Tuesday 14 February 2017

मध्यकालीन संतों और भक्तों के जन्म-मृत्यु

मध्यकालीन संतों और भक्तों के जन्म-मृत्यु व पारिवारिक जीवन के बारे में आमतौर पर मत विभिन्नताएं हैं। संत रविदास की कृतियों में उनके रैदास, रोहीदास, रायदास, रुईदास आदि अनेक नाम देखने को मिलते हैं। काव्य-ग्रन्थों में रैदास का तत्सम रूप रविदास प्रयुक्त हुआ है। संत रविदास के नाम के बारे में ही नहीं, बल्कि जन्म के बारे में भी कई अटकलें लगाई जाती हैं। रविदासी सम्प्रदाय में निम्नलिखित दोहा शताब्दियों से प्रचलित है - चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास। दुखियों के कल्यान हित प्रगटे स्री रविदास।। संत रविदास का जन्म बनारस छावनी के पश्चिम की ओर दो मील दूरी पर स्थित मांडूर गांव में हुआ, जिसका पुराना नाम मंडुवाडीह है। रैदास रामायण के अनुसार काशी ढिग मांडूर स्थाना, शूद्र वरण करत गुजराना। मांडूर नगर लीन अवतारा, रविदास शुभ नाम हमारा।। रविदास के पिता का नाम राघव अथवा रघू तथा उनकी माता का नाम करमा देवी तथा पत्नी का नाम लोना था। रविदास ने अपनी वाणी में अपने पेशे व जाति के बारे में बार बार लिखा है। वे मृत पशु ढोने का कार्य करते थे। मेरी जाति कुट बाढ़ला ढोर ढुवंता, नितहि बंनारसी आसपासा। जाति ओछी पाती ओछी, ओछा जनम हमारा। कहि 'रविदास' खलास चमारा। जो हम सहरी सो मीत हमारा।। रविदास-सम्प्रदाय के पक्षधर मानते हैं कि रविदास का निर्वाण चैत्र मास की चर्तुदशी को हुआ था। कुछ विद्वानों का विचार है कि उनकी मृत्यु सं. 1597 में हुई थी। यह तिथि 'भगवान रैदास की सत्यकथा' ग्रंथ में दी गई है। 'मीरा स्मृति ग्रंथ' में रैदास का निर्वाण-काल सं. 1576 दिया गया है। यह भी विश्वास किया जाता है कि उन्हें 130 वर्ष की दीर्घायु मिली थी। अनन्तदास ने लिखा:- पन्द्रह सौ चउ असी, भई चितौर महं भीर। जर-जर देह कंचन भई, रवि रवि मिल्यौ सरीर।। महापुरुषों के जीवन से संबधित चमत्कारिक घटनाएं समाज में प्रचलित हैं। जनश्रुतियों एवं किंवदंतियों के माध्यम से लोग अपने आदर्श पुरुष, महापुरुष एवं नायक के प्रति श्रद्घा व्यक्त करते हैं या अप्रिय के प्रति घृणा अथवा निन्दा व्यक्त करते हैं। किंवदंतियों की रचना व प्रसार निरुद्देश्य नहीं होता, बल्कि किसी विचार, मान्यता या मूल्य को लोगों में स्थापित करने के लिए होता है। किंवदंतियां चुपचाप अपना प्रभाव छोड़ती रहती हैं और एक समय के बाद सामान्य चेतना का अविभाज्य हिस्सा बनकर समाज की चेतना को स्वत: ही प्रभावित करती रहती हैं। वर्गों में विभक्त समाज में ये वर्चस्वी वर्ग के संस्कारों-विचारों के संवाहक का काम करने लगती हैं। इसलिए वर्गीय जरूरतों के साथ-साथ ये किंवदंतियां भी बदलती रहती हैं, इनमें जोड़-घटाव होता रहता है। कई बार तो किसी व्यक्ति के बारे में ऐसी किंवदंतियां प्रचलित हो जाती हैं जिससे उस व्यक्ति का मूलभूत विरोध रहा है। मध्यकालीन संतों के साथ भी कुछ इसी तरह का हुआ। संत रविदास के बारे में ऐसी ऐसी जनश्रुतियां हैं कि यदि रविदास को वे सुना दी जातीं जो वे अपना सिर धुन लेते। संत रविदास का ब्राह्मणवाद से विरोध था। रविदास के प्रभाव को समाप्त करने के लिए उनके बारे में कई तरह की कहानियां व चमत्कार ठूंस दिए गए और कालान्तर में वही आम लोगों में इन संतों का परिचय करवाने लगे। ''गुरु रविदास जी के जीवन से संबंधित अनेक चमत्कारिक घटनाएं जनश्रुतियों के रूप में प्रचलित हैं। उनमें भगवान का स्वयं साधु रूप में आकर इन्हें पारसमणि प्रदान करने पर अस्वीकार करना, भगवान के सिंहासन के नीचे से सोने की पांच मोहरों का नित्य प्राप्त होना, गंगा का हाथ निकालकर ब्राह्मण से रविदास की भेंट स्वीकार करके बदले में रत्न जडि़त सोने का कंगन प्रदान करना, राजा की सभा में ब्राह्मणों का विवाद में पराजित होना, जल में शालिग्राम की मूर्ति तिराना तथा सिंहासन से मूर्ति का रविदास जी की गोद में आ बैठना, भोज में अनेक रूप धारण कर प्रत्येक ब्राह्मण के मध्य एक एक रविदास का विराजमान होना आदि सर्वाधिक प्रचलित हैं। इन अनुश्रुतियों में गुरु रविदास जी की भक्ति, संतभाव, सिद्घत्व तथा अनुपम ख्याति की छाया स्पष्टत: प्रतिबिम्बित हुई है।" संत रविदास के प्रभाव को समाप्त करने के लिए ही उनके साथ इस तरह की कथाएं रची गई हैं। उनके साथ चमत्कार जोड़कर उनको एक सनातनी पंडित की तरह पूजा करता दिखाया गया है। इस सारी कवायद में रविदास में से असली रविदास निकाल कर उसकी जगह एक मनघडंत रविदास लोगों के दिमागों में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है जो वही सिद्घांत लिए हैं जिनके खिलाफ रविदास ने ललकार दी थी। यह भी सच है कि वे अपने मकसद में कामयाब भी हुए हैं।
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