Thursday, 7 September 2017

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्त्री विरोधी भी

*राष्ट्र सेविका समिति के ज़रिये स्त्रियों को आज्ञाकारी आधुनिक दासियों में बदलने की आरएसएस की कोशिशें*
✍ कुलदीप
आनलाईन लिंक - http://www.mazdoorbigul.net/archives/11290
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‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ घोर दलित विरोधी, मज़दूर विरोधी, कम्युनिस्ट विरोधी, तर्कशीलता विरोधी, मुसलमानों और ईसाइयों आदि विरोधी संगठन तो है ही, बल्कि यह संगठन घोर स्त्री विरोधी भी है, जो औरत को मर्द की आज्ञाकारी और बच्चों की देखभाल करने वाली किसी दासी से अधिक कुछ नहीं समझता और हिन्दु उच्च जाति के मर्दवादी अहं को पोषित करता है। इस कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सांगठनिक ढाँचे में इसके पूरे इतिहास के दौरान किसी पद पर तो दूर की बात, बल्कि संगठन में भी कोई स्त्री नहीं रही (दलित भी संघ में कोई पद नहीं हासिल कर सकते)। संघ सैद्धान्तिक तौर पर औरत-मर्द के बीच की ग़ैर-बराबरी, जिसमें कि मर्द का औरत पर प्रभुत्व हो, को मानता है और अपने व्यवहार में भी इसे लागू करता है। इस कारण संघ ने 1936 में औरतों का एक भिन्न संगठन ‘राष्ट्र सेविका समिति’ बनाया था। इसकी स्थापना के समय, जिस स्त्री लक्ष्मीबाई केलकर, ने यह संगठन संघ के आदेश पर स्थापित किया था, उसने एक बार हेडगेवार से सवाल पूछा था कि आरएसएस में ही औरतों और मर्दों को इकट्ठा शामिल क्यों नहीं किया जा सकता? लेकिन हेडगवार इस विचार के सख्त खि़लाफ़ थे और प्राचीन भारतीय संस्कृति और वेदों की दुहाई देकर केलकर को सहमत करवा लिया था।

*कहने को यह ‘राष्ट्र सेविका समिति’ है, लेकिन इसे कण्ट्रोल आरएसएस करता है। आरएसएस के ज़्यादातर मर्द अपनी औरतों को इस समिति में भेजते हैं, ताकि औरतों को “संस्कार” सिखाये जा सकें। संस्कार सिखाये जाने से संघ का मतलब औरतों को पति की जी-हज़ूरी, बच्चे और घर की देखभाल आदि संस्कारों की शिक्षा से है। इसके बिना यह समिति औरतों को कोई भी अधिकार देने के हक़ में नहीं है, क्योंकि संघ को यह स्वीकार नहीं।*

राष्ट्र सेविका समिति के पर्दे के पीछे छुपे हुए संघ के औरत विरोधी विचारों को अक्टूबर 2016 में हुए राष्ट्रीय सेविका समिति के एक ट्रेनिंग कैम्प (ऐसे कैम्पों में भी वही संस्कार सिखाये जाते हैं) के कुछ उदाहरणों से देखा जा सकता है। दिल्ली में हुए इस कैम्प में मुख्य मेहमान के रूप में मोहन भागवत आये थे। उनके एक घण्टे के भाषण में आरएसएस की औरत सम्बन्धी पूरी सोच देखी जा सकती है। *भागवत के भाषण में समाज में स्त्री की बुरी हालत और उसकी समस्याओं, उस पर होते घरेलू दमन, बलात्कार, छेड़-छाड़ आदि से सम्बन्धित या इनके हल सम्बन्धी कोई बात नहीं आयी। वैसे भागवत अगर हल की बात करते भी तो अपनी वही पुरानी बात दोहराते कि ”औरतें लक्ष्मण रेखा पार करेंगी तो बलात्कार तो होगा ही”। उनका कहना था कि जब तक भारत की मातृ-शक्ति (स्त्री शक्ति नहीं कहता, क्योंकि इनके लिए औरत बस माँ और पत्नी आदि रूपों में एक दासी है) सक्रिय होकर आगे नहीं आती तब तक भारत अपनी ताक़त और शुद्ध गौरव द्वारा विश्व के दिशा-निर्देशन का काम नहीं कर सकता। यहाँ आगे आने और सक्रि‍य होने से भागवत का मतलब एक संस्कारी औरत बनकर घर, बाल-बच्चे और पति की देख-रेख के लिए आगे आने के सिवा और कुछ नहीं है।* आगे वह औरतों को आदेश के लहजे में कहते हैं कि औरतों की मुख्य और केन्द्रीय भूमिका बच्चों को संस्कार देना है, जिससे समाज और राष्ट्र को ताक़त मिलेगी और हमारी कुटुम्ब व्यवस्था विश्व का ध्यान खींचेगी। यह था इस ट्रेनिंग का केन्द्रीय अर्थ।

नवम्बर 2016 में समिति की जनरल सेक्रेटरी सीता आनन्दनम ने औरतों की विभिन्न शाखाएँ होने के बारे में कहा था – ”हमारी संस्कृति औरत-मर्द की इकट्ठी शाखाओं की आज्ञा नहीं देती, इस कारण हमारी अलग शाखाएँ हैं।” इस सवाल पर कि हिन्दु औरतों को जायदाद में हिस्सा क्यों नहीं मिलता भले ही देश की प्रत्येक औरत का यह महत्वपूर्ण अधिकार काग़ज़ों में दिया हुआ है, उन्होंने कहा – हमारी रीतियों और औरतों में एक सन्तुलन होना चाहिए जो शास्त्रों के अनुसार हो। इससे परिवार टूट जायेंगे और भाई बहनों के विरुद्ध हो जायेंगे। यही नहीं बल्कि उन्होंने यह तक कह दिया कि ”विवाहित सम्बन्ध में रेप नाम की कोई चीज़ नहीं है। विवाह एक पवित्र रिश्ता है। सहअस्तित्व ज़रूर सुख की ओर ले जायेगा। अगर हम सुख के इस संकल्प को समझने के योग्य हो गये तो हर चीज़ सीधी हो जायेगी।” (इण्डियन एक्सप्रेस, 11 नवम्बर 2016) ऐसा लगता था, जैसे सीता आनन्दनम के मुँह से गोलवलकर बोल रहे हों। असल में राष्ट्र सेविका समिति आज भी गोलवलकर की किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ के उन विचारों पर कायम हैं – ”औरतें पूरी तरह माएँ हैं और उन्हें बच्चों के पीछे-पीछे रहना चाहिए।” यानी संघ औरत को इंसान मानने के लिए तैयार नहीं, जिसकी अपनी भी कुछ इच्छाएँ होती हैं। वे भी अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हैं, अपनी इच्छा से हँसना और खेलना चाहती हैं। वे भी सपनों के पँख लगाकर जीवन के आकाश में आज़ादी से उड़ना चाहती हैं। लेकिन संघ उनके पँख काटकर उनको पिंजरे में बन्द कर देना चाहता है।

इन फासिस्टों का असली गुरु हिटलर भी यही कहता था कि जर्मन औरतों का एक ही काम है, जर्मन फौज के लिए श्रेष्ठ सैनिकों की माँएँ बनना।


मज़दूर बिगुल,अगस्त 2017 अंक मे प्रकाशित

http://www.mazdoorbigul.net/archives/10262

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