Wednesday, 1 March 2017

महाशिवरात्री का इतिहास

महाशिवरात्री का इतिहास🌹


हिन्दुओं के कालनिर्णय कैलेंडर का बारीकी से अवलोकन करने पर ध्यान में आया कि उन्होंने हर महीने की अमावस्या को 'शिवरात्रि' कहा है. उसीप्रकार हर शुक्ल-चतुर्थी को 'विनायक चतुर्थी', हर 'शुक्ल-अष्टमी' को 'दुर्गाअष्टमी', हर कृष्ण-चतुर्थी को 'गणेश संकष्ट चतुर्थी' और हर कृष्ण-अष्टमी को 'काला-अष्टमी' कहा है. बौद्ध धम्म के अभ्यासक जानते है कि बौद्ध धम्म में पूर्णिमा और अमावस्या को भिक्खुओं के उपोसथ हुआ करते थे. पूर्णिमा और अमावस्या को चिवर दान करने का नियम 'विनय पिटक' के अनुसार होता था. उसीप्रकार चतुर्थी और अष्टमी को भी उपोसथ हुआ करते थे. ये सारी धम्म परंपरायें आज भी बौद्ध धम्म में अस्तित्व में दिखाई देती है. इन दिनों पर उपवास के सिवाय भिक्खु संघ जमा होकर उन्होंने कोई पाप कर्म (विनय पिटक के निषिद्ध कर्म) किये होने का जाहिर रूप से स्विकार करते थे (देखे 'बुद्ध और उनका धम्म', पुस्तक ४, भाग-१,उपभाग-८). पूर्णिमा और अमावस्या को किये जाने वाले उपोसथ का विशेष महत्व था. बुद्ध के महापरिनिर्वान पश्चात पूर्णिमा और अमावस्या को भिक्खु और उपासक संघ बड़ी संख्या में बुद्ध लेणी और स्तूपों पर जाकर बुद्ध वंदना अर्पण करने लगा था. बौद्ध धम्म की यह परंपरा आज भारत में बुद्ध धम्म लुप्त होने की वजह से नहीं दिखाई देती लेकिन भारत के बाहर सभी बौद्ध देशों में यह बड़े पैमाने पर पाई जाती है. यहाँ तक कि बौद्ध देशों में पूर्णिमा के दिन शासकीय अवकाश होता है क्योंकि वहां के लोग प्रत्येक पूर्णिमा को नजदीक के बौद्ध स्तूप या लेणी पर जाकर त्रिरात्नों को पुरे मनोभाव से नतमस्तक होते है.
इसप्रकार 'अमावस्या-रात्रि' यानि हिन्दू कैलेण्डर में लिखित प्रत्येक 'शिव-रात्रि' का बौद्ध धम्म में अनन्य साधारण महत्व है. वास्तव में 'शिव' यह संस्कृत शब्द है जो पाली के 'सिव' इस शब्द से निर्मित है. पाली भाषा में श, त्र, औ, उड़ता हुआ र (अर्थात 'कर्म' इस शब्द में का र), ण, ष, क्ष, ये अक्षर नहीं थे. पाली भाषा में से संस्कृत भाषा निर्माण करते समय पाणिनि ने ई पू २०० में इन अक्षरों की निर्मिती की. तब 'सिव' का 'शिव', 'धम्म' का धर्म', 'कम्म' का 'कर्म', 'भिक्खु' का 'भिक्षु', 'निब्बान' का 'निर्वाण', इस तरह से शब्दों की निर्मिती हुयी. यही प्रक्रिया कालांतर में संस्कृत से मराठी और हिंदी भाषा के शब्दों के निर्माण में निभाई गई. पाली डिक्शनरी नुसार 'सिव' का अर्थ 'मंगल या कल्याण' होता है. बौद्ध धर्म में प्रत्येक अमावस्या को उपोसथ होने के कारण और विशेषतः शायद पूर्ण अंधकार होने की वजह से उस रात्रि को 'मंगलरात्रि' अर्थात 'सिवरात्रि' कहा गया. इसतरह 'सिवरात्रि' अर्थात 'शिवरात्रि' की रचना यह बौद्ध संस्कृति की ही देन है.

'महाशिवरात्रि' यह माघ महीने में होती है. माघ महीने की अमावस्या को 'महाशिवरात्रि' कहा गया है. इसका कारण यह है कि माघ महीने की पूर्णिमा को भगवान् बुद्ध ने वैशाली में एक महत्वपूर्ण घोषणा की थी. वह घोषणा थी ३ माहपश्चात् बुद्ध का महापरिनिर्वान होना. इस घोषणा की वजह से भिक्खु और उपासक संघ दोनों ही बुरी तरह से व्यथित हो गए थे. और फिर १५ दिन के पश्चात् की अमावस्या को बड़ी संख्या में भिक्खु और उपासक संघ इकट्ठा हुआ होगा. इस महासभा का विषय शोक के साथ ही, यह भी अवश्य ही होगा कि बुद्ध के पश्चात हमारा क्या होगा और संघ का किया जाये. इसलिए १५ दिन के बाद आने वाली इस अमावस्या का नाम 'महाशिवरात्रि' पड़ा ऐसा पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है. अन्यथा ब्राह्मणी ग्रंथों में प्रत्येक अमावस्या को 'सिवरात्रि' कहने का कोई संयुक्तिक कारण उपलब्ध नहीं है.

भारत के १२ ज्योतिर्लिंग, यह बुद्ध स्तूपों के स्थल है. इसके सबूत कई संशोधकोने अपने शोधकार्यों में जाहिर किये है. बुद्ध लेणियों में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि को बौद्ध अनुयायी जाकर बुद्ध वंदना अर्पण करता था. भारत से बौद्ध धर्म का उच्चाटन करने के बाद ब्राहमणों ने बौद्ध स्थलों को ब्राह्मणी देवी देवता में परिवर्तित कर दिया. बुद्ध मूर्ति को शिव का स्वरुप देना बहुत आसान था. और इस प्रकार कालांतर में बुद्ध स्तूपों को शिवलिंग घोषित कर दिया और बुद्ध लेणियों को 'पांडव लेणी' या 'पांडव गुफा' ऐसा नाम दे दिया. बौद्ध भिक्खुओं को बेदखल कर दिए जाने के बाद बौद्ध अस्तित्व पूरी तरह से नष्ट हो गया और ब्राह्मणों ने सारे निर्माण को ब्राह्मणी स्वरुप अर्थात हिन्दू स्वरुप दे दिया. बौद्ध उपासको और जनता को भी हिन्दू नाम दे दिया गया. लेकिन ये हिन्दू हुए लोग पूर्णिमा, अमावस्या, चतुर्थी और अष्टमी की वंदना की परम्परा को निभा रहे थे. इस परंपरा को ही ब्राहमणों ने गुप्त काल से पुराण, रामायण, महाभारत आदि लिखकर ब्राह्मणी अर्थात हिन्दू धर्म की परंपराओं में तब्दील कर दिया. इसतरह आज भी महाशिवरात्रि का उत्सव या मेला बहुसंख्या में बुद्ध लेणियों में दिखाई देता है.

लेकिन वर्तमान बौद्ध जनता बुद्ध लेणी, स्तूप की चर्चा के आगे कुछ नहीं करती है. भावी पीढ़ी को बौद्ध धर्म का वैभवशाली और श्रद्धामय अस्तित्व जताने के लिए लेणी स्तूपों का संवर्धन करना प्रत्येक अम्बेडकरी अनुयायी की जिम्मेदारी है. अपने संस्कृति का जतन करना देश के नागरिकों का प्रथम कर्तव्य है, ऐसा हमारे महापुरुषों ने कहा है. महाशिवरात्रि और हर पूर्णिमा अमावस्या के दिन बौद्धों ने नजदीकी लेणी स्तूप पर जाकर वहाँ बौद्धों का अस्तित्व बनाए रखना जरुरी है. इसी माध्यम से भारत के सभी धर्मो की जनता को भारत की मूल संस्कृति अर्थात बौद्ध संस्कृति का इतिहास जताने की जिम्मेदारी बाबासाहब का अनुयायी निभा सकता है.

महापुरुषों के आदेशों का पालन करने के उद्देश से ब्लिस ने २०१० से मुंबई की कोंड्वीटे (महाकाली) और कान्हेरी बुद्ध लेणी पर महाशिवरात्रि के दिन ही 'महाधम्म उत्सव' आयोजित करना शुरू किया है. इस अभियान में मुंबई के ही नहीं तो अन्य शहर के धम्मबंधू भी आकर अपना सहभाग जाहिर करते है. बौद्धों की इस क्रांति का फलित यानि कान्हेरी लेणी पर हिन्दुओं की संख्या १.५ लाख से २००० पर आ गई है. आने वाले सालों में वह और काम होती जाएगी. लेकिन मुंबई के उन १.५ लाख हिन्दू लोगों के मस्तिष्क में यह बात पूरी तरह से चली गई कि वे जिस जगह को शिव का स्थान समझ कर पूजा करने जाते थे और जिसे वे शिवलिंग समझते थे वह बुद्ध लेणी और बुद्ध स्तूप है. कोंद्विते लेणी पर तो अब कोई हिन्दू जाता ही नहीं. ये दोनों ही स्थल मुंबई शहर के सबसे प्राचीन स्थल है. मुंबई शहर के इन सबसे वैभवशाली और विशाल प्राचीन स्थल का बौद्ध अस्तित्व पुनः निर्माण करने में ब्लिस को सफलता मिली है. इन ५ सालों में उस जगह पर बौद्धों की संख्या बढती गई है. लेकिन यह परंपरा निरंतर रखना जरुरी है अन्यथा फिर से ब्राह्मण उस जगह हो ब्राहमनीकृत करेगा और उन स्थलों की प्राचीनता के इतिहास का उपयोग हिन्दू धर्म को प्राचीन जाहिर करने और ब्राह्मणी वर्चस्व को बनाये रखने के लिए करेगा. जबतक ब्राह्मण भारत में है तब तक वह अपनी इस बदमाशी को बरकरार रखेगा. बाबासाहब ने भी इस बात को स्पष्ट किया था कि भारत इतिहास और कुछ न होकर ब्राहमणों और बौद्धों का संघर्ष है. इसलिए इतिहास के इस तथ्य से हमें सीख लेना जरुरी है.

महाशिवरात्रि के इस महोत्सव में पुरातत्व और पोलिसो की मदत से हिन्दू भाविकों को बड़ी ही विनम्रता से बुद्ध स्थल का महत्व विशद किया जाता है. पुरे स्थल के परिसर में बौद्ध इतिहास के बैनर और पोस्टर्स लगाये जाते है. इतिहास के पर्चे बांटे जाते है. इस तरह से ब्लिस के अभियान को पुरे देश में कार्यान्वित किया जा रहा है.

नमो बुध्दाय ... जय भीम 🙏 

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