बसपा प्रमुख को चिट्ठी
Written by Ashok Das
आदरणीय मायावती जी,
सादर जय भीम।
उत्तर प्रदेश में बसपा हार गई है. हारी ही नहीं बल्कि बुरी तरह हार गई है. इतनी बुरी तरह; जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. जल्दी ही यह भी साफ हो जाएगा कि वह कहां कितने वोटों से हारी और कहां किस नंबर पर रही. लेकिन बसपा का इस तरह हार जाना भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में बसे लाखों-करोड़ों अम्बेडकरवादियों तक को निराश कर गया है. हालांकि इस हार के बाद आपने ईवीएम की गड़बड़ी की तरफ इशारा करते हुए यह मांग की है कि पुरानी बैलेट प्रणाली के तहत चुनाव कराया जाए. मैं इसको लेकर आपका समर्थन करता हूं. संभव है कि बहुजन समाज पार्टी के विरोधी इस बात के लिए आप पर तंज कसें लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि पूर्व में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी ऐसी ही मांग कर चुके हैं.
लेकिन आपके द्वारा ईवीएम में गड़बड़ी से इतर अगर यूपी चुनाव में बसपा की हार की समीक्षा की जाए तो एकबारगी समझ में नहीं आता कि चूक कहां हुई, क्योंकि जिस तरह की ग्राउंड रिपोर्ट थी उसमें बसपा की इतनी करारी हार की संभावना बिल्कुल नहीं थी. हां, आपको इस बारे में जरूर जानकारी होगी. इस हार के बाद क्या आपको नहीं लगता कि अब समय आ गया है कि बहुजन समाज पार्टी को भी अपनी चुनावी रणनीति बदलनी चाहिए. सीधी सी बात यह है कि वक्त बदल रहा है. इस बदलते वक्त में वोटर भी बदल रहा है और मुद्दे भी. क्या ऐसे में बसपा को भी चुनाव लड़ने का अपना तरीका नहीं बदलना चाहिए?
बहुजन समाज पार्टी जिस अम्बेडकरवादी विचारधारा की उपज है, आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा उससे अंजान है. यूपी के वोटरों में भी बहुसंख्यक लोगों को जो अनुसूचित जाति वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते हैं इस विचारधारा से बहुत लगाव नहीं है. ऐसे में विचारधारा से इतर किन मुद्दों को सामने रखकर वोटरों को जोड़ा जाए बसपा को इस बारे में सोचना होगा. मीडिया के जिस रूख को लेकर आप और आपकी पार्टी के समर्थक लगातार मीडिया पर आरोप मढ़ते रहते हैं, पार्टी को उस बारे में भी सोचना चाहिए. मसलन यूपी जितने बड़े चुनाव के दौरान भी मीडिया से दूर रहना और अखबारों और चैनलों को इंटरव्यू नहीं देने से पार्टी को कितना नुकसान हुआ, आपको इस बारे में भी सोचना चाहिए. क्योंकि आज के वक्त में मीडिया की ताकत को नकारा नहीं जा सकता. ऐसा क्यों नहीं हो पाता कि आप मीडिया के सवालों का खुलकर सामना करें और अपना पक्ष रखें. एक सहज सवाल जनता के बीच से यह भी उठता है कि कई बार सत्ता में रहने के बावजूद बसपा आखिरकार अपना मीडिया खड़ा क्यों नहीं करती है और उसे किसने रोका है? जबकि बाबासाहेब से लेकर कांशीराम जी ने तमाम अभाव के बावजूद समाचार पत्रों (मीडिया) के महत्व को स्वीकार किया और उसे चलाया भी.
उत्तर प्रदेश में जब सभी पार्टी के नेता लगातार रोड शो कर जनता से ज्यादा से ज्यादा जुड़ने की कोशिश में जुटे थे आखिर आप इससे दूर क्यों रहीं? संभव है कि बहुजन समाज पार्टी में आस्था रखने वाले लोग अपने नेता यानि आपसे भी ऐसी उम्मीद कर रहे होंगे कि आप भी सड़क पर उतरें और ऐसा नहीं होने से उन्हें निराशा हुई होगी. जब यह दिख रहा था कि बाकी तमाम दल और नेता चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अपना सबकुछ झोंक रहे हैं तब आप महज परंपरागत चुनावी रैलियों तक ही सीमित क्यों रही?
पता नहीं आप सोशल मीडिया को कितना देखती हैं, लेकिन आपसे एक बात कहना चाहूंगा कि वहां पर अम्बेडकरवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लाखों युवा आपके लिए पागल हैं. क्या आपने इन युवाओं के लिए पार्टी में कोई जगह तलाशने की कोशिश की? जब तमाम पार्टियां युवा मोर्चा के बल पर अपनी पार्टी की जीत का आधार और भविष्य का नेता तैयार कर रही हैं, ऐसे में बहुजन समाज पार्टी में इन युवाओं के लिए जगह क्यों नहीं है? मैं इस बात से वाकिफ हूं कि तमाम युवा पार्टी में विभिन्न पदों पर सक्रिय हैं लेकिन 18 साल से 30 साल के वे युवा एक वोटर के अलावा पार्टी से खुद को कैसे जोड़े रखें और संवाद करें आपने इसकी गुंजाइश क्यों नहीं रखी. क्या युवा मोर्चा और इसी तरह के अन्य मोर्चों का सीधे तौर पर गठन करने में देर नहीं हो रही है?
क्या पता आपकी पार्टी को बहुजन बुद्धिजीवियों से क्या दिक्कत है, कोई दिखता ही नहीं है? न राज्यसभा में, न विधान परिषद में और न ही पार्टी संगठन में. न तो बतौर प्रवक्ता, न बतौर संगठनकर्ता और न ही बतौर रणनीतिकार. हालांकि मेरा यह मतलब नहीं है कि बाकी के लोग विद्वान नहीं हैं, लेकिन जिस तरह तमाम दलों ने चुनावी कार्यकर्ताओं से इतर विभिन्न क्षेत्रों मसलन मीडिया, विश्वविद्यालय, रंगकर्मी, लेखन आदि में सक्रिय लोगों को पार्टी से जोड़ कर रखा है, आप ऐसा करने में क्यों हिचकती हैं यह पार्टी से सहानुभूति रखने वाले हर व्यक्ति के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है. उत्तर प्रदेश की चुनावी बेला में जब आप लगातार प्रेस रिलीज जारी कर अपनी बात रख रही थीं, कई बार ऐसा हुआ कि आपकी प्रतिक्रिया तब आई जब वो मुद्दा ठंडा हो चुका था. मुख्यमंत्री रहते आपने जो काम किए थे वह बेमिसाल थे, लेकिन आपके नेता और आपकी पार्टी मजबूती से इसे भी जनता को नहीं बता पाएं. अगर आपने कुछ बुद्धिजीवियों को पार्टी से जोड़ा होता तो आपको अपनी बात कहने में जरूर मदद मिली होती.
राजनीति भाषणों का खेल है. आप काम करें ना करें, आप कितना अच्छा बोलते हैं यह राजनीति की पहली शर्त है. इस कसौटी पर बहुजन समाज पार्टी काफी पीछे दिखती है. बसपा के नेता न तो टीवी पर अपनी बात रखते दिखते हैं और न ही समाचार पत्रों में कॉलम लिखते हैं. इस पर काम करने की बहुत जरूरत है. और हां, “मीडिया हमारी बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है” ऐसे तर्क अब पुराने हो चुके हैं. इसलिए ये सब कहने से अब काम नहीं चलने वाला है.
एक आखिरी बात. जब मान्यवर कांशीराम थे, एक वक्त ऐसा था जब बसपा दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में भी बढ़ती हुई दिख रही थी और अंदाजा लगाया जा रहा था कि आने वाले एक-दो दशकों में बसपा इन राज्यों में परचम लहरा सकती है. आज इन राज्यों में बसपा बढ़ना तो दूर खत्म होने के कगार पर है. और जिस उत्तर प्रदेश के लिए आपने इन सारे राज्यों को परे धकेल दिया था वह भी आपके हाथ से निकल गया है. क्या आप ईमानदारी से आत्मचिंतन करने और खुद में एवं पार्टी में बदलाव को तैयार हैं या फिर सिर्फ ईवीएम को कोस कर अपना दायित्व पूरा कर लेंगी??
सादर
अशोक दास
संपादक
(दलित दस्तक)
उत्तर प्रदेश में मोदी जीते हैं या ईवीएम... इसका राज शायद इस भयंकर मोदी तूफान में भी भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की मेरठ से हुई करारी हार और गोवा विधानसभा चुनाव में वहां के मुख्यमंत्री, 6 मंत्री समेत भाजपा की दुर्गति में ही कहीं छिपा हुआ है।
बेहद कम ही लोग जानते हैं कि इस बार समूचे गोवा की सभी विधानसभा सीटों और उत्तर प्रदेश के चुनाव में वाजपेयी की हारी हुई सीट समेत चुनिंदा विधानसभा सीटें ऐसी भी हैं, जिनमें वोटिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली संदेहास्पद ईवीएम के उलट सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बहुत ही चाक चौबंद व्यवस्था के साथ वोटिंग करवाई गयी है।
एक दशक से ऊपर के वक्त से ईवीएम में गड़बड़ियों की बढ़ती शिकायतों और भारी हंगामे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को मजबूर किया था कि इस बार फिलहाल वह गोवा की 40 सीटों में पूरी तरह से और यूपी में चुनिंदा 20 सीटों पर ईवीएम के साथ-साथ वीवीपीएटी (वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) की तकनीकी व्यवस्था मतदान में करे। ताकि इसके नतीजे देख कर भविष्य में समूचे देश में ऐसी व्यवस्था लागू करवाई जाए।
वीवीपीएटी ऐसी व्यवस्था है, जिसमें साधारण ईवीएम की तुलना में किसी तरह की छेड़छाड़ या हैकिंग संभव नहीं है।
केंद्र ने मजबूरन ऐसा ही किया तो नतीजे भी वैसे नहीं रहे, जैसे परंपरागत ईवीएम वाले क्षेत्रों में देखने को मिले। गोवा के वीवीपीएटी वाले विधानसभा क्षेत्रों की चाकचौबंद मतदान व्यवस्था में तो मोदी का जादू जरा भी नहीं चला और यूपी में आये मोदी के तूफ़ान के विपरीत वहां भाजपा बुरी तरह से धराशाई हो गयी।
भाजपा की पराजय का आलम यह है कि न सिर्फ पिछली बार की तुलना में उसकी सीटें 21 से घटकर 13 पहुँच गयी हैं बल्कि उसके मुख्यमंत्री समेत 6 मंत्री भी चुनाव हार गए हैं। वहां कांग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी है।
वह भी तब जबकि इसी विधानसभा चुनाव में परम्परागत ईवीएम वाले क्षेत्रों में मोदी की ऐसी सुनामी आयी, जैसी कि आजादी के बाद किसी नेता की नहीं आयी और उत्तर प्रदेश में तो ऐसे नतीजे आये, जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
तो ऐसे में अगर मायावती के माथे पर शिकन है और वह यह सवाल पूछ रही हैं कि कहीं ईवीएम के जरिये कोई महाघोटाला तो नहीं किया गया, तो इसमें किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए।
जाहिर सी बात है कि मायावती ही नहीं, समूची दुनिया भी यह जानकर हैरत में है कि मोदी ने उत्तर प्रदेश में अपने तूफान में पूरे प्रदेश के जाति धर्म के समीकरण ध्वस्त करके नया इतिहास ही रच दिया है।
जबकि प्रदेश की उन चुनिंदा 20 सीटों में जहाँ जहाँ ईवीएम के साथ साथ वीवीपीएटी की यह नयी चाक चौबंद मतदान व्यवस्था की गयी थी, उनमें से कई जगह मोदी का जादू नहीं चल सका और नतीजे गोवा जैसे ही देखने को मिले। यहाँ तक कि इन्हीं में से एक सीट पर भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी भी इस मोदी सुनामी में अपनी मेरठ सीट गँवा बैठे।
ऐसे में यह सवाल उठना तो लाजिमी ही है कि आखिर पूरे प्रदेश भर में अगर जनता ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर मोदी पर सम्मोहित होकर भाजपा को राज्य में नया इतिहास बनाने का मौका दिया है तो फिर वाजपेयी के साथ मेरठ की जनता ने ऐसा भेदभाव क्यों किया?
यह बात कुछ हजम नहीं होती कि प्रदेश भर के लोगों ने मोदी को देख कर वोट डाले, उम्मीदवार को नहीं लेकिन हाल फिलहाल में ही प्रदेश अध्यक्ष रहे वाजपेयी के मामले में लोगों ने मोदी को न देख उम्मीदवार को देखा।
यही नहीं, विकिपीडिया में मौजूद जानकारी के मुताबिक जिन 20 सीटों पर यह चाक चौबंद व्यवस्था अपनायी गयी है, उसमें से भाजपा मुरादाबाद ग्रामीण, कानपुर में आर्य नगर और सहारनपुर शहर भी हार गयी है। यानी कि कुल 20 सीटों में से 16 वह जीती है तो 4 पर उसे हार भी मिली है।
वैसे तो देखने में यह आंकड़ा संदेहास्पद नहीं लग रहा क्योंकि 20 में से केवल 4 सीट हारने पर भाजपा समर्थक यह कह सकते हैं कि मोदी तूफान में इसमें से भी ज्यादातर तो भाजपा ने जीती ही हैं। लेकिन संदेह इसलिए हो रहा है क्योंकि इन 20 सीटों में जिन सीटों पर भाजपा जीती है, उनमें से अधिकांश पर पहले भी वही जीतती आयी है।
इसका अर्थ यह हुआ कि यूपी में जानबूझ कर उन्हीं 20 सीटों पर चाक चौबंद मतदान व्यवस्था लागू की गयी थी, जिनमें से अधिकांश पर भाजपा का ही प्रभाव रहा है और भाजपा के पक्ष में यदि कोई आंधी-तूफान-सुनामी या लहर न भी हो तो भी भाजपा इन्हें सकारात्मक माहौल में आसानी से जीत सकती है... तो भी वाजपेयी हार गए!!! और इनमें से भी कुल 4 सीटें ऐसी भी निकल आईं, जिनमें मोदी के तूफान का कतई असर भी नहीं हुआ!!!
अब ऐसे में जहाँ जहाँ केवल परंपरागत ईवीएम हैं, वहां वहां आये मोदी तूफान को लेकर सवाल तो उठेंगे ही। दरअसल, ईवीएम पर मायावती के जरिये पहली बार सवाल नहीं उठाया गया है। बल्कि अमेरिका समेत दुनिया के कई देश ईवीएम से मतदान को लेकर घबराते और कतराते तो रहे ही हैं, भारत में तो तक़रीबन हर चुनाव में ही इस पर उँगलियाँ उठती आयी हैं।
Written by Ashok Das
आदरणीय मायावती जी,
सादर जय भीम।
उत्तर प्रदेश में बसपा हार गई है. हारी ही नहीं बल्कि बुरी तरह हार गई है. इतनी बुरी तरह; जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. जल्दी ही यह भी साफ हो जाएगा कि वह कहां कितने वोटों से हारी और कहां किस नंबर पर रही. लेकिन बसपा का इस तरह हार जाना भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में बसे लाखों-करोड़ों अम्बेडकरवादियों तक को निराश कर गया है. हालांकि इस हार के बाद आपने ईवीएम की गड़बड़ी की तरफ इशारा करते हुए यह मांग की है कि पुरानी बैलेट प्रणाली के तहत चुनाव कराया जाए. मैं इसको लेकर आपका समर्थन करता हूं. संभव है कि बहुजन समाज पार्टी के विरोधी इस बात के लिए आप पर तंज कसें लेकिन उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि पूर्व में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी ऐसी ही मांग कर चुके हैं.
लेकिन आपके द्वारा ईवीएम में गड़बड़ी से इतर अगर यूपी चुनाव में बसपा की हार की समीक्षा की जाए तो एकबारगी समझ में नहीं आता कि चूक कहां हुई, क्योंकि जिस तरह की ग्राउंड रिपोर्ट थी उसमें बसपा की इतनी करारी हार की संभावना बिल्कुल नहीं थी. हां, आपको इस बारे में जरूर जानकारी होगी. इस हार के बाद क्या आपको नहीं लगता कि अब समय आ गया है कि बहुजन समाज पार्टी को भी अपनी चुनावी रणनीति बदलनी चाहिए. सीधी सी बात यह है कि वक्त बदल रहा है. इस बदलते वक्त में वोटर भी बदल रहा है और मुद्दे भी. क्या ऐसे में बसपा को भी चुनाव लड़ने का अपना तरीका नहीं बदलना चाहिए?
बहुजन समाज पार्टी जिस अम्बेडकरवादी विचारधारा की उपज है, आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा उससे अंजान है. यूपी के वोटरों में भी बहुसंख्यक लोगों को जो अनुसूचित जाति वर्ग से ताल्लुक नहीं रखते हैं इस विचारधारा से बहुत लगाव नहीं है. ऐसे में विचारधारा से इतर किन मुद्दों को सामने रखकर वोटरों को जोड़ा जाए बसपा को इस बारे में सोचना होगा. मीडिया के जिस रूख को लेकर आप और आपकी पार्टी के समर्थक लगातार मीडिया पर आरोप मढ़ते रहते हैं, पार्टी को उस बारे में भी सोचना चाहिए. मसलन यूपी जितने बड़े चुनाव के दौरान भी मीडिया से दूर रहना और अखबारों और चैनलों को इंटरव्यू नहीं देने से पार्टी को कितना नुकसान हुआ, आपको इस बारे में भी सोचना चाहिए. क्योंकि आज के वक्त में मीडिया की ताकत को नकारा नहीं जा सकता. ऐसा क्यों नहीं हो पाता कि आप मीडिया के सवालों का खुलकर सामना करें और अपना पक्ष रखें. एक सहज सवाल जनता के बीच से यह भी उठता है कि कई बार सत्ता में रहने के बावजूद बसपा आखिरकार अपना मीडिया खड़ा क्यों नहीं करती है और उसे किसने रोका है? जबकि बाबासाहेब से लेकर कांशीराम जी ने तमाम अभाव के बावजूद समाचार पत्रों (मीडिया) के महत्व को स्वीकार किया और उसे चलाया भी.
उत्तर प्रदेश में जब सभी पार्टी के नेता लगातार रोड शो कर जनता से ज्यादा से ज्यादा जुड़ने की कोशिश में जुटे थे आखिर आप इससे दूर क्यों रहीं? संभव है कि बहुजन समाज पार्टी में आस्था रखने वाले लोग अपने नेता यानि आपसे भी ऐसी उम्मीद कर रहे होंगे कि आप भी सड़क पर उतरें और ऐसा नहीं होने से उन्हें निराशा हुई होगी. जब यह दिख रहा था कि बाकी तमाम दल और नेता चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अपना सबकुछ झोंक रहे हैं तब आप महज परंपरागत चुनावी रैलियों तक ही सीमित क्यों रही?
पता नहीं आप सोशल मीडिया को कितना देखती हैं, लेकिन आपसे एक बात कहना चाहूंगा कि वहां पर अम्बेडकरवादी विचारधारा में विश्वास रखने वाले लाखों युवा आपके लिए पागल हैं. क्या आपने इन युवाओं के लिए पार्टी में कोई जगह तलाशने की कोशिश की? जब तमाम पार्टियां युवा मोर्चा के बल पर अपनी पार्टी की जीत का आधार और भविष्य का नेता तैयार कर रही हैं, ऐसे में बहुजन समाज पार्टी में इन युवाओं के लिए जगह क्यों नहीं है? मैं इस बात से वाकिफ हूं कि तमाम युवा पार्टी में विभिन्न पदों पर सक्रिय हैं लेकिन 18 साल से 30 साल के वे युवा एक वोटर के अलावा पार्टी से खुद को कैसे जोड़े रखें और संवाद करें आपने इसकी गुंजाइश क्यों नहीं रखी. क्या युवा मोर्चा और इसी तरह के अन्य मोर्चों का सीधे तौर पर गठन करने में देर नहीं हो रही है?
क्या पता आपकी पार्टी को बहुजन बुद्धिजीवियों से क्या दिक्कत है, कोई दिखता ही नहीं है? न राज्यसभा में, न विधान परिषद में और न ही पार्टी संगठन में. न तो बतौर प्रवक्ता, न बतौर संगठनकर्ता और न ही बतौर रणनीतिकार. हालांकि मेरा यह मतलब नहीं है कि बाकी के लोग विद्वान नहीं हैं, लेकिन जिस तरह तमाम दलों ने चुनावी कार्यकर्ताओं से इतर विभिन्न क्षेत्रों मसलन मीडिया, विश्वविद्यालय, रंगकर्मी, लेखन आदि में सक्रिय लोगों को पार्टी से जोड़ कर रखा है, आप ऐसा करने में क्यों हिचकती हैं यह पार्टी से सहानुभूति रखने वाले हर व्यक्ति के लिए अबूझ पहेली बना हुआ है. उत्तर प्रदेश की चुनावी बेला में जब आप लगातार प्रेस रिलीज जारी कर अपनी बात रख रही थीं, कई बार ऐसा हुआ कि आपकी प्रतिक्रिया तब आई जब वो मुद्दा ठंडा हो चुका था. मुख्यमंत्री रहते आपने जो काम किए थे वह बेमिसाल थे, लेकिन आपके नेता और आपकी पार्टी मजबूती से इसे भी जनता को नहीं बता पाएं. अगर आपने कुछ बुद्धिजीवियों को पार्टी से जोड़ा होता तो आपको अपनी बात कहने में जरूर मदद मिली होती.
राजनीति भाषणों का खेल है. आप काम करें ना करें, आप कितना अच्छा बोलते हैं यह राजनीति की पहली शर्त है. इस कसौटी पर बहुजन समाज पार्टी काफी पीछे दिखती है. बसपा के नेता न तो टीवी पर अपनी बात रखते दिखते हैं और न ही समाचार पत्रों में कॉलम लिखते हैं. इस पर काम करने की बहुत जरूरत है. और हां, “मीडिया हमारी बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है” ऐसे तर्क अब पुराने हो चुके हैं. इसलिए ये सब कहने से अब काम नहीं चलने वाला है.
एक आखिरी बात. जब मान्यवर कांशीराम थे, एक वक्त ऐसा था जब बसपा दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों में भी बढ़ती हुई दिख रही थी और अंदाजा लगाया जा रहा था कि आने वाले एक-दो दशकों में बसपा इन राज्यों में परचम लहरा सकती है. आज इन राज्यों में बसपा बढ़ना तो दूर खत्म होने के कगार पर है. और जिस उत्तर प्रदेश के लिए आपने इन सारे राज्यों को परे धकेल दिया था वह भी आपके हाथ से निकल गया है. क्या आप ईमानदारी से आत्मचिंतन करने और खुद में एवं पार्टी में बदलाव को तैयार हैं या फिर सिर्फ ईवीएम को कोस कर अपना दायित्व पूरा कर लेंगी??
सादर
अशोक दास
संपादक
(दलित दस्तक)
उत्तर प्रदेश में मोदी जीते हैं या ईवीएम... इसका राज शायद इस भयंकर मोदी तूफान में भी भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की मेरठ से हुई करारी हार और गोवा विधानसभा चुनाव में वहां के मुख्यमंत्री, 6 मंत्री समेत भाजपा की दुर्गति में ही कहीं छिपा हुआ है।
बेहद कम ही लोग जानते हैं कि इस बार समूचे गोवा की सभी विधानसभा सीटों और उत्तर प्रदेश के चुनाव में वाजपेयी की हारी हुई सीट समेत चुनिंदा विधानसभा सीटें ऐसी भी हैं, जिनमें वोटिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली संदेहास्पद ईवीएम के उलट सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बहुत ही चाक चौबंद व्यवस्था के साथ वोटिंग करवाई गयी है।
एक दशक से ऊपर के वक्त से ईवीएम में गड़बड़ियों की बढ़ती शिकायतों और भारी हंगामे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को मजबूर किया था कि इस बार फिलहाल वह गोवा की 40 सीटों में पूरी तरह से और यूपी में चुनिंदा 20 सीटों पर ईवीएम के साथ-साथ वीवीपीएटी (वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) की तकनीकी व्यवस्था मतदान में करे। ताकि इसके नतीजे देख कर भविष्य में समूचे देश में ऐसी व्यवस्था लागू करवाई जाए।
वीवीपीएटी ऐसी व्यवस्था है, जिसमें साधारण ईवीएम की तुलना में किसी तरह की छेड़छाड़ या हैकिंग संभव नहीं है।
केंद्र ने मजबूरन ऐसा ही किया तो नतीजे भी वैसे नहीं रहे, जैसे परंपरागत ईवीएम वाले क्षेत्रों में देखने को मिले। गोवा के वीवीपीएटी वाले विधानसभा क्षेत्रों की चाकचौबंद मतदान व्यवस्था में तो मोदी का जादू जरा भी नहीं चला और यूपी में आये मोदी के तूफ़ान के विपरीत वहां भाजपा बुरी तरह से धराशाई हो गयी।
भाजपा की पराजय का आलम यह है कि न सिर्फ पिछली बार की तुलना में उसकी सीटें 21 से घटकर 13 पहुँच गयी हैं बल्कि उसके मुख्यमंत्री समेत 6 मंत्री भी चुनाव हार गए हैं। वहां कांग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी है।
वह भी तब जबकि इसी विधानसभा चुनाव में परम्परागत ईवीएम वाले क्षेत्रों में मोदी की ऐसी सुनामी आयी, जैसी कि आजादी के बाद किसी नेता की नहीं आयी और उत्तर प्रदेश में तो ऐसे नतीजे आये, जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।
तो ऐसे में अगर मायावती के माथे पर शिकन है और वह यह सवाल पूछ रही हैं कि कहीं ईवीएम के जरिये कोई महाघोटाला तो नहीं किया गया, तो इसमें किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए।
जाहिर सी बात है कि मायावती ही नहीं, समूची दुनिया भी यह जानकर हैरत में है कि मोदी ने उत्तर प्रदेश में अपने तूफान में पूरे प्रदेश के जाति धर्म के समीकरण ध्वस्त करके नया इतिहास ही रच दिया है।
जबकि प्रदेश की उन चुनिंदा 20 सीटों में जहाँ जहाँ ईवीएम के साथ साथ वीवीपीएटी की यह नयी चाक चौबंद मतदान व्यवस्था की गयी थी, उनमें से कई जगह मोदी का जादू नहीं चल सका और नतीजे गोवा जैसे ही देखने को मिले। यहाँ तक कि इन्हीं में से एक सीट पर भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी भी इस मोदी सुनामी में अपनी मेरठ सीट गँवा बैठे।
ऐसे में यह सवाल उठना तो लाजिमी ही है कि आखिर पूरे प्रदेश भर में अगर जनता ने जाति-धर्म से ऊपर उठकर मोदी पर सम्मोहित होकर भाजपा को राज्य में नया इतिहास बनाने का मौका दिया है तो फिर वाजपेयी के साथ मेरठ की जनता ने ऐसा भेदभाव क्यों किया?
यह बात कुछ हजम नहीं होती कि प्रदेश भर के लोगों ने मोदी को देख कर वोट डाले, उम्मीदवार को नहीं लेकिन हाल फिलहाल में ही प्रदेश अध्यक्ष रहे वाजपेयी के मामले में लोगों ने मोदी को न देख उम्मीदवार को देखा।
यही नहीं, विकिपीडिया में मौजूद जानकारी के मुताबिक जिन 20 सीटों पर यह चाक चौबंद व्यवस्था अपनायी गयी है, उसमें से भाजपा मुरादाबाद ग्रामीण, कानपुर में आर्य नगर और सहारनपुर शहर भी हार गयी है। यानी कि कुल 20 सीटों में से 16 वह जीती है तो 4 पर उसे हार भी मिली है।
वैसे तो देखने में यह आंकड़ा संदेहास्पद नहीं लग रहा क्योंकि 20 में से केवल 4 सीट हारने पर भाजपा समर्थक यह कह सकते हैं कि मोदी तूफान में इसमें से भी ज्यादातर तो भाजपा ने जीती ही हैं। लेकिन संदेह इसलिए हो रहा है क्योंकि इन 20 सीटों में जिन सीटों पर भाजपा जीती है, उनमें से अधिकांश पर पहले भी वही जीतती आयी है।
इसका अर्थ यह हुआ कि यूपी में जानबूझ कर उन्हीं 20 सीटों पर चाक चौबंद मतदान व्यवस्था लागू की गयी थी, जिनमें से अधिकांश पर भाजपा का ही प्रभाव रहा है और भाजपा के पक्ष में यदि कोई आंधी-तूफान-सुनामी या लहर न भी हो तो भी भाजपा इन्हें सकारात्मक माहौल में आसानी से जीत सकती है... तो भी वाजपेयी हार गए!!! और इनमें से भी कुल 4 सीटें ऐसी भी निकल आईं, जिनमें मोदी के तूफान का कतई असर भी नहीं हुआ!!!
अब ऐसे में जहाँ जहाँ केवल परंपरागत ईवीएम हैं, वहां वहां आये मोदी तूफान को लेकर सवाल तो उठेंगे ही। दरअसल, ईवीएम पर मायावती के जरिये पहली बार सवाल नहीं उठाया गया है। बल्कि अमेरिका समेत दुनिया के कई देश ईवीएम से मतदान को लेकर घबराते और कतराते तो रहे ही हैं, भारत में तो तक़रीबन हर चुनाव में ही इस पर उँगलियाँ उठती आयी हैं।
यह मेरी जिंदगी का बहुत ही आनन्ददायक दिन है क्योंकि डॉ। ऑडुडवा ने मुझे अपने जादूगर और प्रेम जादू के साथ अपने पूर्व पति को वापस लाने में मदद करके मेरे लिए योगदान दिया है। मैं 6 साल से शादी कर रहा था और यह इतना भयानक था क्योंकि मेरे पति ने कभी मुझ पर भरोसा नहीं किया और वह वास्तव में मुझे धोखा दे रहा था और तलाक की मांग कर रहा था, मैं उससे इतना प्यार करता हूं और हमारे पास 2 बच्चे एक साथ होते हैं, मैं अपने बच्चों से प्रेम करता हूं और मैं चाहता हूं उन्हें रहने और उनके दोनों माता-पिता के साथ रहने के लिए, मुझे तलाक की रोकथाम करने और रिश्ते में प्यार और विश्वास वापस लाने के लिए इतनी सख्त जरूरत थी।
ReplyDeleteइसलिए जब मैं ब्लॉग पोस्ट पर डॉ। ओडुदेवा ईमेल पर आया तो उन्होंने टिप्पणी की कि उन्होंने इतने सारे लोगों को अपनी पूर्व वापस लेने और संबंध सुधारने में मदद करने के लिए कैसे मदद की है। और लोगों को अपने रिश्ते में खुश रहने के लिए।
मैंने अपनी स्थिति समझा दी और फिर मेरी मदद की, लेकिन मेरी सबसे बड़ी आश्चर्य से उसने मुझे बताया कि वह मेरे मामले में मेरी मदद करेंगे और मैं अब जश्न मना रहा हूं क्योंकि मेरे पति पूरी तरह अच्छे के लिए बदलते हैं। वह हमेशा मेरे और हमारे प्यारे बच्चों के साथ रहना चाहते हैं और मेरे वर्तमान के बिना कुछ भी नहीं कर सकते हैं, अब वह मुझे अब पहले से ज्यादा प्यार करता है।
मैं वास्तव में मेरी शादी का आनंद ले रहा हूं, जो एक महान उत्सव है मैं इंटरनेट पर गवाही देना जारी रखूंगा क्योंकि डॉ। ओडुडुवा वास्तव में एक वास्तविक वर्तनी ढलाईकार है। क्या आपको संपर्क डॉक्टर ODUDUWA महान की मदद की ज़रूरत है ..
अब आज संपर्क करें ODUDUWA VIA EMAIL: dr.oduduwaspellcaster@gmail.com या Whatsapp no .: +2348109844548
डॉडोडवा भी ऐसी समस्याओं को हल कर सकते हैं जैसेः रोकथाम, दुःस्वप्न की ज़रूरत के लिए, पूर्व में वापस लाने, अदालत के खिलाफ मुकदमा चलाने, सुगमता और सुराग, काले जादू का ताकत, ताकत और ताकत का जादू आदि।