Tuesday 5 September 2017

दलितों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

जानिए दलितों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान-

अक्सर सवर्ण बंधुओ द्वारा यह प्रश्न किया जाता है की दलितों का
आजादी की लड़ाई में क्या योगदान रहा है , वे गाहे बेगाहे सवर्ण
क्रांतिकारियो की लिस्ट दिखा के यह साबित करने की कोशिश करते हैं की, सारी आज़ादी की लड़ाई उन्होंने ही लड़ी बाकी अछूत दलित तो कुछ नहीं करते थे ।
यह मानसिकता वह है जो हजारो सालों से चली आ रही है ,इसी
मानसिकता के चलते एकलव्य का अंगूठा कटवा के उसके बाद अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की पदवी दिला दी जाती है ।

खैर, मैं आपको प्राचीन काल में नहीं अपितु इतिहास में ले चलता हूँ,

सब जानते हैं की आज़ादी की लड़ाई की शुरुआत 1857 में मंगल पाण्डे से शुरू हुई । हालांकी मंगल पाण्डे को अंग्रेजो से बगावत करने की प्रेरणा मातादीन वाल्मीकि से मिली वर्ना, पाण्डे जी जीवन भर अंग्रेजो की नौकरी ही करते रहते ।

मातादीन वाल्मिकि को अछूत होने के नाते भुला दिया गया ।
पर यहां आपको मैं बताऊंगा की आज़ादी की प्रथम लड़ाई 1857 में मंगल पाण्डे द्वारा नहीं लड़ी गई थी ,बल्कि, आज़ादी की लड़ाई 1804
में ही शुरू हो गई थी । और यह लड़ाई लड़ी गई थी छतरी के नबाब
द्वारा, छतरी के नबाब का अंग्रेजो से लड़ने वाला परमवीर योद्धा
था "ऊदैया चमार" ,जिसने सैंकड़ो अंग्रेजो को मौत के घाट उतार दिया था ।
उसकी वीरता के चर्चे अलीगढ़ के आस-पास के क्षेत्रो में आज
भी सुनाई देते हैं ,उसको 1807 में अंग्रेजो द्वारा फाँसी दे दी गई थी ।

उसके बाद आता है बाँके चमार, बाँके जौनपुर जिले के मछली
तहसील के गाँव कुँवरपुर के निवासी थे , उनकी अंग्रेजो में इतनी
दहशत थी की सन 1857 के समय उनके ऊपर 50 हजार का इनाम रखा था अंग्रेजो ने ।

अब आप सोचिये कि, जब "2 पैसे" की इतनी कीमत थी की उस
से बैल ख़रीदा जा सकता था तो उस समय "50 हजार" का इनाम कितना बड़ा होगा ।

वीरांगना झलकारी बाई को कौन नहीं जानता ? रानी झाँसी से बढ़ के
हिम्मत और साहस था उनमें , वे चमार जाति की उपजाति कोरी जाति से थी ।
पर दलित होने के कारण उनको पिछे धकेल दिया गया और
रानी झाँसी का गुणगान किया गया ।

1857 में ही राजा बेनी माधव (खलीलाबाद) अंग्रेजो द्वारा कैद किये
जाने पर उन्हें छुड़ाने वाला अछूत वीरा पासी था !
इसके अलावा कुछ और दलित क्रान्तिकारियो के नाम आप लोगो को
बताना चाहता हूँ जो गोरखपुर अभिलेखों में दर्ज हैं ।
1- आज़ादी की लड़ाई में चौरा-चौरी काण्ड एक मील का पत्थर है ,
इसी चौरा-चौरी कांड के नायक थे "रमापति चमार" , इन्ही की
सरपस्ति में हजारो दलितों की भीड़ ने चौरा-चौरी थाने में आग लगा दी थी जिससे 23 अंग्रेज सिपाहियों की जलने से मौत हो गई थी ।
इतिहासकार श्री. डी सी दिनकर ने अपनी पुस्तक "स्वतंत्रता संग्राम" में 'अछूतों का योगदान' में उल्लेख किया है की- "अंग्रेजो ने इस काण्ड में सैंकड़ो दलितों को गिरफ्तार किया ।
228 दलितों पर सेशन
सुपुर्द कर अभियोग चला ।
निचली अदालत ने 172 दलितों को फाँसी
की सजा सुनाई।
इस निर्णय की ऊपरी अदालत में अपील की गई , ऊपरी अदालत ने 19 को फाँसी, 14 को आजीवन कारवास , शेष को आठ से पांच साल की जेल हुई ।

2 जुलाई 1923 को 18 अन्य दलितों के साथ चौरा-चौरी कांड के नायक रमापति को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया ।

चौरा-चौरी कांड में फाँसी तथा जेल की सजा पाने वाले क्रन्तिकारी
दलितों के नाम थे-

1- सम्पति चमार- थाना- चौरा, गोरखपुर, धारा 302 के तहत
1923 में फांसी,

2- अयोध्या प्रसाद पुत्र महंगी पासी- ग्राम - मोती पाकड़, जिला
चौरा, गोरखपुर , सजा - फाँसी

3- कल्लू चमार, सुपुत्र सुमन - गाँव गोगरा, थाना-झगहा, जिला
गोरखपुर, सजा - 8 साल की कैद

4- गरीब दास , पुत्र महंगी पासी - सजा धारा 302 के तहत
आजीवन कारावास

5- नोहरदास, पुत्र देवीदीन- ग्राम - रेबती बाजार, थाना चौरा-चौरी, गोरखपुर, आजीवन कारवास

6-श्री फलई , पुत्र घासी प्रसाद- गाँव- थाना चौरा-चौरी , 8
साल की कठोर कारवास,

7-  बिरजा, पुत्र धवल चमार- गाँव - डुमरी, थाना चौरा, धारा 302
के तहत 1924 में आजीवन कारावास

8- श्री. मेढ़ाइ, पुत्र बुधई- थाना चौरा, गोरखपुर, आजीवन कारवास....

इसके अलावा 1942 के भारत छ़ोडो आंदोलन में मारने वाले और भाग लेने वाले दलितों की संख्या हजारो में हैं जिसमें से कुछ प्रमुख हैं -

1-मेंकुलाल ,पुत्र पन्ना लाल, जिला सीता पुर यह बहादुर दलित 1932 के मोतीबाग कांड में शहीद हुआ ।

2- शिवदान ,पुत्र दुबर - निवासी ग्राम - पहाड़ीपुर, मधुबन
आजमगढ़ , इन्होंने 1942 के 15 अगस्त को मधुबन थाना के प्रात: 10 बजे अंग्रेजो पर हल्ला बोला , अंग्रेजो की गोली से शहीद हुए ।

इसके अलावा दलित अमर शहिदों का भारत अभिलेख से प्राप्त
परिचय - मुंडा, मालदेव, सांठे, सिंहराम, सुखराम, सवराउ, आदि बिहार प्रान्त से ।

आंध्र प्रदेश से 100 से ऊपर दलित नेता व् कार्यकर्ता बंदी ।

बंगाल से 45 दलित नेता बलिदान हुए आजादी की लड़ाई में...

ऐसे ही देश के अन्य राज्यो में भी दलितों ने आज़ादी के संग्राम में
अपनी क़ुरबानी दी ।

अरे हाँ.... !!

सबसे महत्वपूर्ण नाम लेना तो भूल ही गया , जलियाँवाला बाग का
बदला लेने वाले और लन्दन जा के माइकल आडेवयार को गोलियों से भून देने वाले दलित "शहीद ऊधम सिंह...." जिसका नाम सुनते ही
अंग्रेजो में डर की लहर दौड़ जाती थी ।
ये सब दलित "स्वतंत्रता सेनानी" और हजारो ऐसे ही गुमनाम शहीद जो 'दलित' होने के नाते कभी भी मुख्य पंक्ति में नहीं आ पाये,
देश को नजर आये तो सिर्फ सवर्ण ।


क्या हमारे मूलनिवासी महापुरुष ब्राह्मणों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ़ चलाए जाने वाले आंदोलन में शामिल थे ?

१. "शुद्र, अतिशूद्रों(मूलनिवासी बहुजन) ने ब्राह्मणों के गुलामी से आझाद होने के लिए जल्दी कोशिश करनी चाहिए, जबतक अंग्रेज भारत में हैं, तबतक अवसर हैं."
- राष्ट्रपिता महात्मा जोतीराव फुले
(गुलामगिरी)

२. "मेरे जैसे राजा को आप ब्राह्मण लोग सोचने नहीं देते, अगर आप लोगों को आझादी मिल गई, तो मेरी प्रजा का क्या होगा?"
- लोकराजे राजश्री छत्रपती शाहू महाराज
(तिलक को जवाब देते हुए)

३. "गुलामी में जिनकी हम बातें सहन नहीं करते, आझादी में उनकी हमें लाते खानी होगी."
- बाबासाहब डा आंबेडकर
(बहिष्कृत भारत)

४. "यदि ईसी तरह से गाँधीजी का आंदोलन चलता रहा तो ईस देश में Democracy(लोकतंत्र) नहीं, बल्कि Brahmanocracy(ब्राह्मणतंत्र) आएगी."
- पेरियार रामासामी नायकर
(ईरोड़ प्रेस कॉन्फ्रेंस, काँग्रेस से इस्तीफा देने के बाद)

५. "यह आझादी झूठी हैं, देश की जनता भूखी हैं."
- अण्णाभाऊ साठे
(१६ अगस्त, १९४७ आझाद मैदान ६० हजार लोंगों का मोर्चा को संबोधित करते हुए)

ईन सभी महापुरुषों ने आझादी के आंदोलन ने शामिल होने से इनकार कर दिया.

अब सवाल हैं कि काँग्रेस द्वारा चलाया जानेवाला आझादी का आंदोलन क्या सभी  लोगों के आझादी का आंदोलन था?

इसका जवाब यह हैं कि हमारे महापुरुष यह जानते थे कि काँग्रेस द्वारा चलाया जानेवाला आझादी का आंदोलन सभी लोगों के आझादी का आंदोलन नहीं था, केवल मात्र ब्राह्मणों के अंग्रेज़ो से आझादी हासिल करने का आंदोलन था, हमें दोबारा गुलाम बनाने का आंदोलन था.


इसीलिए हमारे महापुरुष अंग्रेज़ो के खिलाफ चलाया जा रहे आझादी के आंदोलन ने शामिल नहीं हुए, बल्कि वे अपना अलग से आंदोलन चला रहे थे.


सरकारी नौकरियों में आरक्षण हमेशा के लिये है......
ना की सिर्फ १० वर्षो के लिए। ..
संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गयी है, उसके अनुसार सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अजा एवं अजजा वर्गों का आरक्षण स्थायी संवैधानिक व्यवस्था है।.

👉 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ, जिसे 67 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और इस दौरान विधिक शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है।

इसके बावजूद भी सभी दलों की सरकारों और सभी राजनेताओं द्वारा लगातार यह

👉 झूठ बेचा जाता रहा कि अजा एवं अजजा वर्गों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मिला आरक्षण शुरू में मात्र 10 वर्ष के लिये था,

जिसे हर दस वर्ष बाद बढाया जाता रहा है।

 इस झूठ को अजा एवं अजजा के राजनेताओं द्वारा भी जमकर प्रचारित किया गया। जिसके पीछे अजा एवं अजजा को डराकर उनके वोट हासिल करने की घृणित और निन्दनीय राजनीति मुख्य वजह रही है।
 लेकिन इसके कारण अनारक्षित वर्ग के युवाओं के दिलोदिमांग में अजा एवं अजजा वर्ग के युवाओं के प्रति नफरत की भावना पैदा होती रही। उनके दिमांग में बिठा दिया गया कि जो आरक्षण केवल 10 वर्ष के लिये था, वह हर दस वर्ष बाद वोट के कारण बढाया जाता रहा है और इस कारण अजा एवं अजजा के लोग सवर्णों के हक का खा रहे हैं। इस वजह से सवर्ण और आरक्षित वर्गों के बीच मित्रता के बजाय शत्रुता का माहौल पनता रहा।

मुझे इस विषय में इस कारण से लिखने को मजबूर होना पड़ा है, क्योंकि अजा एवं अजजा वर्गों को अभी से डराया जाना शुरू किया जा चुका है कि 2020 में सरकारी नौकरियों और सरकारी शिक्षण संस्थानों में मिला आरक्षण अगले दस वर्ष के लिये बढाया नहीं गया तो अजा एवं अजजा के युवाओं का भविष्य बर्बाद हो जाने वाला है।
जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है।

संविधान में आरक्षण की जो व्यवस्था की गयी है, उसके अनुसार सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में अजा एवं अजजा वर्गों का आरक्षण स्थायी संवैधानिक व्यवस्था है।

 👉जिसे न तो कभी बढ़ाया गया और न ही कभी बढ़ाये जाने की जरूरत है,

क्योंकि सरकारी नौकरी एवं सरकारी शिक्षण संस्थानों में मिला हुआ

👉आरक्षण अजा एवं अजजा वर्गों को

👉मूल अधिकार

के रूप में प्रदान किया गया है।

मूल अधिकार संविधान के स्थायी एवं अभिन्न अंग होते हैं, न कि कुछ समय के लिये।

इस विषय से अनभिज्ञ पाठकों की जानकारी हेतु स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि

👉भारतीय संविधान के भाग-3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक मूल अधिकार वर्णित हैं।

मूल अधिकार संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा होते हैं, जिन्हें किसी भी संविधान की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है, जिनके बिना संविधान खड़ा नहीं रह सकता है।

इन्हीं मूल अधिकारों में
👉अनुच्छेद 15 (4) में

 सरकारी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये अजा एवं अजजा वर्गों के विद्यार्थियों के लिये आरक्षण की स्थायी व्यवस्था की गयी है और

👉 अनुच्छेद 16 (4) (4-क) एवं (4-ख)

में सरकारी नौकरियों में नियुक्ति एवं

 पदोन्नति के आरक्षण

की स्थायी व्यवस्था की गयी है,

 जिसे न तो कभी बढ़ाया गया और न ही 2020 में यह समाप्त होने वाला है।

यह महत्वपूर्ण तथ्य बताना भी जरूरी है कि संविधान में मूल अधिकार के रूप में जो प्रावधान किये गये हैं, उसके पीछे संविधान निर्माताओं की देश के नागरिकों में समानता की व्यवस्था स्थापित करना मूल मकसद था, जबकि इसके विपरीत लोगों में लगातार यह भ्रम फैलाया जाता रहा है कि आरक्षण लोगों के बीच असमानता का असली कारण है।

👉  सुप्रीम कोर्ट का साफ शब्दों में कहना है कि संविधान की मूल भावना यही है कि देश के सभी लोगों को कानून के समक्ष समान समझा जाये और सभी को कानून का समान संरक्षण प्रदान किया जाये, लेकिन समानता का अर्थ आँख बन्द करके सभी के साथ समान व्यवहार करना नहीं है, बल्कि समानता का मतलब है- एक समान लोगों के साथ एक जैसा व्यवहार। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये संविधान में वंचित वर्गों को वर्गीकृत करके उनके साथ एक समान व्यवहार किये जाने की पुख्ता व्यवस्था की गयी है। जिसके लिये समाज के वंचित लोगों को अजा, अजजा एवं अपिवर्ग के रूप में वर्गीकृत करके, उनके साथ समानता का व्यवहार किया जाना संविधान की भावना के अनुकूल एवं संविधान सम्मत है। इसी में सामाजिक न्याय की मूल भावना निहित है। आरक्षण को कुछ दुराग्रही लोग समानता के अधिकार का हनन बतलाकर समाज के मध्य अकारण ही वैमनस्यता का वातावरण निर्मित करते रहते हैं। वास्तव में ऐसे लोगों की सही जगह सभ्य समाज नहीं, बल्कि जेल की काल कोठरी और मानसिक चिकित्सालय हैं।
अब सवाल उठता है कि यदि अजा एवं अजजा के लिये सरकारी सेवाओं और सरकारी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की स्थायी व्यवस्था है तो

👉संसद द्वारा हर 10 वर्ष बाद जो आरक्षण बढ़ाया जाता रहा है, वह क्या है?
इस सवाल के उत्तर में ही देश के राजनेताओं एवं राजनीति का कुरूप चेहरा छुपा हुआ है।
संविधान के

👉 अनुच्छेद 334

में यह व्यवस्था की गयी थी कि लोक सभा और विधानसभाओं में अजा एवं अजजा के प्रतिनिधियों को मिला आरक्षण 10 वर्ष बाद समाप्त हो जायेगा। इसलिये इसी आरक्षण को हर दस वर्ष बाद बढाया जाता रहा है,

जिसका अजा एवं अजजा के लिये सरकारी सेवाओं और सरकारी शिक्षण संस्थाओं में प्रदान किये गये आरक्षण से कोई दूर का भी वास्ता नहीं है। अजा एवं अजजा के कथित जनप्रतिनिधि इसी आरक्षण को बढाने को अजा एवं अजजा के नौकरियों और शिक्षण संस्थानों के आरक्षण से जोड़कर अपने वर्गों के लोगों का मूर्ख बनाते रहे हैं और इसी वजह से अनारक्षित वर्ग के लोगों में अजा एवं अजजा वर्ग के लोगों के प्रति हर दस वर्ष बाद नफरत का उफान देखा जाता रहा है। लेकिन इस सच को राजनेता उजागर नहीं करते।

हाँ, ये बात अलग है कि करीब-करीब हर विभाग, संस्थान, उपक्रम आदि में कई वर्षों से निजीकरण की प्रक्रिया को अंजाम देकर अजा एवं अजजा के आरक्षण को रोकने की सफल कोशिश की जा रही है ।

👉 अतः जरूरत है कि हम सभी इस जानकारी को अपने सभी बहुजन समाज के लोगो तक पहुंचाने की कोशिश करे। और इस पर आवाज उठाये ताकि ये गूंगी बहरी मनुवादियो की सरकार हमें फिर से उसी अंधकार की खाई में ना डाल दे.



*किताबों को खंगालने से हमें यह पता चला*
कि ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय‘ (BHU) के संस्थापक *पंडित मदनमोहन मालवीय जी* नें 14 फ़रवरी 1931 को Lord Irwin के सामने *भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव* की फांसी रोकने के लिए Mercy Petition दायर की थी ताकि उन्हें फांसी न दी जाये और कुछ सजा भी कम की जाएl Lord Irwin ने तब मालवीय जी से कहा कि आप कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष है इसलिए आपको इस Petition के साथ नेहरु, गाँधी और कांग्रेस के कम से कम 20 अन्य सदस्यों के पत्र भी लाने होंगेl

जब मालवीय जी ने भगत सिंह की फांसी रुकवाने के बारे में नेहरु और गाँधी से बात की तो उन्होंने इस बात पर चुप्पी साध ली और अपनी सहमति नहीं दीl इसके अतिरिक्त गाँधी और नेहरु की असहमति के कारण ही कांग्रेस के अन्य नेताओं ने भी अपनी सहमति नहीं दीl

*Retire होने के बाद Lord Irwin ने स्वयं London में कहा था कि "यदि नेहरु और गाँधी एक बार भी भगत सिंह की फांसी रुकवाने की अपील करते तो हम निश्चित ही उनकी फांसी रद्द कर देते, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा महसूस हुआ कि गाँधी और नेहरु को इस बात की हमसे भी ज्यादा जल्दी थी कि भगत सिंह को फांसी दी जाए”*

Prof. Kapil Kumar की किताब के अनुसार ”गाँधी और Lord Irwin के बीच जब समझौता हुआ उस समय इरविन इतना आश्चर्य में था कि गाँधी और नेहरु में से किसी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को छोड़ने के बारे में चर्चा तक नहीं कीl”

 *Lord Irwin ने अपने दोस्तों से कहा कि ‘हम यह मानकर चल रहे थे कि गाँधी और नेहरु भगत सिंह की रिहाई के लिए अड़ जायेंगे और हम उनकी यह बात मान लेंगेl*

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी लगाने की इतनी जल्दी तो अंग्रेजों को भी नही थी जितनी कि गाँधी और नेहरु को थी क्योंकि *भगत सिंह तेजी से भारत के लोगों के बीच लोकप्रिय हो रहे थे जो कि गाँधी और नेहरु को बिलकुल रास नहीं आ रहा था*l यही कारण था कि वो चाहते थे कि जल्द से जल्द भगत सिंह को फांसी दे दी जाये, यह बात स्वयं इरविन ने कही हैl

इसके अतिरिक्त लाहौर जेल के जेलर ने स्वयं गाँधी को पत्र लिखकर पूछा था कि ‘इन लड़कों को फांसी देने से देश का माहौल तो नहीं बिगड़ेगा?‘ *तब गाँधी ने उस पत्र का लिखित जवाब दिया था कि ‘आप अपना काम करें कुछ नहीं होगाl’*


*इस सब के बाद भी यादि कोई कांग्रेस को देशभक्त कहे तो निश्चित ही हमें उसपर गुस्सा भी आएगा और उसकी बुद्धिमत्ता पर रहम भी*

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