Friday, 4 August 2017

*आषाढ़* ❄ *पूर्णिमा*

❄ *आषाढ़*  ❄ *पूर्णिमा* 🌕

अर्थात *धम्मचक्कप्पवत्तन दिवस* की पावन बेला पर आप सभी को मंगलकामनाएं
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🎯 *आषाढ़ पूर्णिमा* को भगवान बुद्ध ने सारनाथ में पंच्चवर्गीय को प्रथम उपदेश दिया था। इस उपदेश को बौद्ध साहित्य में *“धम्मचक्कप्पवत्तन”* के नाम से जानते हैं।
वर्षाऋतु में आषाढ़ पूर्णिमा से आश्विन पूर्णिमा (क्वार) अर्थात तीन माह तक भिक्खु को एक विहार में वास करने को हम वर्षावास कहते हैं।
कार्तिक का पूरा महीना वर्षावास समापन समारोह में व्यतीत हो जाता है अर्थात भिक्खु के वर्षावास का समापन समारोह कार्तिक पूर्णिमा तक किया जाता है। वर्षावास प्रारम्भ होने से समापन तक चार माह होते हैं,इसलिए इसे चातुर्मास भी कहते हैं। वर्षा के इन चार महीनों को ही चौमासा भी कहते हैं।
वर्षावास रखने का प्रावधान श्रमण संस्कृति का अभिन्न अंग है। बौद्ध लोग इसे वर्षावास कहते हैं, तो जैन लोग इसे चातुर्मास अथवा चातुर्याम। जिसका पालन बौद्ध भिक्खु और जैन मुनि करते हैं। वर्षावास करने की परम्परा का शुभारम्भ स्वयं भगवान बुद्ध ने किया था, जो आज तक भी निरन्तर चली आ रही है। यह कार्य भी भिक्खुओं का विनय बना हुआ है। आषाढ़ पूर्णिमा को संपूर्ण जगत के बौद्ध भिक्खु अपने-2 विहारों में या फिर किसी निश्चित विहार में तीन महीने तक एक ही स्थान पर रहने का संकल्प लेते हैं।
आषाढ पूर्णिमा निम्न घटनाओं के कारण प्रमुख माना जाता है-
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🌸 आज ही के दिन सिद्धार्थ गौतम ने माता महामाया की कोख में गर्भ धारण किया था।
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🎯 आज के दिन के दिन कुमार सिद्धार्थ ने लोक-कल्याण की भावना से *गृह त्याग* अर्थात *महाभिनिष्क्रमण* किया था।
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🌸 आज ही के दिन बुद्ध ने सारनाथ कि पावन भूमि पर पंच्चवर्गीय भिक्खुओं को धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त का उपदेश दिया था।
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🎯 आज ही के दिन से पंच्चवर्गीयों ने तथागत को अपना गुरू स्वीकार किया था। जिसकी वजय से इस पूर्णिमा को संसार में इसे *गुरू पूर्णिमा* भी कहते हैं।
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❄ *आषाढ़*  ❄ *पूर्णिमा* 🌕
अर्थात *धम्मचक्कप्पवत्तन दिवस* की पावनबेला पर आप सभी को बहुत-बहुत 👌👌👌मंगलकामनाएं

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             " भवतु सब्बमंगल"

http://youtu.be/CssULge1jPI

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। राजकुमार सिद्धार्थ गौतम ने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन २९ वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन का त्याग किया था। आषाढ़ पूर्णिमा को धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भी कहा जाता है, क्योंकि सन् 528 इसवी पूर्व इसी दिन सारनाथ में संम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रथम धम्म प्रवचन दे कर धम्म चक्र प्रवर्तन सूत्र की देशना की थी।
धम्म चक्र प्रवर्तन दि‍वस को बहुत महत्व पूर्ण माना जाता है क्योंंकि‍ यदि‍ संम्यक संबोधि प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध धम्म देशना नहीं करते तो आने वाली पीढि‍यों को धम्म लाभ नहीं मि‍लता और हम लोग इस से वंचि‍त रह जाते ।
बुद्ध ने पांच परिव्राजकों को संबोधित करते हुए कहा-भिक्खुओं, जो परिव्रजित हैं उन्हें दो अतियों से बचना चाहिए, पहली अति है कामभोगों में लिप्त रहने वाले जीवन की, यह कमजोर बनाने वाला है, गंवारु है, तुच्छ है और किसी काम का नहीं है, दूसरी अति है आत्मपीङाप्रधान जीवन जो कि दुःखद होता है, व्यर्थ होता है और बेकार होता है।
इन दोनों अतियों से बचे रहकर ही तथागत ने मध्यम मार्ग का अविष्कार किया है, यह मध्यम मार्ग साधक को अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाला है, बुद्धि देने वाला है, ज्ञान देने वाला है, शांति देने वाला है, संबोधि देने वाला है और पूर्ण मुक्ति अर्थात निर्वाण तक पहुंचा देने वाला है, यह मध्यम मार्ग श्रेष्ठ आष्टांगिक मार्ग है। इस आर्य आष्टांगिक मार्ग के अंग हैं, सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि।
बुद्ध ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा- भिक्खुओं, पहला आर्यसत्य यह है कि दुःख है। जन्म लेना दुःख है, बुढ़ापा आना दुःख है, बीमारी दुःख है, मुत्यु दुःख है, अप्रिय चीजों से संयोग दुःख है, प्रिय चीजों से वियोग दुःख है, मनचाहा न होना दुःख है, अनचाहा होना दुःख है, संक्षेप में पांच स्कंधों से उपादान( अतिशय तृष्णा का होना ) दुःख है।
अब हे भिक्खुओं, दूसरा आर्यसत्य यह है कि इस दुःख का कारण हैः राग के कारण पुनर्भव अर्थात पुनर्जन्म होता है, जिससे इस और उस जन्म के प्रति अतिशय लगाव पैदा होता है, यह लगाव काम-तृष्णा के प्रति होता है, भव-तृष्णा के प्रति होता है और विभव तृष्णा के प्रति होता है।
अब हे भिक्खुओं, तीसरा आर्यसत्य है दुःख निरोध आर्यसत्य, इस तृष्णा को जङ से पूर्णतः उखाङ देने से इस दुःख का, जीवन-मरण का जङ से निरोध हो जाता है,
और अब हे भिक्खुओं चौथा आर्यसत्य है दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा (दुःख से मुक्ति का मार्ग), इस दुःख को जङ से समाप्त किया जा सकता है और जिसके लिए तथागत ने आठ अंगों वाला आर्य आष्टांगिक मार्ग खोज निकाला है जो सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति, सम्यक् समाधि हैं,
इस प्रकार हे भिक्खुओं, इन चीजों के बारे में मैंने पहले कभी सुना नहीं था, मुझमें अंतदृष्टि ‍ जागी, ज्ञान जागा, प्रज्ञा जागी, अनुभूति जागी और प्रकाश जागा।
बुद्ध ने अपनी बात पूरी करते हुए आगे कहा, हे भिक्खुओं जब मैंने अपनी अनुभूति पर इन चारों आर्य सत्यों को इनके तीनों रूपों के साथ, और उनकी बारह कङियों के साथ, पूर्ण रूप से सत्य के साथ जान लिया, पूरी तरह समझ लिया और पूरी तरह अनुभव कर लिया, उसके बाद ही मैंने कहा कि मैंने सम्यक् सम्बोधि प्राप्त कर ली है, इस तरह मुझमें ज्ञान की अंतर्दृष्टि जागी, मेरा चित्त सारे विकारों से मुक्त हो गया है, हे भिक्खुओं जब मैंने अपने स्वयं के प्रत्यक्ष अनुभवों से और पूर्ण ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ इन चारों आर्यसत्यों को जान लिया, यह मेरा अंतिम जन्म है अब इसके बाद कोई नया जन्म नहीं होगा।
बुद्ध के इन चार आर्यसत्य और आर्यअष्टांगिक मार्ग को सुनकर कौंङन्न के धर्मचक्षु जागे और उन्हें यह प्रत्यक्ष अनुभव हो गया कि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह नष्ट होता है, जिसका उत्पाद होता है उसका व्यय होता है, कौंङन्न के चेहरे के भावों को देखकर बुद्ध ने कहा- कौंङन्न् ने जान लिया। कौंङन्न ने जान लिया। इसलिए कौंङन्न का नाम ज्ञानी कौंङन्न पङ गया। बुद्ध के इस उपदेश से कौंङन्न के अंदर भवसंसार चक्र, धम्म चक्र में परिवर्तित हो गया, इसलिए इस प्रथम उपदेश को धम्मचक्र प्रवर्तन सुत्त कहते हैं।
पांचों पंचवर्गीय भिक्खु बुद्ध के चरणों में नत मस्त्क हो गए और उनसे अनुरोध कि‍या कि‍ वह इन पांचों भि‍क्खु्ओ को अपना शि‍ष्य स्वीभकार करे । बुद्ध ने “ भि‍क्खु आओ” कह कर उन्हें अपना शि‍ष्यु स्वीकार कि‍या । चूंकि‍ पांचो भि‍क्खुओ ने इसी दि‍न बुद्ध को अपना गुरू स्वीेकार कि‍या था इसलि‍ए आषाढ़ी पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है । बुद्ध ने यह उपदेश आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन दिया था, इसलिए बौद्धों में आषाढ़ पूर्णिमा पवित्र दिन माना जाता है।
आषाढ़ पूर्णिमा से भिक्खुओं का वस्सावास (वर्षावास/ चातुर्मास अर्थात वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर वास करना) आरंभ होता है, इस दिन बौद्ध उपासक-उपासिकाओं द्वारा महाउपोसथ व्रत रखा जाता है। बौद्ध विहारों में धम्म देशना के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।


 🌻धम्म प्रभात 🌻

       🌳 पारमिता 🌳

पारमिता का अर्थ है पूर्णता।  इसे पालि में 'पारमी' कहते हैं। पारमी याने पार ले जानेवाली। पारमी है गुणों की पराकाष्ठा। 

पारमिता दस हैं। 

संक्षिप्त में - - 

1. निष्क्रमण पारमी : पालि में 'नेक्खम्म' कहते हैं।  इसका अर्थ है - संसार का त्याग करना। घर-परीवार का छोडना।  जैसे बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम राजकुमार ने महाभिनिषक्रमण किया। 

2. अधिष्ठान पारमी : अधिष्ठान का अर्थ है दृढ निश्चय।  बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम ने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे दृढ निश्चय किया कि भले मेरा रक्त सूख जाय, चमडी सूख जाय और हड्डियां मात्र ही बाकी रह जाएं, तो भी जब तक मैं अपने उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर लेता, मेरा प्रयत्न जारी रहेगा। 

3.  दान पारमी : दान का अर्थ हैं देना।  हमारे पास जो भी हैं, वह दूसरे को देना,  जिसमें किसी भी बदले की प्राप्त की भावना न हो, दान फल का परित्याग हो।  बुद्ध ने बोधिसत्व के जीवन में अपने सर्वस्व का - धन दौलत, राजपाट, पत्नी - पुत्रादि और अपने जीवन का भी दान देकर दान पारमी पूर्ण की। 

4.  शील पारमी :  पालि में 'सील ' कहते हैं।  शील का अर्थ हैं - सदाचार। शील ही बौद्ध धम्म की नींव हैं।  शील के बिना धम्म  का होना असंभव हैं। प्राणी की हत्या से विरत रहना शील हैं।  चोरी से विरत रहेना शील हैं।  अनैतिक जीवन से विरत रहना शील हैं। झूठ  बोलने से  विरत रहना शील हैं।  नशाखोरी से विरत रहना शील हैं।  प्राणीमात्र पर मैत्री रखना शील हैं।  दान देना शील हैं।  सभी स्त्री - पुरुष के साथ नैतिकता का जीवन जीना शील हैं। सत्य बोलना शील हैं।  तन-मन को नशीली चीजों से दूर रखना शील हैं। 

5. क्षान्ति पारमी : पालि में 'खन्ति' कहते हैं। खन्ति का अर्थ है - सहिष्णुता भाव।  अपकार के प्रति उपकार। कितना भी अपकार किया गया हो, तो भी चित्त की अकोपनता रहे। यही खन्ति पारमिता हैं। 
.............. क्रमशः - - - - - -

1 comment:

  1. *बुद्धा ने कहाँ है*
    “सत्य जाने के मार्ग में इंसान बस दो ही गलती करता है ,एक वो शुरू ही नहीं करता दूसरा पूरा जाने बिना ही छोड़ जाता है “

    लेकिन आज वही कर रहा है हमारे समाज बिना जाने अंधों के झुंड में अभी अपनी अंधभक्ति का पहचान कर रहा है
    *इस यात्रा (कावर पाखंड अंधविश्वास आडंबर यात्रा) को देवालयों में नहीं अपने बहुजन समाज के महापुरुषों विचारधारा और सिद्धांतों के रास्ते पर ले चलो जहाँ हमारे विकास का मार्ग है शिक्षालय*

    दूसरी बात बाबासाहेब कहे थे

    👉🏻 तुम्हारी मुक्ति का मार्ग धर्मशास्त्र व मंदिर नही है बल्कि तुम्हारा उद्धार उच्च शिक्षा, व्यवसायी बनाने वाले रोजगार तथा उच्च आचरण व नैतिकता में निहित है |

    👉🏻 |- तीर्थयात्रा, व्रत, पूजा-पाठ व कर्मकांडों में कीमती समयबर्बाद मत करों |

    👉🏻 |- धर्मग्रंथों का अखण्ड पाठ करने, यज्ञों में आहुति देने व मन्दिरों में माथा टेकने से तुम्हारी दासता दूर नही होगी, तुम्हारे गले में पड़ी तुलसी की माला गरीबी से मुक्ति नही दिलाएगी |

    👉🏻|- काल्पनिक देवी-देवताओं की मूर्तियों के आगे नाक रगड़ने सेतुम्हारी भुखमरी, दरिद्रता व गुलामी दूर नही होगी |

    👉🏻|- अपने पुरखों की तरह तुम भी चिथड़े मत लपेटो, सड़ा-गला अनाज खाकर जीवन मत बिताओ, दड़बे जैसे घरों में मतरहो और इलाज के अभाव में तड़फ-तड़फ कर जान मत गंवाओ|

    👉🏻|- भाग्य व ईश्वर के भरोसे मतरहो, तुम्हें अपना उद्धार खुदही करना है |

    👉🏻|- धर्म मनुष्य के लिए है मनुष्य धर्म के लिए नही और जो धर्मतुम्हें इन्सान नही समझता वह धर्म नहीं अधर्म का बोझ है |

    👉🏻जहाँ ऊँच और नीच की व्यवस्था है | वह धर्म नही, गुलामबनाये रखने की साजिस है|...
    = *बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर* =

    लेकिन दुर्भाग्य है आज हमारे समाज के लगभग व्यक्ति अपनी गुलामी का धागा बन्धवाने के लिए ब्राह्मणों के द्वारा निर्मित व्यापार के मंदिर में कावर लेकर लाइन लगा रहा है
    बहुत से हमारे ऐसे समाज के व्यक्ति है जो आज काम आता है तो कल खाने के लिए सोचता है कि कल कहां से खाएंगे वैसे व्यक्ति भी कर्ज लेकर इस *अंधविश्वास पाखंडी कांवर यात्रा में शामिल होता है* बच्चे को अच्छी शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर सकता लेकिन देवी-देवता के लिए कर्ज लेकर इस पाखंड मनुवादी ब्राह्मण व्यवस्था का पालन करता है

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