Wednesday, 27 September 2017

मुख्यमंत्री (पू.) का सुसाइड नोट



मुख्यमंत्री (पू.) का सुसाइड नोट : उपराष्ट्रपति ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया- क्यों?

माननीय उपराष्ट्रपति जी ने अपने संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य का पालन नहीं किया. क्यों नहीं किया, ये सवाल हम उपराष्ट्रपति जी से विनम्रता से पूछना चाहते हैं. क्या हम उपराष्ट्रपति जी से ये पूछ सकते हैं कि उनके कर्तव्य पालन न करने के पीछे कहीं ये कारण तो नहीं है कि वे मुसलमान हैं और उन्हें लगा हो कि छद्म हिन्दूवादी उनके पीछे पागलों की तरह पड़ जाएंगे. या फिर ये कि जो पत्र उन्हें दिया गया है, उस पत्र में देश के वित्त मंत्री रहे हुए व्यक्ति का नाम है, जो इस समय उनसे ऊंचे पद पर आसीन है. या फिर ये कि उसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का नाम है और आने वाले संभावित मुख्य न्यायाधीश का नाम है. या फिर ये कि उनके सभापतित्व में चलने वाली राज्यसभा के कुछ भूतपूर्व सदस्यों के नाम हैं और कुछ वर्तमान सदस्यों के भी नाम हैं.
उपराष्ट्रपति जी के कर्तव्य पालन में खरा न उतरने का परिणाम भविष्य में शायद ये निकले कि कभी कोई राष्ट्रपति, कभी कोई प्रधानमंत्री, कभी कोई मुख्य न्यायाधीश या कभी कोई उपराष्ट्रपति अगर आत्महत्या करे और मृत्यु से पहले अपना आखिरी बयान छोड़ कर जाए, तो उसके ऊपर भी कोई कार्रवाई नहीं होगी. क्योंकि ईश्वर न करे, लेकिन व्यवस्था मिलकर उनके मृत्यु पूर्व बयान को दबा देगी. एक फिल्म अभिनेत्री जिया खान आत्महत्या करती है, पूरा सिस्टम नामजद लोगों के पीछे ईमानदारी से पड़ जाता है. लेकिन इस देश में पच्चीस साल तक विधानसभा का सदस्य रहने वाला व्यक्ति, जो वित्त मंत्री रहा और फिर बाद में मुख्यमंत्री बना, उसने मुख्यमंत्री निवास में आत्महत्या कर ली, आत्महत्या से पूर्व 60 पृष्ठ का खत लिखा, एक दस्तावेज लिखा, जिसे उसने ‘मेरे विचार’ का शीर्षक दिया, लेकिन उसकी जांच नहीं हुई. सारे कागज देखने पर पुलिस की रिपोर्ट में ये साफ संकेत है कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री की आत्महत्या के पीछे के कारण उनके द्वारा छोड़े गए दस्तावेज में मौजूद हैं. लेकिन खुद पुलिस ने उसकी कोई जांच नहीं की. ये कैसा कमाल है कि राज्य सरकार ने केन्द्र को सिफारिश भेजी कि वो जैसी जांच चाहे वैसी जांच करवा ले, लेकिन केन्द्र ने सीबीआई की जांच का आदेश अबतक नहीं दिया है. देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मृत मुख्यमंत्री की विधवा मिलीं. उन्होंने कहा कि चार-पांच दिन के बाद मैं इसका अध्ययन करूंगा. लेकिन मार्च के बाद से अब तक उनके वो चार-पांच दिन पूरे नहीं हुए. मृत मुख्यमंत्री की विधवा प्रधानमंत्री से मिलने का आज तक समय मांग रही हैं, लेकिन प्रधानमंत्री के पास उनसे मिलने का समय नहीं है.
मैं अरुणाचल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल की बात कर रहा हूं. पुल ने मुख्यमंत्री आवास में आत्महत्या की. उन्होंने 60 पृष्ठ का मौत पूर्व दस्तावेज लिखा. उस दस्तावेज में उन्होंने हर पृष्ठ पर अपने दस्तखत किए. फुट नोट पर कुछ लिखा और मरने से पहले उसके सारे पन्ने आसपास फैला दिए, ताकि वो अनदेखा न रह जाए. उन्होंने मृत्यु पूर्व बयान में ये आशा व्यक्त की कि इस पत्र में भ्रष्टाचार की जो कहानी लिखी है, उसके ऊपर जनता ध्यान देगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाएगी. भ्रष्टाचार की उस कहानी में उनकी पार्टी के राज्यसभा के सदस्य, बड़े वकील और सुप्रीम कोर्ट के जजों के प्रतिनिधि शामिल हैं. उसमें इसका संपूर्ण विवरण शामिल है कि राज्य में जो पैसा आता है, वो पैसा कैसे जनता के पास नहीं पहुंचता और उस पैसे की कैसे लूट हुई है. लेकिन कलिखो पुल को क्या मालूम था कि उन्हीं के साथी, उन्हीं की बिरादरी के राजनीतिज्ञ उनके इस मृत्यु पूर्व बयान को उस जगह पहुंचा देंगे, जहां से इसकी कहीं झलक भी नहीं आ पाएगी. उन्हें क्या पता था कि इस देश का मीडिया इस तरह के सवालों पर ध्यान नहीं देगा. श्री पुल को शायद ये भी नहीं पता था कि जिस राज्य में भारतीय जनता पार्टी का कोई नामलेवा नहीं था और जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने में उन्होंने जितनी मेहनत की, उसी सरकार और केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री उनकी मौत पर आंसू तो नहीं ही गिराएंगे, बल्कि उनकी पत्नी को मिलने का समय भी नहीं देंगे.
उनकी पत्नी ने उपराष्ट्रपति महोदय को अपना विस्तृत विवरण दिया, क्योंकि वे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास नहीं जा सकतीं. कलिखो पुल के मृत्यु पूर्व बयान में तत्कालीन वित्त मंत्री श्री प्रणब मुखर्जी जी का नाम है. उनके कोलकाता के घर का पता है, जहां उन्होंने उन्हें पैसे दिए. श्री प्रणब मुखर्जी आज देश के राष्ट्रपति हैं, उनकी पत्नी उनके पास नहीं जा सकती थीं, इसलिए वे उपराष्ट्रपति महोदय के पास गईं.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का नाम कलिखो पुलो ने मृत्यु पूर्व वक्तव्य में लिखा है. सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को अप्राकृतिक मौत देने की तैयारी कर ली थी, जो उनकी पत्नी ने खत के रूप में सुप्रीम कोर्ट में जमा कराया था. उन्होंने ये अनुमति मांगी थी कि जिन लोगों के नाम पुल के मृत्यु पूर्व बयान में हैं, उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई जाए. लेकिन जब उन्हें पता चला कि उस पत्र की हत्या हो जाएगी, क्योंकि उस पत्र को ज्यूडिशियल याचिका में बदल दिया गया था. जिस तरह से याचिका की सुनवाई से एक दिन पहले शाम को रजिस्ट्रार के ऑफिस से उनके पास दिल्ली पहुंचने की सूचना फोन से दी गई, उससे उन्हें लगा कि उनको उस याचिका को वापस ले लेना चाहिए. इसके बाद वे सबसे वरिष्ठ उपलब्ध अधिकारी उपराष्ट्रपति के पास गईं और उन्हें सारी बातें बताते हुए, सारे कागज लगाकर ये कहा कि वे इसकी जांच कराएं. लेकिन उपराष्ट्रपति महोदय ने पता नहीं किन कारणों से, शायद ये वही कारण होंगे जिनका मैंने शुरू में जिक्र किया, उस फाइल को किसी के पास नहीं भेजा, लेकिन ये हमारा अंदाजा है. हम चाहते हैं कि उपराष्ट्रपति महोदय देश को ये बताएं कि उनके राज्यसभा के सदस्य जिनका नाम श्री पुल के मृत्युपूर्व नोट में है, क्या उन्होंने श्री पुल के उस नोट का खंडन किया है? क्या राज्यसभा भ्रष्टाचारी नेताओं को संरक्षण देने का अड्‌डा बन गई है? सुप्रीम कोर्ट की बेंच कहती है कि अगर सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ कोई शिकायत है, तो राष्ट्रपति से अनुमति लेकर इसकी जांच कराई जा सकती है. लेकिन जब स्वयं राष्ट्रपति के पद पर आसीन व्यक्ति का नाम राष्ट्रपति के नाते नहीं, लेकिन किसी समय देश के वित्त मंत्री रहते हुए अगर आया हो, तो फिर उपराष्ट्रपति के अलावा इस पत्र को देने की कोई जगह बचती नहीं है. उपराष्ट्रपति जी ने संविधान और नैतिकता के सवाल को दरकिनार कर इस फाइल का क्या किया, उस पत्र का क्या किया, किसी को कुछ नहीं पता? क्या उपराष्ट्रपति जी संवैधानिक प्रमुख होने के नाते और राज्य सभा के सभापति होने के नाते देश को इसका कारण बताएंगे? सुप्रीम कोर्ट के फैसले, सुप्रीम कोर्ट की गतिविधियां, कुछ लोगों की वजह से सवालों के घेरे में आ गई हैं. खुद राज्यसभा सवालों के घेरे में आ गई है. क्या उपराष्ट्रपति जी इसकी जांच के लिए राज्यसभा की कोई समिति बनाएंगे या अपने संवैधानिक अधिकार के तहत एक एसआईटी गठित करने का आदेश गृहमंत्रालय को देंगे? ये सवाल है और बहुत बड़ा सवाल है.
आखिर सवालों के दायरे से बाहर कौन है? क्या स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. जब 2014 में उन्होंने सरकार बनाई, तो भारत को दिए गए उनके सबसे पहले वचनों में एक वचन था कि वे भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस की पॉलिसी पर चलेंगे. उन्होंने शायद इसीलिए अपने मंत्रिमंडल के राजनीतिक सदस्यों की हैसियत कम की और नौकरशाहों की हैसियत ज्यादा बढ़ाई. यद्यपि भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला पहले का या उनके समय का, कानून के दायरे में अपने अंतिम परिणाम पर नहीं पहुंचा. लेकिन यहीं सवाल खड़ा होता है कि उनकी मदद करने वाले व्यक्ति, अरुणाचल के मुख्यमंत्री, जिन्होंने अरुणाचल में भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी, उसकी सरकार बनवाई, कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने मरते समय 60 पृष्ठ का एक लंबा नोट लिखा, जिसमें ये सब विस्तार से लिखा कि कहां-कहां भ्रष्टाचार होता है, कौन-कौन भ्रष्टाचार करता है. ये भी लिखा कि उनसे किसने पैसे मांगे, क्यों पैसे मांगे और सरकार की किन योजनाओं के लिए पैसे मांगे. वो खत, वो उनका मृत्यु स्वीकारोक्ति बयान, प्रधानमंत्री के पास जरूर पहुंचा होगा. प्रधानमंत्री ने क्यों उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया. भ्रष्टाचार की परत-दर-परत खोलने वाला एक दस्तावेज, उसी राजनीतिक बिरादरी के मुख्यमंत्री ने लिखा था, जिस राजनीतिक बिरादरी से प्रधानमंत्री हैं. उस दस्तावेज का नोटिस प्रधानमंत्री जी ने क्यों नहीं लिया. वो भारतीय जनता पार्टी के भ्रष्टाचार की कहानी नहीं कह रहा है, वो तो कांग्रेस के भ्रष्टाचार की कहानी कह रहा है. उसमें भारतीय जनता पार्टी से जुड़े किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं है. उसमें कांग्रेस से जुड़े सभी लोगों के नाम हैं. वो चाहे आज कितने भी बड़े पदों पर हों. राज्यसभा के जितने भी सदस्यों के नाम उसमें आए हैं, वो सब कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए हैं. तब आखिर प्रधानमंत्री मोदी ने उस मृत्यु पूर्व बयान का संज्ञान क्यों नहीं लिया. क्यों प्रधानमंत्री ने उस बयान के आधार पर जांच नहीं बैठाई. क्यों प्रधानमंत्री ने सुप्रीम कोर्ट और राज्यसभा की ऐसी छवि बनने की इजाजत दे दी, मानो संपूर्ण सुप्रीम कोर्ट और संपूर्ण राज्यसभा भ्रष्टाचार के कीचड़ में नाक तक सनी है. अगर वे जांच करा देते, अगर वे एसआईटी बनवा देते, अगर वे सीबीआई को जांच सौंप देते, जिसमें निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट और राज्यसभा के सदस्य बरी हो जाते, तो कम से कम एक लाछंन धुल जाता. लेकिन प्रधानमंत्री ने ऐसा नहीं किया. मैं आज भी मानता हूं कि प्रधानमंत्री साफ छवि के व्यक्तिगत रूप से ईमानदार व्यक्ति हैं. लेकिन उन्होंने क्या सोच कर स्वर्गीय पुल द्वारा लिखे गए उस 60 पृष्ठ के नोट को अनदेखा कर दिया और अनदेखा करने दिया.
मैं पूछता चाहता हूं, प्रधानमंत्री जी क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? मैं सर्वोच्च न्यायालय से भी पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? मैं उपराष्ट्रपति जी से पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? मैं राज्यसभा से भी पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा सवाल उठाना गलत है? अगर आपको लगता है कि हमारा सवाल उठाना गलत है, तो क्या हम आपसे इन सवालों को उठाने के बदले सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगें. लेकिन मुझे लगता है कि इस भ्रष्ट व्यवस्था के जंगल में कुछ ऐसे लोग जरूर हैं, जो अन्याय, भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना हाथ खड़ा करेंगे. मैं इसीलिए आखिर में संवैधानिक रूप से उपराष्ट्रपति जी से सवाल करता हूं और ये अपेक्षा भी जाहिर करता हूं कि आप जा रहे हैं, जाते-जाते अपने संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य का पालन करेंगे. आपको श्रीमती पुल द्वारा भेजे गए 60 पेज के नोट के साथ उनकी ये अपेक्षा कि इसकी जांच एसआईटी के द्वारा या सीबीआई के द्वारा कराई जाए, आप इसपर ध्यान देंगे और अपने ऊपर लगने वाला लांछन स्वतः समाप्त करेंगे. मैं इतना और बता दूं कि पुलिस की रिपोर्ट में ये माना गया है कि श्री पुल की मृत्यु के कारण, उनके द्वारा लिखे 60 पृष्ठ के नोट में हैं. पुलिस ने जांच नहीं की, किसी संस्था ने जांच नहीं की, अरुणाचल सरकार की जांच की विनती को गृह मंत्रालय ने दबा दिया, तब प्रधानमंत्री जी, हम कैसे मानें कि आपमें भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टॉलरेंस है. या फिर राजनैतिक सुविधा के लिहाज से, कुछ लोगों को धमकाने के लिए, चाहे वो सुप्रीम कोर्ट के जज हों, या कांग्रेस पार्टी हो, आपने इस जांच को फिलहाल निलंबित कर रखा है. जब इन दोनों, एक राजनीतिक पार्टी या सुप्रीम कोर्ट के जजों को दबाना होगा, तब आप इस जांच की कार्रवाई शुरू करेंगे. ईश्वर करे, ये सच न हो. क्योंकि प्रधानमंत्री को किसी भी प्रकार के अतिरिक्त दबाव पैदा करने की कम से कम भारत में आवश्यकता नहीं है. भ्रष्टाचार की परत-दर-परत खोलने वाला स्वर्गीय पुल का ये पत्र पूरा का पूरा हम इस अंक में छाप रहे हैं. सरकार से, राज्यसभा से और उपराष्ट्रपति जी से हम ये अपेक्षा करते हैं कि इस पत्र की सच्चाई और इसमें लिखी हुई बातों को जांच कर, दूध का दूध और पानी का पानी करने की जिम्मेवारी उनके ऊपर है. इस देश में लोकतंत्र के प्रति और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति इज्जत बनी रहे. इसके लिए आवश्यक है कि उपराष्ट्रपति जी अपने कर्तव्य का पालन करें. वरना वे लोकतंत्र को खत्म करने के षड्‌यंत्र के हिस्सेदार माने जाएंगे.
देश की जनता से हम पूछना चाहते हैं कि जब कोई व्यक्ति आत्महत्या करता है, तो पुलिस उसकी जांच करती है और अगर उसे ऐसे व्यक्तियों के नाम मिलते हैं, जो आत्महत्या के लिए उकसाने का काम करते हैं, तो पुलिस उन्हें गिरफ्तार करती है और अदालत उन्हें सजा देती है. इस केस में ऐसा क्यों नहीं किया गया, कारण तलाशें. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का नाम और उनके बाद मुख्य न्यायाधीश बनने वाले व्यक्ति का नाम श्री पुल ने अपने पत्र में लिखा है. उनके ऊपर लगा आरोप यदि सही नहीं है, गलत है, तो इसकी जांच कौन कराएगा? पुलिस ने जांच नहीं की, प्रधानमंत्री ने अनदेखा कर दिया, उपराष्ट्रपति ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया, राष्ट्रपति स्वयं इसमें शामिल बताए गए हैं. आखिर किसी ने खंडन क्यों नहीं किया? मरा हुआ व्यक्ति साधारण व्यक्ति नहीं है, आम आदमी नहीं है. वो व्यक्ति जिसने आत्महत्या की, जिसने ये आरोप लगाए और मरने से पहले लगाए, उसके मृत्यु पूर्व दस्तावेज को क्यों अनदेखा कर दिया गया? ये माना जाता है कि 90 प्रतिशत वो बातें सही होती हैं, जो मरने वाला मरने से पहले लिखता है. ये सवाल, सवाल, सवाल, सवाल, सवाल… एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हैं. इसका जवाब आज नहीं तो कल, इस व्यवस्था को, सुप्रीम कोर्ट के जजों को, प्रधानमंत्री को और उपराष्ट्रपति को देना ही होगा.

एक सुसाइड नोट की हत्या की यात्रा
   17 फरवरी 2017 को कलिखो पुल की पत्नी दंगविम साई ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस खेहर को पत्र लिख कर मांग की कि कलिखो पुल के सुसाइड नोट में जिन न्यायाधीशों के नाम रिश्वत के आरोपों में दर्ज हैं, उनके विरुद्ध जांच कराई जाए.
    कलिखो पुल ने अपने सुसाइड नोट में आरोप लगाया था कि जुलाई, 2016 में उनकी सरकार को अपदस्त करने का आदेश देने वाली संविधान पीठ के जजों ने अनैतिक/अवांछित प्रभाव में आकर ये आदेश पारित किए है.
    सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने दंगविम साई के पत्र पर सुनवाई की और इसे क्रिमिनल रिट पिटीशन के रूप में दर्ज़ करने के आदेश दिए.
    सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार ने रिट पिटीशन दर्ज़ करते हुए इसे जस्टिस ए. के गोयल और जस्टिस यू.यू. ललित की बेंच में सुनवाई हेतु भेजा.
    कोर्ट के रजिस्ट्रार ने सुनवाई होने के 1 दिन पूर्व श्रीमती पुल (दंगविम साई) को उनके मोबाइल नंबर पर रिट पिटीशन दर्ज़ होने की आधिकारिक सूचना दी.
    मामले की सुनवाई के दौरान श्रीमती कलिखो पुल के वकील दुष्यंत दवे ने इस मामले की न्यायिक सुनवाई के बारे में कई सवाल खड़े किए.
    श्री दवे ने कोर्ट में खुलासा किया कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने हाल ही में उनसे मुलाक़ात की और कई सनसनीखेज जानकारियां दी. लेकिन उन सब का खुलासा कोर्ट में किया जाना उचित नहीं है.
    उन्होंने कहा कि याची ने सुसाइड नोट में न्यायाधीशों पर लगाए गए करप्शन के आरोपों की प्रशासनिक जांच की याचना की है न कि इसके न्यायिक परीक्षण की.
    उन्होंने श्रीमती पुल के पत्र को रिट पिटीशन में तब्दील करने को लेकर भी सवाल खड़े किए.
    श्री दवे ने ये भी टिप्पणी की कि इस रिट पिटीशन को जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित की बेंच में भेजा जाना भी संदेह पैदा करता है. उन्होंने बताया कि जस्टिस गोयल काफी जूनियर जज हैं तथा वे सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर के साथ पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में बतौर जज काम कर चुके हैं.
    दवे ने कहा कि कलिखो पुल के सुसाइड नोट में जस्टिस खेहर पर भी करप्शन के आरोप हैं और ये भी कहा गया है कि उन्होंने 36 करोड़ की हुई डील में अपने बेटे का इस्तेमाल किया.
    श्री दवे ने के. वीरास्वामी वर्सेज यूनियन ऑ़फ इंडिया केस का हवाला दिया तथा इसी आधार पर सुसाइड नोट में न्यायाधीशों पर लगे करप्शन के आरोपों की प्रशासनिक जांच करने की मांग की.
    के. वीरास्वामी मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तथा सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी. रामास्वामी के ससुर थे. वीरास्वामी पर आय के ज्ञात स्त्रोतों से अधिक सम्पति अर्जित करने के आरोप लगाए गए थे. इन आरोपों के खिलाफ उन्होंने मद्रास हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया.
    वे हाई कोर्ट के पहले चीफ जस्टिस थे, जिनके विरूद्ध महाभियोग चलने का आदेश दिया गया.
    वीरास्वामी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और अंततः वीरास्वामी को पदच्युत कर दिया गया.
    श्री दवे ने ये भी कहा कि इस मामले को सुनवाई हेतु कोर्ट नंबर 13 में भेजा जाना तथा इसकी सुनवाई का समय भोजनावकाश के दौरान 30 पीएम पर तय किया जाना भी संदेह पैदा करने वाला है, क्योंकि सुनवाई का ये अस्वाभाविक समय था.
    सुनवाई के दौरान जस्टिस यू. यू. ललित और ए. के. गोयल की बेंच ने कहा कि अगर श्री दवे या उनकी याचिकाकर्ता अभी पिटीशन को वापिस लेना चाहें, तो ले सकते हैं. लेकिन दुष्यंत दवे ने प्रशासनिक जांच को लेकर ज़ोर देना जारी रखा. बेंच द्वारा दवे की दलीलों पर जब विचार करने से इंकार कर दिया गया, तब ये मान कर कि पिटीशन खारिज हो जाने पर उनके लिए पैरवी के सभी रास्ते बंद हो जाएंगे, श्रीमती पुल की सहमति से श्री दवे ने याचिका वापस ले ली. श्रीमती पुल ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट में पैरवी के लिए हमने प्रशांत भूषण से सम्पर्क साधा था, लेकिन वे किसी अन्य केस में व्यस्त थे. इस बीच प्रशांत भूषण ने दुष्यंत दवे से कुछ बातचीत की और श्री दवे ने मेरिट के आधार पर ही इस मामले में पैरवी की. हमने ये याचिका भी प्रशांत भूषण की सलाह पर वापिस ली थी.
    मामले की सुनवाई करने के उपरांत बेंच ने रिट पिटीशन को ये कह कर खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका वापिस ले ली है.
    बेंच ने ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या अन्य जजों के विरुद्ध यदि गंभीर आरोप हैं, तो सरकार राष्ट्रपति से अनुमति लेकर वरिष्ठ जजों की बेंच बनाकर जांच करा सकती है.
    लेकिन बाद में इसपर राष्ट्रपति, केंद्र सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी ने चुप्पी साध ली और एक मुख्यमंत्री की ख़ुदकुशी रहस्य बनकर रह गई.

उपराष्ट्रपति को पत्र
28 फरवरी 2017 को श्रीमती दंगविम साई ने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को पत्र लिख कर मांग की कि एसआईटी (स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम) गठित कर श्री पुल के सुसाइड नोट में दर्ज़ जजों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की निष्पक्ष जांच कराई जाए.
    श्रीमती पुल ने कहा कि श्री पुल के सुसाइड नोट को मृत्यु पूर्व बयान के रूप में देखा जाना चाहिए. चूंकि सुसाइड नोट में लगाए गए आरोप गंभीर प्रकृति के हैं, इसमें सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान चीफ जस्टिस और एक दूसरे वरिष्ठ जज के नाम हैं, इसलिए इसकी जांच एक ऐसी एजेंसी से कराया जाना आवश्यक है, जो सरकार के नियंत्रण से बाहर हो, जिससे न्यायपालिका के सम्मान और स्वतंत्रता की रक्षा हो सके. उन्होंने मिसाल के तौर पर वीरास्वामी बनाम भारत सरकार केस का उद्धरण भी पेश किया.
    उन्होंने ये भी तर्क दिया कि सामान्यतः सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत होने पर राष्ट्रपति के माध्यम से जांच कराने का प्रावधान है. लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एक वरिष्ठ जज तथा राष्ट्रपति महोदय का भी नाम है, इसलिए मैं उपराष्ट्रपति महोदय को पत्र लिख कर जांच कराने की मांग कर रही हूं.
    श्रीमती पुल ने उपराष्ट्रपति से ये आग्रह भी किया कि वे इस मामले की जांच के लिए एसआईटी गठित करने हेतु जस्टिस खेहर व जस्टिस दीपक मिश्रा के अतरिक्त किन्ही अन्य 3 या 5 वरिष्ठ जजों की एक बेंच बनाने हेतु निर्देशित करें, जिससे मामले की सही ढंग से जांच हो सके. अन्यथा उन राजनेताओं और जजों की निष्ठा और ईमानदारी पर संदेह के बादल छाए ही रहेंगे, जिनके नाम श्री पुल ने अपने सुसाइड नोट में लिखे हैं. श्रीमती पुल के इस पत्र पर भी उपराष्ट्रपति ने आज तक कोई कार्यवाही नहीं की.
गृह मंत्री को पत्र
श्रीमती पुल 03.2017 को देश के गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह से दिल्ली में मिलीं और उन्हें पत्र लिख कर एसआईटी के माध्यम से सारे मामले की जांच कराने की मांग की. उन्होंने आग्रह किया कि ये जांच सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में होना ज़रूरी है, क्योंकि दोनों जजों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे होने के कारण इसमें न्यायपालिका की गरिमा भी दाव पर लगी है. उन्होंने अपने और अपने परिवार के लिए केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी से सुरक्षा उपलब्ध कराए जाने की भी मांग की.
    श्रीमती दंगविम साई के साथ गृह मंत्री से मिलने वालों में उनका बेटा ओज़िंग-सो पुल तथा कालिखो पुल के सचिव रहे आर.एन. लोलूम शामिल थे. गृह मंत्री ने श्रीमती पुल को ये कह कर टरका दिया कि वे अभी 4-5 दिनों के लिए बाहर जा रहे हैं, लौट कर आने के बाद मामले का अध्ययन करेंगे. बावजूद इसके, गृह मंत्री ने आज तक इस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की.
    श्रीमती पुल ने बताया कि मार्च 2017 में ही अरुणाचल सरकार ने ये मामला गृह मंत्रालय को इस अनुशंसा के साथ भेज दिया था कि वे जांच के बारे में उचित फैसला लें, लेकिन गृह मंत्रालय ने इसे दबा दिया.
जुएल ओरांव को पत्र
श्रीमती पुल ने इसी तरह जनजाति मामलों के मंत्री जुएल ओरांव को 03.2017 को पत्र लिख कर न्याय दिलाने की मांग की. पत्र में उन्होंने ये भी कहा कि वे एक जनजातीय महिला हैं और सम्बंधित विभाग के मंत्री होने के नाते उनका ये दायित्व भी बनता है कि वे श्री कलिखो पुल की मृत्यु के कारणों तथा उनके सुसाइड नोट में लगाए गए आरोपों की जांच कराने में मदद करें. श्री ओरांव ने भी इस पर कार्यवाही नहीं की.
    03.2017 को ही श्रीमती पुल ने राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष को भी पत्र लिख कर इस मामले में हस्तक्षेप और सहायता करने की मांग की, लेकिन महिला आयोग ने भी चुप्पी साध ली.
    04.2017 को श्रीमती पुल ने सुप्रीम कोर्ट के तीनो वरिष्ठ जजों जस्टिस जे.चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस मदन बी लोकुर को पत्र लिख कर सुसाइड नोट में लगाए गए आरोपों के बारे में एफआईआर दर्ज़ कराने और जांच कराने की मांग की. उन्होंने तर्क दिया कि चूंकि श्री पुल के सुसाइड नोट में चीफ जस्टिस खेहर, वरिष्ठ जज दीपक मिश्रा और राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी का भी नाम है और इस कारण आप तीनो वरिष्ठ जज हीं इस बारे में निर्णय लेने में सक्षम हैं, इसलिए वे ये अपील कर रही हैं.
    पत्र के साथ उन्होंने सुसाइड नोट तथा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को लिखे गए पत्र की प्रतिलिपि भी संलग्न की. इन तीनो जजों ने भी आजतक कोई जवाब नहीं दिया.
    श्रीमती पुल इसी दौरान केंद्रीय गृह सचिव राजीव महर्षि से भी मिलीं और सारे प्रकरण की निष्पक्ष एजेंसी से जांच कराने की मांग की. श्री महर्षि ने कहा कि वे इस मामले में कानूनी राय ले रहे हैं, लेकिन कोई कार्यवाही अभी तक नहीं हुई.
    श्रीमती पुल ने अपनी फरियाद लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने की कई बार कोशिश की, लेकिन अ़फसोस की बात ये है कि पीएमओ द्वारा उन्हें आजतक मुलाक़ात का समय ही नहीं दिया गया. दिलचस्प ये है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ऐसा उपेक्षापूर्ण व्यवहार उस मुख्यमंत्री के परिजनों के साथ कर रहा है, जिसने भाजपा के सहयोग से ही अरुणाचल में सरकार बनाई थी.
    श्री कालिखो पुल की रहस्यमय मृत्यु और उनके द्वारा सुसाइड नोट में कई शीर्ष नेताओ और जजों के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कराए जाने की मांग को लेकर अरुणाचल प्रदेश में अभी भी पुल समर्थक धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन न तो राज्य सरकार और न ही केंद्र की भाजपा सरकार इसका संज्ञान ले रही है. ये तब है, जब केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू संसद में उसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते है.

मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा
• अरुणाचल के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने आत्महत्या के पहले खोल दी थी नेताओं और जजों की पोल
• सुप्रीम कोर्ट, राजनीतिक दलों और मीडिया ने दबा दिया कालिखो पुल का सनसनीखेज सुसाइड नोट
• सुसाइड नोट जैसा ठोस आखिरी सबूत पेश किए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने नहीं की सुनवाई
• पहली बार ‘चौथी दुनिया’ हूबहू छाप रहा मुख्यमंत्री कलिखो पुल का 60 पेज का सुसाइड नोट
मैंने एक बहुत ही गरीब और पिछड़े हुए घर में जन्म लिया. मैंने उम्र भर दुःख देखे हैं. दुःख सहा है और बहुत बार दुख पर विजय भी पाई है. लेकिन विधाता ने मेरे जन्म से ही हर एक कदम पर मेरी कठोर परीक्षा ली है. आम लोगों को मां-बाप से दुलार मिलता है, प्यार मिलता है, शिक्षा मिलती है, समझ मिलती है. वहीं मेरे जन्म के 13 महीने बाद ही मां का साया छीन गया और जब मैं छह साल का हुआ, तो पिता भी भगवान को प्यारे हो गए. मेरे अपने कोई नहीं हैं. मां पिता और परिवार के प्यार से मैं हमेशा वंचित रहा हूं.
खुद अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूं
मैं समझता हूं कि इस दुनिया में मैं अकेले ही आया हूं और अकेले ही जाऊंगा. मैं मानता हूं कि इस दुनिया में हर इंसान मां के पेट से नंगा ही आता है और नंगा ही जाता है (कोई भी यहां से कुछ भी लेकर नहीं जाता है). मतलब जन्म से हर कोई खाली हाथ ही आता है और एक दिन खाली हाथ ही चला जाता है. अगर हर इंसान इस बात को समझ ले तो कभी भी, कहीं भी, धर्म, जाति, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के नाम पर झगड़े नहीं होंगे और न ही धन-दौलत, जमीन, जायदाद, सत्ता, शक्ति और प्रतिष्ठा की लड़ाई होगी.
मैं जानता हूं कि जब इंसान जन्म लेता है तो वह नाम, जाति, धर्म, समाज, भाषा, क्षेत्र, धन-दौलत, जमीन-जायदाद कुछ भी अपने साथ नहीं लेकर आता है. लेकिन आज इंसान इन बातों को भूलता चला जा रहा है. वो इन चीजों के लिए मरने-मारने तक को तैयार हो जा रहा है. जबकि इस अटल सच को भूल जाता है कि मैं सिर्फ एक आत्मा हूं. मैंने जिंदगी को हमेशा से सच दिखाने वाले आईने की तरह देखा है.
मैं ये मानता हूं कि इस दुनिया में मेरा कुछ भी नहीं है. अपने शरीर के अलावा, हम जो भी चाहते हैं, घर में जो भी सामान है, रुपया-पैसा, धन-दौलत, गाड़ी-घोड़ा, जमीन-जायदाद, शक्ति-सत्ता और प्रतिष्ठा, जिनके ऊपर मैं-मैं-मैं और मेरा-मेरा-मेरा कह कर उसके लिए हम लड़ते हैं और हम मालिक बनते हैं, वह असल में मेरा है ही नहीं.
जो आज मेरा है, वह कल किसी और का था. परसों किसी और का हो जाएगा. परिवर्तन ही संसार का नियम है. लेकिन परिवर्तन को नियम के तहत और सही ढंग से होना चाहिए.
मैंने बचपन से ही जिंदगी से लड़ना सीख लिया था. फिर चाहे वह लड़ाई रोटी की हो या अपने हक की. बचपन में एक वक्त की रोटी के लिए मैं मीलों दूर रास्ता तय कर जंगल से लकड़ियां लाता था. गरीबी और लाचारी की मार झेलते हुए मैंने दिन में डेढ़ रुपए मजदूरी पर बढ़ई (लरीशिपींशी) का काम किया है, जिससे मैं 45 रुपए महीने कमाता था. आज भी बढ़ईगीरी का सामान मेरे पास रखा है.
मैं बचपन में नियमित स्कूल नहीं जा पाया. लेकिन अपने बढ़ईगीरी के काम के साथ-साथ मैंने वयस्क शिक्षा केंद्र (Aअर्वीश्रीं एर्वीलरींळेप उशपींीश, थरश्रश्रर) से पढ़ाई की. मेरी मेहनत और लगन देखकर स्कूल प्रशासन ने मेरी परीक्षा ली और मुझे सीधे कक्षा छह में दाखिला दे दिया गया. फिर मैंने जब दिन के स्कूल में दाखिला लिया, तब 6 से 8 कक्षा तक कैजुअल नौकरी भी की. दिन में पढ़ता और रात में चौकीदारी करता था, जिसमें सुबह पांच बजे राष्ट्रीय झंडा फहराता था और शाम को पांच बजे झंडा उतार लेता था. इसमें मुझे 212 रुपए महीने की आमदनी होती थी.
अपने जीवन में मैने सबसे पहले 400 रुपए में एक ओबीटी घर बनाने का ठेका लिया था. जिसके बाद अपने जिले और राज्य में बहुत सी सड़कें, सरकारी मकानों और पुलों का निर्माण किया. 11-12 कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते मेरे पास खुद की जिप्सी गाड़ी और चार ट्रक गाड़ी थी. जिसे मैं व्यापार के काम में लगाता था.
कॉलेज पहुंचने तक मेरा व्यापार काफी आगे बढ़ गया, मेरे पास गाड़ी-घोड़ा, नौकर-चाकर और खुद का एक छोटा सा पक्का मकान भी था, जिसमें 3 कमरे थे. आज 23 साल तक मंत्री पद पर रहते हुए भी मैंने उससे आगे एक भी कमरा नहीं बढ़ाया है. खूपा में एक छोटा सा घर है, जिसे मैंने 1990 में तीनसुकिया एसबीआई बैंक से पर्सनल लोन लेकर बनाया था. हेउलियांग में एक घर हैं, जिसे मैंने भारतीय स्टेट बैंक तेजू से लोन लेकर बनाया था.
विधायक बनने से पहले मेरे पास आरा मशीन और काष्ठकला की फैक्ट्री भी थी, जिससे मुझे हर साल 46 लाख रुपए की आमदनी होती थी. मैं अपने छात्र जीवन में ही करोड़पति बन गया था. इसपर मैंने कभी घमंड नहीं किया. भगवान गवाह है कि मैंने कभी धन-दौलत, घर-बंगला, गाड़ी-घोड़ा, नौकर-चाकर, सत्ता और प्रतिष्ठा को अपनी जागीर नहीं समझा और न ही इन चीजों पर कभी गर्व व घमंड किया है. मैंने हमेशा से ही इंसानियत की सुरक्षा और गरीबों की सेवा को अपना कर्म समझा है और अब तक उन्हीं के हित के लिए काम कर रहा हूं.
मैं बड़े फक्र से कह सकता हूं कि मैं खुद अपने पैरों पर खड़ा हुआ हूं. लेकिन मैंने कभी इस बात पर गुमान नहीं किया. मैंने अपने रुपयों से हमेशा गरीब, लाचार, अनाथ और जरूरतमंद लोगों की सहायता की है. आज भी मैं 96 गरीब लड़के-लड़कियों को पढ़ाने के साथ उनका सालाना खर्च भी उठाता हूं.
26 दिसम्बर 1994 को जब मैं राजनीति से जुड़ा, उसके अगले ही दिन मैंने अपने दो बिजनेस ट्रेडिंग लाइसेंस को डीसी कार्यालय में वापस कर समर्पण कर दिया. क्योंकि जब मैं राजनीति में आ गया, तो इसे व्यापार के साथ मिलाना नहीं चाहता था. मैं कभी भी राजनीति में नहीं आना चाहता था, लेकिन मुझे जनता ने जबरदस्ती राजनीति में उतारा है. लोग राजनीति में अपने स्वार्थ के लिए आते हैं, लेकिन अगर कोई इसे ईमानदारी से अपनाए तो इससे अच्छा, सेवा और भलाई का काम कोई हो ही नहीं सकता. क्योंकि एक नेता के कह देने से, एक फोन कर देने से, एक सिफारिश कर देने से या किसी सभा में प्रस्ताव रख देने से समाज और जनता का काम हो जाता है, तो इससे बड़ा और अच्छा भलाई या खुशी का काम क्या हो सकता है.
वर्ष 2007 में भी मुझे मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था, लेकिन उस वक्त मैंने मना कर दिया था. वर्ष 2011 में भी मुझे फिर से मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी दी गई, जिसे मैंने फिर से ठुकरा दिया. मैं जानता था कि मेरे साथी विधायक और मंत्री मुझे सिस्टम से, नीति से, कानून से और संविधान के तहत चलने नहीं देंगे.

लोगों की सेवा के लिए सीएम बना
जब तीसरी बार मुझे मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला, तो मैंने उसे स्वीकार किया. मेरी इच्छा, मेरा सपना और मेरी कोशिश थी कि मेरा पिछड़ा राज्य और गरीब जनता हर क्षेत्र में आगे बढ़ें. सड़क-यातायात ठीक हो, लोगों को शुद्ध-स्वच्छ और नियमित पानी मिले और अच्छी व उच्च शिक्षा मिले. मैं चाहता था कि लोगों को बेहतर और मुफ्त स्वास्थ्य सेवा मिले और बिना रुके 24 घंटे हर घर-हर परिवार को बिजली मिले, हर जाति और समाज को शांत और सुरक्षित माहौल मिले, लोगों के रहन सहन का स्तर व उनकी आमदनी बढ़े, सभी लोग उन्नत और विकासशील हों, राज्य के हर घर में खुशहाली हो और आम जन हर प्रकार से आगे बढ़े. इन बातों को ध्यान में रखते हुए और उन कामों को मुकाम देने के लिए मैंने अपने तन-मन, दिमागी-चिंतन, सोच-विचार, कठिन मेहनत और लगन से राज्य को ऊंचाई देने व जनता की भलाई, उन्नति और बेहतर कल के लिए हर घड़ी हर पल काम किया. लेकिन शायद मेरे साथी मंत्रियों और विधायकों को यह बात मंजूर नहीं थी. क्योंकि उनके लिए मंत्री व विधायक बनने का मतलब कुछ और ही होता होगा. यही कारण है कि मैं राजनीति से दूर रहना चाहता था.
मैंने अपने 23 सालों की राजनीति में अलग-अलग मंत्री पदों पर रहते हुए राज्य के विकास में हर संभव योगदान दिया है. अपने विधानसभा क्षेत्र और पूरे राज्य में काम किया है. लेकिन इन कामों पर हर किसी की नजर नहीं गई. अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने बहुत से मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया, लेकिन अपने अनुभव से मैंने देखा व समझा कि किसी भी मुख्यमंत्री व मंत्री की योजना स्पष्ट नहीं थी, वे किसी भी योजनाओं को सही से प्राथमिकता नहीं दे पाए. उन्होंने हमेशा राजनीति की नजरों से ही फैसला लिया, हमेशा जनता के हितों को नजरअंदाज किया. विधायक व मंत्री हमेशा आपस में हिसाब-किताब कर एक दूसरे को लाभ देने व खुश करने में ही लगे रहे.
जबकि मेरी परिभाषा ये है कि नेता बनने का मतलब केवल अपने घर-परिवार, सगे-संबंधी और दोस्तों को फायदा पहुंचाना नहीं होता. मंत्री, विधायक व बड़े अधिकारी एक-दूसरे की मदद के लिए नहीं आए हैं, बल्कि राज्य के पूर्ण विकास व गरीब जनता की सेवा के लिए उन्हें चुना जाता है. अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने नेताओं को इसके बिल्कुल उल्टा ही काम करते देखा है. वे लोग सिर्फ एक-दूसरे को या बड़े नेता, बड़े अधिकारी और बड़े व्यापारियों को ही मदद व फायदा पहुंचाने का काम करते रहे हैं.
साढ़े चार महीने के अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में मैंने अपना सुख-चैन, घर-परिवार, नींद-आराम को त्यागकर 24 घंटे जनता के हित में काम किया. मैंने सही अर्थों में राजधर्म का पालन किया है. इतना ही नहीं मैंने राज्य में विभिन्न विभागों में स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस और कानून में 11,000 से ज्यादा पदों की जगह निकाली थी, जिन्हें बिल्कुल पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से लागू किया जाना था. मैंने प्लान, नॉन-प्लान फंड को सही और योजनाबद्ध तरीके से पेश किया था. मैंने राज्य में ट्रांसफर-पोस्टिंग, प्रमोशन और अपॉएंटमेंट के लिए मंत्रियों को पैसे लेने से मना किया था, जिसका शायद उन्हें बुरा लगा. प्लान फंड, नॉन-प्लान फंड, कॉन्ट्रैक्ट वर्क, टेंडर वर्क और बिल पेमेंट में कमीशन लेने के लिए भी मनाही थी. शायद यह बात भी उन्हें बुरी लगी.
मैं केवल इतना जानता हूं कि 14-15 लाख की जनसंख्या वाले राज्य में 60 एमएलए को चुना जाता है. उनमें से 12 मंत्री बनते हैं. मैं सोचता हूं कि वे 60 एमएलए उच्च शिक्षा, सामाजिकता, बेहतर नेतृत्व और उदार सोच के साथ-साथ सभी तरह से अच्छे इंसान हों. वे जनता की सेवा और सुरक्षा को अपना धर्म मानते हों, इंसानियत को अपना ईमान और जनता की भलाई को अपना कर्म समझते हों. हमारे नेताओं को परिवार, समुदाय, जाति, धर्म और समाज से ऊपर उठकर काम करना चाहिए. लेकिन ऐसे नेताओं की आज जैसे कमी ही आ गई है. आज राज्य में हर एक मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा मुझसे 86 करोड़ मांगे गए नेता अपनी जेब भर रहा है. अपने स्वार्थ पूरे कर रहा है. जनहित से ज्यादा वह अपने लिए, अपने परिवार और रिश्तेदारों के बारे में ज्यादा सोच रहा है. मैंने ये महसूस ही नहीं किया, बल्कि अपनी आंखों से देखा भी है. इस बात से मैं बहुत ही आहत और दुखी हूं. इस राज्य के पिछड़ने का कारण भी यही है. राज्य में मंत्री-विधायक आपसी सहयोग से केवल खुद को ही आगे बढ़ाते हैं और गरीब जनता को नजरअंदाज करते हैं. वहीं, मुख्यमंत्री बड़े नेताओं, बड़े अधिकारियों, बड़े व्यापारी को खुश करने में लगा रहता है. ऐसी स्थिति में राज्य, समाज और जनता का क्या होगा?

नेताओं ने राजनीति को धंधा बना लिया है
राज्य में सड़क, पानी, बिजली, कानून, शिक्षा, स्वास्थ्य और सफाई व्यवस्थाओं को सुचारू करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता. जिससे आम जनता नेताओं को शक की नजरों से देखती है. यहां हर एक विधायक को मंत्री बनना है, वह भी वर्क्स डिपार्टमेंट में, जहां उन्हें ज्यादा और मोटी कमाई हो. सभी को ज्यादा से ज्यादा नगद पैसा चाहिए. नेताओं और विधायकों ने इसे अपना धंधा बना लिया है. यही सब कारण है कि राज्य में सरकार बार-बार बदलती है. जिसका नुकसान आम जनता और राज्य को उठाना पड़ता है. सरकार बदलने से बहुत सी योजनाएं और प्रोग्राम बदलते हैं, जिससे विकास की राह और गति रुक जाती है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. इस बात से मैं बहुत ही आहत और दुखी हूं. मैं लोगों में जागरूकता लाना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि वे विचार-विमर्श करें, इन बातों को समझें और अपनी सोच-समझ, कर्म-कार्य, हाव-भाव और नीतियों को बदलें. ताकि हम अपने राज्य और देश के सुनहरे भविष्य के सपने को साकार कर सकें.
आज जनता को मंत्रियों और विधायकों से पूछना चाहिए कि पांच साल में उनके पास धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, बंगला-गाड़ी कहां से आ गए? जनता को भ्रष्टाचार पहचानना चाहिए और सवाल करना चाहिए कि विधायक या मंत्री बनने से पैसा बनाने का क्या सर्टिफिकेट मिल जाता है? या पैसा छापने की फैक्ट्री और मशीन मिल जाती है? मैं मानता हूं कि जनता जनार्दन है और उन्हें सच को पहचानना चाहिए.
दोरजी खांडू सेना के आम सिपाही थे, विधायक बनने के बाद भी उनके पास कुछ नहीं था. लेकिन जब वे रिलीफ मंत्री बने, तब उन्होंने सरकारी ठेकों को 50 प्रतिशत में बेचकर अपनी जेब में भरना शुरू कर दिया. जब वे पावर (ऊर्जा) मंत्री बने, तब उन्होंने पूरे अरुणाचल प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट योजना में नदी नालों को बेचकर पैसे गबन किए. उन्होंने 30 लाख प्रति मेगावाट के हिसाब से कंपनी को प्रोजेक्ट बेचकर मोटी कमाई की थी.
उसके बाद उन्होंने अपांग की सरकार को गिरा दिया और खुद मुख्यमंत्री बन गए. आज उनके (दोरजी खांडू) तवांग, ईटानगर, गुवाहाटी, दिल्ली, कोलकाता और बेंगलुरु में बड़े-बड़े आलीशान मकान और बंगले हैं. बहुत से फार्म हाऊस, होटलें और कॉमर्शियल इस्टेट हैं. आज लोग कहते हैं कि दोरजी खांडू ने घोटाले कर 1700 करोड़ रुपए से ज्यादा धन कमाया, सम्पत्ति बनाई. लेकिन आज वे तो इस दुनिया में नहीं हैं, फिर ये धन-दौलत क्या काम आया? इससे जिन्दगी तो नहीं खरीद सकते और न ही इस धन-दौलत को दूसरी दुनिया में ले जा सकते हैं. कहने का मतलब है, हर किसी को मेहनत-मजदूरी कर अपनी किस्मत में जो है और अपनी जरूरत तक ही कमाई करनी चाहिए. सोशल मीडिया, फेसबुक और वॉटसअप पर लोग कह रहे और पूछ भी रहे हैं कि पेमा खांडू के पास आज जो 1700 करोड़ नगद पैसा है, वो पैसा कहां से आया?
जनता ये खुद सोचे और विचार करे कि मंत्री बनने से पहले उनके पास क्या था और आज क्या है? उनके पास कोई पैसा बनाने की मशीन या फैक्ट्री तो नहीं थी और न ही कुबेर का कोई खजाना था. फिर इतना पैसा कहां से आया? ये जनता का पैसा है. मंत्री बने ये लोग इसी पैसों का रोब दिखाकर जनता को डराते-धमकाते हैं और लोग उसके पीछे भागते हैं. आज जनता को इसका जवाब मांगना चाहिए और इस मामले को पूरी छानबीन होनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट में चल रहे केस का पूरा खर्च नबाम तुकी और पेमा खांडू ने मिलकर उठाया था. जिसका फैसला मेरे खिलाफ दिया गया था. ये रकम करीब 90 करोड़ रुपए थी. इस केस में मेरे हित में फैसला देने के लिए मुझे भी फोन किया गया और मुझसे भी 86 करोड़ रुपए की मांग की थी. लेकिन मुझे और मेरे जमीर को ये मंजूर नहीं था. मैंने भ्रष्टाचार नहीं किया, मैं कमाया नहीं और न ही राज्य को कुएं में गिराने की मेरी इच्छा थी. मैं अपनी सत्ता को बचाने के लिए सरकार और जनता के पैसे का दुरुपयोग क्यों करूं? इसका नतीजा आप सबके सामने है.
राहत का पैसा नेताओं की जेब में
तवांग में आज से ही नहीं बल्कि वर्षों से विकास के नाम पर बहुत सा पैसा जा रहा है, लेकिन वहां पैसों का दुरुपयोग हुआ है और नेताओं ने अपनी जेबें भरी हैं. 2005 से रिलीफ फंड के नाम से वहां बहुत पैसा जा रहा है. जनता आरटीआई से इसकी जानकारी ले सकती है. प्रोजेक्ट का दौरा करने पर वहां जमीन पर कुछ भी नहीं मिलेगा. टूरिज्म के नाम पर बहुत पैसा जा रहा है. अर्बन डेवलपमेंट के नाम पर बहुत पैसा जा रहा है. पावर के क्षेत्र में बहुत पैसा जा रहा है. किटपी हाइड्रो प्रोजेक्ट के नाम से वर्ष 2010-11 में बिना सैंक्शन और बिना काम के 27 करोड़ रुपए ‘एलओसी’ (लाइन ऑफ क्रेडिट) किया गया, बिना बिल के पैसे उठाए गए. उन पैसों का गबन किया गया. इसी प्रकार खान्तांग और मुकतो हाइड्रो प्रोजेक्ट के नाम से भी झूठा बिल बनाकर 70 करोड़ से भी ज्यादा पैसों का गबन किया गया.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में हुए भीषण घोटाले (पीडीएस स्कैम) की असली जड़ नबाम तुकी और दोरजी खांडू हैं, उन्होंने ही इस घोटाले की शुरुआत की थी. गेंगो अपांग जब मुख्यमंत्री थे, तब राज्य में पीडीएस का साल भर का काम 61 लाख रुपए में ही हो जाता था. गेंगो अपांग इसे सुधारना चाहते थे, पर सभी ने मिलकर उन्हें फंसाया था. जब नई सरकार बनी तब नबाम तुकी फूड एंड सिविल सप्लाई मिनिस्टर थे. तुकी ने ही राज्य में सिर पर अनाज ढो कर ले जाने की व्यवस्था (हेड लोड सिस्टम) की शुरुआत की थी. एक साल में ही पीडीएस का काम 68 करोड़ रुपए तक बढ़ गया था. वही, अगले ही साल इस काम की लागत 164 करोड़ रुपए तक बढ़ गई थी. इस पर केंद्र सरकार को राज्य सरकार पर शक हो गया था और उन्होंने एफसीआई को जांच और ऑडिट करने का आदेश दिया, जिसमें राज्य सरकार को दोषी पाया गया था. इसके बाद केन्द्र सरकार ने पेमेंट रोक दिया था. पीडीएस घोटाला खुलने पर गेंगो अपांग ने ‘हेड लोड’ का काम बंद करवा दिया, जिससे ये पेमेंट वहीं रुक गया था.
पीडीएस भारत सरकार की योजना थी, जिसका पैसा एफसीआई के जरिए भारत सरकार से ही आता है. राज्य सरकार के पैसों से इसका पेमेंट नहीं होता था. जब 2007 में दोरजी खांडू मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने सार्वजनिक वितरण के काम से सम्बद्ध अपने ही ठेकेदारों को अपनी ही सरकार के खिलाफ केस करने के लिए उकसाया और इस काम के लिए उनकी मदद भी की. इस केस में राज्य सरकार फास्ट ट्रैक कोर्ट, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी कई बार जान-बूझकर हारती गई. दोरजी खांडू के नेतृत्व में राज्य सरकार ने कोर्ट में जान-बूझकर सही रिकॉर्ड और जानकारी नहीं दी थी और बहुत सी फाइल और रिकॉर्ड को मिटा दिया गया. 50 प्रतिशत हिस्सा लेकर दोरजी खांडू ने ही प्राइवेट पार्टियों को राज्य सरकार के खिलाफ अदालती आदेश (कोर्ट डिक्री) लेने में मदद की थी और पहला पीडीएस पेमेंट उन्हीं के समय में हुआ था.
   30 नवम्बर 2011 तक जब मैं राज्य का वित्त मंत्री था, तब अदालती आदेश होने पर भी, मैंने और कृषि मंत्री सेतांग सेना ने पेमेंट नहीं दिया था. केवल पीडीएस पेमेंट देने के के कारण ही नबाम तुकी ने मुझे वित्त मंत्री के पद से हटाया था. मेरे वित्त मंत्री के पद से हटते ही चोउना मीन वित्त मंत्री बने और चार दिनों के अंदर ही 4/12/2011 को नबाम तुकी और चोउना मीन ने पीडीएस कॉन्ट्रैक्टर से पैसों में 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी लेकर ‘हेड लोड’ का भुगतान कर दिया.
अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने पीडीएस बिल की फोटो-कॉपी पर पेमेंट होते पहली बार देखा था. ऐसा किसी और राज्य में नहीं होता है. 600 करोड़ रुपए से भी ज्यादा पैसों का पीडीएस पेमेंट हुआ. इन पैसों को राज्य के डेवलपमेंट फंड से दिया गया था. जबकि ये भारत सरकार की स्कीम थी और भारत सरकार ने इसमें घोटाला देखकर एक भी पैसा राज्य सरकार को नहीं दिया था. पीडीएस घोटाले के मुख्य दोषी दोरजी खांडू, पेमा खांडू, नबाम तुकी और चोउना मीन ही हैं.
पूर्व मंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्री और अधिकारियों ने फाइल और तथ्यों को गायब कर दिया

जब मैं मुख्यमंत्री बना, तब मैंने इस केस की जांच की और राज्य सरकार को बचाने की कोशिश की थी. हमारी सरकार ने एफसीआई के खिलाफ केस किया, भारत सरकार के खिलाफ केस किया और सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका भी दाखिल की थी. मुझे इस बात का बहुत ही दुख है कि राज्य के पूर्व मंत्रियों, पूर्व मुख्यमंत्री और अधिकारियों ने मिलकर सभी फाइल, डॉक्युमेंट्स और जरूरी तथ्यों को गायब कर दिया और मिटा दिया. जिसकी वजह से मैं राज्य सरकार को मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा पीडीएस घोटाला इस केस में बचा नहीं सका. इस केस में मुख्य सचिव, सचिव, निदेशकों और अफसरों को जेल तक होने वाली है.
आज इस पीडीएस केस में वास्तविक ठेकेदारों को पैसा नहीं मिला, जबकि उन्होंने सही टेंडर भरा और सही काम भी किया, उचित मूल्य की दुकानों (फेयर प्राइस शॉप्स) तक चावल भी पहुंचाया था. वहीं, दूसरी ओर पीडीएस स्कैम में पेमा खांडू का नाम शामिल है, जिसका आज भी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहा है. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (एसजीएसवाई) के चावल घोटाले में भी दोरजी खांडू और पेमा खांडू खुद फंसे हुए हैं. आज इसका केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. अगर दोरजी खांडू जिंदा होते, तो अभी जेल में होते. पेमा खांडू आज मुख्यमंत्री हैं, फिर भी इस केस में बहुत जल्द जेल में जाएंगे. स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना ही गलत थी, क्योंकि इस योजना में एक भी दाना चावल गांवों तक नहीं पहुंचा और न लोगों को चावल मिला. ये सारा चावल असम में बेचा गया, वो एक घोटाला है. जो चावल गया ही नहीं, उसके लिए झूठा ट्रांसपोर्टेशन बिल बनाया गया, ये दूसरा घोटाला है. इन बाप-बेटों ने घोटालों पर घोटाले किए हैं. इस घोटाले पर कोई भी साधारण व्यक्ति या जनता पेमा खांडू से आज पूछे कि इस योजना में केंद्र से कितना चावल आया था? किसके लिए आया था? कब आया था? और किसको चावल मिला? और इस चावल घोटाले में कितने पैसों की कमाई हुई? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इन सवालों के जवाब पेमा खांडू के पास नहीं हैं. उनका सिर्फ एक ही जवाब है, उनके पास आज ढेर सारा नगद पैसा है, जिनके पीछे जनता भागती है. लेकिन ये बात जनता को जानना और समझना चाहिए की ये इन सब घोटालों का पैसा है.
कमजोर, भ्रष्ट, बदमाश और लुटेरों को ही प्राथमिकता देना कांग्रेस पार्टी की नीति है. ऐसे ही लोगों को कांग्रेस नेता बनाती है, ताकि वो सरकार और जनता के पैसों को मिलकर लूटे और कांग्रेस आला कमान को पहुंचाता रहे, जिससे लगातार उनकी कमाई होती रहे. घोटालों और भ्रष्टाचार का पता होते हुए भी नेताओं और विधायकों ने आज तक कुछ नहीं किया. क्योंकि विधायकों और मंत्रियों को भी पीके थुंगन, गेगांग अपांग, दोरजी खांडू, नबाम तुकी और पेमा खांडू जैसे ही भ्रष्ट मुख्यमंत्री चाहिए. जिनके खिलाफ सीबीआई जांच चल रही है, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में केस चल रहे हैं. लेकिन यही लोग अधिकारियों, न्यायालयों और जजों को पैसा दे सकते हैं.
अपने मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान मैंने हर जिले को सोशल एंड इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट फंड (एसआईडीएफ), ग्रामीण अभियंत्रण (रूरल इंजीनियरिंग) और ‘नॉन प्लान’ में बराबर फंड दिया था. इसके बाद भी पेमा खांडू और उनके दोनों भाईयों ने एक प्रोजेक्ट में मुझसे तत्काल 6 करोड़ रुपए हाईड्रो प्रोजेक्ट मैंन्टेनेंस के लिए मांगे थे, जिसे मैंने पूरा दिया. इन पैसों को अभी काम में ही नहीं लिया गया था कि उन्होंने फूड रिलीफ में मुझसे पैसे मांगे. उन्होंने 10 करोड़ की और मांग की थी. उस समय राज्य में फ्लड रिलीफ के लिए कुल 14 करोड़ रुपए ही थे, फिर भी मैंने सबसे ज्यादा 6 करोड़ रुपए तवांग में दिए थे.
अरुणाचल जैसे छोटे राज्य में हमारे पास एनडीआरएफ में केवल 51 करोड़ रुपए ही थे, जिसे 20 जिलों और 60 विधायकों को जरूरत होने पर देना था और उस समय में बहुत से जिले बाढ़ से पीड़ित थे. मुख्यमंत्री होने के नाते मुझे हर जिले और 60 विधायकों को बराबर देखना था. लेकिन पेमा खांडू और उनके दोनों भाईयों ने मुझसे 100.88 करोड़ रुपए की मांग की थी. मैंने उन्हें राज्य की स्थिति के बारे में बताया और समझाया. लेकिन इस बात से वे मुझसे नाराज हो गए और उन्होंने मेरे खिलाफ चाल चल दी थी.
तवांग गोलीबारी के पीछे भी पेमा खांडू
एक और बात मैं बताना चाहूंगा कि 2 मई को तवांग में हुई गोलीबारी की घटना के पीछे भी पेमा खांडू का ही हाथ है. गिरफ्तार हुए लामा आदमी को पेमा खांडू ने बेल नहीं देने दी थी. इस घटना के जिम्मेदार भी पेमा खांडू ही हैं. डीसी और एसपी तवांग की हुई फोन वार्ता में पेमा खांडू का जिक्र है. तवांग में हुई गोलीबारी की घटना में पेमा खांडू ने डीसी, एडीसी और मजिस्ट्रेट पर बेल न देने का दबाव बनाया था. मुझे और चीफ सेक्रेटरी को इस घटना के मामले में अधिकारियों पर कार्रवाई न करने का भी दबाव डाला था. उसके बावजूद हमने अधिकारियों पर कार्रवाई की, शायद इस बात का उन्हें बुरा लगा हो. इस घटना में कितने लोगों की जाने गईं, कितने लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे, उनका आज भी शिलांग और गुवाहाटी में इलाज चल रहा है. जबकि मैं खुद मृतकों के परिजनों से मिला, गंभीर रूप से घायल हुए लोगों से भी तवांग, शिलांग और गुवाहाटी में मिलकर हर संभव मदद की थी. जबकि पेमा खांडू को इस घटना पर कोई दुख और चिंता नहीं थी. लोगों को सोचकर फैसला करना चाहिए कि कौन सही और कौन गलत है?
विधायक से मंत्री और मुख्यमंत्री का फासला नबाम तुकी ने बहुत ही कम समय में तय कर लिया. विधायक बनने से पहले उनके पास कुछ भी नहीं था और आज आधे ईटानगर-नहारलागुन में उनकी जमीनें और सम्पति हैं. वहीं कोलकाता, दिल्ली और बेंगलुरु में भी उनके आलीशान बंगले, फार्म हाउस व जमीनें हैं. सोशल मीडिया, फेसबुक-व्हाट्सएप पर फोटो और वीडियो के साथ उनकी सम्पत्ति का ब्यौरा उपलब्ध है. इनका काला चिट्‌ठा कुछ इस तरह है:
गुवाहाटी हाईकोर्ट ने नबाम तुकी के खिलाफ की गई सुनवाई में उन्हें दोषी ठहराते हुए सीबीआई जांच के आदेश दिए थे. लेकिन उसी केस में तुकी ने सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एच. एल. दत्तू को 28 करोड़ रुपए घूस देकर स्टे ले लिया और आज भी खुलेआम घूम रहे हैं.
अरुणाचल प्रदेश में हुए पीडीएस स्कैम पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अल्तमस कबीर ने कांट्रैक्टरों के हित में फैसला दिया था. जबकि केंद्र सरकार और एफसीआई ने भी इस फैसले को गलत ठहराया था.
फूड एंड सिविल सप्लाई के डायरेक्टर एन.एन. ओसीक के बैंक खाते से नबाम तुकी के खाते में 30 लाख रुपए ट्रांसफर किए गए थे. इस बात को गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी माना है. जिसका रिकॉर्ड हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास भी है. इस केस में भी घूस देकर कोर्ट का फैसला खरीदा गया था.
नबाम तुकी ने पीडीएस घोटाले की शुरुआत की थी
फूड एंड सिविल सप्लाई के मंत्री रहते समय नबाम तुकी ने ही पीडीएस घोटाले की शुरुआत की थी. सड़क रास्ता होने पर भी ‘हेड लोड’ का झूठा फार्मूला आविष्कार किया. 20 किलोमीटर को 46 किलोमीटर का रास्ता बताया और 40 किलोमीटर को 90 किलोमीटर का रास्ता बताकर पैसों का गबन किया था. जहां जनसंख्या ही नहीं थी, वहां चावल का कोटा बढ़ाया गया. चावल पर लोन दिखाकर कोटा बढ़ाया गया और भारी मात्रा में पैसों का गबन किया. जहां चावल, चीनी और गेहूं गया ही नहीं, वहां झूठा बिल बनाकर घोटाला किया गया. कुरुंग कुमे और सुबानसीरी के चावल के कोटे को एफसीआई बेस डिपो से निकालकर लखीमपुर (असम) में बेचा गया था. तवांग, पूर्वी कामेंग और पश्चिमी कामेंग के चावल के कोटे को तेजपुर (असम) में बेचा गया था. पूर्वी-पश्चिमी सियांग के चावल के कोटे को धेमाजी (असम) में बेचा गया. एक ही बिल से बार-बार झूठा बिल बनाकर 6-7 बार पैसे निकाले गए. राज्य में जिस समय 61 लाख रुपए में साल भर के पीडीएस चावल की सप्लाई होती थी, वहीं नबाम तुकी के मंत्री रहते हुए, ये रकम 168 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच गई थी.
पुराने कामों और फोटो दिखाकर नबाम तुकी ने 70 प्रतिशत तक रिलीफ फंड का घोटाला किया था. उन पैसों का नबाम तुकी ने दुरुपयोग किया और जनता और केंद्र सरकार को गुमराह किया. इसकी पीआईएल आज गुवाहाटी हाईकोर्ट में चल रही है. राज्य में ऐसे घोटाले कर वे अपनी सम्पत्ति बढ़ाते हैं. उससे न्यायालय में न्याय खरीदते हैं. कांग्रेस आलाकमान को खरीदते हैं और मीडिया को भी खरीदते हैं. जिसे जनता चुपचाप देखती रहती है.
राज्य में नॉन प्लान फंड आंवटित कर 60 प्रतिशत पैसे वापस लेकर दुरुपयोग किया गया, जिसकी वजह से राज्य में केंद्र की बहुत सी योजनाएं आज भी बंद पड़ी हैं. जिसके कारण राज्य में वर्ष 2013, 2014 और 2015 तक लगातार ओवरड्राफ्ट की समस्या होती रही. जिसके चलते सरकारी अधिकारियों की तनख्वाह, भत्ते, चिकित्सा बिल, गवर्नमेंट प्रॉविडेंट फंड/न्यू पेंशन स्कीम, छात्रों के भत्ते और ठेकेदारों के भुगतान समय पर नहीं हो पाते थे. इस पर भी सरकारी अधिकारी, छात्र, ठेकेदार और जनता इन्हें सहती गई, कभी इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाया और न ही इसका विरोध करने की कभी हिम्मत दिखाई. जिससे भ्रष्ट लोगों के हौसले बुलंद होते गए और वे राज्य में ज्यादा भ्रष्टाचार करते गए.
13वें वित्त आयोग (टीएफसी) के सारे पैसों का दुरुपयोग हुआ है. स्पेशल प्लान असिस्टेंस (एसपीए) के पैसों का दुरुपयोग हुआ है, जिसका काम आज भी बंद पड़ा है. स्पेशल सेंट्रल असिस्टेंट (एससीए) फंड का भी दुरुपयोग हुआ है. राज्य के पास फंड नही है, फिर भी भोली जनता को गुमराह करने के लिए कहा गया कि सिविल डिपॉजिट में फंड है. जब मैं मुख्यमंत्री बना, तो सबसे पहले छानबीन कर पता लगाया, लेकिन वहां कोई पैसा नहीं था.
दोरजी खांडू जहां रिलीफ फंड और नॉन प्लान फंड में 60 प्रतिशत दलाली/घूस लेते थे, वहीं मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा कांग्रेस के बड़े नेताओं को मैंने पैसे दिए नबाम तुकी ने इसमें 10 प्रतिशत इजाफा किया और 70 प्रतिशत दलाली लेकर राज्य के फंड को लूटा.
यही सब कारण है कि पिछले तीन सालों से राज्य में ओवरड्राफ्ट की समस्या चल रही थी और राज्य बजट भी घाटे में चल रहा था.
नबाम तुकी ने अपनी पत्नी नबाम न्यामी के नाम पर राज्य के सभी शहरों मसलन, ज़ीरो, पासीघाट, तेजू, इटानगर, हवाईसमेत सभी जिलों में सरकारी ठेकेदारी के काम किए. वहीं उनके भाई और परिवारजन नबाम तगाम, नबाम आका, नबाम हारी और नबाम मारी ने भी बहुत सी सरकारी योजनाओं और परियोजनाओं में अलग-अलग काम कर राज्य के खजाने को लूटा था. राज्य में इन सभी घाटे और घोटालों के जिम्मेदार नबाम तुकी ही हैं, जिन्होंने राज्य को कुएं में धकेल दिया और भोली जनता को बेवकूफ बनाया.
नबाम तुकी की हरकतों का मैंने विरोध किया
सोशल मीडिया, फेसबुक और व्हाट्सएप पर लोग पूछ रहे है कि ये पैसे कहां से आए? लेकिन अगर इनसे सच पूछा गया, तो ये आपसे नजर मिलाकर वे बात भी नहीं कर सकेंगे. नबाम तुकी की इन्हीं हरकतों से तंग आकर मैंने और राज्य के ज्यादातर विधायकों ने एक सुर में उनका विरोध किया. उनकी सरकार अल्पमत में होने पर भी उन्होंने अपने स्पीकर भाई नबाम रेबिया के साथ मिलकर और उनकी मदद से दो विधायकों को निष्कासित कर दिया और अपनी सरकार चलाते रहे.
विधानसभा अध्यक्ष पर महाभियोग (इम्पीचमेंट) का मामला होने पर भी नबाम रेबिया अपने पद पर बने रहे, जबकि 14 दिनों के अंदर ही इस पर कार्यवाही होनी चाहिए थी. वहीं अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग होने पर भी नबाम तुकी सीएम पद पर बने रहे, जबकि राज्यपाल ने उन्हें बहुमत सिद्ध करने को कहा था. 13 जनवरी 2016 को गुवाहाटी हाईकोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के बाद भी वे अपनी सरकार चलाते रहे और राज्य को लूटते रहे. ऐसे में नबाम तुकी को अपना त्याग पत्र पेश करना चाहिए था. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
एक राज्य में राज्यपाल ही सबसे बड़े होते हैं. राज्यपाल की ही इजाजत से मुख्यमंत्री व मंत्री तय होते हैं. ट्रांसफर, पोस्टिंग और अपॉएंटमेंट भी राज्यपाल के दिशा-निर्देश में किए जाते हैं. लेकिन नबाम तुकी ने हमेशा कानून, न्याय और जनता का मजाक उड़ाया. मैंने अपने 23 साल के राजनीतिक जीवन में पांच मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया, लेकिन नबाम तुकी जैसा भ्रष्ट और खराब तंत्र (सिस्टम) कहीं नहीं देखा. इनकी सरकार ने राज्य में बंद, हड़ताल और दंगे करवाए. जनता को जाति, धर्म व क्षेत्र के नाम पर बांटा और उनमें लड़ाईयां करवाईं. उन्होंने सरकार, कानून, लोकतंत्र, संविधान, न्यायालय और जनता के साथ खिलवाड़ किया है और हमेशा इनका अपमान किया है. इन्होंने हमेशा जाति, धर्म, समाज, मजहब, भाषा और क्षेत्र के नाम पर राजनीति की है.
जिस इंसान ने जनता की सेवा के बजाय अपना घर भरा है, आज जनता को उससे जवाब मांगना चाहिए कि जो भी जमीन जायदाद, धन-सम्पत्ति उन्होंने बनाई है, वो कहां से आई? क्या कहीं पैसा छापने की मशीन मिली थी या पैसों की फैक्ट्री मिली थी? इन पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और जनता को उसका हक मिलना चाहिए.
चोउना मीन सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं
चोउना मीन राज्य के बड़े मंत्रियों में से सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं. मीन जिस भी विभाग में गए, वहां बदनामी के छींटे अपने दामन पर झेले हैं. मैं इनका असली चेहरा जनता के सामने रखता हूं. अरुणाचल के ग्रामीण विकास मंत्रालय में कभी कोई लेनदेन नहीं किया गया था, पर चोउना मीन ने एक पीडी (प्रोजेक्ट डाइरेक्टर) से 10 लाख रुपए लेकर इसकी शुरुआत की थी. एपीओ की पोस्टिंग के लिए 5 लाख रुपए घूस लेते थे. बीडीओ के लिए 3 लाख रुपए घूस लेते थे. रूरल वर्क्स डिपार्टमेंट (आरडब्लूडी) और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) में भी ठेकेदारों से पर्सेंटेज तय कर घूस लेते थे. चोउना मीन ट्रांसफर और प्रमोशन के लिए भी घूस लेते थे. इसके लिए उनका रेट ही तय था- एक्जेक्यूटिव इंजीनियर के लिए 15 लाख रुपए, असिस्टेंट इंजीनियर के लिए 5 लाख रुपए, जूनियर इंजीनियर के लिए 3 लाख रुपए.
शिक्षा मंत्री बनने पर चोउना मीन ने 3 से 4 लाख रुपए लेकर लोगों को बिना इंटरव्यू के शिक्षक की नौकरी दी थी. पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग और लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) में भी ट्रांसफर और पोस्टिंग पर 10-15 लाख रुपए घूस लेकर ढेर सारा पैसा कमाया था. लाइन ऑफ क्रेडिट के लिए भी चोउना मीन ने पैसों की मांग की थी, जिसके कारण बहुत से अधिकारियों ने डिवीजन में जाने से मना कर दिया था और नाराज भी हो गए थे. पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग में मंत्री रहते समय जारबाम गामलिन सरकार में रिलीफ फंड के 46 करोड़ रुपए की दलाली कर 15 ही दिनों में मीन ने उल्फा और अंडरग्राउंड ताकतों की मदद से गामलिन सरकार को गिरा दिया था.
चोउना मीन के पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग विभाग में मंत्री रहते समय, केंद्र सरकार ने वाटर सप्लाई के लिए 67 करोड़ रुपए दिए थे, बिना काम किए ही इन पैसों का दुरुपयोग किया गया. जिसका रिकॉर्ड आरटीआई से लिया गया है और ये आज भी आरटीआई कार्यकर्ता के पास मौजूद है. फिर नबाम तुकी सरकार में वित्त मंत्री बनने पर इन्होंने राज्य को भारी वित्तीय संकट की सौगात दे दी. डेवलपमेंट प्लान फंड को नॉन प्लान में डाल कर फंड का दुरुपयोग किया गया. जिसकी बदौलत मीन के कार्यकाल में राज्य में ओवरड्राफ्ट की भारी समस्या थी. इन्होंने राज्य में हमेशा ही ऐसे विभाग चुने जिनमें ज्यादा ट्रांसफर-पोस्टिंग होती हो. ज्यादातर वे प्लानिंग, फाइनेंस और पीडब्लूडी में रहने की मांग ही करते रहे, ताकि उनकी ज्यादा से ज्यादा कमाई हो सके. क्या ऐसे नेताओं के हाथ में राज्य सुरक्षित है?
आज हर कहीं जमीनें, सम्पत्ति, चाय बगान, संतरा बगान और रबड़ बगान खरीदकर नमसाई जिले की आधी सम्पत्ति इन्होंने अपने नाम कर रखी है. चोउना मीन ने दिल्ली, कलकत्ता, बेंगलुरु और गुवाहाटी में आलीशान बंगले कर्मिशयल स्टेट और सम्पत्ति बना रखी है.
जनता जवाब मांगे कि राज्य और जनता को इस तरह क्यों गुमराह किया गया? विधायक या मंत्री बनना पैसों की फैक्ट्री चलाना तो नहीं है, फिर इतना पैसा कहां से आया? क्या यही हैं कांग्रेस के असली नेता? जनता को क्यों धोखे में रखा गया और जनता की जिंदगी से क्यों खेला गया?
अरबों के मालिक कारिखो कीरी का अपना घर भी नहीं था
कारिखो कीरी महाशय कभी तेजू से विधायक थे. विधायक बनने से पहले इनके पास अपना घर भी नहीं था. अपने बड़े भाई, जो कि पब्लिक हेल्थ डिपार्टमेंट में इंजीनियर थे, उन्हीं के साथ रहते थे. अपने पहले विधानसभा चुनाव में एक पुराने स्कूटर से कैंपेन शुरू किया था और विधायक बनने के 3-4 सालों में ही हर कहीं जमीन और सम्पत्ति खरीद कर आधे तेजू के मालिक हो गए. अब उनके पास आलीशान बंगले, शानदार गाड़ियां और नवाबों के ठाट-बाट हैं. आज ईटानगर, दिल्ली, कोलकाता बेंगलुरु में कारिखो कीरी के आलीशान बंगले और सम्पत्ति है. आज उनसे कोई नहीं पूछता की ये पैसे कैसे और कहां से आए? लोग उनके पैसों के पीछे-पीछे भागते हैं. राज्य में विधायक बनना किसी लॉटरी लगने जैसा है. जहां हर कोई रातो-रात करोड़पति बन जाता है. राज्य में ऐसे और भी बहुत से विधायक हैं, जो विधायक बनने पर राज्य को लूटते हैं.
जैसे कि जब इस बार सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर आया, तब मुझसे कई विधायकों ने 15 करोड़ रुपए नगद मांगे थे. उनका कहना था कि अगर अपनी सरकार बचानी है, तो हमें इतने पैसे दें. लेकिन मैं यहां पैसा बनाने या पैसा बांटने के लिए नहीं आया, बल्कि जनता के सरकारी खजाने को बचाने व रक्षा करने आया था. सही समय और सही ढंग से जरूरतमंद योजनाओं को आगे बढ़ाने और जनता की सेवा और उनके हित में विकास करने के लिए आया था. जब भी कभी राज्य में राजनीतिक संकट की स्थिति होती है, तो ये विधायक दोनों तरफ से 10-15 करोड़ रुपए लूटते हैं. ऐसा कर ये अपने आपको नीलाम करते हैं, बेचते हैं. राज्य में ऐसा कब तक चलता रहेगा? जनता को विधायकों से सवाल करना चाहिए, उनके खिलाफ जन आंदोलन करना चाहिए. आज के सभी विधायक भ्रष्ट हैं, इन्हें विधानसभा में जाने का कोई हक नहीं है. जनता को इनसे त्याग पत्र मांगना चाहिए, ताकि वे एक नई और बेहतर सरकार चुन सकें, जिससे राज्य का हित हो सके. (ख़ास कर मुझे दुख है, अपने अच्छे दोस्त पीडी सोनाजी का काम मैं पूरा नहीं कर पाया, उनकी मांग थी 10 करोड़ नगद, लेकिन 11/07/2016 को मैं उन्हें 4 करोड़ ही दे पाया).
राज्य में सही सोच-विचार के साथ, मजबूत इच्छा शक्ति, स्पष्ट उद्देश्य के साथ स्पष्ट नीति केंद्रित योजनाओं के साथ अगर हम सिर्फ विकास के मकसद से और गरीब जनता के सेवा भाव से काम करें, तो हम बहुत कुछ कर सकते हैं. मैंने अपने साढ़े चार महीने के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में जो करके दिखाया, वो एक उदाहरण है कि हम कैसे एक राज्य को आगे बढ़ा सकते हैं और उसे विकास दे सकते हैं. लेकिन मेरे विधायक साथियों ने मुझे ऐसा करने नहीं दिया और ये किसी को भी करने नहीं देंगे. क्योंकि अपने 25-30 साल के राजनीतिक जीवन में मैंने विधायकों को ऐसा ही करते देखा है. राज्य के ऐसे भ्रष्ट व बदमाश विधायकों और नेताओं के साथ काम कर पाना मुश्किल है. ये लोग कभी नहीं बदल सकते हैं और न ही कभी सुधर सकते हैं. इन लोगों को समझाने, सबक सिखाने और एहसास दिलाने का वक्त आ गया है, ताकि ये फिर कभी जनता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकें. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि अगर राज्य में 4 महीनों में 3-4 बार सरकार बदलेगी तो राज्य को बहुत नुकसान होता है, जिसका आपको अंदाजा भी नहीं होगा. वहीं जनता बिना समझे हर बार नए मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की जय-जयकार करती है, जबकि मैं समझता हूं कि ये उनके साथ धोखा है.
इसलिए मैं जनता से अनुरोध करता हूं कि वो इस संदेश और बलिदान को गंभीरता से ले, अपने नेताओं से हिसाब-किताब मांगे, उनका कड़ा विरोध करे. गांव, कस्बों, शहर और जिलों में इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ बड़े जन आंदोलन हों और राज्यपाल व केंद्र सरकार से राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग हो और राज्य में पहले जैसी केंद्र शासित सरकार बने. ताकि राज्य में विकास हो, जनता को उनका बराबर हक मिल सके और राज्य में अमन, सुख और शांति बहाल हो सके. राज्य में सही समय पर फिर से चुनाव हो, जिसमें नए चेहरों, अच्छे पढ़े-लिखे, नेक इंसान, अच्छी सोच-विचार वाले और अपनी जिंदगी में जिन्होंने संघर्ष किया हो, उन्हें मौका मिले, जिससे राज्य की गरीब जनता का हित और विकास हो सके.
मैंने कांग्रेस के ब़डे नेताओं को पैसे दिए
जहां तक कांग्रेस पार्टी का संदर्भ है, मैं एक छात्र रहते हुए कांग्रेस से जुड़ा था और आज कांग्रेस में रहते हुए मुझे 33 साल हो गए हैं. कांग्रेस से जुड़ने के पीछे एक कारण था. वो मान मार्यादाओं, विचारों, आदर्शों और देशभक्ति का दौर था. 7 मार्च 1986 को श्री राजीव गांधी तेजू आए थे, उनका स्वागत करने के लिए मैं मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा न्याय को बिकते हुए देखा है
भी हाथ में तिरंगा झंडा लिए खड़ा था. मैंने तिरंगा झंडा राजीव जी को भेंट किया और उन्होंने मुझे कहा था कि अच्छे से पढ़ो और अच्छे आदमी बनो. उस दिन उन्होंने अपने भाषण में 3 बातें कही थीः
अरुणाचल भारत का अभिन्न अंग है.
दिल्ली दूर है, पर मेरे दिल से दूर नहीं हो.
हम केंद्र से सौ रुपए भेजते हैं, लेकिन यहां सिर्फ 25 रुपए ही पहुंचते हैं. हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे. श्री राजीव गांधी की इन सब बातों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा और मैं कांग्रेस से जुड़ गया. आज मैं 1995 से लगातार हेउलियांग से चुना जा रहा हूं और राज्य में सबसे ज्यादा वोटों से जीतता आ रहा हूं. लेकिन आज दुख होता है कि इतने बड़े कांग्रेस परिवार को जनता की सेवा करने वाले नहीं, बल्कि भ्रष्ट और बदमाश लोग चाहिए. आज नेता सेवक नहीं दलाल बन गए हैं, बिजनेस कर सिर्फ अपना स्वार्थ ही देख रहे हैं. तब की बात और थी, जब राजनीति में सिद्धांतों, नीतियों और विचारों पर बहस होती थी. आज नेता आरक्षण, फंड, धर्म-मजहब, जाति, क्षेत्र के नाम पर लोगों को बांटकर वोट बटोरने का काम करते हैं और गरीबों की लाचारी पर राजनीति होती है. वो भी एक दौर था, ये भी एक दौर है. वर्ष 2008 में दोरजी खांडू के कहने पर और मजबूरीवश मैं खुद चार बार मोतीलाल बोहरा को रुपए पहुंचाने गया था. जो कुल 37 करोड़ रुपए थे.
वर्ष 2009 में राज्य को एडवांस 200 करोड़ रुपए का लोन देने के लिए दोरजी खांडू के कहने पर मैंने श्री प्रणव मुखर्जी (तब वित्त मंत्री) को 6 करोड़ रुपए ‘वातायल’ 802/7, कवि भारती सरणी, कोलकाता-700029 के पते पर दिए थे.
वर्ष 2015-16 के बीच मैं 13 महीनों के लिए दिल्ली में था. जिसमें मैं कांग्रेस के निम्न नेताओं से मिला- नारायण सामी से 13 बार, कमल नाथ से 4 बार, सलमान खुर्शीद से 5 बार और गुलाम नबी आजाद से भी 5 बार मिला था. लेकिन सोनिया गांधी और राहुल गांधी मुझसे नहीं मिले. एक ओर सलमान खुर्शीद और गुलाम नबी आजाद ने मेरी बात सही से सुनी और मदद करने की कोशिश की थी. लेकिन नारायण सामी ने 110 करोड़ रुपए पार्टी फंड और खुद के लिए मांगे थे. जिसे उन्होंने अपने निजी स्टाफ बीएस यादव के माध्यम से मांगे थे. सागर रत्ना (साउथ इंडियन रेस्टोरेंट) में कई बार मुझे बुलाया और अपनी मांग बताई. कपिल सिब्बल ने मुझसे 9 करोड़ रुपए मांगे थे. जब कमलनाथ से मिला तब उन्होंने भी 130 करोड़ रुपए देने के लिए मुझसे कहा था. जिसे उन्होंने अनुपम गर्ग, मि. मिगलानी और नवीन गुप्ता से कहलवा कर मांगे थे.
इन सभी बातों का मुझे बहुत ही गहरा दुख हुआ था. मैं बहुत दिनों तक गहरी सोच और चिंता में डूबा रहा. पार्टी ने मेरे खिलाफ बहुत जहर उगला फिर भी मैं 3 बार कोर्ट केस जीत कर आज भी कांग्रेस से जुड़ा हूं. सच पूछो तो मैंने कांग्रेस का असली चेहरा देखा है और अब कांग्रेस में और राजनीति में रहने की मेरी इच्छा ही नहीं है. कांग्रेस के बड़े नेताओं ने अपना राजधर्म नहीं निभाया और न ही निभा रहे हैं. मैं खुद को बहुत ही अभागा समझता हूं कि मैं इतने सालों तक अंधेरे में चलता रहा, ऐसी पार्टी से जुड़ा रहा, जिसने मुझे खून, मशक्कत, पसीने और आंसू के अलावा कुछ नहीं दिया. मुझे कहने में शर्म महसूस होती है, लेकिन कांग्रेस ऐसी पार्टी है जिसका पूरा ढांचा ही भ्रष्ट है.
न्याय के दलालों को देखा है और न्याय को बिकते हुए देखा है
न्याय और कानून के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि लोकतंत्र में कानून और न्याय का महत्व सबसे ऊपर रहता है. अगर कानून और न्यायालय न हो, तो लोकतंत्र का चलना मुमकिन नहीं है. न्यायालय का काम है, आम जनता, गरीब और असहाय लोगों को उसका हक दिलाना, उनकी मदद करना और बचाव करना. लेकिन मैंने इसके बिल्कुल उल्टा होता देखा है. न्याय के दलालों को देखा है और न्याय को बिकते हुए देखा है. आज कानून खुद न्याय का दलाल बन बैठा है.
अरुणाचल राज्य में हुए पीडीएस घोटाला मामले को राज्य सरकार ने स्वीकार किया कि गलत हुआ, एफसीआई ने माना कि गलत हुआ, केंद्र सरकार ने भी कहा कि गलत हुआ, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को खुला छोड़ दिया और उनका पूरा पेमेंट करने का आदेश दे दिया. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने 36 करोड़ रुपए घूस लेकर गलत फैसला दिया था. उन्होंने अपने बेटे के जरिए समझौता किया था. जबकि वो फैसला गलत था. अल्तमस कबीर अपने फैसलों के कारण पहले भी विवादों में रहे हैं.
वर्तमान अदालती मामले
16-17 दिसंबर को हुए विधानसभा सत्र में नबाम तुकी सरकार को वोट ऑफ कॉन्फिडेंस से हटाया गया. इस पर नबाम तुकी कोर्ट से स्टे लेकर आ गए और उनकी सरकार चलती रही. इसके साथ स्पीकर नबाम रिबिया भी अपने पद पर बने रहे. इतना कुछ होने पर भी हमने सरकार नहीं बनाई. 13 जनवरी को गुवाहाटी होईकोर्ट ने इस स्टे को खारिज कर दिया और पेटिशन भी खारिज कर दी. इस पर नबाम तुकी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. इसके बाद भी उनकी सरकार चलती रही. गुवाहाटी हाईकोर्ट के फैसले पर भी हमने सरकार नहीं बनाई. इसके बाद राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ती गई. राज्य के हर कोने में घटनाएं बढ़ने लगीं. यहां तक कि गवर्नर से भी बदसलूकी की गई. राज्य में शांति व्यवस्था नहीं रही. हर दिन हड़तालें होने लगीं. फाइनेंशियल क्राइसिस आ गया और राज्य की हालत दिन-ब-दिन खराब होती गई. 16-17 दिसंबर के विधानसभा सत्र को मान्य नहीं माना गया, जिसके कारण पिछले 6 महीने से विधानसभा का सत्र नहीं हुआ. इसके चलते राज्य में संवैधानिक संकट भी पैदा हो गया. राज्य में बढ़ती वारदातों और घटनाओं को देखकर 26 जनवरी को राज्य में प्रेसिडेंट रूल लगाया गया. जिसके कारण नबाम तुकी सरकार हटी. 19 फरवरी को राज्य से प्रेसिडेंट रूल हटाया गया. राज्य में प्रेसिडेंट रूल हटने के बाद हमने 33 विधायकों के साथ नई सरकार बनाने की पेशकश की, इस पर राज्यपाल ने हमें सरकार बनाने का न्यौता दिया और 10 दिनों में बहुमत सिद्ध करने को कहा गया. सात दिनों में ही यानि 25 फरवरी को हमने सदन में अपना बहुमत सिद्ध किया. हमारी सरकार कहीं भी गलत कारणों से नहीं बनी थी, हमने हमेशा संविधान, कानून, न्याय और नीति को मानते हुए काम किया और सरकार बनाई.
जबकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फैसला इस प्रकार है- सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान बेंच ने राज्यपाल के पूर्वाहूत आदेश और विधायकों को भेजे गए उनके संदेश को खारिज कर दिया. पहले और दूसरे (1 और 2) को ध्यान में रखते हुए (16-17) को हुए सत्र को खारिज कर दिया.पहले, दूसरे और तीसरे को ध्यान में रखते हुए विधानसभा के फैसले को खारिज किया. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में मेरी सरकार के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में लागू प्रेसिडेंट रूल के बारे में भी कुछ नहीं कहा. 25 फरवरी को विधानसभा में हुए फ्लोर टेस्ट, जो कि छठी विधानसभा का सातवां सत्र था, के बारे में भी कोई टिप्पणी नहीं की. इसके बाद विधानसभा का बजट सत्र हुआ, बजट पारित हुआ, जो छठी विधानसभा का आठवां सत्र था, इस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं कहा.
इस केस में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला बिल्कुल गलत था, हमारे संविधान में दिए गए ये कानून बहुत ही आम हैं और बच्चे-बच्चे इन कानूनों से वाकिफ हैं.
Article 174 – The Governor shall from time to time summon the House or each House of the Legislature of the state to meet at such time and place as he thinks fit- राज्यपाल को ये शक्ति है कि वे विधानसभा को नियमित अंतराल से चलाएं. राज्यपाल विधानसभा में कोई बाधा होने पर अपने हिसाब से समय और जगह तय कर सत्र बुला सकते हैं.
­Article 175- The Governor may sent messages to the House or House of the legislative of the state, whether with respect to a bill then pending in the legislature or otherwise, and a House to which any message is so sent shall with all convenient dispatch consider any matter required by the message to be taken into consideration- राज्यपाल विधानसभा के दोनों हाउस को अपना मैसेज भेज सकते हैं, सत्र में भेजे गए मैसेज को हर हाल में अमल में लाना होगा.
आर्टिकल 163- मुख्यमंत्री या उनके परिषद राज्यपाल से सलाह ले सकते हैं. अगर किसी भी तरह का कोई विवाद खड़ा होता है, तो राज्यपाल का फैसला ही अटल व मान्य होगा. इसके लिए राज्यपाल के फैसले को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती.
हमारे देश के संविधान में बताए गए इन कानूनों के अनुसार, किसी राज्य में सरकार गिरने या माइनॉरटी में होने और राज्य में किसी तरह का संकट आने पर राज्यपाल को ये अधिकार रहता है कि वे राज्य में विधानसभा के सत्र को बुलाकर, मुख्यमंत्री को बहुमत सिद्ध करने का आदेश दे सकते हैं.
इस केस में सिर्फ नबाम तुकी को ही हटाने की बात नहीं थी, बल्कि स्पीकर नबाम रिबिया को भी हटाने का प्रस्ताव था. ये जानकर नबाम रिबिया ने एक महीने की जगह दो महीनों से भी ज्यादा समय देकर विधानसभा सत्र बुलाया, जबकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. ऐसा कर वे विधायकों का खरीद-फरोख्त करने में अपने भाई नबाम तुकी की मदद कर रहे थे. जबकि स्पीकर को हटाने का नोटिस और प्रस्ताव आने के सिर्फ 14 दिन बाद ही कार्यवाई की जानी चाहिए. इस बात को ध्यान में रखते हुए राज्यपाल ने विधानसभा सत्र को पूर्व आहूत किया. राज्यपाल ने हमेशा कानून के दायरे में रहकर काम किया, इसमें उनकी कोई गलती नहीं थी.
सुप्रीम कोर्ट से ऐसा फैसला मिलने पर मेरा न्यायालय से विश्वास उठ गया है. मुझे दुख तो इस बात का है कि अरुणाचल राज्य के विधायक तो बिके हुए हैं और बिकते हैं, कांग्रेस भी बिकी हुई है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज भी बिके हुए होंगे मैंने कभी नहीं सोचा था. उन्होंने फैसला मेरे हक में देने के लिए मुझसे और मेरे करीबियों से कई बार सम्पर्क किया. उन्होंने मुझसे 86 करोड़ रुपए की घूस मांगी थी. जबकि मैं एक आम और गरीब आदमी हूं, मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं, जिससे मैं सुप्रीम कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के जज और उसके फैसले को खरीद सकूं और न ही खरीदना चाहता हूं. क्योंकि मुख्यमंत्री की जो कुर्सी है, वो जनता की सेवा और सुरक्षा के लिए है, जिसको मैं खरीदकर हासिल नहीं करना चाहता हूं. इसीलिए मैं कोर्ट में दुबारा नहीं गया और न ही दुबारा अर्जी डाली.
वीरेंद्र केहर ने मेरे आदमियों से सम्पर्क कर मुझसे 49 करोड़ रुपए मांगे
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जगदीश सिंह केहर के छोटे बेटे वीरेंद्र केहर ने मेरे आदमियों से सम्पर्क कर मुझसे 49 करोड़ रुपए मांगे. वहीं जस्टिस दीपक मिश्रा के भाई आदित्य मिश्रा ने मुझसे 37 करोड़ रुपए की मांग की थी. कपिल सिब्बल की भी सुप्रीम कोर्ट में अपनी लॉबी है. हर वकील, हर जज इन्हीं के इशारे पर घूस लेकर, झूठे फैसले करते हैं और नाचते हैं. कपिल सिब्बल ने चार्टर्ड विमान से गुवाहाटी आकर आधे घंटे में ही हाईकोर्ट से स्थगन आदेश ले लिया था. जबकि पहले कोर्ट ने उसी केस को खारिज कर दिया था.
इस पर मैं प्रशांत तिवारी के साथ कपिल सिब्बल से चार बार मिला. मैंने सिब्बल जी को नबाम तुकी की सारी हकीकत बताई. जब मैं कपिल सिब्बल से उनके घर पर (1-जोरबाग, मेट्रो स्टशेन के पास, अरबिंदो मार्ग, नई दिल्ली) मिला तब उन्होंने मुझसे 9 करोड़ रुपए की मांग की थी और उन्होंने मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा फैसला टालने के लिए 9 करोड़ मांगे एडवांस में चार करोड़ रुपए देने की मांग की. ये बात तय होने के बाद, उन्होंने गुवाहाटी होईकोर्ट में नियमित सुनवाई में जाना ही छोड़ दिया.
गुवाहाटी हाईकोर्ट में जहां कांग्रेस का वकीलों और जजों पर दबाव नहीं था, वहां हमने ये केस जीता था. बाद में हमें यह पता चला कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कपिल सिब्बल को राज्यसभा भेजने का लालच देकर नबाम तुकी का केस दुबारा लड़ने को कहा था. कपिल सिब्बल ने ही सुप्रीम कोर्ट में जजों को पैसे देकर सारा खेल रचा और नबाम तुकी को झूठी जीत दिलाई. बदले में आज वे राज्यसभा के सांसद बन गए हैं. मैंने अपने 31 साल के राजनीतिक जीवन में देखा है कि न्यायालय में कांग्रेस के ही वकील और जज हैं, जो आपस में मिले हुए हैं.
फैसला टालने के लिए 9 करो़ड मांगे गए
मुझसे 12 जुलाई की रात 9 बजे तक सम्पर्क किया गया कि अगर मैं एडवांस 9 करोड़ रुपए दे दूं, तो फैसले को एक महीने तक टाला जा सकता है और मेरे पक्ष में फैसला देने पर बाकी 77 करोड़ रुपए देने की बात कही गई. लेकिन मैंने उनकी एक नहीं सुनी और न ही पैसे देने के लिए राजी हुआ. न्याय को डगमगाता देखकर ही मैंने फैसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की और न ही फैसले की वापसी पर विचार करने की कोई अर्जी दाखिल की, क्योंकि मुझे पता चल गया था कि न्याय और जज बिक चुके हैं.
आज 25 जुलाई तक जस्टिस केहर की तरफ से राम अवतार शर्मा मुझसे सम्पर्क कर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलने की बात कर रहे हैं. इस पर कब और कैसे पेटिशन डालना है, इसका काम भी उन्होंने खुद ही अपने जिम्मे लिया है. इसके लिए उन्होंने मुझसे 31 करोड़ रुपए मांगे हैं.
देश और जनता कानून के इन दलालों, सौदागरों और भ्रष्ट गद्दारों को पहचाने और अपनी अंतरात्मा से न्याय के तराजू पर सच-झूठ, सही-गलत का फैसला करे. सरकार को जज के फैसले पर भी निगरानी रखनी चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने के लिए कोई कानून बनाना चाहिए. ताकि इस कानून की मदद से न्यायालय में हो रहे भ्रष्टाचार को रोका जा सके. जल्द से जल्द इस तरह का कानून बनाया जाना चाहिए, जिससे देश और जनता के हित में न्याय हो सके.
आज देश में वकील और जज भ्रष्ट हैं. जज का काम संविधान का सही अर्थ बताना है, न कि उसे झूठ बता कर पेश करना और न उस पर झूठा फैसला करना है. सच कड़वा होता है, लेकिन सच मुझे इस हालत में मिलेगा मुझे नहीं पता था. इस सच का सामना कर मेरी रूह अंदर तक कांप गई है. मेरा न्याय से भरोसा उठा गया है. इस देश के बारे में चिंता होती है कि यहां की भोली जनता का क्या होगा? दोस्तों मैंने जो भी बातें यहां बताई है, वो शत-प्रतिशत सही हैं. मैंने ये बातें अपनी अंतरात्मा से कही है. मैंने इन्हें कहीं भी बढ़ा-चढ़ाकर, मिर्च-मसाला मिलाकर पेश नहीं किया है और न ही तथ्यों से कोई छेड़छाड़ की है.
आज जो बातें हम फिल्मों में देखते और कहानियों में पढ़ते सुनते आ रहे हैं, उन्हें हम हकीकत में देख रहे हैं, जिससे ये बात सिद्ध हो गई कि पैसा बोलता है. जहां कहीं भी घटना होती है, वो एक बार ही होती है, जैसे-जैसे कम्प्लेंट, इन्क्वायरी, कोर्ट केस हियरिंग होती है, वैसे-वैसे स्थिति और हालत नहीं बदलते, फिर जजों के मत और फैसले क्यों बदलते हैं? इस देश में संविधान के कानून की एक ही किताब है जो लोअर कोर्ट, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में रखी है और उसके बाहर भी देश-दुनिया में उपलब्ध है. जिसे वकीलों और जजों के अलावा और भी लोग पढ़ते हैं, समझते हैं.
जब कानून की किताब नहीं बदलती, तो जजों के फैसले कैसे बदल जाते हैं? केस में हार-जीत का फैसला बार-बार क्यों बदलता है? किसी भी केस में बदलता हुआ फैसला हमें ये बताता है कि कानून के जज बिके हुए हैं. लेकिन इन फैसलों से सच नहीं बदलता है, सच तो अटल और अजर-अमर है, जिसे भगवान भी नकार नहीं सकते हैं.
मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में, बचपन से ही गांव का प्यार और विश्वास जीता है, छात्र जीवन से ही सभी चुनाव जीते हैं और अपने राजनीतिक जीवन में मैंने कभी हार का चेहरा नहीं देखा. 1995 में अपने पहले विधानसभा चुनाव से ही मैं मंत्री बनाया गया. हर पद पर काम करते हुए, मैंने बिना बदनामी के कठिनता और मेहनत से कार्य किया है. जिससे मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में समाज, समुदाय, क्षेत्र और राज्य के विकास में और लोगों की सेवा में बहुत सा योगदान दिया है.
इसलिए मुझे अपने जिंदगी से, कर्मों से कोई गिला शिकवा, पछतावा, कोई दुःख कोई गम नहीं है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले को मैं अपनी हार नहीं मानता हूं. क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं अगर कोई क्लैरिफिकेशन, रीव्यू पेटिशन या एसएलपी दायर करूं, तो मैं पक्का जीतूंगा, जहां जजों की फिर से कम से कम 80-90 करोड़ रुपए का कमाई होगी, वो भी दोनों तरफ से. इसलिए मैं ऐसा नहीं करना चाहता हूं.
मेरा संदेश
इस राज्य और देश की नादान व भोली जनता को मेरा संदेश सरल और साफ है.
मैं मेरी प्यारी जनता से अपील और विनम्र निवेदन करता हूं कि हमेशा राज्य और समाज के हित में ही अपना अमूल्य वोट दें. कभी किसी के दबाव में अपने आने वाले कल को मत मारें और न ही किसी बाहुबली को अपने ऊपर हावी होने दें. चुनाव के समय में बांटे गए शराब और पैसों के लिए अपने भविष्य और आने वाली पीढ़ी को दलदल में न धकेलें और न ही अपने हक के लिए किसी से कोई समझौता करें. अपना वोट देने से पहले एक बार अपने बच्चों को देख लें और उनके भविष्य के बारे में सोच लें, मैं पक्का दावा करता हूं कि आपका वोट सही उम्मीदवार को ही जाएगा. जनता को उम्मीदवारों के खोखले और चुनावी जुमलों को पहचानना चाहिए. वोट मांगने पर उनसे सच-गलत पर सवाल करना चाहिए और जहां तक हो सके उनकी बीती जिंदगी, उनके आचार-विचार और उनके रवैये को देखकर ही वोट देना चाहिए.
मैंने काफी बार ये देखा है कि समाज के बहुत से ईमानदार लोग वोट देने से कतराते हैं. वे सोचते हैं कि उनके एक वोट देने से कोई फर्क नहीं पड़ता, जबकि ये सोच गलत है. जनता का एक-एक वोट हीरे जितना कीमती और बहुमूल्य होता है, क्योंकि उस वोट में लोकतंत्र की वो ताकत होती है, जो हर बाहुबली और तानाशाह को उखाड़ फेंकने में सक्षम होती है.
जनता ये तय करे और उनका ये फर्ज है कि वो सोच-समझकर अपने हित में आने वाले उम्मीदवार को ही वोट देकर विजयी बनाएं, फिर चाहे वो किसी भी कौम, मजहब या समाज का हो. जनता को एक पढ़े-लिखे, संस्कारी, उच्च विचारों से ओतप्रोत, राष्ट्रीय चिंतन, अपने जीवन में जिसने कड़ा संघर्ष किया हो, अपने जीवन में दुख देखा और सहा हो ऐसे देशभक्त उम्मीदवार को चुनना चाहिए. जिससे समाज के हर वर्ग का फायदा हो सके और राज्य व देश सही दिशा में आगे बढ़ सके.
विद्यार्थियों को मेरा संदेश इतना है कि वे अपनी पढ़ाई पूरी लगन, मेहनत और ईमानदारी के साथ करें. आप अपनी पढ़ाई को ही पूजा समझें और पूरी श्रद्धा व शक्ति के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करें. आप विद्यार्थी जीवन में जो ज्ञान और समझ हासिल करते हैं वही ज्ञान और विवेक जीवनभर आपके साथ रहता है. हर वक्त ज्ञान लेना, ज्ञान बांटना और ज्ञान में ही डूबे रहने की आपकी कोशिश होनी चाहिए. इस समय आप मिट्‌टी के एक कच्चे घड़े की तरह होते हो, जिसे कैसे भी घुमाकर आकार दिया जा सकता है, लेकिन अगर पकने पर आकार दिया गया, तो घड़ा फूट सकता है. इसलिए इस वक्त को पहचान कर आप अपने जीवन को महान बना सकते हैं. अगर हम किसी भी महान इंसान की जिंदगी में झांकें, तो हम पाएंगे कि वे अपने विद्यार्थी जीवन में ही सबसे ज्यादा संघर्ष कर आगे बढ़े. आज आपको सिर्फ अपने करियर और लक्ष्य के बारे में ही सोचना चाहिए और उसे हासिल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करनी चाहिए. यहां आपको राजनीति और व्यापार से दूर रहना चाहिए. यदि आप ऐसा करते हैं, तो आपका दिमाग पढ़ाई से हट सकता है और आप शिक्षा में पिछड़ सकते हैं.
हमारे देश में काफी पहले से विद्याश्रम की परम्परा चली हुई है, जिसमें छात्र अपना घर-परिवार, ऐशो आराम छोड़कर आश्रम में पढ़ने जाते थे. जहां वे शास्त्र, शस्त्र और राजनीति की शिक्षा लेते थे. आज हमें भी कुछ ऐसी ही शिक्षा नीति की जरूरत है, जहां हम अपने बच्चों को उनके हिसाब से खेल, संगीत, शास्त्र, विज्ञान, गणित और राजनीति की समझ दे सकें और उनके सुनहरे भविष्य की मंगल कामना कर सकें. मेरा आपसे यही कहना है कि अपने कीमती समय और जीवन को एक दिशा व लक्ष्य देकर एक महान पीढ़ी बनाने में अपना योगदान दें. अपने इस समय में राजनीति में न आएं और न ही इसकी बुरी चालों में फंसें, ऐसा कर आप अपने करियर को बर्बाद कर सकते हैं.
मेरा मानना है कि छात्र एक नॉन पॉलिटिकल प्रेशर ग्रुप है, जिसका काम हमेशा सरकार, नेता और अधिकारियों पर ध्यान व निगरानी रखना है और उन्हें गलत काम करने से रोकना है और जनता व समाज के हित में आवाज उठाना है. राज्य और सरकार में हो रहे गलत कामों के खिलाफ और भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ अगर छात्र संघ आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा? जनता और समाज को कौन सही दिशा देगा? एक बार अपनी पढ़ाई पूरी कर आप किसी भी क्षेत्र या पेशे में जा सकते हैं.
गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) के संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि एक एनजीओ चलाने का सही मतलब राष्ट्र का चिंतन करना होता है. लोगों में जागरूकता पैदा करना, लोगों के हित में सोचना और देश में सही गलत पर अपने विचार रखना होता है. समाज, राज्य और राष्ट्रीय हित में एक सरकार से ज्यादा एनजीओ की भूमिका होती है. एनजीओ को एक सरकार से ज्यादा सेवा भाव रखना चाहिए. एक विश्वास, लगन, मेहनत, ईमानदारी और जज्बे के साथ काम करना चाहिए. लेकिन मैंने राज्य में ज्यादातर एनजीओ को पैसे कमाते, अधिकारियों को ब्लैकमेल करते और जन हित के पैसों को गबन करते देखा है. सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपना काम छोड़ दूसरों के काम में टांग अड़ाते ज्यादा देखा है. सरकार और अधिकारियों की दलाली में वे बुरी तरह से लिप्त हैं या यूं कहूं कि इनकी अपनी अलग ही लॉबी है, जिससे वे लोगों से पैसे लूटने में लगे रहते हैं. यही कारण है कि आज राज्य में सामाजिक कार्यकर्ताओं की इज्जत नहीं की जाती और न ही उनकी आवाज सुनी जाती है. अपनी खोई हुई छवि को वापस पाने के लिए आप सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं को एकजुट होकर काम करना चाहिए. आपका मुख्य उद्देश्य इंसानियत की रक्षा करना, भ्रष्टाचार, गलत नीतियों, भेदभाव, ऊंच-नीच, सही-गलत, बदमाशों, गरीबों व पिछड़ी जाति को सताने और दंडित करने वालों के खिलाफ लड़ना है. मैं प्रार्थना करता हूं कि भलाई की इस राह में आपके कदम कभी नहीं डगमगाएंगे.
मैं नेताओं को समझाना नहीं चाहता, लेकिन अपने सिद्धांतों के चलते जो कुछ देखा और अनुभव किया है, उस पर मन में उठ रहे विचारों को जरूर बताना चाहूंगा. नेताओं और मंत्रियों को मेरा ये कहना है कि अगर आप राजनीति में आने की सोचते हैं, तो जनता को अपने परिवार की तरह समझें और उनके दुख को अपना दुख समझकर उन्हें हर तरह से मदद करने की कोशिश करें. कहने का मतलब है कि बिना जनता के प्यार, सहयोग और आशीर्वाद के कोई नेता नहीं बन सकता. क्योंकि चुनावी माहौल और चुनावी रैलियों के दौरान उम्मीदवारों से भी ज्यादा उनके कार्यकर्ता और वोट देने वाले मतदाता बड़ी ही आशा और उम्मीद के साथ काम करते हैं, ज्यादा दौड़-धूप करते हैं, घर परिवार तक बंट जाते हैं, आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, खून-खराबों तक बात पहुंचने पर भी वे उम्मीदवारों का साथ नहीं छोड़ते. केवल इसलिए कि उनका उम्मीदवार चुनाव में जीत कर उनके हित के लिए काम करेगा. अच्छी सड़कें, साफ-सुथरा और निरंतर पीने का पानी, बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य, युवाओं को नौकरी, अच्छे रहन-सहन, खान-पान, क्षेत्र के आर्थिक विकास, समाज में कानून और शांत माहौल पैदा करने और क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए लिए कार्य करेगा.
राजनीति में आने का मतलब कमाई करना नहीं है, बल्कि ये उद्देश्य होना चाहिए कि हम मुख्यमंत्री (पू.) ने आत्महत्या से पहले आखिरी बार लिखा मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री और विधायक भ्रष्ट हैं
लोगों की सेवा के लिए आए हैं. अगर हमें कमाई ही करनी है, तो हमें नेता बनने की जरूरत नहीं है. कमाई करने के बहुत से तरीके हैं, जैसे खेती, व्यापार, नौकरी, ठेकेदारी, खेल-कूद और नाच-गाने से भी पैसा कमाया जा सकता है. इन सबके बारे में तो हर कोई आम आदमी भी सोच सकता है और कर सकता है. लेकिन असल राजनीति तो उस सामाजिक धर्म का नाम है, जिसमें आप अपना सुख-चैन, धन-दौलत, नींद-आराम सब कुछ त्यागकर समाज के हर वर्ग, हर तबके को अपनाकर जनता की भलाई करने आते हैं. हमें राजनीति में धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा के नाम पर लोगों को गुमराह नहीं करना चाहिए, बांटना नहीं चाहिए, लड़ना-लड़ाना भी नहीं चाहिए. बल्कि हमें राष्ट्रीय एकता, अखंडता, सद्भावना और संप्रभुता के हित में सुख-शांति बनाए रखनी चाहिए.
लेकिन मैं इस बात से दुखी हूं कि अरुणाचल राज्य में नेता बनने के बाद वो जनता को भूलकर खुद की ही सेवा करने में लग जाते हैं. नौकरी की कहीं पोस्ट निकलने पर वे अपने ही परिवार, रिश्तेदारों और जाति को ही चुनते हैं. कुछ पोस्ट बचने पर वे उन्हें दूसरों को देते हैं, वो भी पैसे लेकर. ऐसी नौकरी तो किसी जरूरतमंद, गरीब और हर तरह से पिछड़े हुए लोगों को ही मिलनी चाहिए. अगर ये गरीब इंसान को नौकरी दे भी देते हैं, तो उनसे घूस मांगते हैं. इतना ही नहीं, घूस लेकर वे अधिकारियों का ट्रांसफर भी कर देते हैं, जिससे अच्छे और काबिल लोगों को काम कर अपना हुनर दिखाने का मौका नहीं मिल पाता है. किसी का प्रमोशन करने पर भी ये घूस मांगते हैं.
राज्य में ठेका निकलने पर विधायक और मंत्री अपनी बीवी और बच्चों के नाम पर ठेका लेते हैं. किसी और को ठेका देने पर भी उसमें अपनी हिस्सेदारी रखते हैं. ऐसे में अच्छे और नेक कॉन्ट्रैक्टरों का क्या होगा? काम समय पर पूरा नहीं होगा और न ही काम में कोई गुणवत्ता रहेगी.
राज्य में स्कीम जनता की जरूरत के हिसाब से नहीं बल्कि मंत्रियों और विधायकों के पैसा कमाने के मतलब से बनाई जाती है. नेता लोग टेंडर पहले ही तय कर, पैसों का हिस्सा भी तय कर लेते हैं कि किसको कितना पर्सेंट मिलेगा. राज्य में स्कीम सैंक्शन होने पर काम में प्रगति नहीं आती, बल्कि मंत्रियों और विधायकों के खजाने में वृद्धि होती है. जिसे वे मिलजुल कर हजम कर लेते हैं. प्रोजेक्ट खत्म होने से पहले ही नेताओं की बिल्डिंगें बन जाती हैं. असल में स्कीम सैंक्शन होने के बाद ठेका का काम एक साल में पूरा हो जाना चाहिए और प्रोजेक्ट बड़ा होने पर ज्यादा से ज्यादा दो साल के अंदर काम पूरा हो जाना चाहिए. लेकिन अरुणाचल में एक प्रोजेक्ट को 8-9 साल तक लंबा खींचा जाता है, ताकि विधायक और मंत्री ज्यादा से ज्यादा अपनी जेब भर सकें. उदाहरण के तौर पर, आप राज्य में सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग, एसेम्बली बिल्डिंग और स्टेट हॉस्पीटल, एमएलए कॉटेज, कनवेंशन हॉल को देख सकते हैं. इन योजनाओं को चलते हुए आज 11 साल से ज्यादा का वक्त हो गया है. सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग ने राज्य में चार मुख्यमंत्रियों को देखा है. जिनमें गेंगांग अपांग, दोरजी खांडू, जोर्बम गामलिन और नबाम तुकी शामिल हैं. लेकिन एक भी मुख्यमंत्री इस काम को पूरा कराने में सक्षम नहीं थे. इन सभी के कार्यकाल में घोटाले हुए. उसी योजना के फंड को 3-4 बार बढ़ाया गया, फिर भी ये काम अब तक पूरा नहीं हुआ है.
अपने मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल के अंदर मैंने जरूरी फंड और अल्टिमेटम देकर चार महीनों में ही सेक्रेटेरिएट बिल्डिंग के काम को पूरा करवाया, जिसमें मुख्यमंत्री और मंत्रियों के दफ्तर शिफ्टिंग को तैयार हैं. इतना ही नहीं बल्कि इसके साथ असेंबली बिल्डिंग और स्टेट हॉस्पीटल और अन्य काम को भी मैंने पूरा करवाने के लिए जरूरी फंड देकर अल्टिमेटम दिया था, जिसे अगस्त महीने में शिफ्ट किया जाना था. मैंने अपनी पूरी मेहनत, जोश और हौसले के साथ काम किया था और वही मेरा कर्तव्य था. मैंने इस राज्य में काम करने की एक मिसाल पेश की है और मैं चाहता हूं कि आगे भी प्रोजेक्ट और योजनाओं को ऐसे ही पूरा किया जाए.
मैंने अपने विधानसभा क्षेत्र के अनजॉ जिले में 11 माइक्रो हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स का निर्माण सही समय पर और सही फंड से करवाया. पहाड़ी और बॉर्डर क्षेत्र होने के बावजूद हमने विकास किया. जिसके कारण जिले के डीसी मुख्यालय और सीओ मुख्यालय में आज 24 घंटे बिजली व्यवस्था उपलब्ध है. जबकि राज्य की राजधानी ईटानगर और सबसे पुराने शहरों, पासीघाट, जीरो, आलो व तेजू में आज भी बिजली की कमी है.
मैंने हवाई जिला मुख्यालय में शहरी जल आपूर्ति योजना मंजूर कराई थी. 14 करोड़ की इस योजना को पूरा करना आसान नहीं था. पहाड़ी क्षेत्र की वजह से हमें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था. लेकिन फिर भी इस काम को दो सालों में ही पूरा करवा दिया था. आज क्षेत्र के दो शहर और पांच बस्तियों को इस योजना का लाभ मिल रहा है. तेजू में भी पानी की ऐसी ही योजना को मैंने और योजना सचिव प्रशांत लोखंडे ने मंजूर करवाया था. समतल क्षेत्र होने के बाद भी 24 करोड़ रुपए के फंड को खत्म कर इसे आज तक पूरा नहीं किया गया है. उस फंड का अपव्यय हुआ. पूर्व विधायक कारिखो कीरी और उसके इंजीनियर भाई ने पैसों का अपव्यय किया था. तेजू में आज भी पानी सप्लाई में लोगों को तकलीफ झेलनी पड़ रही है.
इसी तरह तेजू शहर में सड़क सुधारने की बहुत सी योजनाएं थी, जिसे अलग-अलग स्रोत मसलन, एसपीए, टीएफसी, नाबार्ड और नॉन प्लान फंड से 4 सालों में 29 करोड़ रुपए का फंड दिया गया था. जबकि इस ओर कुछ भी काम नहीं किया गया और पैसों का अपव्यय हुआ. सड़क का बनना और मरम्मत करना अभी भी बाकी है. राज्य के ऐसे ही और भी बहुत से जिलों में, विधानसभा क्षेत्रों और कस्बों में योजनाएं बनीं, प्रोजेक्ट सैंक्शन किया गया. पैसा खर्च भी हो गया, लेकिन काम पूरा नहीं हुआ.
मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री और विधायक भ्रष्ट हैं
इस राज्य में कहीं कोई हिसाब-किताब नहीं है. विधायक और मंत्री मिलजुल कर आगे बढ़ते हैं. जिसके कारण राज्य में बहुत सी योजनाएं आगे नहीं बढ़ पातीं और बीच में ही लटक जाती हैं. जिनका खामयाजा जनता को भुगतना पड़ता है और राज्य विकास नहीं कर पाता है. यहां मुख्यमंत्री से लेकर सभी मंत्री और विधायक भ्रष्ट हैं. जिनके चलते राज्य की दुर्गति होती है. आज के समय में जनता देश में हो रहे भ्रष्टाचार का खुद शिकार है, उसे देखती है, सहती है, लेकिन आवाज नहीं उठाती है. जबकि सरकार को वही चुनती है. ऐसी स्थिति में सच्चाई का मरना तो तय है. आज जनता को एकजुट होकर, एक स्वर में भ्रष्ट तंत्र का विरोध करना चाहिए.
आज अधिकारियों के लिए नियम-कानून, योजना और तंत्र बना हुआ है, जिसके हिसाब से उन्हें काम करना चाहिए. उन्हें जनता की सेवा-सुविधा के लिए नियुक्त किया जाता है. लेकिन ये नेताओं और बड़े अधिकारियों को अपना सहयोग देते हैं, उनके और अपने हित में काम करते हैं और उनके दबाव में काम करते हैं. ऐसी हालत में राज्य और जनता के बारे में कौन सोचेगा? कौन उनके हितों को आगे बढ़ाएगा? आम लोग जाएं तो कहा जाएं?
पुलिस और प्रशासन का काम लोगों के जान-माल की रक्षा-सुरक्षा करना है, उनके सही-गलत को पहचानना है और उनकी हर संभव सहायता करना है. लेकिन आज ये नेताओं की चापलूसी करते हैं, उनके साथ मिलकर राजनीति करते हैं और सिर्फ उन्हीं के लिए काम करते हैं. ऐसे में जनता का क्या होगा और उन्हें कौन बचाएगा?
आज न्यायालय का काम सच का फैसला करना, झूठे और भ्रष्ट लोगों को सजा देना है, फिर चाहे वो अधिकारी, नेता और मंत्री ही क्यों न हो. लेकिन आज लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के वकील और जज तक बिके हुए हैं. ऐसे में सच्चे, भोले, निर्दोष, मेहनती और अच्छे व्यवहार वाले लोगों का क्या होगा? कौन उनकी सुनेगा? कौन उन्हें सच्चा फैसला देगा? और कौन उनकी रक्षा करेगा? ये सबसे ज्यादा दुख की बात है कि न्याय और न्यायालय बिके हुए हैं. ऐसे में सिर्फ भगवान ही लोगों की रक्षा कर सकते हैं. लेकिन भगवान वोट देने तो नहीं आएंगे, भ्रष्ट तंत्र को सही करने खुद तो नहीं आएंगे. हे भगवान आपसे मेरी प्रार्थना है कि इस भोली जनता को बुद्धि-ज्ञान दें, सोच-समझ दें, हिम्मत ताकत दें, ताकि वो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा सकें, लड़ सकें और भ्रष्ट दिमाग और विचार वाले नेताओं को उखाड़ सकें.
अगर ऊपर बैठे लोग ही सही नहीं हैं, तो कैसे हम किसी को इसका दोष दे सकते हैं. राज्य के बड़े मंत्री दोरजी खांडू, नबाम तुकी, चोउना मीन, पेमा खांडू और बहुत से मंत्री और विधायकों ने हमेशा अपना स्वार्थ देखा है और अपना घर भरा है. मैं राज्य में हो रहे इस भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहता था, सरकारी योजनाओं और जनता के पैसों को विकास के कामों में उपयोग करना चाहता था. अपने राज्य और जनता को देश के अन्य राज्यों व दुनिया के बराबर और उससे भी आगे बढ़ाना चाहता था. लेकिन शायद ये बात मेरे साथी विधायकों को अच्छी नहीं लगी.
मैं पूछता हूं कि जनता कब जागेगी और कब इसे होश आएगा. कब तक जनता चुनावों में नेताओं की महंगी कारों को देखकर, शराब व थोड़े से पैसे लेकर और उनके झूठे वादों को सच मानकर वोट देती रहेगी. सच तो ये है कि जनता खुद ही बेवकूफ बने रहना चाहती है, वो सच से दूर भागती है. जनता अपने आप तय करे कि उन्हें क्या करना है. मेरा काम तो जनता को सच बताना था, लेकिन फैसला जनता के हाथ में ही है.
अपने 23 सालों के राजनीतिक सफर में अलग-अलग मंत्री पद पर रहते हुए, मैंने राज्य और जनता के हित में जो काम किया, जिस भी विभाग में काम किया या अपने विधानसभा क्षेत्र में काम किया, वो शायद आपको नहीं दिखा. लेकिन अपने साढ़े चार महीने के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में जो मैंने कार्य किया, वो राज्य और जनता के हित में किया गया था. जिसे आप सभी ने देखा, सुना, समझा और सराहा है. मैं अरुणाचल प्रदेश और देश की जनता को खासकर युवा पीढ़ी को धन्यवाद देता हूं कि सोशल मीडिया, व्हाट्सएप और ट्‌वीटर पर 17 लाख से भी ज्यादा लोगों ने हमारी सरकार के काम, नीतियों, योजनाओं और फैसलों का समर्थन किया और सराहा है.
इन बातों को बताने में मेरा कोई स्वार्थ नहीं है, न ही मुझे किसी से कोई भय है, न मैं कमजोर हूं और न मैं इसको अपना समर्पण मानता हूं. इन बातों को कहने के पीछे मेरा इरादा जनता को जगाना है, उन्हें सरकार, समाज, राज्य और देश में हो रहे इन गंदे नाटकों, लूटपाट और भ्रष्ट तंत्र के सच के बारे में बताना है. लेकिन लोगों की याददाश्त बहुत कमजोर है, वे कोई भी बात जल्द ही भूल जाते हैं. इसलिए इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने जनता को याद दिलाने, जगाने, विश्वास दिलाने, समझाने और विचार करने के लिए ये कदम उठाया है. मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में सबकुछ सहा है, देखा है, अनुभव किया है, बहुत संघर्ष किया और कई बार औरों की खुशी व समाज के हित के लिए बलिदान भी दिया है. लेकिन मैं कभी हारा नहीं और न ही मैंने कभी हार मानी है.
मैंने हमेशा ही राज्य और जनता के हित में फैसला लिया है. मैंने अपना सुख-चैन, समय-स्वास्थ्य, धन-दौलत, नींद-आराम, घर-परिवार और अपने आपको त्यागकर जनता को समर्पित किया है. मैंने अपनी हर सांस, हर लम्हा, हर वक्त और सब कुछ जनता के हितों के लिए त्यागा है. मेरे इस संदेश, त्याग और बलिदान को अगर थोड़े से लोग भी अहसास कर, विचारकर और समझकर अपने में कुछ भी सुधारते हैं, अपने कर्म और सोच विचार में पवित्रता लाते हैं, लूट-लालच को, मांगने-छीनने को, लड़ने-झगड़ने को छोड़ते हैं और समाज, राज्य और देश के हित में थोड़ा योगदान देते हैं और कुछ अच्छा काम करते हैं तो ये सार्थक बात होगी. मैं चाहता हूं कि मेरे दिल की ये बात, सोच-विचार, अनुभव और संदेश ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे, ताकि मैं आपको समझा सकूं, जगा सकूं और सच्चाई की लड़ाई में आपको हिम्मत और ताकत दे सकूं.
कलिखो पुल
08.08.2016

 मुख्यमंत्री के सुसाइड नोट को ग़ायब क्यों किया गया

sucideसिस्टम कितना बेरहम होता है. वो अपने ही व्यक्ति की मौत का सुख उठाता है. हमारे इस महान देश के एक मुख्यमंत्री आत्महत्या करते हैं. आत्महत्या करने से पहले वे एक विस्तृत आत्महत्या स्वीकृति पत्र लिखते हैं, जिसे सुसाइड नोट कहा जाता है. उनके उस नोट के ऊपर कहीं कोई बातचीत नहीं होती, कोई उसकी छानबीन नहीं करता.
अचानक वो नोट गायब हो जाता है. नेशनल लॉयर्स कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल ट्रांसपेरेंसी और अन्य 10 लोगों ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दाखिल किया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पीआईएल को जिस तरह खारिज किया, वो भी एक विस्मयकारी चीज है. सरकार, केंद्र सरकार खामोश हो जाती है और इतनी खामोश हो जाती है कि सांस तक नहीं लेती.
आत्महत्या करने वाले इन मुख्यमंत्री महोदय की पत्नी चुनाव लड़कर भारतीय जनता पार्टी की विधायक बन जाती हैं. शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने इस आत्महत्या वाले पत्र पर खामोश रहने का किसी को वचन दे दिया. उन्होंने कोई मांग नहीं उठाई. आखिर क्या था इस पत्र में? क्यों ये गायब हो गया? लोगों के पास सिर्फ इतनी जानकारी आई की ये 60 पृष्ठ का दस्तावेज है. इस दस्तावेज में क्या है, न अरुणाचल सरकार ने बताया जहां के मुख्यमंत्री थे और न केंद्र सरकार ने बताया. सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह खामोश हो गया. कोई जांच नहीं, कोई सुगबुगाहट नहीं, कोई सनसनाहट नहीं.
इसे हम क्या मानें? हमने जब तलाश की और खोजबीन की, तो हमें पता चला कि इस पत्र में कुछ मंत्रियों के नाम हैं. कुछ रहे हुए मंत्रियों के नाम हैं. इस पत्र में कुछ माननीय जजों के नाम हैं, राजनीतिक दलों के कुछ महान नेताओं के नाम हैं. जिनके बारे में आत्महत्या करने वाले मुख्यमंत्री श्री कलिखो पुल ने साफ-साफ लिखा है. उन्होंने ये भी लिखा है कि उन्होंने किसे पैसे कहां दिए. जब हम पैसे कहते हैं, तो वो लाखों में नहीं होते हैं, वो करोड़ों में होते हैं. आखिर किन जज साहबानों को उन्होंने पैसे दिए.
क्या ये सारा मसला इसलिए दबा दिया गया, क्योंकि इससे हमारे सिस्टम के सबसे भरोसे वाले अंग न्यायपालिका, न्यायपालिका की गंदगी का, न्यायपालिका के भीतर चल रहे भ्रष्टाचार का खुलासा होता है. राजनीतिज्ञ धन लें समझ में आता है, लेकिन न्यायपालिका में शीर्ष पदों पर बैठे हुए लोग अगर धन लें और उसके आधार पर फैसला करें, ये बात कुछ समझ में नहीं आती और इससे ये लगता है कि जानबूझ कर हमारे लोकतंत्र को समाप्त करने की साजिश उसी के सहारे अपना जीवन गुजारने वाले कर रहे हैं.
अपनी जांच में हमें ये भी पता चला कि किस तरह केंद्र सरकार द्वारा भेजा हुआ 100 रुपया राज्य में पहुंचते-पहुंचते 25 पैसे हो जाता है. पीडीएस स्कीम सिर्फ और सिर्फ घोटालों का, खाने का और भ्रष्टाचार का तरीका बन गया है. एक पूरे तंत्र को तबाह करने की मंत्रियों की, विधायकों की, नौकरशाहों की मिलीभगत का खुला चिट्‌ठा श्री कलिखो पुल के आखिरी पत्र में है.
अगर श्री कलिखो पुल कहते हैं कि उन्होंने लोगों को पैसे दिए, तो ये पैसे आए कहां से. इसका मतलब वे भी सिस्टम का हिस्सा थे. लेकिन वे सिस्टम से लड़ते-लड़ते इतने हताश हो गए कि अंत में उन्होंने आत्महत्या करना श्रेयस्कर समझा. लेकिन आत्महत्या से पहले उन्होंने एक लम्बा पत्र लिखा. ये पत्र बताता है कि भ्रष्टाचार कैसे तंत्र में घुन की तरह घुस गया है और कैसे वे लोग ही भ्रष्टाचार के संवाहक और कंडक्टर बन गए हैं जिनके ऊपर भ्रष्टाचार को खत्म करने का जिम्मा था, चाहे वो राजनीति में हों या न्यायापालिका में हों.
मैं अगर मिली जानकारी को संक्षेप में कहूं, तो मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर भी थोड़ा तरस आता है, थोड़ा गुस्सा आता है. क्यों प्रधानमंत्री जी ने इस पत्र की जांच का आदेश नहीं दिया? एक तरफ प्रधानमंत्री जी सभाओं में भ्रष्टाचार के खिलाफ गरजते हैं, समाप्त करने की बात करते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी निष्कलंक व्यक्ति हैं.
लेकिन नरेंद्र मोदी सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार को क्यों नहीं खोलना चाहते हैं, क्यों नहीं सार्वजनिक करना चाहते हैं? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की कौन सी कमजोर नस है, जो उन्हें ऐसा करने से रोक रही है या उनकी कोई रणनीति है कि बड़े भ्रष्टाचार को और खासकर मुख्यमंत्री की आत्महत्या के पत्र को चुनाव से ठीक पहले जांच के दायरे में लाया जाए? लेकिन तब तक तो देश में और बहुत कुछ हो जाएगा. भ्रष्टाचार से लड़ने का वक्त तभी होता है, जब आप भ्रष्टाचार से लड़ने की बात करते हैं.
इसलिए मैं माननीय सुप्रीम कोर्ट, माननीय प्रधानमंत्री और माननीय संसद से ये आग्रह करता हूं कि वो एक व्यक्ति द्वारा मौत से पहले लिखे हुए पत्र को अनदेखा न करें. उसके ऊपर जांच बैठा दें. ये उनके अपने सिस्टम के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति, जो लगातार पांच बार विधायक रह चुका है की आत्महत्या से उपजा सवाल है. मैं ये भी आग्रह करता हूं कि एक सप्ताह के भीतर आप इस जांच को बैठा लें, अन्यथा हम उस पत्र को कहीं न कहीं से प्राप्त कर देश के लोगों के सामने लाएंगे. पत्रकार सिर्फ इतना कर सकता है.
अगर एनडीटीवी के ऊपर किसी पुराने मामले में सीबीआई का छापा पड़ सकता है, तो प्रधानमंत्री जी, एक मुख्यमंत्री की आत्महत्या के नोट के ऊपर सीबीआई की जांच क्यों नहीं कराई जा सकती? करानी चाहिए. आप कम से कम भ्रष्टाचार के मसले में पक्षपात नहीं करें, ऐसी अपेक्षा तो आपसे है ही.
आमतौर पर माना जाता है कि मरने से पहले व्यक्ति हमेशा सच बोलता है. आत्महत्या से पहले श्री कलिखो पुल ने एक 60 पन्ने का टाइप्ड नोट लिखा. मेरा ख्याल है कि उस टाइप्ड नोट को लिखने में तीन से चार दिन लगे होंगे. कोई उनके साथ बैठकर उसे टाइप कर रहा होगा. उन्होंने उसे पढ़ा होगा. उसके हर पृष्ठ पर उन्होंने दस्तखत किए, ताकि कोई इस नोट बदल न सके.
उन्होंने कहा है कि मेरी आत्महत्या या मेरा जाना मेरे देशवासियों के लिए कम से कम कुछ सीख देगा और वे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज उठाएंगे. लेकिन इस सिस्टम ने, सुप्रीम कोर्ट ने, केंद्र सरकार ने या स्वयं संसद ने स्वर्गीय मुख्यमंत्री की इच्छा का सम्मान नहीं किया. कहीं से कोई आवाज भी नहीं उठी कि इस पत्र के ऊपर सीबीआई जांच बैठे और जो तथ्य उन्होंने लिखे हैं, उनकी सच्चाई का पता लगाया जाए.
कहा तो ये जा रहा है कि जिन कुछ लोगों ने इस पत्र की तलाश का काम शुरू किया, उन्हें किसी एक जगह बुलाकर ये कहा गया कि आप पत्रकारिता कीजिए, आप इन सब में कहां पड़े हैं. अगर आप इसमें पड़ेंगे, तो कोई ट्रक आपको कुचल कर चला जाएगा. इसका मतलब भ्रष्टाचार को पनाह देने वाले लोग इतने ताकतवर हैं कि वे किसी भी कीमत पर भ्रष्टाचार की परतें उघड़ते हुए नहीं देखना चाहते. कोई जांच नहीं होने देना चाहते. वे बहुत ताकतवर हैं. इसीलिए आरटीआई के बहुत सारे कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं.
पत्रकारों के ऊपर दबाव बनाया जा रहा है. हमारे वो चैनल, जो पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध का कंट्रोल रूम बने हुए हैं, उनकी हिम्मत चीन के खिलाफ बोलने की तो होती ही नहीं है, उनकी हिम्मत भ्रष्टाचार को उजागर करने की भी नहीं होती है. दरअसल, बहुत सारे लोग इस तंत्र के भ्रष्टाचार का हिस्सा बन गए हैं. मैं अंत में न्यायपालिका और प्रधानमंत्री जी से आग्रह करता हूं कि सात दिन के भीतर आप जांच कमिटी बैठा लें, अन्यथा हम कोशिश करेंगे कि उस स्वर्गीय मुख्यमंत्री के पत्र को हम सार्वजनिक करें और लोगों के संज्ञान में लाएं, जिन्होंने मुख्यमंत्री रहने के बाद भी सिस्टम से हार कर आत्महत्या कर ली.
इसे कोई भी धमकी समझने की गलती न करें. ये सलाह है और प्रधानमंत्री जी से अंत में फिर हाथ जोड़कर आग्रह है कि फौरन सीबीआई की जांच का आदेश इस पत्र को लेकर दें और राजनीति और न्यायपालिका में बैठे हुए उन लोगों के चेहरे सार्वजनिक करें, जो भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा लेने के लिए बेशर्मी से मुंह खोलते हैं और मुख्यमंत्री से पैसे की मांग करते हैं. वे इस मांग को सहन नहीं कर पाते और इस दुनिया से शांति से विदा हो जाते हैं, ये सोचकर कि उनकी आत्महत्या इस देश के लोगों में आशा का संचार करेगी. लेकिन आत्महत्या करने वाले श्री कलिखो पुल को क्या पता था कि उनकी आत्महत्या का आखिरी दस्तावेज, उनका सुसाइड नोट इस देश के लोगों के पास ही नहीं पहुंच पाएगा.


1 comment:

  1. मुख्यमंत्री (पू.) का सुसाइड नोट : उपराष्ट्रपति ने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया- क्यों?
    http://www.chauthiduniya.com/2017/07/sucide-note-of-a-chief-minister.html
    आत्महत्या से पहले 60 पन्नों के सुसाइड नोट में अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल नें खोली थी कांग्रेस की पोल कहा..
    http://hindi.insistpost.com/96167/60-page-sucide-letter-of-former-cm-kalikho-pul-reveals-the-name-of-many-congress-politicians-and-supreme-court-judge/
    https://www.youtube.com/watch?v=GB1Nxeb1yIg

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