Wednesday 2 August 2017

जाति प्रथा श्रम पर अधारित हैं

*क्या जाति प्रथा श्रम पर अधारित हैं*

भारत में अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि जातिप्रथा श्रम पर आधारित है यहाँ तक महात्मा गाँधी ने भी इस बात को हरिजन पत्रिका में कहा था. इस के जबाब में *बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर* ने महात्मा गाँधी को बहुत ही खूबसूरत शब्दों में जबाबी पत्र में लिखा था:

*“क्या आदमी को अपना पैतृक पेशा ही अपनाना चाहिए, वह अनैतिक पेशा ही क्यों ना हो? यदि प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा ही जारी रखना पड़ेगा पड़े तो इसका अर्थ होगा कि किसी आदमी को दलाल का पेशा इसलिए जारी रखना पड़ेगा, क्योकि उसके दादा दलाल थे और किसी औरत को इसलिए वैश्या का पेशा अपनाना पड़ेगा, क्योकि उसकी दादी वैश्या थी.”*

बाबा साहब ने यह उत्तर बहुत सोच समझ कर महात्मा गांधी और नेहरूके जीवन और उनके पूर्वजों को सामने रख कर दिया था. इस उत्तर से महात्मा गाँधी और नेहरूके पुरे जीवन और उनके पूर्वजों के बारे पता चलता है. अत: भारत में जाति प्रथा किसी भी प्रकार से श्रम विभाजन पर आधारित नहीं है.

जातिप्रथा धर्म के नाम पर मानव के द्वारा मानव के ऊपर जबरदस्ती थोपा गया क़ानून है.मेरा मानना है कि “हिन्दू कोई धर्म नहीं, वास्तविकता में रुढ़ीवादी कानूनों का एक पुलिन्दा है, जो कल आज और कल के लिए समान रुप से लागू होता है.” हिंदू का हर धर्म शास्त्र अपने आप में क़ानून है. ऐसा कानून जिसका पालन हर हिंदू के लिए करना जरुरी है फिर चाहे वो जातिप्रथा के किसी भी स्तर पर क्यों ना हो.मेरा मानना है कि हिंदू रहते हुए आप कभी भी वेदों, पुराणों, मनुस्मृति आदि के क़ानूनपर आधारित इस जातिप्रथा की गुलामी से बाहर नहीं निकल सकते. इसका सबसे अचछा उपाय भी बाबा साहब खुद बता कर गए है… धर्मान्तरण. लेकिन आज धर्मान्तरण करना क्या सही मायनों में इस समस्या का समाधान है? इस पर हम आगे विचार करेंगे.

और दुसरी बात जो जाति व्यवस्था के पोषक है  वह बाबासाहेब के विचारों के दुश्मन परम पूज्य बाबा साहेब अपनी पूरी जिंदगी हिंदू धर्म के कृतियों अंधविश्वास पाखंडों को खत्म करने के साथ-साथ जाति व्यवस्था जैसे कुप्रथा को भी खत्म करने के लिए पूरी जिंदगी संघर्ष किए लेकिन आज हमारा समाज अपने जाति पर गर्व करता है और अंजान अंतरजातीय विवाह का विरोध जो बाबासाहेब के विचारों और सिद्धांतों के विरुद्ध है इसलिए दोस्तों हमें अपनी सशक्त को समाज बनाना है तो जातिवाद से मुक्ति पाना है ब्राह्मण बाद से मुक्ति पाना है तो अंतर्जातीय विवाह का खुलकर समर्थन करना होगा तभी हम अपने समाज का विकास कर पाएंगे और जाति व्यवस्था जैसे कुप्रथा को खत्म कर पाएंगे



*परमपूज्य बाबासाहेब के द्वारा हिन्दू धर्म के ठेकेदारों पर उठाए गए कुछ सवाल????*

बाबासाहेब कई प्रश्न खड़े करते हैं. जैसे क्या एक हिन्दू को इससे क्या आघात पहुँच सकता है:?? यदि एक अस्पृश्य (शुद्र obc sc st) साफ वस्त्र पहने, यदि वह अपने घर पर खपरैल की छत डालता है, यदि वह अपने बच्चे को स्कूल भेजना चाहता है, यदि वह अपना धर्म बदलना चाहता है, यदि वह अपना सुन्दर एवं सम्माननीय नामकरण करता है, यदि वह अपना घर का द्वार मुख्य सड़क की ओर खोलना चाहता है, यदि वह कोई प्राधिकार वाला कोई पद प्राप्त कर लेता है, भूमि खरीद लेता है, व्यापार करता है, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाता है और उसकी गिनती खाते-पीते लोगों में होने लगती है? ऐसे कई सवाल बाबासाहेब ने उठाए. फिर वे लिखते हैं, “सभी हिन्दू, चाहे सरकारी हो या गैर सरकारी, मिलकर अस्पृश्यों का दमन क्यूँ करते हैं? सभी जातियां, चाहे वे आपस में लड़ती झगड़ती, हिन्दू धर्म की आड़ में एकजुट होकर क्यों साजिश करती हैं और अस्पृश्यों को असहाय स्थिति में रखती हैं.” अपने आस-पास की परिस्थिति की पड़ताल करें इसी तरह चर्चा और सोच अब भी पाएंगे, और यदि आप पास हैं तो फुसफुसाहट में!

बाबासाहेब को पढ़ते हुए एक जगह मैं ठहर 🕴सा जाता हूँ जब वे लिखते हैं, “सामान्यतः हिन्दू अति विनम्र लोग होते हैं”. मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूँ कि बाबासाहेब को यह अति विनम्रता कहाँ से दिखी? लेकिन इसका जबाव आगे मिल जाता है जब वे लिखते हैं, “लेकिन जब हिन्दू जैसे अति विनम्र लोग बेशर्मी और निर्ममता से आगजनी, लूटमार और हिंसा का सहारा लेकर पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार करने लगते हैं, तो यह विश्वास करना पड़ता है कि निश्चय ही कोई ऐसा बाध्यकारी कारण होगा, जो अस्पृश्यों के इस विद्रोह को देखने पर हिन्दुओं को पागल बना देता है और वे ऐसी अराजकता पर उतारू हो जाते हैं”.

दोस्तों यहाँ ध्यान देने की बात है कि बाबासाहेब बार-बार ‘अस्पृश्यों का विद्रोह’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं. यह ‘विद्रोह’ सिर्फ अपने मानवीय अधिकारों की मांग मात्र है, जिसे उस  समय हिन्दुओं द्वारा ‘विद्रोह’ समझा जाता था.

आगे बाबासाहेब लिखते हैं, “यदि आप किसी हिन्दू से पूछेंगे कि वह ऐसा बर्बर व्यवहार क्यूँ करता है?….वह कहेगा, अस्पृश्यों के जिस प्रयास को आप सुधार कहते हैं, वह सुधार नहीं है. वह हमारे धर्म का घोर अपमान है. यदि आप फिर पूछेंगे कि इस धर्म की व्यवस्था कहाँ है, तो पुनः उसका उत्तर सीधा-सा होगा – हमारा धर्म, हमारे शास्त्रों में है.

अपने और अपने समाज के मान सम्मान सम्मान इज्जत अधिकार और हक की रक्षा करना चाहते हैं सुखमय जीवन बनाना चाहते हैं तो बाबासाहेब के मूल सिद्धांतों और विचारों को आपको अपनाना होगा उन्हें आत्मसात करना होगा तभी हम विकास के पथ पर  सकते हैं 
बाबासाहेब के सपने का भारत बना सकते हैं 

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*जाति का विनाश*
दोस्तों ऐसे तो आप लोग जानते ही हैं कि बाबासाहेब ने अपनी पूरी जिंदगी जाति प्रथा छुआछूत ऊंच नीच भेदभाव को खत्म करने में निछावर कर दिए 

परमपूज्य बाबासाहेब डॉ.भीम राव आंबेडकर ने जाति के सवाल को अपने चिंतन का स्थायी भाव रखा। जब लाहौर के *जात पांत तोड़क मंडल ने उनको आमंत्रित किया तो उन्होंने अपना लिखित भाषण उन लोगों के पास भेज दिया लेकिन ब्राह्मण मानसिकता वाले आयोजकों ने उनको भाषण नहीं देने दिया। उसी भाषण को आज दुनिया उनकी कालजयी किताब, *''जाति का विनाश* के रूप में जानती है।

 इस किताब में  बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने बहुत ही साफशब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता तब तक  समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है। इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है।

बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रुचि रखते हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। *जाति के विनाश के लिए बाबासाहेब डॉक्टर आंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंतर्जातीय विवाह का था,* लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैं, यह अलग बात है।

इस पुस्तक में बाबासाहेब डॉ आंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए आंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होते रहना चाहिए।

बाबा साहेब डॉ आंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को आंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था।

बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी। ब्राह्मणों के आधिपत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन आंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।

बाबासाहेब के विचारों और सिद्धांतों को अपनाओ सुखमय जीवन बनाओ।।

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