन में जाने से मना कर दिया था और नाराज भी हो गए थे. पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग में मंत्री रहते समय जारबाम गामलिन सरकार में रिलीफ फंड के 46 करोड़ रुपए की दलाली कर 15 ही दिनों में मीन ने उल्फा और अंडरग्राउंड ताकतों की मदद से गामलिन सरकार को गिरा दिया था.
चोउना मीन के पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग में मंत्री रहते समय, केंद्र सरकार ने वाटर सप्लाई के लिए 67 करोड़ रुपए दिए थे, बिना काम किए ही इन पैसों का दुरुपयोग किया गया. जिसका रिकॉर्ड आरटीआई से लिया गया है और ये आज भी आरटीआई कार्यकर्ता के पास मौजूद है. फिर नबाम तुकी सरकार में वित्त मंत्री बनने पर इन्होंने राज्य को भारी वित्तीय संकट की सौगात दे दी. डेवलपमेंट प्लान फंड को नॉन प्लान में डाल कर फंड का दुरुपयोग किया गया. जिसकी बदौलत मीन के कार्यकाल में राज्य में ओवरड्राफ्ट की भारी समस्या थी. इन्होंने राज्य में हमेशा ही ऐसे विभाग चुने जिनमें ज्यादा ट्रांसफर-पोस्टिंग होती हो. ज्यादातर वे प्लानिंग, फाइनेंस और पीडब्लूडी में रहने की मांग ही करते रहे, ताकि उनकी ज्यादा से ज्यादा कमाई हो सके. क्या ऐसे नेताओं के हाथ में राज्य सुरक्षित है?
आज हर कहीं जमीनें, सम्पत्ति, चाय बगान, संतरा बगान और रबड़ बगान खरीदकर नमसाई जिले की आधी सम्पत्ति इन्होंने अपने नाम कर रखी है. चोउना मीन ने दिल्ली, कलकत्ता, बेंगलुरु और गुवाहाटी में आलीशान बंगले कर्मिशयल स्टेट और सम्पत्ति बना रखी है.
जनता जवाब मांगे कि राज्य और जनता को इस तरह क्यों गुमराह किया गया? विधायक या मंत्री बनना पैसों की फैक्ट्री चलाना तो नहीं है, फिर इतना पैसा कहां से आया? क्या यही हैं कांग्रेस के असली नेता? जनता को क्यों धोखे में रखा गया और जनता की जिंदगी से क्यों खेला गया?
अरबों के मालिक कारिखो कीरी का अपना घर भी नहीं था
कारिखो कीरी महाशय कभी तेजू से विधायक थे. विधायक बनने से पहले इनके पास अपना घर भी नहीं था. अपने बड़े भाई, जो कि पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट में इंजीनियर थे, उन्हीं के साथ रहते थे. अपने पहले विधानसभा चुनाव में एक पुराने स्कूटर से कैंपेन शुरू किया था और विधायक बनने के 3-4 सालों में ही हर कहीं जमीन और सम्पत्ति खरीद कर आधे तेजू के मालिक हो गए. अब उनके पास आलीशान बंगले, शानदार गाड़ियां और नवाबों के ठाट-बाट हैं. आज ईटानगर, दिल्ली, कोलकाता बेंगलुरु में कारिखो कीरी के आलीशान बंगले और सम्पत्ति है. आज उनसे कोई नहीं पूछता की ये पैसे कैसे और कहां से आए? लोग उनके पैसों के पीछे-पीछे भागते हैं. राज्य में विधायक बनना किसी लॉटरी लगने जैसा है. जहां हर कोई रातो-रात करोड़पति बन जाता है. राज्य में ऐसे और भी बहुत से विधायक हैं, जो विधायक बनने पर राज्य को लूटते हैं.
जैसे कि जब इस बार सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर आया, तब मुझसे कई विधायकों ने 15 करोड़ रुपए नगद मांगे थे. उनका कहना था कि अगर अपनी सरकार बचानी है, तो हमें इतने पैसे दें. लेकिन मैं यहां पैसा बनाने या पैसा बांटने के लिए नहीं आया, बल्कि जनता के सरकारी खजाने को बचाने व रक्षा करने आया था. सही समय और सही ढंग से जरूरतमंद योजनाओं को आगे बढ़ाने और जनता की सेवा और उनके हित में विकास करने के लिए आया था. जब भी कभी राज्य में राजनीतिक संकट की स्थिति होती है, तो ये विधायक दोनों तरफ से 10-15 करोड़ रुपए लूटते हैं. ऐसा कर ये अपने आपको नीलाम करते हैं, बेचते हैं. राज्य में ऐसा कब तक चलता रहेगा? जनता को विधायकों से सवाल करना चाहिए, उनके खिलाफ जन आंदोलन करना चाहिए. आज के सभी विधायक भ्रष्ट हैं, इन्हें विधानसभा में जाने का कोई हक नहीं है. जनता को इनसे त्याग पत्र मांगना चाहिए, ताकि वे एक नई और बेहतर सरकार चुन सकें, जिससे राज्य का हित हो सके. (ख़ास कर मुझे दुख है, अपने अच्छे दोस्त पीडी सोनाजी का काम मैं पूरा नहीं कर पाया, उनकी मांग थी 10 करोड़ नगद, लेकिन 11/07/2016 को मैं उन्हें 4 करोड़ ही दे पाया).
राज्य में सही सोच-विचार के साथ, मजबूत इच्छा शक्ति, स्पष्ट उद्देश्य के साथ स्पष्ट नीति केंद्रित योजनाओं के साथ अगर हम सिर्फ विकास के मकसद से और गरीब जनता के सेवा भाव से काम करें, तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं. मैंने अपने साढ़े चार महीने के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में जो करके दिखाया, वो एक उदाहरण है कि हम कैसे एक राज्य को आगे बढ़ा सकते हैं और उसे विकास दे सकते हैं. लेकिन मेरे विधायक साथियों ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया और ये किसी को भी करने नहीं देंगे. क्योंकि अपने 25-30 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने विधायकों को ऐसा ही करते देखा है. राज्य के ऐसे भ्रष्ट व बदमाश विधायकों और नेताओं के साथ काम कर पाना मुश्किल है. ये लोग कभी नहीं बदल सकते हैं और न ही कभी सुधर सकते हैं. इन लोगों को समझाने, सबक सिखाने और एहसास दिलाने का वक्त आ गया है, ताकि ये फिर कभी जनता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकें. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि अगर राज्य में 4 महीनों में 3-4 बार सरकार बदलेगी तो राज्य को बहुत नुकसान होता है, जिसका आपको अंदाजा भी नहीं होगा. वहीं जनता बिना समझे हर बार नए मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की जय-जयकार करती है, जबकि मैं समझता हूं कि ये उनके साथ धोखा है.
इसलिए मैं जनता से अनुरोध करता हूं कि वो इस संदेश और बलिदान को गंभीरता से ले, अपने नेताओं से हिसाब-किताब मांगे, उनका कड़ा विरोध करे. गांव, कस्बों, शहर और जिलों में इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ बड़े जन आंदोलन हों और राज्यपाल व केंद्र सरकार से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग हो और राज्य में पहले जैसी केंद्र शासित सरकार बने. ताकि राज्य में विकास हो, जनता को उनका बराबर हक मिल सके और राज्य में अमन, सुख और शांति बहाल हो सके. राज्य में सही समय पर फिर से चुनाव हो, जिसमें नए चेहरों, अच्छे पढ़े-लिखे, नेक इंसान, अच्छी सोच-विचार वाले और अपनी जिंदगी में जिन्होंने संघर्ष किया हो, उन्हें मौका मिले, जिससे राज्य की गरीब जनता का हित और विकास हो सके.
मैंने कांग्रेस के ब़डे नेताओं को पैसे दिए
जहां तक कांग्रेस पार्टी का संदर्भ है, मैं एक छात्र रहते हुए कांग्रेस से जुड़ा था और आज कांग्रेस में रहते हुए मुझे 33 साल हो गए हैं. कांग्रेस से जुड़ने के पीछे एक कारण था. वो मान मार्यादाओं, विचारों, आदर्शों और देशभक्ति का दौर था. 7 मार्च 1986 को श्री राजीव गांधी तेजू आए थे, उनका स्वागत करने के लिए मैं मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा न्याय को बिकते हुए देखा है
भी हाथ में तिरंगा झंडा लिए खड़ा था. मैंने तिरंगा झंडा राजीव जी को भेंट किया और उन्होंने मुझे कहा था कि अच्छे से पढ़ो और अच्छे आदमी बनो. उस दिन उन्होंने अपने भाषण में 3 बातें कही थीः
अरुणाचल भारत का अभिन्न अंग है.
दिल्ली दूर है, पर मेरे दिल से दूर नहीं हो.
हम केंद्र से सौ रुपए भेजते हैं, लेकिन यहां सिर्फ 25 रुपए ही पहुंचते हैं. हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे. श्री राजीव गांधी की इन सब बातों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा और मैं कांग्रेस से जुड़ गया. आज मैं 1995 से लगातार हेउलियांग से चुना जा रहा हूं और राज्य में सबसे ज्यादा वोटों से जीतता आ रहा हूं. लेकिन आज दुख होता है कि इतने बड़े कांग्रेस परिवार को जनता की सेवा करने वाले नहीं, बल्कि भ्रष्ट और बदमाश लोग चाहिए. आज नेता सेवक नहीं दलाल बन गए हैं, बिजनेस कर सिर्फ अपना स्वार्थ ही देख रहे हैं. तब की बात और थी, जब राजनीति में सिद्धांतों, नीतियों और विचारों पर बहस होती थी. आज नेता आरक्षण, फंड, धर्म-मजहब, जाति, क्षेत्र के नाम पर लोगों को बांटकर वोट बटोरने का काम करते हैं और गरीबों की लाचारी पर राजनीति होती है. वो भी एक दौर था, ये भी एक दौर है. वर्ष 2008 में दोरजी खांडू के कहने पर और मजबूरीवश मैं खुद चार बार मोतीलाल बोहरा को रुपए पहुंचाने गया था. जो कुल 37 करोड़ रुपए थे.
वर्ष 2009 में राज्य को एडवांस 200 करोड़ रुपए का लोन देने के लिए दोरजी खांडू के कहने पर मैंने श्री प्रणव मुखर्जी (तब वित्त मंत्री) को 6 करोड़ रुपए ‘वातायल’ 802/7, कवि भारती सरणी, कोलकाता-700029 के पते पर दिए थे.
वर्ष 2015-16 के बीच मैं 13 महीनों के लिए दिल्ली में था. जिसमें मैं कांग्रेस के निम्न नेताओं से मिला- नारायण सामी से 13 बार, कमल नाथ से 4 बार, सलमान खुर्शीद से 5 बार और गुलाम नबी आजाद से भी 5 बार मिला था. लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी मुझसे नहीं मिले. एक ओर सलमान खुर्शीद और गुलाम नबी आजाद ने मेरी बात सही से सुनी और मदद करने की कोशिश की थी. लेकिन नारायण सामी ने 110 करोड़ रुपए पार्टी फंड और खुद के लिए मांगे थे. जिसे उन्होंने अपने निजी स्टाफ बीएस यादव के माध्यम से मांगे थे. सागर रत्ना (साउथ इंडियन रेस्टोरेंट) में कई बार मुझे बुलाया और अपनी मांग बताई. कपिल सिब्बल ने मुझसे 9 करोड़ रुपए मांगे थे. जब कमलनाथ से मिला तब उन्होंने भी 130 करोड़ रुपए देने के लिए मुझसे कहा था. जिसे उन्होंने अनुपम गर्ग, मि. मिगलानी और नवीन गुप्ता से कहलवा कर मांगे थे.
इन सभी बातों का मुझे बहुत ही गहरा दुख हुआ था. मैं बहुत दिनों तक गहरी सोच और चिंता में डूबा रहा. पार्टी ने मेरे खिलाफ बहुत जहर उगला फिर भी मैं 3 बार कोर्ट केस जीत कर आज भी कांग्रेस से जुड़ा हूं. सच पूछो तो मैंने कांग्रेस का असली चेहरा देखा है और अब कांग्रेस में और राजनीति में रहने की मेरी इच्छा ही नहीं है. कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अपना राजधर्म नहीं निभाया और न ही निभा रहे हैं. मैं खुद को बहुत ही अभागा समझता हूं कि मैं इतने सालों तक अंधेरे में चलता रहा, ऐसी पार्टी से जुड़ा रहा, जिसने मुझे खून, मशक्कत, पसीने और आंसू के अलावा कुछ नहीं दिया. मुझे कहने में शर्म महसूस होती है, लेकिन कांग्रेस ऐसी पार्टी है जिसका पूरा ढांचा ही भ्रष्ट है.
न्याय के दलालों को देखा है और न्याय को बिकते हुए देखा है
न्याय और कानून के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि लोकतंत्र में कानून और न्याय का महत्व सबसे ऊपर रहता है. अगर कानून और न्यायालय न हो, तो लोकतंत्र का चलना मुमकिन नहीं है. न्यायालय का काम है, आम जनता, गरीब और असहाय लोगों को उसका हक दिलाना, उनकी मदद करना और बचाव करना. लेकिन मैंने इसके बिल्कुल उल्टा होता देखा है. न्याय के दलालों को देखा है और न्याय को बिकते हुए देखा है. आज कानून खुद न्याय का दलाल बन बैठा है.
अरुणाचल राज्य में हुए पीडीएस घोटाला मामले को राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि गलत हुआ, एफसीआई ने माना कि गलत हुआ, केंद्र सरकार ने भी कहा कि गलत हुआ, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को खुला छोड़ दिया और उनका पूरा पेमेंट करने का आदेश दे दिया. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने 36 करोड़ रुपए घूस लेकर गलत फैसला दिया था. उन्होंने अपने बेटे के जरिए समझौता किया था. जबकि वो फैसला गलत था. अल्तमस कबीर अपने फैसलों के कारण पहले भी विवादों में रहे हैं.
वर्तमान अदालती मामले
16-17 दिसंबर को हुए विधानसभा सत्र में नबाम तुकी सरकार को वोट ऑफ कॉन्फिडेंस से हटाया गया. इस पर नबाम तुकी कोर्ट से स्टे लेकर आ गए और उनकी सरकार चलती रही. इसके साथ स्पीकर नबाम रिबिया भी अपने पद पर बने रहे. इतना कुछ होने पर भी हमने सरकार नहीं बनाई. 13 जनवरी को गुवाहाटी होईकोर्ट ने इस स्टे को खारिज कर दिया और पेटिशन भी खारिज कर दी. इस पर नबाम तुकी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इसके बाद भी उनकी सरकार चलती रही. गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले पर भी हमने सरकार नहीं बनाई. इसके बाद राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ती गई. राज्य के हर कोने में घटनाएं बढ़ने लगीं. यहां तक कि गवर्नर से भी बदसलूकी की गई. राज्य में शांति व्यवस्था नहीं रही. हर दिन हड़तालें होने लगीं. फाइनेंशियल क्राइसिस आ गया और राज्य की हालत दिन-ब-दिन खराब होती गई. 16-17 दिसंबर के विधानसभा सत्र को मान्य नहीं माना गया, जिसके कारण पिछले 6 महीने से विधानसभा का सत्र नहीं हुआ. इसके चलते राज्य में संवैधानिक संकट भी पैदा हो गया. राज्य में बढ़ती वारदातों और घटनाओं को देखकर 26 जनवरी को राज्य में प्रेसिडेंट रूल लगाया गया. जिसके कारण नबाम तुकी सरकार हटी. 19 फरवरी को राज्य से प्रेसिडेंट रूल हटाया गया. राज्य में प्रेसिडेंट रूल हटने के बाद हमने 33 विधायकों के साथ नई सरकार बनाने की पेशकश की, इस पर राज्यपाल ने हमें सरकार बनाने का न्यौता दिया और 10 दिनों में बहुमत सिद्ध करने को कहा गया. सात दिनों में ही यानि 25 फरवरी को हमने सदन में अपना बहुमत सिद्ध किया. हमारी सरकार कहीं भी गलत कारणों से नहीं बनी थी, हमने हमेशा संविधान, कानून, न्याय और नीति को मानते हुए काम किया और सरकार बनाई.
जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला इस प्रकार है- सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान बेंच ने राज्यपाल के पूर्वाहूत आदेश और विधायकों को भेजे गए उनके संदेश को खारिज कर दिया. पहले और दूसरे (1 और 2) को ध्यान में रखते हुए (16-17) को हुए सत्र को खारिज कर दिया.पहले, दूसरे और तीसरे को ध्यान में रखते हुए विधानसभा के फैसले को खारिज किया. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में मेरी सरकार के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में लागू प्रेसिडेंट रूल के बारे में भी कुछ नहीं कहा. 25 फरवरी को विधानसभा में हुए फ्लोर टेस्ट, जो कि छठी विधानसभा का सातवां सत्र था, के बारे में भी कोई टिप्पणी नहीं की. इसके बाद विधानसभा का बजट सत्र हुआ, बजट पारित हुआ, जो छठी विधानसभा का आठवां सत्र था, इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं कहा.
इस केस में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला बिल्कुल गलत था, हमारे संविधान में दिए गए ये कानून बहुत ही आम हैं और बच्चे-बच्चे इन कानूनों से वाकिफ हैं.
Article 174 – The Governor shall from time to time summon the House or each House of the Legislature of the state to meet at such time and place as he thinks fit- राज्यपाल को ये शक्ति है कि वे विधानसभा को नियमित अंतराल से चलाएं. राज्यपाल विधानसभा में कोई बाधा होने पर अपने हिसाब से समय और जगह तय कर सत्र बुला सकते हैं.
­Article 175- The Governor may sent messages to the House or House of the legislative of the state, whether with respect to a bill then pending in the legislature or otherwise, and a House to which any message is so sent shall with all convenient dispatch consider any matter required by the message to be taken into consideration- राज्यपाल विधानसभा के दोनों हाउस को अपना मैसेज भेज सकते हैं, सत्र में भेजे गए मैसेज को हर हाल में अमल में लाना होगा.
आर्टिकल 163- मुख्यमंत्री या उनके परिषद राज्यपाल से सलाह ले सकते हैं. अगर किसी भी तरह का कोई विवाद खड़ा होता है, तो राज्यपाल का फैसला ही अटल व मान्य होगा. इसके लिए राज्यपाल के फैसले को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती.
हमारे देश के संविधान में बताए गए इन कानूनों के अनुसार, किसी राज्य में सरकार गिरने या माइनॉरटी में होने और राज्य में किसी तरह का संकट आने पर राज्यपाल को ये अधिकार रहता है कि वे राज्य में विधानसभा के सत्र को बुलाकर, मुख्यमंत्री को बहुमत सिद्ध करने का आदेश दे सकते हैं.
इस केस में सिर्फ नबाम तुकी को ही हटाने की बात नहीं थी, बल्कि स्पीकर नबाम रिबिया को भी हटाने का प्रस्ताव था. ये जानकर नबाम रिबिया ने एक महीने की जगह दो महीनों से भी ज्यादा समय देकर विधानसभा सत्र बुलाया, जबकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. ऐसा कर वे विधायकों का खरीद-फरोख्त करने में अपने भाई नबाम तुकी की मदद कर रहे थे. जबकि स्पीकर को हटाने का नोटिस और प्रस्ताव आने के सिर्फ 14 दिन बाद ही कार्यवाई की जानी चाहिए. इस बात को ध्यान में रखते हुए राज्यपाल ने विधानसभा सत्र को पूर्व आहूत किया. राज्यपाल ने हमेशा कानून के दायरे में रहकर काम किया, इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी.
सुप्रीम कोर्ट से ऐसा फैसला मिलने पर मेरा न्यायालय से विश्वास उठ गया है. मुझे दुख तो इस बात का है कि अरुणाचल राज्य के विधायक तो बिके हुए हैं और बिकते हैं, कांग्रेस भी बिकी हुई है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज भी बिके हुए होंगे मैंने कभी नहीं सोचा था. उन्होंने फैसला मेरे हक में देने के लिए मुझसे और मेरे करीबियों से कई बार सम्पर्क किया. उन्होंने मुझसे 86 करोड़ रुपए की घूस मांगी थी. जबकि मैं एक आम और गरीब आदमी हूं, मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं, जिससे मैं सुप्रीम कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के जज और उसके फैसले को खरीद सकूं और न ही खरीदना चाहता हूं. क्योंकि मुख्यमंत्री की जो कुर्सी है, वो जनता की सेवा और सुरक्षा के लिए है, जिसको मैं खरीदकर हासिल नहीं करना चाहता हूं. इसीलिए मैं कोर्ट में दुबारा नहीं गया और न ही दुबारा अर्जी डाली.
वीरेंद्र केहर ने मेरे आदमियों से सम्पर्क कर मुझसे 49 करोड़ रुपए मांगे
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जगदीश सिंह केहर के छोटे बेटे वीरेंद्र केहर ने मेरे आदमियों से सम्पर्क कर मुझसे 49 करोड़ रुपए मांगे. वहीं जस्टिस दीपक मिश्रा के भाई आदित्य मिश्रा ने मुझसे 37 करोड़ रुपए की मांग की थी. कपिल सिब्बल की भी सुप्रीम कोर्ट में अपनी लॉबी है. हर वकील, हर जज इन्हीं के इशारे पर घूस लेकर, झूठे फैसले करते हैं और नाचते हैं. कपिल सिब्बल ने चार्टर्ड विमान से गुवाहाटी आकर आधे घंटे में ही हाईकोर्ट से स्थगन आदेश ले लिया था. जबकि पहले कोर्ट ने उसी केस को खारिज कर दिया था.
इस पर मैं प्रशांत तिवारी के साथ कपिल सिब्बल से चार बार मिला. मैंने सिब्बल जी को नबाम तुकी की सारी हकीकत बताई. जब मैं कपिल सिब्बल से उनके घर पर (1-जोरबाग, मेट्रो स्टशेन के पास, अरबिंदो मार्ग, नई दिल्ली) मिला तब उन्होंने मुझसे 9 करोड़ रुपए की मांग की थी और उन्होंने मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा फैसला टालने के लिए 9 करोड़ मांगे एडवांस में चार करोड़ रुपए देने की मांग की. ये बात तय होने के बाद, उन्होंने गुवाहाटी होईकोर्ट में नियमित सुनवाई में जाना ही छोड़ दिया.
गुवाहाटी हाईकोर्ट में जहां कांग्रेस का वकीलों और जजों पर दबाव नहीं था, वहां हमने ये केस जीता था. बाद में हमें यह पता चला कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कपिल सिब्बल को राज्यसभा भेजने का लालच देकर नबाम तुकी का केस दुबारा लड़ने को कहा था. कपिल सिब्बल ने ही सुप्रीम कोर्ट में जजों को पैसे देकर सारा खेल रचा और नबाम तुकी को झूठी जीत दिलाई. बदले में आज वे राज्यसभा के सांसद बन गए हैं. मैंने अपने 31 साल के राजनीतिक जीवन में देखा है कि न्यायालय में कांग्रेस के ही वकील और जज हैं, जो आपस में मिले हुए हैं.
फैसला टालने के लिए 9 करो़ड मांगे गए
मुझसे 12 जुलाई की रात 9 बजे तक सम्पर्क किया गया कि अगर मैं एडवांस 9 करोड़ रुपए दे दूं, तो फैसले को एक महीने तक टाला जा सकता है और मेरे पक्ष में फैसला देने पर बाकी 77 करोड़ रुपए देने की बात कही गई. लेकिन मैंने उनकी एक नहीं सुनी और न ही पैसे देने के लिए राजी हुआ. न्याय को डगमगाता देखकर ही मैंने फैसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की और न ही फैसले की वापसी पर विचार करने की कोई अर्जी दाखिल की, क्योंकि मुझे पता चल गया था कि न्याय और जज बिक चुके हैं.
आज 25 जुलाई तक जस्टिस केहर की तरफ से राम अवतार शर्मा मुझसे सम्पर्क कर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने की बात कर रहे हैं. इस पर कब और कैसे पेटिशन डालना है, इसका काम भी उन्होंने खुद ही अपने जिम्मे लिया है. इसके लिए उन्होंने मुझसे 31 करोड़ रुपए मांगे हैं.
देश और जनता कानून के इन दलालों, सौदागरों और भ्रष्ट गद्दारों को पहचाने और अपनी अंतरात्मा से न्याय के तराजू पर सच-झूठ, सही-गलत का फैसला करे. सरकार को जज के फैसले पर भी निगरानी रखनी चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए कोई कानून बनाना चाहिए. ताकि इस कानून की मदद से न्यायालय में हो रहे भ्रष्टाचार को रोका जा सके. जल्द से जल्द इस तरह का कानून बनाया जाना चाहिए, जिससे देश और जनता के हित में न्याय हो सके.
आज देश में वकील और जज भ्रष्ट हैं. जज का काम संविधान का सही अर्थ बताना है, न कि उसे झूठ बता कर पेश करना और न उस पर झूठा फैसला करना है. सच कड़वा होता है, लेकिन सच मुझे इस हालत में मिलेगा मुझे नहीं पता था. इस सच का सामना कर मेरी रूह अंदर तक कांप गई है. मेरा न्याय से भरोसा उठा गया है. इस देश के बारे में चिंता होती है कि यहां की भोली जनता का क्या होगा? दोस्तों मैंने जो भी बातें यहां बताई है, वो शत-प्रतिशत सही हैं. मैंने ये बातें अपनी अंतरात्मा से कही है. मैंने इन्हें कहीं भी बढ़ा-चढ़ाकर, मिर्च-मसाला मिलाकर पेश नहीं किया है और न ही तथ्यों से कोई छेड़छाड़ की है.
आज जो बातें हम फिल्मों में देखते और कहानियों में पढ़ते सुनते आ रहे हैं, उन्हें हम हकीकत में देख रहे हैं, जिससे ये बात सिद्ध हो गई कि पैसा बोलता है. जहां कहीं भी घटना होती है, वो एक बार ही होती है, जैसे-जैसे कम्प्लेंट, इन्क्वायरी, कोर्ट केस हियरिंग होती है, वैसे-वैसे स्थिति और हालत नहीं बदलते, फिर जजों के मत और फैसले क्यों बदलते हैं? इस देश में संविधान के कानून की एक ही किताब है जो लोअर कोर्ट, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में रखी है और उसके बाहर भी देश-दुनिया में उपलब्ध है. जिसे वकीलों और जजों के अलावा और भी लोग पढ़ते हैं, समझते हैं.
जब कानून की किताब नहीं बदलती, तो जजों के फैसले कैसे बदल जाते हैं? केस में हार-जीत का फैसला बार-बार क्यों बदलता है? किसी भी केस में बदलता हुआ फैसला हमें ये बताता है कि कानून के जज बिके हुए हैं. लेकिन इन फैसलों से सच नहीं बदलता है, सच तो अटल और अजर-अमर है, जिसे भगवान भी नकार नहीं सकते हैं.
मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में, बचपन से ही गांव का प्यार और विश्वास जीता है, छात्र जीवन से ही सभी चुनाव जीते हैं और अपने राजनीतिक जीवन में मैंने कभी हार का चेहरा नहीं देखा. 1995 में अपने पहले विधानसभा चुनाव से ही मैं मंत्री बनाया गया. हर पद पर काम करते हुए, मैंने बिना बदनामी के कठिनता और मेहनत से कार्य किया है. जिससे मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में समाज, समुदाय, क्षेत्र और राज्य के विकास में और लोगों की सेवा में बहुत सा योगदान दिया है.
इसलिए मुझे अपने जिंदगी से, कर्मों से कोई गिला शिकवा, पछतावा, कोई दुःख कोई गम नहीं है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले को मैं अपनी हार नहीं मानता हूं. क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं अगर कोई क्लैरिफिकेशन, रीव्यू पेटिशन या एसएलपी दायर करूं, तो मैं पक्का जीतूंगा, जहां जजों की फिर से कम से कम 80-90 करोड़ रुपए का कमाई होगी, वो भी दोनों तरफ से. इसलिए मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं.
मेरा संदेश
इस राज्य और देश की नादान व भोली जनता को मेरा संदेश सरल और साफ है.
मैं मेरी प्यारी जनता से अपील और विनम्र निवेदन करता हूं कि हमेशा राज्य और समाज के हित में ही अपना अमूल्य वोट दें. कभी किसी के दबाव में अपने आने वाले कल को मत मारें और न ही किसी बाहुबली को अपने ऊपर हावी होने दें. चुनाव के समय में बांटे गए शराब और पैसों के लिए अपने भविष्य और आने वाली पीढ़ी को दलदल में न धकेलें और न ही अपने हक के लिए किसी से कोई समझौता करें. अपना वोट देने से पहले एक बार अपने बच्चों को देख लें और उनके भविष्य के बारे में सोच लें, मैं पक्का दावा करता हूं कि आपका वोट सही उम्मीदवार को ही जाएगा. जनता को उम्मीदवारों के खोखले और चुनावी जुमलों को पहचानना चाहिए. वोट मांगने पर उनसे सच-गलत पर सवाल करना चाहिए और जहां तक हो सके उनकी बीती जिंदगी, उनके आचार-विचार और उनके रवैये को देखकर ही वोट देना चाहिए.
मैंने काफी बार ये देखा है कि समाज के बहुत से ईमानदार लोग वोट देने से कतराते हैं. वे सोचते हैं कि उनके एक वोट देने से कोई फर्क नहीं पड़ता, जबकि ये सोच गलत है. जनता का एक-एक वोट हीरे जितना कीमती और बहुमूल्य होता है, क्योंकि उस वोट में लोकतंत्र की वो ताकत होती है, जो हर बाहुबली और तानाशाह को उखाड़ फेंकने में सक्षम होती है.
जनता ये तय करे और उनका ये फर्ज है कि वो सोच-समझकर अपने हित में आने वाले उम्मीदवार को ही वोट देकर विजयी बनाएं, फिर चाहे वो किसी भी कौम, मजहब या समाज का हो. जनता को एक पढ़े-लिखे, संस्कारी, उच्च विचारों से ओतप्रोत, राष्ट्रीय चिंतन, अपने जीवन में जिसने कड़ा संघर्ष किया हो, अपने जीवन में दुख देखा और सहा हो ऐसे देशभक्त उम्मीदवार को चुनना चाहिए. जिससे समाज के हर वर्ग का फायदा हो सके और राज्य व देश सही दिशा में आगे बढ़ सके.
विद्यार्थियों को मेरा संदेश इतना है कि वे अपनी पढ़ाई पूरी लगन, मेहनत और ईमानदारी के साथ करें. आप अपनी पढ़ाई को ही पूजा समझें और पूरी श्रद्धा व शक्ति के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करें. आप विद्यार्थी जीवन में जो ज्ञान और समझ हासिल करते हैं वही ज्ञान और विवेक जीवनभर आपके साथ रहता है. हर वक्त ज्ञान लेना, ज्ञान बांटना और ज्ञान में ही डूबे रहने की आपकी कोशिश होनी चाहिए. इस समय आप मिट्‌टी के एक कच्चे घड़े की तरह होते हो, जिसे कैसे भी घुमाकर आकार दिया जा सकता है, लेकिन अगर पकने पर आकार दिया गया, तो घड़ा फूट सकता है. इसलिए इस वक्त को पहचान कर आप अपने जीवन को महान बना सकते हैं. अगर हम किसी भी महान इंसान की जिंदगी में झांकें, तो हम पाएंगे कि वे अपने विद्यार्थी जीवन में ही सबसे ज्यादा संघर्ष कर आगे बढ़े. आज आपको सिर्फ अपने करियर और लक्ष्य के बारे में ही सोचना चाहिए और उसे हासिल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी चाहिए. यहां आपको राजनीति और व्यापार से दूर रहना चाहिए. यदि आप ऐसा करते हैं, तो आपका दिमाग पढ़ाई से हट सकता है और आप शिक्षा में पिछड़ सकते हैं.
हमारे देश में काफी पहले से विद्याश्रम की परम्परा चली हुई है, जिसमें छात्र अपना घर-परिवार, ऐशो आराम छोड़कर आश्रम में पढ़ने जाते थे. जहां वे शास्त्र, शस्त्र और राजनीति की शिक्षा लेते थे. आज हमें भी कुछ ऐसी ही शिक्षा नीति की जरूरत है, जहां हम अपने बच्चों को उनके हिसाब से खेल, संगीत, शास्त्र, विज्ञान, गणित और राजनीति की समझ दे सकें और उनके सुनहरे भविष्य की मंगल कामना कर सकें. मेरा आपसे यही कहना है कि अपने कीमती समय और जीवन को एक दिशा व लक्ष्य देकर एक महान पीढ़ी बनाने में अपना योगदान दें. अपने इस समय में राजनीति में न आएं और न ही इसकी बुरी चालों में फंसें, ऐसा कर आप अपने करियर को बर्बाद कर सकते हैं.
मेरा मानना है कि छात्र एक नॉन पॉलिटिकल प्रेशर ग्रुप है, जिसका काम हमेशा सरकार, नेता और अधिकारियों पर ध्यान व निगरानी रखना है और उन्हें गलत काम करने से रोकना है और जनता व समाज के हित में आवाज उठाना है. राज्य और सरकार में हो रहे गलत कामों के खिलाफ और भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ अगर छात्र संघ आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा? जनता और समाज को कौन सही दिशा देगा? एक बार अपनी पढ़ाई पूरी कर आप किसी भी क्षेत्र या पेशे में जा सकते हैं.
गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि एक एनजीओ चलाने का सही मतलब राष्ट्र का चिंतन करना होता है. लोगों में जागरूकता पैदा करना, लोगों के हित में सोचना और देश में सही गलत पर अपने विचार रखना होता है. समाज, राज्य और राष्ट्रीय हित में एक सरकार से ज्यादा एनजीओ की भूमिका होती है. एनजीओ को एक सरकार से ज्यादा सेवा भाव रखना चाहिए. एक विश्वास, लगन, मेहनत, ईमानदारी और जज्बे के साथ काम करना चाहिए. लेकिन मैंने राज्य में ज्यादातर एनजीओ को पैसे कमाते, अधिकारियों को ब्लैकमेल करते और जन हित के पैसों को गबन करते देखा है. सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपना काम छोड़ दूसरों के काम में टांग अड़ाते ज्यादा देखा है. सरकार और अधिकारियों की दलाली में वे बुरी तरह से लिप्त हैं या यूं कहूं कि इनकी अपनी अलग ही लॉबी है, जिससे वे लोगों से पैसे लूटने में लगे रहते हैं. यही कारण है कि आज राज्य में सामाजिक कार्यकर्ताओं की इज्जत नहीं की जाती और न ही उनकी आवाज सुनी जाती है. अपनी खोई हुई छवि को वापस पाने के लिए आप सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को एकजुट होकर काम करना चाहिए. आपका मुख्य उद्देश्य इंसानियत की रक्षा करना, भ्रष्टाचार, गलत नीतियों, भेदभाव, ऊंच-नीच, सही-गलत, बदमाशों, गरीबों व पिछड़ी जाति को सताने और दंडित करने वालों के खिलाफ लड़ना है. मैं प्रार्थना करता हूं कि भलाई की इस राह में आपके कदम कभी नहीं डगमगाएंगे.
मैं नेताओं को समझाना नहीं चाहता, लेकिन अपने सिद्धांतों के चलते जो कुछ देखा और अनुभव किया है, उस पर मन में उठ रहे विचारों को जरूर बताना चाहूंगा. नेताओं और मंत्रियों को मेरा ये कहना है कि अगर आप राजनीति में आने की सोचते हैं, तो जनता को अपने परिवार की तरह समझें और उनके दुख को अपना दुख समझकर उन्हें हर तरह से मदद करने की कोशिश करें. कहने का मतलब है कि बिना जनता के प्यार, सहयोग और आशीर्वाद के कोई नेता नहीं बन सकता. क्योंकि चुनावी माहौल और चुनावी रैलियों के दौरान उम्मीदवारों से भी ज्यादा उनके कार्यकर्ता और वोट देने वाले मतदाता बड़ी ही आशा और उम्मीद के साथ काम करते हैं, ज्यादा दौड़-धूप करते हैं, घर परिवार तक बंट जाते हैं, आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, खून-खराबों तक बात पहुंचने पर भी वे उम्मीदवारों का साथ नहीं छोड़ते. केवल इसलिए कि उनका उम्मीदवार चुनाव में जीत कर उनके हित के लिए काम करेगा. अच्छी सड़कें, साफ-सुथरा और निरंतर पीने का पानी, बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य, युवाओं को नौकरी, अच्छे रहन-सहन, खान-पान, क्षेत्र के आर्थिक विकास, समाज में कानून और शांत माहौल पैदा करने और क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए लिए कार्य करेगा.
राजनीति में आने का मतलब कमाई करना नहीं है, बल्कि ये उद्देश्य होना चाहिए कि हम मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री और विधायक भ्रष्ट हैं
लोगों की सेवा के लिए आए हैं. अगर हमें कमाई ही करनी है, तो हमें नेता बनने की जरूरत नहीं है. कमाई करने के बहुत से तरीके हैं, जैसे खेती, व्यापार, नौकरी, ठेकेदारी, खेल-कूद और नाच-गाने से भी पैसा कमाया जा सकता है. इन सबके बारे में तो हर कोई आम आदमी भी सोच सकता है और कर सकता है. लेकिन असल राजनीति तो उस सामाजिक धर्म का नाम है, जिसमें आप अपना सुख-चैन, धन-दौलत, नींद-आराम सब कुछ त्यागकर समाज के हर वर्ग, हर तबके को अपनाकर जनता की भलाई करने आते हैं. हमें राजनीति में धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम पर लोगों को गुमराह नहीं करना चाहिए, बांटना नहीं चाहिए, लड़ना-लड़ाना भी नहीं चाहिए. बल्कि हमें राष्ट्रीय एकता, अखंडता, सद्भावना और संप्रभुता के हित में सुख-शांति बनाए रखनी चाहिए.
लेकिन मैं इस बात से दुखी हूं कि अरुणाचल राज्य में नेता बनने के बाद वो जनता को भूलकर खुद की ही सेवा करने में लग जाते हैं. नौकरी की कहीं पोस्ट निकलने पर वे अपने ही परिवार, रिश्तेदारों और जाति को ही चुनते हैं. कुछ पोस्ट बचने पर वे उन्हें दूसरों को देते हैं, वो भी पैसे लेकर. ऐसी नौकरी तो किसी जरूरतमंद, गरीब और हर तरह से पिछड़े हुए लोगों को ही मिलनी चाहिए. अगर ये गरीब इंसान को नौकरी दे भी देते हैं, तो उनसे घूस मांगते हैं. इतना ही नहीं, घूस लेकर वे अधिकारियों का ट्रांसफर भी कर देते हैं, जिससे अच्छे और काबिल लोगों को काम कर अपना हुनर दिखाने का मौका नहीं मिल पाता है. किसी का प्रमोशन करने पर भी ये घूस मांगते हैं.
राज्य में ठेका निकलने पर विधायक और मंत्री अपनी बीवी और बच्चों के नाम पर ठेका लेते हैं. किसी और को ठेका देने पर भी उसमें अपनी हिस्सेदारी रखते हैं. ऐसे में अच्छे और नेक कॉन्ट्रैक्टरों का क्या होगा? काम समय पर पूरा नहीं होगा और न ही काम में कोई गुणवत्ता रहेगी.
राज्य में स्कीम जनता की जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि मंत्रियों और विधायकों के पैसा कमाने के मतलब से बनाई जाती है. नेता लोग टेंडर पहले ही तय कर, पैसों का हिस्सा भी तय कर लेते हैं कि किसको कितना पर्सेंट मिलेगा. राज्य में स्कीम सैंक्शन होने पर काम में प्रगति नहीं आती, बल्कि मंत्रियों और विधायकों के खजाने में वृद्धि होती है. जिसे वे मिलजुल कर हजम कर लेते हैं. प्रोजेक्ट खत्म होने से पहले ही नेताओं की बिल्डिंगें बन जाती हैं. असल में स्कीम सैंक्शन होने के बाद ठेका का काम एक साल में पूरा हो जाना चाहिए और प्रोजेक्ट बड़ा होने पर ज्यादा से ज्यादा दो साल के अंदर काम पूरा हो जाना चाहिए. लेकिन अरुणाचल में एक प्रोजेक्ट को 8-9 साल तक लंबा खींचा जाता है, ताकि विधायक और मंत्री ज्यादा से ज्यादा अपनी जेब भर सकें. उदाहरण के तौर पर, आप राज्य में सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग, एसेम्बली बिल्डिंग और स्टेट हॉस्पीटल, एमएलए कॉटेज, कनवेंशन हॉल को देख सकते हैं. इन योजनाओं को चलते हुए आज 11 साल से ज्यादा का वक्त हो गया है. सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग ने राज्य में चार मुख्यमंत्रियों को देखा है. जिनमें गेंगांग अपांग, दोरजी खांडू, जोर्बम गामलिन और नबाम तुकी शामिल हैं. लेकिन एक भी मुख्यमंत्री इस काम को पूरा कराने में सक्षम नहीं थे. इन सभी के कार्यकाल में घोटाले हुए. उसी योजना के फंड को 3-4 बार बढ़ाया गया, फिर भी ये काम अब तक पूरा नहीं हुआ है.
अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल के अंदर मैंने जरूरी फंड और अल्टिमेटम देकर चार महीनों में ही सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग के काम को पूरा करवाया, जिसमें मुख्यमंत्री और मंत्रियों के दफ्तर शिफ्टिंग को तैयार हैं. इतना ही नहीं बल्कि इसके साथ असेंबली बिल्डिंग और स्टेट हॉस्पीटल और अन्य काम को भी मैंने पूरा करवाने के लिए जरूरी फंड देकर अल्टिमेटम दिया था, जिसे अगस्त महीने में शिफ्ट किया जाना था. मैंने अपनी पूरी मेहनत, जोश और हौसले के साथ काम किया था और वही मेरा कर्तव्य था. मैंने इस राज्य में काम करने की एक मिसाल पेश की है और मैं चाहता हूं कि आगे भी प्रोजेक्ट और योजनाओं को ऐसे ही पूरा किया जाए.
मैंने अपने विधानसभा क्षेत्र के अनजॉ जिले में 11 माइक्रो हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स का निर्माण सही समय पर और सही फंड से करवाया. पहाड़ी और बॉर्डर क्षेत्र होने के बावजूद हमने विकास किया. जिसके कारण जिले के डीसी मुख्यालय और सीओ मुख्यालय में आज 24 घंटे बिजली व्यवस्था उपलब्ध है. जबकि राज्य की राजधानी ईटानगर और सबसे पुराने शहरों, पासीघाट, जीरो, आलो व तेजू में आज भी बिजली की कमी है.
मैंने हवाई जिला मुख्यालय में शहरी जल आपूर्ति योजना मंजूर कराई थी. 14 करोड़ की इस योजना को पूरा करना आसान नहीं था. पहाड़ी क्षेत्र की वजह से हमें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था. लेकिन फिर भी इस काम को दो सालों में ही पूरा करवा दिया था. आज क्षेत्र के दो शहर और पांच बस्तियों को इस योजना का लाभ मिल रहा है. तेजू में भी पानी की ऐसी ही योजना को मैंने और योजना सचिव प्रशांत लोखंडे ने मंजूर करवाया था. समतल क्षेत्र होने के बाद भी 24 करोड़ रुपए के फंड को खत्म कर इसे आज तक पूरा नहीं किया गया है. उस फंड का अपव्यय हुआ. पूर्व विधायक कारिखो कीरी और उसके इंजीनियर भाई ने पैसों का अपव्यय किया था. तेजू में आज भी पानी सप्लाई में लोगों को तकलीफ झेलनी पड़ रही है.
इसी तरह तेजू शहर में सड़क सुधारने की बहुत सी योजनाएं थी, जिसे अलग-अलग स्रोत मसलन, एसपीए, टीएफसी, नाबार्ड और नॉन प्लान फंड से 4 सालों में 29 करोड़ रुपए का फंड दिया गया था. जबकि इस ओर कुछ भी काम नहीं किया गया और पैसों का अपव्यय हुआ. सड़क का बनना और मरम्मत करना अभी भी बाकी है. राज्य के ऐसे ही और भी बहुत से जिलों में, विधानसभा क्षेत्रों और कस्बों में योजनाएं बनीं, प्रोजेक्ट सैंक्शन किया गया. पैसा खर्च भी हो गया, लेकिन काम पूरा नहीं हुआ.
मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री और विधायक भ्रष्ट हैं
इस राज्य में कहीं कोई हिसाब-किताब नहीं है. विधायक और मंत्री मिलजुल कर आगे बढ़ते हैं. जिसके कारण राज्य में बहुत सी योजनाएं आगे नहीं बढ़ पातीं और बीच में ही लटक जाती हैं. जिनका खामयाजा जनता को भुगतना पड़ता है और राज्य विकास नहीं कर पाता है. यहां मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री और विधायक भ्रष्ट हैं. जिनके चलते राज्य की दुर्गति होती है. आज के समय में जनता देश में हो रहे भ्रष्टाचार का खुद शिकार है, उसे देखती है, सहती है, लेकिन आवाज नहीं उठाती है. जबकि सरकार को वही चुनती है. ऐसी स्थिति में सच्चाई का मरना तो तय है. आज जनता को एकजुट होकर, एक स्वर में भ्रष्ट तंत्र का विरोध करना चाहिए.
आज अधिकारियों के लिए नियम-कानून, योजना और तंत्र बना हुआ है, जिसके हिसाब से उन्हें काम करना चाहिए. उन्हें जनता की सेवा-सुविधा के लिए नियुक्त किया जाता है. लेकिन ये नेताओं और बड़े अधिकारियों को अपना सहयोग देते हैं, उनके और अपने हित में काम करते हैं और उनके दबाव में काम करते हैं. ऐसी हालत में राज्य और जनता के बारे में कौन सोचेगा? कौन उनके हितों को आगे बढ़ाएगा? आम लोग जाएं तो कहा जाएं?
पुलिस और प्रशासन का काम लोगों के जान-माल की रक्षा-सुरक्षा करना है, उनके सही-गलत को पहचानना है और उनकी हर संभव सहायता करना है. लेकिन आज ये नेताओं की चापलूसी करते हैं, उनके साथ मिलकर राजनीति करते हैं और सिर्फ उन्हीं के लिए काम करते हैं. ऐसे में जनता का क्या होगा और उन्हें कौन बचाएगा?
आज न्यायालय का काम सच का फैसला करना, झूठे और भ्रष्ट लोगों को सजा देना है, फिर चाहे वो अधिकारी, नेता और मंत्री ही क्यों न हो. लेकिन आज लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के वकील और जज तक बिके हुए हैं. ऐसे में सच्चे, भोले, निर्दोष, मेहनती और अच्छे व्यवहार वाले लोगों का क्या होगा? कौन उनकी सुनेगा? कौन उन्हें सच्चा फैसला देगा? और कौन उनकी रक्षा करेगा? ये सबसे ज्यादा दुख की बात है कि न्याय और न्यायालय बिके हुए हैं. ऐसे में सिर्फ भगवान ही लोगों की रक्षा कर सकते हैं. लेकिन भगवान वोट देने तो नहीं आएंगे, भ्रष्ट तंत्र को सही करने खुद तो नहीं आएंगे. हे भगवान आपसे मेरी प्रार्थना है कि इस भोली जनता को बुद्धि-ज्ञान दें, सोच-समझ दें, हिम्मत ताकत दें, ताकि वो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकें, लड़ सकें और भ्रष्ट दिमाग और विचार वाले नेताओं को उखाड़ सकें.
अगर ऊपर बैठे लोग ही सही नहीं हैं, तो कैसे हम किसी को इसका दोष दे सकते हैं. राज्य के बड़े मंत्री दोरजी खांडू, नबाम तुकी, चोउना मीन, पेमा खांडू और बहुत से मंत्री और विधायकों ने हमेशा अपना स्वार्थ देखा है और अपना घर भरा है. मैं राज्य में हो रहे इस भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहता था, सरकारी योजनाओं और जनता के पैसों को विकास के कामों में उपयोग करना चाहता था. अपने राज्य और जनता को देश के अन्य राज्यों व दुनिया के बराबर और उससे भी आगे बढ़ाना चाहता था. लेकिन शायद ये बात मेरे साथी विधायकों को अच्छी नहीं लगी.
मैं पूछता हूं कि जनता कब जागेगी और कब इसे होश आएगा. कब तक जनता चुनावों में नेताओं की महंगी कारों को देखकर, शराब व थोड़े से पैसे लेकर और उनके झूठे वादों को सच मानकर वोट देती रहेगी. सच तो ये है कि जनता खुद ही बेवकूफ बने रहना चाहती है, वो सच से दूर भागती है. जनता अपने आप तय करे कि उन्हें क्या करना है. मेरा काम तो जनता को सच बताना था, लेकिन फैसला जनता के हाथ में ही है.
अपने 23 सालों के राजनीतिक सफर में अलग-अलग मंत्री पद पर रहते हुए, मैंने राज्य और जनता के हित में जो काम किया, जिस भी विभाग में काम किया या अपने विधानसभा क्षेत्र में काम किया, वो शायद आपको नहीं दिखा. लेकिन अपने साढ़े चार महीने के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में जो मैंने कार्य किया, वो राज्य और जनता के हित में किया गया था. जिसे आप सभी ने देखा, सुना, समझा और सराहा है. मैं अरुणाचल प्रदेश और देश की जनता को खासकर युवा पीढ़ी को धन्यवाद देता हूं कि सोशल मीडिया, व्हाट्सएप और ट्‌वीटर पर 17 लाख से भी ज्यादा लोगों ने हमारी सरकार के काम, नीतियों, योजनाओं और फैसलों का समर्थन किया और सराहा है.
इन बातों को बताने में मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, न ही मुझे किसी से कोई भय है, न मैं कमजोर हूं और न मैं इसको अपना समर्पण मानता हूं. इन बातों को कहने के पीछे मेरा इरादा जनता को जगाना है, उन्हें सरकार, समाज, राज्य और देश में हो रहे इन गंदे नाटकों, लूटपाट और भ्रष्ट तंत्र के सच के बारे में बताना है. लेकिन लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर है, वे कोई भी बात जल्द ही भूल जाते हैं. इसलिए इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने जनता को याद दिलाने, जगाने, विश्वास दिलाने, समझाने और विचार करने के लिए ये कदम उठाया है. मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में सबकुछ सहा है, देखा है, अनुभव किया है, बहुत संघर्ष किया और कई बार औरों की खुशी व समाज के हित के लिए बलिदान भी दिया है. लेकिन मैं कभी हारा नहीं और न ही मैंने कभी हार मानी है.
मैंने हमेशा ही राज्य और जनता के हित में फैसला लिया है. मैंने अपना सुख-चैन, समय-स्वास्थ्य, धन-दौलत, नींद-आराम, घर-परिवार और अपने आपको त्यागकर जनता को समर्पित किया है. मैंने अपनी हर सांस, हर लम्हा, हर वक्त और सब कुछ जनता के हितों के लिए त्यागा है. मेरे इस संदेश, त्याग और बलिदान को अगर थोड़े से लोग भी अहसास कर, विचारकर और समझकर अपने में कुछ भी सुधारते हैं, अपने कर्म और सोच विचार में पवित्रता लाते हैं, लूट-लालच को, मांगने-छीनने को, लड़ने-झगड़ने को छोड़ते हैं और समाज, राज्य और देश के हित में थोड़ा योगदान देते हैं और कुछ अच्छा काम करते हैं तो ये सार्थक बात होगी. मैं चाहता हूं कि मेरे दिल की ये बात, सोच-विचार, अनुभव और संदेश ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे, ताकि मैं आपको समझा सकूं, जगा सकूं और सच्चाई की लड़ाई में आपको हिम्मत और ताकत दे सकूं.
कलिखो पुल
08.08.2016

 मुख्यमंत्री के सुसाइड नोट को ग़ायब क्यों किया गया

sucideसिस्टम कितना बेरहम होता है. वो अपने ही व्यक्ति की मौत का सुख उठाता है. हमारे इस महान देश के एक मुख्यमंत्री आत्महत्या करते हैं. आत्महत्या करने से पहले वे एक विस्तृत आत्महत्या स्वीकृति पत्र लिखते हैं, जिसे सुसाइड नोट कहा जाता है. उनके उस नोट के ऊपर कहीं कोई बातचीत नहीं होती, कोई उसकी छानबीन नहीं करता.
अचानक वो नोट गायब हो जाता है. नेशनल लॉयर्स कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल ट्रांसपेरेंसी और अन्य 10 लोगों ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दाखिल किया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पीआईएल को जिस तरह खारिज किया, वो भी एक विस्मयकारी चीज है. सरकार, केंद्र सरकार खामोश हो जाती है और इतनी खामोश हो जाती है कि सांस तक नहीं लेती.
आत्महत्या करने वाले इन मुख्यमंत्री महोदय की पत्नी चुनाव लड़कर भारतीय जनता पार्टी की विधायक बन जाती हैं. शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने इस आत्महत्या वाले पत्र पर खामोश रहने का किसी को वचन दे दिया. उन्होंने कोई मांग नहीं उठाई. आखिर क्या था इस पत्र में? क्यों ये गायब हो गया? लोगों के पास सिर्फ इतनी जानकारी आई की ये 60 पृष्ठ का दस्तावेज है. इस दस्तावेज में क्या है, न अरुणाचल सरकार ने बताया जहां के मुख्यमंत्री थे और न केंद्र सरकार ने बताया. सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह खामोश हो गया. कोई जांच नहीं, कोई सुगबुगाहट नहीं, कोई सनसनाहट नहीं.
इसे हम क्या मानें? हमने जब तलाश की और खोजबीन की, तो हमें पता चला कि इस पत्र में कुछ मंत्रियों के नाम हैं. कुछ रहे हुए मंत्रियों के नाम हैं. इस पत्र में कुछ माननीय जजों के नाम हैं, राजनीतिक दलों के कुछ महान नेताओं के नाम हैं. जिनके बारे में आत्महत्या करने वाले मुख्यमंत्री श्री कलिखो पुल ने साफ-साफ लिखा है. उन्होंने ये भी लिखा है कि उन्होंने किसे पैसे कहां दिए. जब हम पैसे कहते हैं, तो वो लाखों में नहीं होते हैं, वो करोड़ों में होते हैं. आखिर किन जज साहबानों को उन्होंने पैसे दिए.
क्या ये सारा मसला इसलिए दबा दिया गया, क्योंकि इससे हमारे सिस्टम के सबसे भरोसे वाले अंग न्यायपालिका, न्यायपालिका की गंदगी का, न्यायपालिका के भीतर चल रहे भ्रष्टाचार का खुलासा होता है. राजनीतिज्ञ धन लें समझ में आता है, लेकिन न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर बैठे हुए लोग अगर धन लें और उसके आधार पर फैसला करें, ये बात कुछ समझ में नहीं आती और इससे ये लगता है कि जानबूझ कर हमारे लोकतंत्र को समाप्त करने की साजिश उसी के सहारे अपना जीवन गुजारने वाले कर रहे हैं.
अपनी जांच में हमें ये भी पता चला कि किस तरह केंद्र सरकार द्वारा भेजा हुआ 100 रुपया राज्य में पहुंचते-पहुंचते 25 पैसे हो जाता है. पीडीएस स्कीम सिर्फ और सिर्फ घोटालों का, खाने का और भ्रष्टाचार का तरीका बन गया है. एक पूरे तंत्र को तबाह करने की मंत्रियों की, विधायकों की, नौकरशाहों की मिलीभगत का खुला चिट्‌ठा श्री कलिखो पुल के आखिरी पत्र में है.
अगर श्री कलिखो पुल कहते हैं कि उन्होंने लोगों को पैसे दिए, तो ये पैसे आए कहां से. इसका मतलब वे भी सिस्टम का हिस्सा थे. लेकिन वे सिस्टम से लड़ते-लड़ते इतने हताश हो गए कि अंत में उन्होंने आत्महत्या करना श्रेयस्कर समझा. लेकिन आत्महत्या से पहले उन्होंने एक लम्बा पत्र लिखा. ये पत्र बताता है कि भ्रष्टाचार कैसे तंत्र में घुन की तरह घुस गया है और कैसे वे लोग ही भ्रष्टाचार के संवाहक और कंडक्टर बन गए हैं जिनके ऊपर भ्रष्टाचार को खत्म करने का जिम्मा था, चाहे वो राजनीति में हों या न्यायापालिका में हों.
मैं अगर मिली जानकारी को संक्षेप में कहूं, तो मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर भी थोड़ा तरस आता है, थोड़ा गुस्सा आता है. क्यों प्रधानमंत्री जी ने इस पत्र की जांच का आदेश नहीं दिया? एक तरफ प्रधानमंत्री जी सभाओं में भ्रष्टाचार के खिलाफ गरजते हैं, समाप्त करने की बात करते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी निष्कलंक व्यक्ति हैं.
लेकिन नरेंद्र मोदी सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार को क्यों नहीं खोलना चाहते हैं, क्यों नहीं सार्वजनिक करना चाहते हैं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की कौन सी कमजोर नस है, जो उन्हें ऐसा करने से रोक रही है या उनकी कोई रणनीति है कि बड़े भ्रष्टाचार को और खासकर मुख्यमंत्री की आत्महत्या के पत्र को चुनाव से ठीक पहले जांच के दायरे में लाया जाए? लेकिन तब तक तो देश में और बहुत कुछ हो जाएगा. भ्रष्टाचार से लड़ने का वक्त तभी होता है, जब आप भ्रष्टाचार से लड़ने की बात करते हैं.
इसलिए मैं माननीय सुप्रीम कोर्ट, माननीय प्रधानमंत्री और माननीय संसद से ये आग्रह करता हूं कि वो एक व्यक्ति द्वारा मौत से पहले लिखे हुए पत्र को अनदेखा न करें. उसके ऊपर जांच बैठा दें. ये उनके अपने सिस्टम के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति, जो लगातार पांच बार विधायक रह चुका है की आत्महत्या से उपजा सवाल है. मैं ये भी आग्रह करता हूं कि एक सप्ताह के भीतर आप इस जांच को बैठा लें, अन्यथा हम उस पत्र को कहीं न कहीं से प्राप्त कर देश के लोगों के सामने लाएंगे. पत्रकार सिर्फ इतना कर सकता है.
अगर एनडीटीवी के ऊपर किसी पुराने मामले में सीबीआई का छापा पड़ सकता है, तो प्रधानमंत्री जी, एक मुख्यमंत्री की आत्महत्या के नोट के ऊपर सीबीआई की जांच क्यों नहीं कराई जा सकती? करानी चाहिए. आप कम से कम भ्रष्टाचार के मसले में पक्षपात नहीं करें, ऐसी अपेक्षा तो आपसे है ही.
आमतौर पर माना जाता है कि मरने से पहले व्यक्ति हमेशा सच बोलता है. आत्महत्या से पहले श्री कलिखो पुल ने एक 60 पन्ने का टाइप्ड नोट लिखा. मेरा ख्याल है कि उस टाइप्ड नोट को लिखने में तीन से चार दिन लगे होंगे. कोई उनके साथ बैठकर उसे टाइप कर रहा होगा. उन्होंने उसे पढ़ा होगा. उसके हर पृष्ठ पर उन्होंने दस्तखत किए, ताकि कोई इस नोट बदल न सके.
उन्होंने कहा है कि मेरी आत्महत्या या मेरा जाना मेरे देशवासियों के लिए कम से कम कुछ सीख देगा और वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाएंगे. लेकिन इस सिस्टम ने, सुप्रीम कोर्ट ने, केंद्र सरकार ने या स्वयं संसद ने स्वर्गीय मुख्यमंत्री की इच्छा का सम्मान नहीं किया. कहीं से कोई आवाज भी नहीं उठी कि इस पत्र के ऊपर सीबीआई जांच बैठे और जो तथ्य उन्होंने लिखे हैं, उनकी सच्चाई का पता लगाया जाए.
कहा तो ये जा रहा है कि जिन कुछ लोगों ने इस पत्र की तलाश का काम शुरू किया, उन्हें किसी एक जगह बुलाकर ये कहा गया कि आप पत्रकारिता कीजिए, आप इन सब में कहां पड़े हैं. अगर आप इसमें पड़ेंगे, तो कोई ट्रक आपको कुचल कर चला जाएगा. इसका मतलब भ्रष्टाचार को पनाह देने वाले लोग इतने ताकतवर हैं कि वे किसी भी कीमत पर भ्रष्टाचार की परतें उघड़ते हुए नहीं देखना चाहते. कोई जांच नहीं होने देना चाहते. वे बहुत ताकतवर हैं. इसीलिए आरटीआई के बहुत सारे कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं.
पत्रकारों के ऊपर दबाव बनाया जा रहा है. हमारे वो चैनल, जो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का कंट्रोल रूम बने हुए हैं, उनकी हिम्मत चीन के खिलाफ बोलने की तो होती ही नहीं है, उनकी हिम्मत भ्रष्टाचार को उजागर करने की भी नहीं होती है. दरअसल, बहुत सारे लोग इस तंत्र के भ्रष्टाचार का हिस्सा बन गए हैं. मैं अंत में न्यायपालिका और प्रधानमंत्री जी से आग्रह करता हूं कि सात दिन के भीतर आप जांच कमिटी बैठा लें, अन्यथा हम कोशिश करेंगे कि उस स्वर्गीय मुख्यमंत्री के पत्र को हम सार्वजनिक करें और लोगों के संज्ञान में लाएं, जिन्होंने मुख्यमंत्री रहने के बाद भी सिस्टम से हार कर आत्महत्या कर ली.
इसे कोई भी धमकी समझने की गलती न करें. ये सलाह है और प्रधानमंत्री जी से अंत में फिर हाथ जोड़कर आग्रह है कि फौरन सीबीआई की जांच का आदेश इस पत्र को लेकर दें और राजनीति और न्यायपालिका में बैठे हुए उन लोगों के चेहरे सार्वजनिक करें, जो भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा लेने के लिए बेशर्मी से मुंह खोलते हैं और मुख्यमंत्री से पैसे की मांग करते हैं. वे इस मांग को सहन नहीं कर पाते और इस दुनिया से शांति से विदा हो जाते हैं, ये सोचकर कि उनकी आत्महत्या इस देश के लोगों में आशा का संचार करेगी. लेकिन आत्महत्या करने वाले श्री कलिखो पुल को क्या पता था कि उनकी आत्महत्या का आखिरी दस्तावेज, उनका सुसाइड नोट इस देश के लोगों के पास ही नहीं पहुंच पाएगा.