Friday 25 August 2017

ब्राह्मण’ तिलक के विचार* महिला शिक्षा

*दिमाग के जाले साफ करो और पढ़ो, महिला शिक्षा के बारे में ‘चालाक ब्राह्मण’ तिलक के विचार*


नई दिल्ली। नेशनल जनमत ब्यूरो 

इतिहास ने हमें जिसके बारे में जैसा बता दिया हम बचपन से उसे वैसा ही देखते चले आ रहे हैं. बाल गंगाधार तिलक को भी हम स्कूल के समय से लोकमान्य बुलाते आए हैं. लेकिन उनकी खुद की लिखी हुई किताब बताती है कि तिलक घोर जातिवाद को बढ़ावा देने वाले इंसान थे. आजकल वरिष्ठ पत्रकार सत्येन्द्र पीएस अपनी फेसबुक वॉल पर बाल गंगाधर तिलक की परतें खोल रहे हैं आप भी पढ़िए.


तिलक स्त्री शिक्षा के विरोधी थे- 
बाल गंगाधर तिलक ने 1885 में लड़कियों का पहला हाई स्कूल खोले जाने के क्रांति ज्योति सावित्रीबाई फुले के  प्रयासों के खिलाफ अभियान चलाया।
उसमें सफलता नहीं मिली तो तिलक ने लड़कियों के 11 बजे से 5 बजे तक घर से बाहर रहने का विरोध किया और लिखा कि कोई भी अपनी लड़की को इतने समय तक घर से बाहर नहीं रहने देगा। उन्होंने सुबह 7 से 10 या दोपहर 2 से 5 बजे तक कक्षाएं चलाने का सुझाव दिया और कहा कि शेष समय लड़कियों को घर के काम में हाथ बटाने में देना चाहिए।


लड़कियां पढ़ लिख गईं तो पतियों का विरोध करेंगी- 

तिलक ने कहा कि पढ़ लिखकर लड़कियां रख्माबाई जैसी हो जाएंगी जो अपने पतियों का विरोध करेंगी।उन्होंने पाठ्यक्रम में बदलाव कर लड़कियों को पुराण, धर्म और घरेलू काम जैसे बच्चों की देखभाल, खाना बनाने की शिक्षा तक सीमित रखने की वकालत की। उन्होंने कहा कि इसके अलावा लड़कियों को शिक्षा देना करदाताओं के धन की बर्बादी है। लड़कियों का पहला विश्वविद्यालय 1915-16 में खोले जाने की दोन्धो केशव करवे की कवायद तक तिलक का यह रुख कायम रहा

हिन्दू लड़की को बेहतरीन बहू के रूप में विकसित किय जाना चाहिए- 

20 फरवरी 1916 को उन्होंने अपने मराठा अखबार में इंडियन वूमेन यूनिवर्सिटी शीर्षक से लिखे लेख में कहा,

” हमे प्रकृति और सामाजिक रीतियों के मुताबिक चलना चाहिए। पीढ़ियों से घर की चहारदीवारी महिलाओं के काम का मुख्य केंद्र रहा है। उनके लिए अपना बेहतर प्रदर्शन करने हेतु यह दायरा पर्याप्त है। एक हिन्दू लड़की को निश्चित रूप से एक बेहतरीन बहू के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। हिन्दू औरत की सामाजिक उपयोगिता उसकी सिम्पैथी और परंपरागत साहित्य को ग्रहण करने को लेकर है। लड़कियों को हाइजीन, डोमेस्टिक इकोनॉमी, चाइल्ड नर्सिंग, कुकिंग, sewing आदि की बेहतरीन जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए ”
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*दिमाग के जाले साफ करो और पढ़ो, महिला शिक्षा के बारे में 'चालाक ब्राह्मण' तिलक के विचार - नेशनल जनमत*

 http://nationaljanmat.com/women-education-tilak/


 क्रमिक असमानता – जाति बंधन डालने के बाद उसे बनाये रखना संभव नहीं था। गुलाम को गुलाम बनाये रखने के लिए हर किसी के ऊपर किसी को रखना ही इस समस्या का समाधान था। सारे मूलनिवासी आपस में लड़ते रहे, मूलनिवासी कभी ब्राह्मणों के खिलाफ खड़े ना हो जाये। इसीलिए ब्राह्मणों ने मूलनिवासियों को ऊँची और नीची जातियों में बाँट दिया। उंच नीच की भावना मानवता की भावना को खत्म कर देती है। इसीलिए ब्राह्मणों ने क्रमिक असमानता के साथ जाति व्यवस्था का निर्माण किया है। और आज भी हर मूलनिवासी जाति और धर्म के नाम पर लड़ता रहता है और ब्राह्मण मज़े से तमाशा देख कर हँसता है।
अस्पृश्यता – जातिव्यवस्था बुद्ध पूर्व काल में नहीं थी इसीलिए उस समय के साहित्य में जाति या वर्ण व्यवस्था का वर्णन नहीं आता। इसीलिए यह भ्रान्ति फैली हुई है जिन बौद्धों ने ब्राह्मण धर्म का अनुसरण किया, और ब्राह्मणों ने जिन बौद्धों को अपना लिया वो आज के समय में ओबीसी में आते है। उन पर आज भी ब्राह्मणों का प्रभाव है जिसके कारण ओबीसी में आने वाले लोग दूसरे मूलनिवासियों से अपने आप को उच्च समझते है। ओबीसी भी पुष्यमित्र शुंग की प्रतिक्रांति के बाद बनाया गया मूलनिवासी लोगों का समूह है।
सिंधु घाटी की सभ्यता पैदा करने वाले भारतीय लोगो से इतनी बड़ी महान सभ्यता कैसे नष्ट हुई,जो 4500-5000 ईसा पूर्व से स्थापित थी?ये इंग्रेजो ने पूछा था, एक अंग्रेज अफसर को इस का शोध करने के लिए भी बोला गया था। बाद में इसके शोध को राघवन और एक संशोधक ने शुरू किया। पत्थर और ईंटों के परिक्षण में पता चला कि ये संस्कृति अपने आप नहीं मिटी थी। बल्कि सिंधु घटी की सभ्यता को मिटाया गया था। दक्षिण राज्य केरल में हडप्पा और मोहनजोदड़ों 429 अवशेष मिले। ब्राम्हण भारत में ईसा पूर्व 1600-1500 शताब्दी पूर्व आया।
ऋग्वेद में इंद्र के संदर्भ में 250 श्लोक आतें हैं। ब्राह्मणों के नायक इन्द्र पर लिखे सभी श्लोकों में यह बार बार आता है कि “हे इंद्र उन असुरों के दुर्ग को गिराओं” “उन असुरों(बहुजनों) की सभ्यता को नष्ट करो”। ये धर्मशास्त्र नहीं बल्कि ब्रहामणों के अपराधों से भरेदस्तावेज हैं।
भाषाशास्त्र के आधार पर ग्रिअरसन ने भी ये सिद्ध किया की अलग-अलग राज्यों में जो भाषा बोली जाती हैं,वो सारी भाषाओँ का स्त्रोतपाली है।
DNA के परिक्षण से प्राप्त हुआ सबूतनिर्विवाद और निर्णायक है। क्योकि वो किसी तर्क या दलील पर खड़ा नहीं किया गया है। इस शोध को विज्ञान के द्वारा कभी भी प्रमाणित किया जा सकता है। विज्ञान कोई जाति या धर्म नहीं है। इस शोध को करने वाले पूरी दुनिया से 265 लोग थे। बामशाद का यह शोध 21 मई 2001 के TIMES OF INDIA में NATURE नामक पेज पर छपा, जो दुनिया का सबसे ज्यादा वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त अंक है।
बाबासाहब आंबेडकर की उम्र सिर्फ 22 साल थी जब उन्होंने विश्व का जाति का मूलक्या है, इसकी खोज की थी।  और 2001 में जो DNA परिक्षणहुआ था, बाबासाहब का और माइकल बामशाद का मत एक ही निकला था।
ब्राम्हण सारी दुनिया के सामने पुरे बेनकाबहो चुके थे। फिर भी ब्राह्मणों ने अपनी असलियत को छुपाने के लिए अपनी ब्रह्माणी सिद्धांत को अपनाया और ऐसा प्रचारित किया कि भारत में दक्षिणी ब्राह्मण दो नस्लों के होते है। ब्राह्मणों ने DNA के परिक्षण को पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया और एक और झूठ मीडिया द्वारा प्रचारित करना शुरू कर दिया कि अब कोई मूलनिवासी नहीं है सभी लोग संमिश्र हो चुके है। उन्होंने कहा मापदंड ढूंढा? ब्राह्मणों ने दलील देकर कहा कि अन्डोमान और निकोबार द्वीप समूह की जो आदिवासी जनजाति है वो अफ्रीकन के वंशज है, वो उधर से आया था, और यूरेशियन देशों में चला गया है, इस पर भी शोध होना चाहिए। बामशाद के द्वारा किये गये शोध को नकारने के लिए ब्राह्मणों ने सिर्फ विज्ञान शब्द का प्रयोग किया और उसे झूठा प्रचारित किया। ब्राह्मण अगर यह झूठी कहानी सुनाये तो उस से पूछो कि दोनों ब्राह्मण नस्लों में से विदेश से कौन आया है? विदेशी का DNA बताओ? DNA के आधार पर ब्राह्मण अपनी बातों को सिद्ध नहीं कर सकता।
ब्राह्मण मुसलमान विरोधी घृणा आंदोलन क्यों चलता है?
क्योकि ब्राह्मणवाद और बुद्धिज्म के टकराव के समय बहुत से बौद्धिष्ट मुसलमान बन गये थे उन्होंने ब्राह्मण धर्म को नहीं अपनाया था। ब्राह्मण जनता है कि आज भारत में जितने भी मुसलमान है वो सब मूलनिवासी है इसीलिए ब्राह्मण मुसलमानों के खिलाफ घृणा का आंदोलन चलता रहता है ताकि ब्राह्मण किसी भी तरह मूलनिवासियों की एक शाखा को पूरी तरह खत्म कर सके।
अंग्रेजों के गुलाम ब्राह्मण था और उनके गुलाम मूलनिवासी थे। आज़ादी की जंग में आज़ादी के लिए आंदोलन करने वाले लोगों के सामने यह सबसे बड़ी समस्या थी। इसीलिए डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने अंग्रेजों को कहा कि ब्राह्मणों को आज़ाद करने से पहले मूलनिवासी बहुजनों को जरुर आज़ाद कर देना चाहिए। अगर ब्राह्मण मूलनिवासियों से पहले आज़ाद हो गया तो ब्राह्मण मूलनिवासियों को कभी आज़ाद नहीं करेगा। ये आशंका सिर्फ डॉ. भीम राव अम्बेडकर के मन में ही नहीं थी बल्कि मुसलमान नेताओं के मन में भी थी। इसीलिए 14 अगस्त को पाकिस्तान बना। मुसलमानों ने अंग्रेजों को कहा कि गाँधी से एक दिन पहले हमे आज़ादी देना और हमारे बाद गाँधी को देना। अगर तुमने पहले गाँधी को आज़ादी दे दी तो गाँधी बनिया है हमको कुछ नहीं देगा। ब्राह्मणों ने अपनी आज़ादी की लड़ाई मूलनिवासियों को सीडी बनाकर लड़ी और वो अंग्रेजों को भगा कर आज़ाद हो गये।

DNA संशोधन से सामने आया कि ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य भारत के मूलनिवासी नहीं है। व्यवहारिक रूप से भी देखा जाये तो ब्राह्मणों ने कभी भारत को अपना देश माना भी नहीं है। ब्राह्मण हमेशा राष्ट्रवाद का सिद्धांत बताता आया है लेकिन खुद कितना देशभक्त है ये बात किसी को नहीं बताता। इसका मतलब एक विदेशी गया और दूसरा विदेशी मालिक हो गया, DNA ने सिद्ध कर दिया। दूसरे विदेशी ब्राह्मणों ने ये प्रचार किया कि भारत आज़ाद हो गया। लेकिन आज भी भारत पर आज भी ब्राह्मणों का राज है। इससे यह साबित होता है कि मूलनिवासियों को भविष्य में आज़ादी हासिल करने का कार्यक्रम चलाना ही पड़ेगा। DNA परिक्षण के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि आज भी देश के 130 करोड में से 32 करोड लोग बाकि 98 करोड़ लोगों पर राज कर रहा है। कल्पना करो कितना मुलभुत और महत्वपूर्ण संशोधन है।

"स्तन" शब्द पढ़ने से आपको घिन है, शर्म आती है...?
और जिन महिलाओं ने घिनौनी त्रासदी को भोगा, वे क्या महसूस करती थी..?

★ स्तन ढकने का अधिकार पाने के लिए केरल में महिलाओं का ऐतिहासिक विद्रोह

केरल के त्रावणकोर इलाके, खास तौर पर वहां की महिलाओं के लिए 26 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इसी दिन 1859 में वहां के महाराजा ने अवर्ण औरतों को शरीर के ऊपरी भाग पर कपड़े पहनने की इजाजत दी। अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा।

इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया। नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं। उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे। नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था। वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं। लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था।

नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी। पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी। एक घटना बताई जाती है जिसमें एक निम्न जाति की महिला अपना सीना ढक कर महल में आई तो रानी अत्तिंगल ने उसके स्तन कटवा देने का आदेश दे डाला।

इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं। 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए। बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने औऱ यूरपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं। धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया। इस तरह महिलाएं अक्सर इस सामाजिक प्रतिबंध को अनदेखा कर सम्मानजनक जीवन पाने की कशिश करती रहीं।

यह कुलीन मर्दों को बर्दाश्त नहीं हुआ। ऐसी महिलाओं पर हिंसक हमले होने लगे। जो भी इस नियम की अहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता। अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते। यहां तक कि वे औरतों को इस हाल में रस्सी से बांध कर सरे आम पेड़ पर लटका देते ताकि दूसरी औरतें ऐसा करते डरें।

लेकिन उस समय अंग्रेजों का राजकाज में भी असर बढ़ रहा था। 1814 में त्रावणकोर के दीवान कर्नल मुनरो ने आदेश निकलवाया कि ईसाई नादन और नादर महिलाएं ब्लाउज पहन सकती हैं। लेकिन इसका कोई फायदा न हुआ। उच्च वर्ण के पुरुष इस आदेश के बावजूद लगातार महिलाओं को अपनी ताकत और असर के सहारे इस शर्मनाक अवस्था की ओर धकेलते रहे।

आठ साल बाद फिर ऐसा ही आदेश निकाला गया। एक तरफ शर्मनाक स्थिति से उबरने की चेतना का जागना और दूसरी तरफ समर्थन में अंग्रेजी सरकार का आदेश। और ज्यादा महिलाओं ने शालीन कपड़े पहनने शुरू कर दिए। इधर उच्च वर्ण के पुरुषों का प्रतिरोध भी उतना ही तीखा हो गया। एक घटना बताई जाती है कि नादर ईसाई महिलाओं का एक दल निचली अदालत में ऐसे ही एक मामले में गवाही देने पहुंचा। उन्हें दीवान मुनरो की आंखों के सामने अदालत के दरवाजे पर अपने अंग वस्त्र उतार कर रख देने पड़े। तभी वे भीतर जा पाईं। संघर्ष लगातार बढ़ रहा था और उसका हिंसक प्रतिरोध भी।

सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था। क्यों न होता। आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें। उस रास्ते के घरों के छज्जों पर भी राजा के स्वागत में औरतों को ख़ड़ा रखा जाता था। राजा और उसके काफिले के सभी पुरुष इन दृष्यों का भरपूर आनंद लेते थे।

आखिर 1829 में इस मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया।

कुलीन पुरुषों की लगातार नाराजगी के कारण राजा ने आदेश निकलवा दिया कि किसी भी अवर्ण जाति की औरत अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा ढक नहीं सकती। अब तक ईसाई औरतों को जो थोड़ा समर्थन दीवान के आदेशों से मिल रहा था, वह भी खत्म हो गया। अब हिंदू-ईसाई सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई। सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं।

इस पूरे आंदोलन का सीधा संबंध भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास से भी है। विरोधियों ने ऊंची जातियों के लोगों दुकानों और सामान को लूटना शुरू कर दिया। राज्य में शांति पूरी तरह भंग हो गई। दूसरी तरफ नारायण गुरु और अन्य सामाजिक, धार्मिक गुरुओं ने भी इस सामाजिक रूढ़ि का विरोध किया।

मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है। अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं। 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया। कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक छीन कर लिया।
[8/5, 7:49 PM] RAJNISH PRINCE: चाहे मायावती हो या लालू चाहे कोई भी कम्यूनिष्ट पार्टी किसी ने भी एक बार भी RSS की जड़ खोदने का वास्तविक प्रयास कभी नही किया है।सिर्फ और सिर्फ लोगो को सुनाने के लिए लोगो को खुस करने के लिये मुँह से ही विरोध करते है।

सिर्फ बोल कर ही विरोध किया
कर के कभी विरोध नही किया

भारत में सिर्फ RSS ही एक मात्र  ऐसा संगठन है जो पूरी ईमानदारी और पूरी मेहनत से अपना काम कर रहा है।
और असम्भव चीज को भी सम्भव कर दे रहा है।बस आँख खोल कर देखने की जरूरत है।

[8/5, 7:49 PM] RAJNISH PRINCE: प्रिय साथियों जय भीम नमो बुध्दाय: आने वाले 2019 से 2022 तक भारत के जितने भी संगठन और जितनी भी सेकुलर पार्टियां है सभी को अपना मतभेद भुलाकर आने वाले चुनाव मे rss और भाजपा मुक्त बनाने के लिए एकजुट हो अगर हम ऐसा नही कर सके तो ये भाजपा के बागडबिल्ले हमारे इस भारत खा जायेगें जिस तरह से इन लोगों की कार्यसैली पूरे भारत मे चल रही है इससे लगता है कि वो दिन दुर नही है जब ये मनुवादी बिचारधारा के लोग हमारे बहुजन समाज को फिर से गुलामों की तरह जिवन जिने पर मजबुर होना पडेगा जिस तरह भारत मे भाजपा और उसके सहयोगी कर रहे है आने वाले समय मे बिपछ नाम मात्र भी नही बचेगा और फिर भारत मे चारो तरफ मनुवादियों का बोलबाला होगा हमारे महपुरूषों की सारी की सारी कुर्बानियां बेकार चली जायेगी मै ये तो नही कहुगां की आप इसे शेयर करे लेकिन इसे आप एक बार दिल से मंथन जरूर करें अपने देश मे मची उठापटक पर बारीकी से समझेगें तो आप खुदबखुद समझ जायेगें फिर आप फैसला लें

2 comments:

  1. osho: ईशवर है या नही, बुद्ध ने क्या कहा है
    https://www.youtube.com/watch?v=YcMX6vxkgFk&feature=youtu.be

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  2. Arundhati Roy: Race, Caste - Ambedkar v. Gandhi
    https://youtu.be/ZBJ6oBENENo

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