समतामूलक समाज संबिधान के विरुद्ध विषमतामुलक ब्राह्मणवाद – क्यों और कैसे ?
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भारत का संबिधान' एक ऐसा दस्तावेज है की इसके माध्यम से इस देश में रक्त विहीन क्रांति का होना तय है। इसके आंशिक अमल से ही जो सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन इस देश में आया है वह गौर करने लायक है। यद्दपि, अभी इस परिवर्तन की मात्रा कम दिखाई पड़ती है पर इसके दूरगामी प्रभाव क्रन्तिकारी है, इसलिए इसके दूरगामी परिणामो से भयभीत होकर ब्राह्मणवादी ताकते षड़यंत्र पूर्ण तरीके से संबिधान को तहस नहस करने में लगी हुयी है। इस देश में ब्राह्मणवादी ताकते प्रति दिन संबिधान विरोधी गतिविधियां एवं संबिधान विरोधी दुष्प्रचार करती रहती है।
ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि:-
अंग्रेजो के विरुद्ध चले आजादी के आन्दोलन में सब कुछ ब्राह्मणों के योजना ,अनुसार घटित हुआ, केवल बाबा साहेब डा आंबेडकर का सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति का आन्दोलन और भारतीय संबिधान का निर्माण ब्राह्मणों के योजना का हिस्सा नहीं है। इस लिए भारतीय संबिधान ब्राह्मणों को हमेशा अखरता रहता है और उनको अपने स्वार्थ सिद्ध के लिए, गैर-बराबरी की व्यवस्था को कायम रखने के राह मे, भारतीय संबिधान एक बड़ी बाधा के रूप लगता है। इस लिए ब्राह्मण-बनिया अपनी नाकामी को छुपाने के लिए हर असफलता का ठीकरा भारतीय संबिधान पर थोप कर संबिधान को फेल करने या फिर संबिधान को बदलने का षड्यंत्र करते रहते है। अटल बिहारी के नेतृत्व मे गठित एनडीए की सरकार तो संबिधान समीक्षा आयोग तक गठित कर दी थी लेकिन मूलनिवासी बहुजन समाज के जागरूकता के कारण वे अपने मंसूबे मे कामयाब नहीं हो पाये। कई और शक्तियाँ रूप बादल कर ऐसा प्रयास कर सकती है इस लिए हमे बेहद सतर्क और जागरूक रहने की जरूरत है।
संबिधान सभा मे कैसे पहुचे बाबा साहब आंबेडकर:-
संबिधान सभा का जब 1946 में चुनाव हो रहा था तो कांग्रेस के लोगो ने कहा कि "कोई भी चुन कर आ जाये, आंबेडकर चुन कर नहीं आना चाहिए। हम लोगो ने आंबेडकर के लिए सारे खिड़की और दरवाजे बंद कर दिए है। अब वह संबिधान सभा में चुन कर नहीं आ सकते है।" तब बाबा साहेब जोगेंद्र नाथ मंडल जी के सहयोग से ईस्ट बंगाल के जैसोर और खुलना क्षेत्र से चुनाव जीत कर संबिधान सभा का सदस्य बने। बंगाल के जैसोर और खुलना क्षेत्र में चांडालो की आबादी 52% थी। जब बाबा साहेब बंगाल के जैसोर और खुलना क्षेत्र चुनाव जीत कर संबिधान सभा का सदस्य बने तो गाँधी जी, नेहरु और कांग्रेस को इसकी फिक्र हो गयी और तब उन्होंने जैसोर, खुलना, फरीदपुर और पड़ीसाल जहा कि चांडालो की आबादी 52% थी और जो बटवारे में भारत के अंग थे उनको पाकिस्तान को दे दिया और इसके साथ ही चितगांव की पहाड़ी जिसमे 99% बुद्धिस्ट थे, उसको भी पाकिस्तान को दे दिया। इसके बाद बाबा साहेब अंग्रेजो से मिले और उनको यह सब बताया कि जिनको आप आजादी के बाद भारत की बागडोर सौप रहे है उनका यह व्यवहार है तो अंग्रेजो ने पुनः हस्तक्षेप किया और गाँधी जी, नेहरु और कांग्रेस को कहा कि कोई बात नहीं, भले जैसोर, खुलना, फरीदपुर और पड़ीसाल जहा कि चांडालो की आबादी 52% है और जो बटवारे में भारत के अंग है उनको पाकिस्तान को दे दें लेकिन अगर आजादी चाहते हो तो आंबेडकर को संबिधान सभा का सदस्य बनाओ। तब जाकर कांग्रेस पार्टी के सदस्य एम आर जयकर ने अपनी सीट से त्यागपत्र दिया और बाबा साहेब पुनः उसी सीट से निर्वाचित होकर संबिधान सभा के सदस्य बने और फिर संबिधान निर्मात्री सभा के चेयरमैन बने और आज हमारे देश में उनका ड्राफ्ट किया गया संबिधान चल रहा है। संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुयी थी। संविधान सभा द्वारा 29 अगस्त 1947 को संबिधान निर्माण हेतु मसौदा समिति गठित की गयी और बाबा साहब को मसौदा समिति का अध्यक्ष चुना गया और इसकी पहली बैठक 30 अगस्त 1947 को हुयी थी। 24 नवम्बर 1949 को संबिधान बन कर पूर्ण रूप से तैयार हो गया था और बाबा साहब डा भीम राव अंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप मे ऐतिहासिक भासण दिया और 26 नवम्बर 1949 को मसौदा समिति के अध्यक्ष डा अंबेडकर के संबिधान निर्माण के प्रस्ताव को संबिधान सभा ने पास कर दिया और 26 जनवरी 1950 से यह संबिधान लागू कर दिया गया।
संबिधान श्रमण संस्कृति का वाहक:-
बाबा साहब डा आंबेडकर इतिहास के बारे मे अपनी पुस्तक “प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति” में कहा है कि, “भारत का इतिहास बुद्धवाद और ब्राह्मणवाद के बीच एक संघर्ष सिवा कुछ भी नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकर रोमिला थापर कहती है कि भारत का इतिहास श्रमण संस्कृति (अर्थात श्रम करने वाले लोग) और आश्रम/ब्राह्मण संस्कृति (दुसरे के श्रम पर मौज करने वाले लोग) के मध्य संघर्ष का इतिहास है। भारतीय संबिधान श्रमण संस्कृति को आगे ले जा रहा है या हम कहे कि भारतीय संबिधान लागु होने से श्रमण संस्कृति ने ब्राह्मण संस्कृत को पीछे छोड़ दिया है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। भारतीय संबिधान के अनुच्छेद 13(1) के अनुसार इस संबिधान के प्रारंभ से ठीक पहले की राज्यक्षेत्र में प्रबृत सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधो से असंगत है। अर्थात इस अनुच्छेद के अनुसार संबिधान में दिए मूल अधिकारों के विरुद्ध में यदि किसी भी धार्मिक या सांस्कृतिक पुस्तक मे कुछ लिखा भी है तो उसका वह भाग जो संबिधान के विरुद्ध मे है का महत्व शून्य होगा। इस एक अनुच्छेद सभी संबिधान विरोधी सभी धार्मिक ग्रंथो का कानूनी महत्व शून्य कर दिया है।
संबिधान श्रमण संस्कृति का पर सत्ता संचालन ब्राह्मण संस्कृति की एक विरोधाभाष:- भारतीय संबिधान मूल रूप से तथागत बुद्ध के दर्शन पर आधारित है और इसके अंदर महान सम्राट अशोक के प्रतीक चिह्न समाहित है जो की ब्राह्मण वादियों को हमेशा अखरता रहता है। पुरे दुनिया में क्रांति का मतलब है संबिधान को उखाड़ फेकना पर भारत में क्रांति का मतलब है संबिधान को उसकी मूल मंशा के अनुसार लागु करना। संबिधान भले श्रमण संस्कृति को सपोर्ट करता है लेकिन इसको लागु करने वाले सत्ता संचालन के सभी केन्द्रों पर वर्तमान मे ब्राह्मण संस्कृति के लोगो ने कब्ज़ा कर रखा है इस लिए हमें अर्थात मूलनिवासी बहुजन समाज को सत्ता संचालन के सभी केन्द्रों पर कब्ज़ा करना होगा तभी संबिधान को उसकी मूल मंशा के अनुसार लागु कर पायेंगे।
बैज्ञानिक एवं तर्क पर आधारित सोच:-
भारतीय संबिधान का अनुच्छेद 51 ए, सभी नागरिको का मूल कर्तव्य तय करते हुये सभी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण (scientific temper) अपनाने और तर्क की पर्बृति (spirit of inquiry) विकसित करने पर ज़ोर देता है। अर्थात भारतीय संबिधान समाज में बैज्ञानिक सोच स्थापित करने पर जोर देता है। पर आज भी मीडिया, न्यायपालिका एवं अन्य संस्थाएं इसके विपरीत पाखंड वाद को बढाने में लगी हुयी है। पौराणिक कहानियों (Mythology) को भी मीडिया एवं न्यायपालिका का सहारा लेकर ऐतिहासिक (historical) घटना बनाने का षड़यंत्र चल रहा है जो निश्चित रूप से संबिधान विरोधी कृत्य है।
आर्थिक नीतियाँ संबिधान की मूल मंशा के विपरीत:-
बाबा साहेब ने कहा था कि संबिधान कितना भी अच्छा क्यों न हो यह उसको लागु करने वालो कि नियत पर निर्भर करेगा। संबिधान समता वादी है पर भारत देश में ब्राह्मण संस्कृति विषमतावादी है। ब्राह्मण-बनिया, शासक जातियां संबिधान से प्रेरणा न लेकर अपनी विषमतावादी ब्राह्मण संस्कृति से देश चला रहीं है। इस लिए भारत की ऐसी आर्थिक नीतियाँ बनायीं जा रही है जो संबिधान की मूल भावना के विपरीत है। जैसे कि LPG, PPP, SEZ, राष्ट्रीय संसाधनों को कार्पोरेट घरानों को सौपना, सरकारी कम्पनियों का औने पौने दाम में उद्योग घरानों को बेचना (विनिवेश)। संबिधान समाजवादी है जबकि आर्थिक नीतियाँ पूजीवादी है। संबिधान में स्पस्ट उल्लेख है की सरकार गरीब और अमिर के मध्य दुरी कम करेगी और संसाधनों का सामान रूप से वितरण करेगी पर सरकार संसाधनों को कुछ कार्पोरेट घरानों को सौप रही है और गरीब और आमिर के मध्य दुरी अत्यधिक बढ़ा रही है। नयी आर्थिक नीतियों से केवल उद्योग घरानो को लाभ मिल रहा है और आम आदमी महंगाई की मार झेलने के लिए मजबूर है।
सभी बालको को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा:-
संविधान के अनुo 45 में नीतिनिर्देशक तत्व में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया था की, "राज्य, इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालको को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रावधान करेगा।" ध्यान रहे पंडित नेहरु सुरुआती 12-14 सालो तक देश के प्रधानमंत्री रहे ! लेकिन इसको लागु करने में उन्होंने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। जवाहर लाल नेहरु ने अपने भतीजो (उन करोड़ो मूलनिवासी बच्चो के साथ) के साथ किये गए विश्वासघात को छिपाने के लिये ही 'चाचा नेहरु' की उपाधि धारण की। बाद में 86 वा संबिधान संसोधन 2002 करके इसको अनुच्छेद 21A के अंतर्गत सभी बालको को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के अधिकार को मूल अधिकार में शामिल किया गया। पर अभी भी इस का अनुपालन नहीं किया जा रहा है।
SC/ST/OBC मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगो को कार्यपालिका मे उचित प्रतिनिधित्व:-
आरक्षण से SC/ST/OBC मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगो को प्रतिनिधित्व मिला है। यह संबिधान की मूल मंशा है कि सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगो को उनकी जनसँख्या के अनुरूप भागेदारी दी जाय। कई राज्यों में यह जनसँख्या के अनुपात में दिया जा रहा है। पर न्यायपालिका इसके ऊपर कार्यक्षमता को परिभाषित कर कभी 50% का बैन लगाती है तो कभी क्रीमी लेयर का। 50% का बैन और क्रीमी लेयर का सिधान्त OBC को उनकी जनसख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व न देने का षड़यंत्र है। प्रोनति में आरक्षण का मुद्दा षड़यंत्र है और इसका मुख्य उद्देश्य, अनुसूचित जाति/जनजाति को मिलने वाले प्रोन्नति में आरक्षण रोकना नहीं बल्कि अन्य पिछड़ी जाति (OBC) और अनुसूचित जाति/जनजाति ध्रुवीकरण को रोकना है। इस षड़यंत्र से बाहर आने का उपाय यही है कि, अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग अन्य पिछड़ी जाति (OBC) का प्रोन्नति में आरक्षण का मुद्दा उठायेँ और ओबीसी के लोग अनुसूचित जाति/जनजाति प्रोनति में आरक्षण का समर्थन करे और ओबीसी को भी इसमे शामिल करने की मांग रखे। यह संबिधान सम्मत है और मंडल आयोग की संस्तुति भी है।
प्रतिनिधित्व विहीन उच्च न्यायपालिका राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया मे अवरोध है:-
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को नियुक्त करने का प्रावधान संविधान में अनुच्छेद 217(1) , 124(2) और 312(1) के तहत प्रदान किया गया हैं। तदानुसार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का प्रत्येक न्यायाधीश, राष्ट्रपति द्वारा, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के उन न्यायाधीशों, जिससे कि राष्ट्रपति परामर्श लेना आवश्यक समझे, से परामर्श के बाद नियुक्त किया जाएगा। भारत के राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से निर्देशित और बाध्य है। इस प्रकार न्यायाधीशों की नियुक्ति अनिवार्य रूप से कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र मे है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में सुप्रीमकोर्ट-ऐडवोकेट-ऑन-रिकार्ड-एसोसिएशन वनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले मे फैसला देते समय कालेजियम की प्रणाली के माध्यम से इसे अपने अधिकार क्षेत्र मे ले लिया। कालेजियम प्रणाली के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति पारदर्शी नहीं रही इस लिए इसके विरुद्ध आवाज उठी। परिणाम स्वरूप एनडीए एवं यूपीए ने संयुक्त रूप से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 और 121 वां संविधान संशोधन विधेयक-2014, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों को साझा करने का समझौता करके पारित तो कर दिया लेकिन संविधान के अनुच्छेद 312 (1) के दिये गए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा गठित करके इसके माध्यम से न्यायधीश नियुक्त करने वाले प्रावधानों की पूरी तरह से और जानबूझ कर अनदेखी किया जिससे कि मूलनिवासी बहुजन को न्यायपालिका मे भागेदारी न मिल सके। अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के माध्यम से मूलनिवासी समाज से बुद्धिमान एवं तेज लोगो की उच्चतर न्यायपालिका में प्रवेश करने की पूरी संभावना है। हमे कोलेजियम व्यवस्था स्वीकार नहीं है क्योकि कोलेजियम से जजों की नियुक्ति पारदर्शी, प्रतियोगी नहीं है और इससे भाई-भतीजा वाद, परिवार वाद एवं जातिवाद होता है।
बामसेफ एवं इसके सभी सहयोगी संगठनो का संबिधान में पूर्ण विश्वास है। संबिधान का मूल स्वरुप बरकार रहे इस लिए हम 26 जनवरी को हर वर्ष मूलनिवासी बहुजन समाज मे जागरूकता लाने के लिए संबिधान दिवस के रूप में मनाते है।
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर।
ReplyDeleteजय भीम जय संविधान