Thursday 7 September 2017

‘कौन देशभक्त? कौन देशद्रोही?

भाजपा और आरएसएस के दलित प्रेम और स्त्री सम्मान का सच
नौजवान भारत सभा द्वारा प्रकाशित पुस्तिका

 ‘कौन देशभक्त? कौन देशद्रोही?

 इतिहास के मिथ्याकरण के विरुद्ध!’ 

से एक प्रासंगिक अंश

आज भारत का कोई भी नागरिक, व्यक्ति जिसके पास थोड़ा भी विवेक होगा वह जात-पाँत और स्त्रियों के प्रति दोयम व्यवहार को किसी भी रूप में समाज के लिए ख़तरनाक कहेगा। आज़ादी की जिस लड़ाई में भारत के पुरुषों के साथ महिलाएँ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ी, हर एक जाति धर्म से लोग उठ खड़े हुए। बराबरी और समानता के विचारों के नए अंकुर इसी आज़ादी के दौरान फूटे। देश के क्रान्तिकारियों ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहाँ सभी को बराबरी और अधिकार प्राप्त हों, वहीं आरएसएस और मुस्लिम लीग ने लोगों को सदियों पुरानी रूढ़ियों और बेड़ियों में जकड़ने के लिए अपनी आवाज़ उठायी। और अपने इस गंदे मंसूबों के लिए बहाना बनाया प्राचीनता का, संस्कृति का और लोगों के आँख पर पट्टी चढ़ाने की कोशिश की धर्म की।


आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक ओर तो बेटी के साथ सेल्फ़ी फोटो खींचकर महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की नौटंकी करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वे कहते हैं कि वे ‘गोलवलकर द्वारा गढ़े हुए स्वयंसेवक हैं,’ उसी गोलवलकर द्वारा जिसका विचार था कि इस देश में संविधान के रूप में ‘मनुस्मृति’ को लाना चाहिए जिसमें दलितों और महिलाओं के बारे में भयानक गैर बराबरी और अपमान-अत्याचार की बातें कही गयीं हैं।
दूसरी ओर,आज़ादी के दौरान अमर शहीद भगतसिंह और उनके साथी दलितों, अछूतों को जागने का आह्वान करते हैं और कहते हैं कि:
“हम तो साफ़ कहते हैं कि उठो, अछूत कहलाने वाले असली जन सेवकों उठो — अपना इतिहास देखो।… यह पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी का असली कारण है – उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बग़ावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश के मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरों! उठो, और बग़ावत खड़ी कर दो।”  (भगतसिंह और उनके साथियों के सम्पूर्ण उपलब्ध दस्तावेज, सं- सत्यम, पृष्ठ-270)

भगतसिंह के लिए क्रान्ति का अर्थ था ‘क्रान्ति जनता के लिए जनता के हित में’  अर्थात व्यापक अवाम के लिए समानता और बराबरी। लेकिन संघ भारत के लिए एक ऐसा विधान चाहता है जो बराबरी के बुनियादी उसूलों को ही इनकार करता है। गोलवलकर हिन्दू समाज की सदियों पुरानी सामाजिक बुराइयों को ज़ि‍न्दा रखना चाहते हैं। वे कहते हैं:
“हिन्दू समाज ही यह विराट पुरुष है, सर्वशक्तिमान की स्वयं की अभिव्यक्ति! यद्यपि वे हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करते किन्तु ‘पुरुष सूक्त’ में सर्वशक्तिमान के निम्नांकित विवरण से स्पष्ट है। उसमें कहा गया है कि सूर्य और चन्द्रमा उसकी आँखें हैं। नक्षत्र और आकाश उसकी नाभि से बने हैं। यथा – ब्राह्मण उसका मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य उसकी जंघाएँ तथा शूद्र पैर हैं। इसका अर्थ है कि समाज जिसमें यह चतुर्विधा व्यवस्था है अर्थात हिंदू-समाज हमारा ईश्वर है।” (एम. एस. गोलवलकर, विचार नवनीत, पृष्ठ 37-38)
गोलवलकर ऐसे समाज के पक्षधर हैं जिसमें शूद्रों (आज की दलित और ओबीसी जातियाँ) हिन्दू समाज के पैर हों अर्थात निचले पायदान पर रहने के लिए अभिशप्त। उनके लिए बराबरी का कोई अर्थ न हो। समाज में बराबरी की जगह पदानुक्रम की उसी पुरानी- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वाली व्यवस्था के पक्ष में गोलवलकर खड़े हैं। कोई भी न्यायप्रिय व्यक्ति गोलवलकर के इस विचार से नफरत ही करेगा। गोलवलकर के लिए समाज में जातिवाद और अशिक्षा जैसी बुराइयों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, वे महज़ एक उन्मादी हिन्दू राष्ट्र चाहते हैं। अपनी इस बात के समर्थन में गोलवलकर कहते हैं:

“महाभारत, हर्षवर्धन, या पुलकेशी के समय को देखिये, जाति आदि जैसी सभी तथाकथित बुराइयाँ उन दिनों भी आज से कम नहीं थीं और इसके बावजूद हम गौरवशाली विजेता राष्ट्र थे। क्या जाति, अशिक्षा आदि के बन्धन तब आज से कम कठोर थे जब शिवाजी के नेतृत्व में हिंदू राष्ट्र का महान उन्नयन हुआ था? नहीं ये वे चीज़ें नहीं हैं जो हमारी राह का रोड़ा हैं” (गोलवलकर, ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड’ भारत पब्लिकेशन, नागपुर, 1939 का हिन्दी अनुवाद ‘हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा’ पृष्ठ 161)
जब भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी और आजादी के लड़ाई के दूसरे नेता अछूत समस्या, जातिवाद, स्त्रियों की दोयम स्थिति, अशिक्षा आदि सामाजिक बुराइयों को भारतीय समाज का शत्रु मानते हैं वहीं संघ के गोलवलकर को देश में कोई सामाजिक बुराई नजर नहीं आती। क्योंकि ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरे गोलवलकर को हर तरफ महानता ही दिख रही थी। शहीदों के विचारों के खिलाफ जाते हुए वे कहते हैं:
“हमें यह देखकर दुःख होता है कि कैसे हम इस राष्ट्रविरोधी काम में अपनी ऊर्जा बर्बाद कर रहे हैं और दोष सामाजिक ढाँचे तथा दूसरी ऐसी चीजों पर मढ़ रहे हैं जिनका राष्ट्रीय पुनर्जागरण से कोई लेना-देना नहीं है… हम एक बार फिर इस बात को रेखांकित करना चाहतें हैं कि हिन्दू सामाजिक ढाँचे की कोई ऐसी तथाकथित कमी नहीं है, जो हमें अपना प्राचीन गौरव प्राप्त करने से रोक रही है।” (वही, पृष्ठ  162-163)
आज इतिहास और समाज के बारे में आँखें खोलकर देखने वाले हर इंसान को यह दिखाई दे रहा है कि यह सामाजिक बुराइयाँ हमारे समाज का कितना अहित कर रही हैं लेकिन यह बात संघ नहीं देख सकता। गोलवलकर ‘मनुस्मृति’ की प्रशंसा करते हुए उसे लागू करने की वकालत करते हैं। वे कहते हैं:

“मनु की विधि स्पार्टा के लाइकरगुस या पर्शिया के सोलोन से बहुत पहले लिखी गयी थी। आज इस तरह की विधि की जो मनुस्मृति में उल्लिखित है, विश्वभर में सराहना की जाती रही है और यह स्वतःस्फूर्त धार्मिक नियम पालन तथा समानुरूपता पैदा करती है। लेकिन हमारे संविधान पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं है।” (आर्गेनाइजर, 30 नवम्बर 1949, पृष्ठ 3)
गोलवलकर की भाँति ही वी. डी. सावरकर के मन में भी ‘मनुस्मृति के प्रति बहुत सम्मान’ है। वे कहते हैं:
“‘मनुस्मृति’ वह पवित्र पुस्तक है, जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र में सर्वाधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति, रीतिरिवाजों, हमारे विचारों तथा कर्मों का आधार बन गई है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और दैवीय पथ के लिए दिशानिर्देश निर्मित किए हैं। आज भी करोड़ों हिन्दू अपने जीवन और क्रियाकलाप में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे ‘मनुस्मृति’ पर ही आधारित हैं। आज ‘मनुस्मृति’ ही हिन्दू कानून है। यह बुनियादी बात है।” (‘सावरकर समग्र’, खंड  4, पृष्ठ 461, प्रभात,  नई दिल्ली)
जिस ‘मनुस्मृति’ की इतनी प्रसंशा गोलवलकर और उनके गुरु सावरकर कर रहे हैं देखिये उसमें दलितों और स्त्रियों के बारे में कितनी अपमानजनक और क्रूर बातें की गई हैं।
दलितों के बारे में मनुस्मृति में कहा गया है किः

  1. परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बताया है, कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की भक्ति से सेवा करना(I/91)
  2. कोई शूद्र द्विज का कठोर वाणी से अपमान करे तो उसकी जीभ काट ली जाए, क्योंकि शूद्र पैर से पैदा हुआ है। (VIII/270)
  3. यदि नाम और जाति को लेकर द्वेष से शूद्र द्विज जातियों को गाली दे, उस शूद्र के मुख में अग्नि में तपाई दस अंगुल की कील डालें। (VIII/271)
  4. शूद्र अभिमान से द्विजों को धर्म उपदेश करे तो राजा उसके मुख और कान में खौलता तेल डलवाए। (VIII/272)
  5. शूद्र द्विजों को अपने जिस अंग से मारे उसी अंग को (राजा) कटवा डाले, यही मनु जी की आज्ञा है। (VIII/279)
  6. नीची जाति का ऊँची जाति वालों के साथ अभिमान से बैठना चाहे तो उसकी कमर में दाग करके देश से निकाल दें। (VIII/281)
  7. ब्राह्मण का सर मुंडवा देना ही प्राणान्तक दंड देना है, दूसरों को प्राणान्तक का विधान है। (VIII/379)
स्त्रियों के बारे में मनुस्मृति में कहा गया है कि:-
  1. किसी लड़की, युवा स्त्री या बुजुर्ग औरत को भी स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मन से कुछ नहीं करना चाहिए यहाँ तक कि अपने घर के भीतर भी नहीं (V/147)
  2. दिन और रात दोनों में ही एक औरत को घर के पुरुषों पर आश्रित रहना चाहिए। और अगर वे शारीरिक सुख में संलग्न होना चाहतीं हैं तो उन्हें निश्चित तौर पर किसी पुरुष के नियंत्रण में रहना चाहिए। ( IX/2)
  3. उसका पिता बचपन में उसकी रक्षा करता है, पति जवानी में उसकी रक्षा करता है और पुत्र वृद्धावस्था में उसकी रक्षा करता है। एक स्त्री कभी भी स्वतन्त्रता के योग्य नहीं होती। (IX/3)
  4. पति को अपनी पत्नी को अपने धन को एकत्र करने तथा खर्च करने के काम में, (घरेलू कामों में) हर चीज को साफ-सुथरा रखने के काम में, धार्मिक कर्तव्यों के पालन में, भोजन पकाने के काम में तथा घरेलू बर्तनों के देखभाल के काम में लगाना चाहिए। (IX/11)
  5. औरतें सुंदरता की परवाह नहीं करती न ही उनके लिए आकर्षण उम्र से तय होता है, उनके लिए यही बहुत है कि ‘वह पुरुष है’। वे स्वयं को सुंदर-असुंदर किसी को भी समर्पित कर देतीं हैं। (IX/14)
  6. औरतों के लिए पवित्र मंत्रों द्वारा कोई पुनीत अनुष्ठान नहीं किया जाता है इसलिए यह नियम स्थापित है– औरतें जो शक्तिहीन और बुद्धिहीन हैं तथा वैदिक पाठ के ज्ञान से वंचित हैं वे स्वयं असत्यता की ही तरह अपवित्र हैं- यह पक्का नियम है। (IX/18) (मनु के निर्देशों का यह चयन मैक्समूलर की पुस्तक ‘ला ऑफ मनु’ से किया गया है जो उनके द्वारा ‘मनुस्मृति’ का अनुवाद है।)
 जिस बात को शहीद भगतसिंह समाज के लिए शर्म की बात कहते हैं, संघी गोलवलकर और सावरकर उसी बात पर गर्व प्रकट करते हैं- भगतसिंह ने भारतीय समाज की इसी गैर बराबरी पर कहा कि
“कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन अगर एक इंसान का हमसे स्पर्श हो जाय तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है”। (भगतसिंह और उनके साथियों के उपलब्ध सम्पूर्ण दस्तावेज, पृष्ठ- 267)
8 अप्रैल 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद क्रान्तिकारी भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने पर्चा फेंका था जिसमें उन्होंने लिखा थाः
“हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके।” (भगतसिंह और उनके साथियों के उपलब्ध सम्पूर्ण दस्तावेज, पृष्ठ-332)
 हमें यह तय तो करना ही होगा कि हमें शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के सपनों का भारत चाहिए जिसमें हर स्त्री-पुरुष को समानता और बराबरी मिले या संघ भाजपा के मंसूबों का जलता हुआ अन्यायपूर्ण मुल्क।

आरएसएस की ‘संस्कृति’ का सच
आरएसएस हमेशा अपनी बात ‘भारतीय सभ्यता’ ‘भारतीय संस्कृति’ का नाम लेकर शुरू करता है। लोगों के बीच ऐसे तथाकथित शुद्धतावाद का प्रचार करता है जो न तो भारत में कहीं था और न ही आज है। इसकी सभ्यता और संस्कृति भारत की नहीं अपितु संघ की अपनी कल्पित और कट्टर, बाँटने वाली है। एक सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता है कि चाहे प्राचीन काल हो या आज का समय इतने बड़े देश में लोगों के अलग-अलग रीति-रिवाज रहे हैं। लोगों की अलग-अलग भाषा रही है। लोगों के अलग-अलग मूल्य-मान्यताएं रहे हैं तथा अनेक धर्मों के माननेवालों के बीच उनके धार्मिक दृष्टिकोण भी अलग-अलग रहे हैं। ऐसे में भाजपा तथा संघ पूरे भारत की एक संस्कृति की जो बात करता है वह एक कल्पित वर्चस्वशाली विचार से अधिक कुछ नहीं है।
भारत में प्राचीन काल में भी कोई एक सनातन धर्म ही रहा हो ऐसा नहीं है। इसी देश में बौद्ध धर्म और जैन धर्म पैदा हुए और बढ़े  जिनमें दुनिया को देखने की दूसरी दृष्टि थी। इसी देश में चार्वाकों नें यह बात कही कि दुनिया मोह-माया नहीं बल्कि सच्ची है, और हमारे दुःख के कारण इसी सामाजिक भौतिक जगत में हैं। इसी देश में कपिल और कणाद नामक दार्शनिक हुए जो संख्या और परमाणु के सिद्धांत के आधार पर दुनिया को समझने की बात करते थे। प्राचीन समय से जिस एक भाषा-संस्कृति के होने की बात आरएसएस करता है वह एक झूठ है। भाषा वैज्ञानिक बताते हैं कि भारत में आर्यों के आने से पहले हड़प्पा सभ्यता की लिपि अलग थी जो कि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी हैं। द्रविण परिवार की भाषाएँ तमिल, मलयालम उतनी ही पुरानी हैं जितनी संस्कृति। भारत बहु-भाषाई समाज रहा है और आज भी है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीयों का दृष्टिकोण भाषा को लेकर कट्टर रहा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। अलग-अलग भाषा-भाषी समूह चाहे वह आदिवासी समाज हो या कोई अन्य उनकी अपनी भाषाएँ उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम रहीं। संस्कृत भाषा की श्रेष्ठता की संघी मनोग्रंथि का प्रचार उतना सांस्कृतिक है नहीं जितना यह दिखाई देता है। यह निहायत ही राजनीतिक है-संघ की राजनीति का अंग- कट्टरता की राजनीति है।

एक आम इंसान अपनी बोल-चाल में यह बात करता और समझता है कि भारत में एक गंगा-जमुनी संस्कृति है। आखिर इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है भारत के विशाल विस्तार में अलग अलग संस्कृतियाँ मिलीजुली हैं। क्या कश्मीर में रहने वाले लोगों का खान-पान, पहनावा, बोल-भाषा, और उत्सव-त्यौहार वही हैं जो केरल और तमिलनाडू के लोगों के हैं। क्या गुजरात की भाषा, रीति रिवाज, त्यौहार और रहन सहन वैसा ही है जैसा कि असम और मणिपुर में रहने वाले लोगों का है? नहीं। सुदूर छोरों को तो छोड़ दीजिए छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में भी भाषा, त्यौहार व रहन सहन का काफी अंतर है। उत्तर भारत में मामा या मौसी के बेटे बेटियाँ आपस में नहीं ब्याहे जाते जबकि आन्ध्र प्रदेश में इनका आपस में विवाह हो सकता है। यहाँ तक कि एक ही धर्म को मानने वालों के भी मिथकों और त्योहारों में असमानता है और कई बार तो वे एक दूसरे के विरोधी लगते है। उत्तर भारत में हिन्दू धर्म के मिथक में राजा बलि को एक दानव बताया जाता है जबकि केरल में इनकी पूजा की जाती है। भारत में 300 से अधिक रामायण हैं और उनमें अलग-अलग कथा कहानियाँ और मिथक हैं। यहाँ तक कि उत्तर भारतीय ब्राह्मणों में मांस खाने को लेकर अलग मान्यता है जबकि बंगाल और मिथिला के ब्राह्मणों में अलग। इसी देश में शाक्त उपासक भी हैं और शैव उपासक भी। योगियों की अलग अलग मंडलियाँ हैं तो संतों की एक लम्बी परम्परा है। इसी देश में सिक्खों का अलग धर्म है। इस्लाम धर्म को मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है। और उनमें भी कोई एक इस्लाम नहीं है। सूफी भी है, शिया भी है और सुन्नी भी। इन सारी वैविध्यता को “हिन्दू संस्कृति” के नाम पर उन्माद फैलाकर संघ एक फासीवादी मुल्क बनाना चाहता है और इन सबको तथाकथित सनातन हिन्दू संस्कृति के नाम पर एक बताता है। जो एक बड़ा झूठ है। जरा सोचें, बात-बात में हमारे समाज में अलग-अलग समय पर पूजा और कर्मकांडों की विधि के अलग होने का प्रमाण इससे नहीं मिल जाता है जब कोई कहता है कि उसके यहाँ तो इसे दूसरी विधि से किया जाता है।
इसी देश में हिन्दुओं में ही पूजा में बलि देने की परम्परा भी है और  ऐसी परम्परा भी है जो इसके विल्कुल खिलाफ है। कामाख्या मंदिर में बलि की प्रथा है तो इसी देश में वैष्णव भी है। यह आरएसएस जो कलाकारों के चित्रों और मूर्तियों को कम वस्त्र या बिना वस्त्रों के दिखाने पर कलाकारों को मारने, उनके चित्रों को जलाने का उपक्रम करता है क्या उसे भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला की कोई भी जानकारी है। बौद्धकाल से लेकर आज तक, और अशोक से लेकर अब तक आप अगर मूर्तियों को देखें तो भारत में कलाकारों ने मानवीय भाव को उकेरा है और तमाम प्राचीन मूर्तियाँ हैं जो निर्वस्त्र हैं और तब के सामंती समाज में भी कलाकारों पर इस बात को लेकर हमले नहीं हुए। क्या भारतीय संस्कृति में हर संस्कृति की तरह ही स्याह और सफेद पक्ष नहीं हैं? उत्तर होगा बेशक हैं।
एक सही अग्रगामी समाज में परम्परा के प्रति रूढ़ दृष्टि की जगह उससे सीखने और गलत चीजों को छोड़कर सही तर्कसंगत विचारों को अपनाने से समाज आगे बढ़ता है। अगर इसी भारतीय समाज में एक बड़े तबके को अछूत के नाम पर मानवीय गौरव से वंचित कर दिया गया था तो इसी समाज में आजादी की लड़ाई के समय हिन्दू-मुस्लिम एकजुट होकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़े, शहीद भगतसिंह और उनके साथियों की क्रान्तिकारी विरासत भी इसी भारतीय समाज की देन है। वर्तमान हिन्दुस्तान सभी कौमों के मेहनतकश सपूतों की अकूत कुर्बानी के कारण औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुआ। यह एक साझी-संस्कृति और साझी विरासत है। किसी संघी-भाजपाई की अलगाववादी, दंगाई संस्कृति नहीं। प्रेमचंद ने कहा था कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की खोल ओढ़कर आती है’ संघ क्या वही नहीं कर रहा है?
दरअसल आरएसएस की संस्कृति भारतीय समाज की सच्चाई पर नहीं बल्कि दंगों और फूट डालने पर टिकी हुई है। गुजरात के दंगे हों या मुज़फ़्फ़रनगर दंगा हो, ये लोगों के बीच जहर घोलने के काम को हर जगह अंजाम देते हैं और आज ये लोगों की जिंदगियों से खेल रहे है।

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