मीरा कुमार के कुछ क़िस्से
राकेश भट्ट
विदेश मंत्रालय के पूर्व अधिकारी, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के चुनाव के लिए जिन योग्यताओं की ओर इशारा किया गया था उनमें प्रत्याशी की जाति पिछड़ी हो, उच्च शिक्षा प्राप्त हो, राजकाज का अनुभव हो और अंग्रेजी बोलने में निपुण हो.
भाजपा ने इन मानदंडों पर लगभग खरा उतरने वाले रामनाथ कोविंद को एनडीए के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया. कोविंद के मुक़ाबले विपक्षी दलों ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को मैदान में उतारा है जो इन्हीं मानदंडों पर कोविंद से बीस ही दिखती हैं.
मीरा कुमार 1970 बैच की सिविल सर्विसेज़ परीक्षा में टॉप-10 में रह कर विदेश सेवा में नियुक्त हुई. उनकी यह बात कम ही लोगों को पता है कि उन्होंने यूपीएससी परीक्षा में दलित कोटे का विकल्प नहीं चुना और एक सामान्य प्रतियोगी की हैसियत से यह परीक्षा पास की.
1982 में उनकी नियुक्ति विदेश मंत्रालय के शास्त्री भवन स्थित विदेश प्रचार विभाग में डिप्टी सेक्रेटरी के रूप में हुई जहाँ मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई. मैं भी इसी विभाग में कार्यरत था. विदेश सेवा के इस विभाग के सर्वोच्च प्रभारी के रूप में मणिशंकर अय्यर एवं हरदीप पुरी सरीखे राजनीतिक समझ रखने वाले योग्य व्यक्ति हुआ करते थे.
पिता का नाम कभी भुनाया नहीं
समाजवादी विचारधारा के प्रति मेरे लगाव और शायद झुकाव को मीरा कुमार भी जानती थी. मीरा कुमार के बारे में कहा जाता था कि वह ज़िन्दगी में कभी किसी को डांट नहीं सकतीं क्योंकि उनकी हर बात इतनी मीठी और सौम्य होती है कि सुनने वाला इसे लोरी मान लेता है.
एक दिग्गज राजनैतिक पिता की पुत्री होने को मीरा कुमार ने कभी भुनाया नहीं. इस बात को उनके सहकर्मी ही नहीं बल्कि उनके विरोधी भी मानते थे.
1982 में विदेश विभाग के एक कर्मचारी ने उनके बारे में जातिसूचक अपशब्द का इस्तेमाल किया जिसे उन्होंने भी सुना, वहां मौजूद सबको लगा कि अब इस कर्मचारी को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा.
कुछ समय बाद उस कर्मचारी को उन्होंने अपने कमरे में बुलाया और कहा कि देखिए, जिस जातिसूचक शब्द का आपने मेरे लिए उपयोग किया है उसे अब गाली माना जाता है. आप उम्र में मुझसे बड़े हैं और मैं नहीं चाहती कि हमारे समाज में आप जैसी बड़ी उम्र और अनुभव वाला व्यक्ति ऐसी बातें करे.
मैं इस घटना का गवाह रहा हूँ और उनके इस विनम्र बातचीत ने उस व्यक्ति को हमेशा के लिए बदल डाला.
मेरी वो ग़लती
मीरा कुमार के व्यक्तित्व का एक और पहलू मेरी अपनी ही ग़लती की वजह से सामने आया. हुआ यूँ कि नियम के मुताबिक़, कुछ संवेदनशील कमरों को बंद करने के बाद चाबियाँ साउथ ब्लॉक स्थित ब्यूरो ऑफ़ सेक्युरिटी में जमा करानी होती थीं और उस हफ़्ते यह काम मेरे ज़िम्मे था. शाम सात बजे मैं अपने और मीरा कुमार के कमरे को ताला लगाकर चाबियाँ साउथ ब्लॉक जमा कराने के बजाय भूलवश अपने साथ घर ले आया.
मुझे इसका आभास नहीं हुआ था कि मीरा कुमार तो अभी अपने कमरे में ही बैठी थीं. उन्होंने जब घर जाने के लिए अपने कमरे का दरवाज़ा खोलना चाहा तो पता चला कि वह तो बाहर से तालाबंद है. उन्होंने बंद कमरे से कई फ़ोन किए, उन्होंने शास्त्री भवन के सुरक्षाकर्मियों को मेरे घर का पता दिया और मुझ से चाबियाँ लाने के लिए भेजा. कमरा खुलवाने में तीन घंटे लगे.
ऑफ़िस आकर दरवाज़ा खोला तो मैं सोच रहा था कि वह बहुत नाराज़ होंगी लेकिन उन्होंने कहा कि "ये समाजवादी लोग इतने भुलक्कड़ क्यों होते हैं"?
मैंने उनसे पूछा कि आपने साउथ ब्लॉक से डुप्लीकेट चाबियाँ क्यों नहीं मंगवाई तो उन्होंने कहा कि यदि उन्हें पता चलता कि जो चाबियाँ वहां जमा करानी थी उसे मैं अपने घर कैसे और क्यों ले गया तो यह बात मुझ पर भारी पड़ती. शायद मैं कह सकता हूँ कि मीरा कुमार ग़लतियों को अपराध नहीं मानती.
कार्यपालिका और राजनीति का भरपूर सफल अनुभव होने के साथ साथ मीरा कुमार बहुत अच्छी कवियत्री भी हैं. मगर मीरा कुमार को शायद अंदाज़ा है कि राजनीति अंकों का गणित है और योग्य होना अलग बात है.
उनकी कविता 'ग्यारहवीं दिशा' की कुछ पंक्तियाँ-
दिशाएं दस हैं,
चार मुख्य, चार कोण और एक आकाश और एक पाताल.
मगर मुझे तो ग्यारहवीं दिशा में जाना है,
जहाँ आस्थाओं के खंडहर न हो.
और बेबसी की राख पर संकल्प लहलहाए!
और अब जब देश के सर्वोच्च पद के प्रत्याशी घोषित हो गए हैं अब चाहे कोविंद बने या मीरा, बस इतनी भर दुआ तो कर सकते हैं कि आस्थाओं के खंडहर न हों और बेबसी की राख पर संकल्प लहलहाए!
राकेश भट्ट
विदेश मंत्रालय के पूर्व अधिकारी, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी के चुनाव के लिए जिन योग्यताओं की ओर इशारा किया गया था उनमें प्रत्याशी की जाति पिछड़ी हो, उच्च शिक्षा प्राप्त हो, राजकाज का अनुभव हो और अंग्रेजी बोलने में निपुण हो.
भाजपा ने इन मानदंडों पर लगभग खरा उतरने वाले रामनाथ कोविंद को एनडीए के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया. कोविंद के मुक़ाबले विपक्षी दलों ने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को मैदान में उतारा है जो इन्हीं मानदंडों पर कोविंद से बीस ही दिखती हैं.
मीरा कुमार 1970 बैच की सिविल सर्विसेज़ परीक्षा में टॉप-10 में रह कर विदेश सेवा में नियुक्त हुई. उनकी यह बात कम ही लोगों को पता है कि उन्होंने यूपीएससी परीक्षा में दलित कोटे का विकल्प नहीं चुना और एक सामान्य प्रतियोगी की हैसियत से यह परीक्षा पास की.
1982 में उनकी नियुक्ति विदेश मंत्रालय के शास्त्री भवन स्थित विदेश प्रचार विभाग में डिप्टी सेक्रेटरी के रूप में हुई जहाँ मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई. मैं भी इसी विभाग में कार्यरत था. विदेश सेवा के इस विभाग के सर्वोच्च प्रभारी के रूप में मणिशंकर अय्यर एवं हरदीप पुरी सरीखे राजनीतिक समझ रखने वाले योग्य व्यक्ति हुआ करते थे.
पिता का नाम कभी भुनाया नहीं
समाजवादी विचारधारा के प्रति मेरे लगाव और शायद झुकाव को मीरा कुमार भी जानती थी. मीरा कुमार के बारे में कहा जाता था कि वह ज़िन्दगी में कभी किसी को डांट नहीं सकतीं क्योंकि उनकी हर बात इतनी मीठी और सौम्य होती है कि सुनने वाला इसे लोरी मान लेता है.
एक दिग्गज राजनैतिक पिता की पुत्री होने को मीरा कुमार ने कभी भुनाया नहीं. इस बात को उनके सहकर्मी ही नहीं बल्कि उनके विरोधी भी मानते थे.
1982 में विदेश विभाग के एक कर्मचारी ने उनके बारे में जातिसूचक अपशब्द का इस्तेमाल किया जिसे उन्होंने भी सुना, वहां मौजूद सबको लगा कि अब इस कर्मचारी को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा.
कुछ समय बाद उस कर्मचारी को उन्होंने अपने कमरे में बुलाया और कहा कि देखिए, जिस जातिसूचक शब्द का आपने मेरे लिए उपयोग किया है उसे अब गाली माना जाता है. आप उम्र में मुझसे बड़े हैं और मैं नहीं चाहती कि हमारे समाज में आप जैसी बड़ी उम्र और अनुभव वाला व्यक्ति ऐसी बातें करे.
मैं इस घटना का गवाह रहा हूँ और उनके इस विनम्र बातचीत ने उस व्यक्ति को हमेशा के लिए बदल डाला.
मेरी वो ग़लती
मीरा कुमार के व्यक्तित्व का एक और पहलू मेरी अपनी ही ग़लती की वजह से सामने आया. हुआ यूँ कि नियम के मुताबिक़, कुछ संवेदनशील कमरों को बंद करने के बाद चाबियाँ साउथ ब्लॉक स्थित ब्यूरो ऑफ़ सेक्युरिटी में जमा करानी होती थीं और उस हफ़्ते यह काम मेरे ज़िम्मे था. शाम सात बजे मैं अपने और मीरा कुमार के कमरे को ताला लगाकर चाबियाँ साउथ ब्लॉक जमा कराने के बजाय भूलवश अपने साथ घर ले आया.
मुझे इसका आभास नहीं हुआ था कि मीरा कुमार तो अभी अपने कमरे में ही बैठी थीं. उन्होंने जब घर जाने के लिए अपने कमरे का दरवाज़ा खोलना चाहा तो पता चला कि वह तो बाहर से तालाबंद है. उन्होंने बंद कमरे से कई फ़ोन किए, उन्होंने शास्त्री भवन के सुरक्षाकर्मियों को मेरे घर का पता दिया और मुझ से चाबियाँ लाने के लिए भेजा. कमरा खुलवाने में तीन घंटे लगे.
ऑफ़िस आकर दरवाज़ा खोला तो मैं सोच रहा था कि वह बहुत नाराज़ होंगी लेकिन उन्होंने कहा कि "ये समाजवादी लोग इतने भुलक्कड़ क्यों होते हैं"?
मैंने उनसे पूछा कि आपने साउथ ब्लॉक से डुप्लीकेट चाबियाँ क्यों नहीं मंगवाई तो उन्होंने कहा कि यदि उन्हें पता चलता कि जो चाबियाँ वहां जमा करानी थी उसे मैं अपने घर कैसे और क्यों ले गया तो यह बात मुझ पर भारी पड़ती. शायद मैं कह सकता हूँ कि मीरा कुमार ग़लतियों को अपराध नहीं मानती.
कार्यपालिका और राजनीति का भरपूर सफल अनुभव होने के साथ साथ मीरा कुमार बहुत अच्छी कवियत्री भी हैं. मगर मीरा कुमार को शायद अंदाज़ा है कि राजनीति अंकों का गणित है और योग्य होना अलग बात है.
उनकी कविता 'ग्यारहवीं दिशा' की कुछ पंक्तियाँ-
दिशाएं दस हैं,
चार मुख्य, चार कोण और एक आकाश और एक पाताल.
मगर मुझे तो ग्यारहवीं दिशा में जाना है,
जहाँ आस्थाओं के खंडहर न हो.
और बेबसी की राख पर संकल्प लहलहाए!
और अब जब देश के सर्वोच्च पद के प्रत्याशी घोषित हो गए हैं अब चाहे कोविंद बने या मीरा, बस इतनी भर दुआ तो कर सकते हैं कि आस्थाओं के खंडहर न हों और बेबसी की राख पर संकल्प लहलहाए!
राष्ट्रपति कोई भी बने हमें कोई फायदा या नुकसान नहीं।
ReplyDeleteमुझे मशहूर कवि सुरेंद्र शर्मा की चंद पंक्तियाँ याद आ रही हैं -
'राजा राम हो या रावण, जनता तो बेचारी सीता है।
रावण होंगे तो हर ली जायेगी, राम होंगे तो त्याग दी जायेगी।'
'राजा कौरव हों या पाँडव, जनता तो बेचारी द्रौपदी है,
कौरव होंगे तो वस्त्र हर लिए जाएंगे, पाँडव होंगे तो जुए में हार दी जायेगी।'
*सोशल मीडिया पर पाबंदी, बहुजन आवाज पर हमला आस्था, ढोंग, पाखंड*, भविष्यवाणी की गाथा गाने में लीन न्यूज़ चैनलों को बहुजन समाज की समस्याओं से कोई परवाह नहीं। उच्च दर्जे के AC कमरों में बैठकर एंकर झारखंड, छत्तीसगढ़ के निर्दोष आदिवासियों को नक्सली करार देते हैं लेकिन एक आदिवासी नक्सली क्यों बनता है इसपर कभी चर्चा नहीं होती। बड़े बड़े TV के एंकर फुटपाथ के किनारे भीख मांग रहे भिखारियों के गरीबी पर भाषण देते हैं लेकिन धन और धरती के बंटवारे पर खामोश रहते हैं। राष्ट्रवाद के आड़ में भारत माता, गौ माता, गंगा माता का नाम लेते हुए एससी, एसटी ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज के हितों की बात करने वालों को देश विरोधी http://welovebabasaheb56.blogspot.com/2017/07/blog-post_6.html
ReplyDeleteदोनों में से किसी को स्पोर्ट न करो।
ReplyDeleteदोनों चमचे है
स्पोर्ट करना बेवकूफी है
जब ये किसी लायक ही नही है केवल कठपुतली है तो स्पोर्ट करने का कोई मतलब ही नही बनता।बल्कि दोनों का विरोध करो ताकी आगे से चमचो का मनोबल कमजोर हो।
समर्थन कर दोगे तो चमचों का और उनके बाप मनुवादियों का हिम्मत बढ़ जायेगा।
इनका वोट प्रतिशत घटाने में ही समाज का भलाई है।
इनका जम के विरोध करो।
चमचा मुर्दाबाद
जिस *मुल्क* का *प्रथम नागरिक* ही *जाति* के *आधार* पर *चुना* जाए, उस *मुल्क* से *जातिवाद* को *खत्म* करने की हर बात *बेमानी* है !
ReplyDelete