🏝पूना पैक्ट दिवस (24 सितंबर) पर विशेष🏝
" 😱पूना पैक्ट: दलित गुलामी का दस्तावेज😱 "
(To know the realities of Communal Award; Separate Electorate and Poona Pact please read this article in complete and SHARE it to maximum citizens of India so that they may be awakened)
हिन्दू समाज में जाति को धर्म और समाज की आधारशिला माना गया है। इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं जिन्हें 1935 तक सरकारी तौर पर ‘डिप्रेस्ड क्लासेज (Depressed Classes)’ कहा जाता था। मोहन दास कर्म चंद गांधी ने उन्हें ‘हरिजन’ के नाम से स्थापित करने की कोशिश की थी जिसे 1981-82 में अधिकतर अछूतों ने अस्वीकार तो कर दिया परंतु उन्होंने अपने लिए ‘दलित’ नाम की स्वीकृति आँख मींच कर दे दी। दलित शब्द तो हरिजन से भी घटिया है।वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (16.20 %) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13 %) हैं। अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक व भौमिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं।
दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं। उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है। जब श्री. ई. एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण घोषणा की थी कि ‘”अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है " तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें कर के अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया। परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमिशन को पेश करने का मौका मिला। तदोपरांत विभिन्न कमिशनों , कांफ्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला चला. सन 1918 में मान्तेग्यु चैमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसलों में डिप्रेस्ड क्लासेज के नगण्य प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कही गयी। साईमन कमीशन (1928) ने स्वीकार किया कि "डिप्रेस्ड क्लासेज " को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए। सन 1930 से 1932 तक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंसें (Round table Conferences) हुई जिन में अन्य अल्पसंख्यकों के साथ साथ दलितों को भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली। यह एक ऐतिहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी। इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन द्वारा दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित ‘Communal Award ' में दलितों को 'पृथक निर्वाचन' का स्वतन्त्र राजनैतिक अधिकार मिला। इस अवार्ड से दलितों को double voting अधिकार मिल रहा था जिसके द्वारा उन्हें आरक्षित सीटों पर अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार और साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु भी वोट का अधिकार प्राप्त होने वाला था। इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली बार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था।
मुसलमानों, सिक्खों, ऐँग्लो इंडियन्स तथा अन्य अल्प सँख्यको को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 में मिली मान्यता के आधार पर पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायिकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी। उसी प्रकार दलितों को भी प्रथक निर्वाचन अधिकार द्वारा अपने प्रतिनिधी स्वयं चुनने का अधिकार मिला और उनके लिये 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित भी की गई थी। लेकिन 18 अगस्त 1932 को मिले इस प्रथक निर्वाचन अधिकार के विरोध में मोहनदास करमचंद गाँधी यरवदा (पूना) की जेल में ही 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन (indefinite hunger strike unto death) पर बैठ गये। गाँधी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित और कमजोर हो जायेगा। यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कभी कोई विरोध नहीं किया। गाँधी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री, श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की। इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांकित 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया , ” ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे ताकि उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके। वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है। जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा। इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा – एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए। हम ने जानबूझ कर – जिसे आप ने अछूतों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फैसला दिया है। दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उमीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उमीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है.” कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था।
परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न – भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता। उन्होंने आगे कहा, ” मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है। इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा।” गांधी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. अंबेडकर ने गाँधी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभ चिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग होकर अलग देश बनाने की। परन्तु गाँधी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था। यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह एक विकट स्थिति थी। एक तरफ गाँधी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर और उनका कमजोर अछूत समाज। अंतत भारी दबाव एवं अछूतों के संभावित जनसंहार के भय तथा गाँधी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ. आंबेडकर तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं के साथ 24 सितम्बर , 1932 को
तथाकथित पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा। इस प्रकार अछूतों को गाँधी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा जिसके कारण आज हमें प्रतिनिधि की बजाय गुलाम चुनने पड़ रहे हैं जो हमारे अधिकारों को बचाने व दिलाने में नाकाम रहे हैं . यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ‘ कम्युनल अवार्ड ‘ में सुरक्षित सीटों की संख्या 78 से बढ़ा कर 151 की गई परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है। उन्हें सच्चे और जुझारू प्रतिनिधि मिले ही नहीं। क्योंकि कोई भी पा्र्टी दलित समाज के जुझारू, अच्छे पढे लिखे और सच्चे-सुलझे को कोई टिकट देता ही नहीं।
पूना पैकट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1935 में शामिल करने के बाद सन 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे। गाँधी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ.बी. आर. आंबेडकर ने कहा था, ” पूना पैकट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है।”
कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों को जो पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से स्वर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया। इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें उनका गुलाम/बंधुआ बन कर रहना पड़ता है। सभी राजनैतिक पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और उनकी पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या उस पर बोलने की इजाजत नहीं देतीं। यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभाओं में दलित प्रतिनिधियों कि स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि ” जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?” इस पर उन का उत्तर था, ” मैंने कौरवों का नमक खाया था.”
वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे। इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते। इससे हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता। परन्तु गाँधी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई देकर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर दिया जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनैतिक गुलाम बन गए। वास्तव में गाँधी की चाल काफी हद तक राजनीतिक ही थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है:
” अछूतों के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ. दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा। वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा। अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे। क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता।” (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ट 301, प्रथम खंड).
गाँधी के इस सत्य कथन से आप गाँधी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है चाहे वह डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो। इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है। इसी कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं। पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढाती चली आ रही है क्योंकि इससे उन्हें दलित सांसदों और विधायकों के रूप में अपने मनपसंद गुलाम चुनने की सुविधा रहती है।
सवर्ण हिन्दू राजनीतिक पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो कर टूट जाती हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम रही है और ”हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” जैसे नारों को स्वीकार करने के लिए वाध्य है। अब तो उसका रूपान्तारण बहुजन से सर्वजन में हो गया है। इन परिस्थितयों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है, वे राजनीतिक तौर प़र सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं। अतः इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा। क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ?
यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों में छुआ-छूत को समाप्त करने, राजनैतिक सीटों (constituencies) और सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए अलग बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 70 वर्ष बाद भी उनके किर्यान्वयन की स्थिति दयनीय ही है. डॉ. आंबेडकर ने अपने इन अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी 25 सितम्बर , 1932 को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था, ” हमारी एक ही चिंता है. क्या हिन्दुओं की भावी पीढियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी ? ” इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, ” हाँ, हम करेंगे.” डॉ. आंबेडकर ने यह भीं कहा था, ” हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संघटित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे.” क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोडा बहुत आत्म चिंतन नहीं करना चाहिए? यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए?
(इस लेख के मूल लेखक श्री एस आर दारापुरी, वरिष्ठ IPS अधिकारी (Regd.
*“गांधी को गरीब दिखाने के लिए लाखों ,करोडो रूपये खर्च करने पड़ते है!” -सरोजनी नायडू.*
उक्त कथन को समझना है तो अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में जाकर देख सकते हो।
मोहनदास करमचंद गांधी ने देश का सत्यानाश किया है ।गांधी,नेहरू ने आरएसएस की स्थापना की ,कांग्रेस और आरएसएस,बीजेपी एक ही है ।गांधी का सपना राम राज था यानि मनु का राज लाना यह उनका उद्देश्य था उसे ही साकार करने का काम अब बीजेपी,आरएसएस,कम्युनिस्ट एकसाथ evm घोटाला करके साकार कर रहे है ।
गांधी को तीन बार नोबल प्राइज़ से रिजेक्ट किया।नोबल प्राइज़ कमिटी का कहना था कि गांधी नोबल प्राइज़ के हकदार इसलिए नहीं है क्यों की वे रेसिस्ट यानि वंशवादी थे।अभी साऊथ अफ्रीका से एक किताब प्रकाशित हुई है जिसमे यह बात गांधी जी के ही दस्तावेजों के आधार पर लिखी है कि गांधी जी ने अंग्रेजो को खत लिखा था कि हम बनिया और ब्राम्हणो को आप लोग काले लोगो साथ न देखे आप जैसे ही हम लोग विदेशी है ।आप हमारे खून के भाई है ।गांधी बहुत बड़ा षड्यन्त्रकारी था ।पूना पैक्ट इस बात का सबूत है ।डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी का राउण्ड टेबल कॉन्फ्रन्स में गांधी ने सेपरेट एलोक्ट्रेट का विरोध करते हुए कहा था कि मैं सेपरेट एलोक्ट्रेट का इसलिए विरोध करता हूँ क्यों की इससे हिंदुत्व खतरे आता है !!!
गांधी का चरित्र हमें ही लिखना है क्यों मक्कार और धोकेबाक गांधी को उसी के जुबान के आधार पर एक्सपोज करना जरुरी है ।
एक बार गांधी ने एक मीटिंग में कहा कि "इन मुसलमान और अछूत गुंडों को आज़ादी मिलती है तो मैं ऐसे आज़ादी को लात मारता हूं!"
साथियो,अब गांधी जैसे गुंडे की समाधी तक उखाड़ने की तैयारी में है !
हम जब आज़ाद होंगे तब साबरमती आश्रम को उखाड़ फेकेंगे और उस जगह पर अस्पताल खोलेंगे!!!
आखरी बात इन तस्वीरों में गांधी ने भंगियो को गालिया दी है । गांधी बहुत धोकेबाज़ और मक्कार व्यक्ति थे ।एक बार यूपी के मुझफरनगर के एक ग्र्यजुएट लड़के ने गांधी की बिनती की उसे संविधान सभा में कांग्रेस की तरफ से चुनकर भेजे ।तब गांधी ने उसका खत हरिजन पत्रिका में छापा और उसे जवाब देते हुए कहा कि तुम नीच जाति के हो तुम वही काम करो जो तुम्हारे बाप जादे करते आए है।बल्कि तुम पढ़े लिखे हो इसलिए पैखाना शरीर पर कैसे न गिरे ऐसा तुम काम करो।ऊंचा ध्येय मत रखो जिससे ब्राम्हण नाराज हो जाए!!!
गांधी की धोखेबाजी को हम एक्सपोज करेंगे।हमें मालूम है कि गांधी को जब हम नंगा करेंगे तब गांधी की नाजायज अवलाद आरएसएस,बीजेपी हमें विरोध करने के लिए सामने आएगी।तब बहुत मजा आएगा।
राहुल गांधी हमारा विरोध करने के लिए सामने आएगा तब उसे तुरंत इटली भेजेंगे सोनिया के साथ!!!
पूना करार धिक्कार बार बार।
गाँधीजी को और पूना करार से पैदा हुए दलाल और भड़वो का जाहिर धिक्कार।
" 😱पूना पैक्ट: दलित गुलामी का दस्तावेज😱 "
(To know the realities of Communal Award; Separate Electorate and Poona Pact please read this article in complete and SHARE it to maximum citizens of India so that they may be awakened)
हिन्दू समाज में जाति को धर्म और समाज की आधारशिला माना गया है। इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं जिन्हें 1935 तक सरकारी तौर पर ‘डिप्रेस्ड क्लासेज (Depressed Classes)’ कहा जाता था। मोहन दास कर्म चंद गांधी ने उन्हें ‘हरिजन’ के नाम से स्थापित करने की कोशिश की थी जिसे 1981-82 में अधिकतर अछूतों ने अस्वीकार तो कर दिया परंतु उन्होंने अपने लिए ‘दलित’ नाम की स्वीकृति आँख मींच कर दे दी। दलित शब्द तो हरिजन से भी घटिया है।वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग (16.20 %) तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13 %) हैं। अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक व भौमिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं।
दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं। उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है। जब श्री. ई. एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया, ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण घोषणा की थी कि ‘”अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है " तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें कर के अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया। परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमिशन को पेश करने का मौका मिला। तदोपरांत विभिन्न कमिशनों , कांफ्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला चला. सन 1918 में मान्तेग्यु चैमस्फोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसलों में डिप्रेस्ड क्लासेज के नगण्य प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कही गयी। साईमन कमीशन (1928) ने स्वीकार किया कि "डिप्रेस्ड क्लासेज " को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए। सन 1930 से 1932 तक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंसें (Round table Conferences) हुई जिन में अन्य अल्पसंख्यकों के साथ साथ दलितों को भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली। यह एक ऐतिहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी। इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ. बी. आर. आंबेडकर तथा राव बहादुर आर. श्रीनिवासन द्वारा दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित ‘Communal Award ' में दलितों को 'पृथक निर्वाचन' का स्वतन्त्र राजनैतिक अधिकार मिला। इस अवार्ड से दलितों को double voting अधिकार मिल रहा था जिसके द्वारा उन्हें आरक्षित सीटों पर अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार और साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु भी वोट का अधिकार प्राप्त होने वाला था। इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली बार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था।
मुसलमानों, सिक्खों, ऐँग्लो इंडियन्स तथा अन्य अल्प सँख्यको को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट,1919 में मिली मान्यता के आधार पर पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायिकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी। उसी प्रकार दलितों को भी प्रथक निर्वाचन अधिकार द्वारा अपने प्रतिनिधी स्वयं चुनने का अधिकार मिला और उनके लिये 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित भी की गई थी। लेकिन 18 अगस्त 1932 को मिले इस प्रथक निर्वाचन अधिकार के विरोध में मोहनदास करमचंद गाँधी यरवदा (पूना) की जेल में ही 20 सितम्बर, 1932 से आमरण अनशन (indefinite hunger strike unto death) पर बैठ गये। गाँधी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित और कमजोर हो जायेगा। यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों, सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कभी कोई विरोध नहीं किया। गाँधी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त, 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री, श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की। इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांकित 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया , ” ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे, परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे ताकि उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके। वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है। जहाँ जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा। इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा – एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए। हम ने जानबूझ कर – जिसे आप ने अछूतों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है, उसके विपरीत फैसला दिया है। दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उमीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उमीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे। इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है.” कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था।
परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न – भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता। उन्होंने आगे कहा, ” मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है। इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा।” गांधी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ. अंबेडकर ने गाँधी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभ चिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग होकर अलग देश बनाने की। परन्तु गाँधी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था। यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर, 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह एक विकट स्थिति थी। एक तरफ गाँधी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था, दूसरी तरफ डॉ. आंबेडकर और उनका कमजोर अछूत समाज। अंतत भारी दबाव एवं अछूतों के संभावित जनसंहार के भय तथा गाँधी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ. आंबेडकर तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं के साथ 24 सितम्बर , 1932 को
तथाकथित पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा। इस प्रकार अछूतों को गाँधी की जिद्द के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा जिसके कारण आज हमें प्रतिनिधि की बजाय गुलाम चुनने पड़ रहे हैं जो हमारे अधिकारों को बचाने व दिलाने में नाकाम रहे हैं . यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए ‘ कम्युनल अवार्ड ‘ में सुरक्षित सीटों की संख्या 78 से बढ़ा कर 151 की गई परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है। उन्हें सच्चे और जुझारू प्रतिनिधि मिले ही नहीं। क्योंकि कोई भी पा्र्टी दलित समाज के जुझारू, अच्छे पढे लिखे और सच्चे-सुलझे को कोई टिकट देता ही नहीं।
पूना पैकट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट, 1935 में शामिल करने के बाद सन 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे। गाँधी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ.बी. आर. आंबेडकर ने कहा था, ” पूना पैकट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है।”
कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों को जो पृथक निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से स्वर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया। इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें उनका गुलाम/बंधुआ बन कर रहना पड़ता है। सभी राजनैतिक पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और उनकी पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या उस पर बोलने की इजाजत नहीं देतीं। यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभाओं में दलित प्रतिनिधियों कि स्थिति महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि ” जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले?” इस पर उन का उत्तर था, ” मैंने कौरवों का नमक खाया था.”
वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे। इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते। इससे हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता। परन्तु गाँधी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई देकर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर दिया जिस कारण दलित सवर्णों के फिर से राजनैतिक गुलाम बन गए। वास्तव में गाँधी की चाल काफी हद तक राजनीतिक ही थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है:
” अछूतों के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ. दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा। वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा। अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे। क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता।” (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ट 301, प्रथम खंड).
गाँधी के इस सत्य कथन से आप गाँधी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है चाहे वह डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रस्तावित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो। इसी कारण डॉ. आंबेडकर को भी दो बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है। इसी कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं। पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ. आंबेडकर ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढाती चली आ रही है क्योंकि इससे उन्हें दलित सांसदों और विधायकों के रूप में अपने मनपसंद गुलाम चुनने की सुविधा रहती है।
सवर्ण हिन्दू राजनीतिक पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो कर टूट जाती हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी भी ब्राह्मणों और बनियों के पीछे घूम रही है और ”हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” जैसे नारों को स्वीकार करने के लिए वाध्य है। अब तो उसका रूपान्तारण बहुजन से सर्वजन में हो गया है। इन परिस्थितयों के कारण दलितों का बहुत अहित हुआ है, वे राजनीतिक तौर प़र सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं। अतः इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा। क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए ?
यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों में छुआ-छूत को समाप्त करने, राजनैतिक सीटों (constituencies) और सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए अलग बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 70 वर्ष बाद भी उनके किर्यान्वयन की स्थिति दयनीय ही है. डॉ. आंबेडकर ने अपने इन अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी 25 सितम्बर , 1932 को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था, ” हमारी एक ही चिंता है. क्या हिन्दुओं की भावी पीढियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी ? ” इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था, ” हाँ, हम करेंगे.” डॉ. आंबेडकर ने यह भीं कहा था, ” हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संघटित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन है. मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे.” क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोडा बहुत आत्म चिंतन नहीं करना चाहिए? यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए?
(इस लेख के मूल लेखक श्री एस आर दारापुरी, वरिष्ठ IPS अधिकारी (Regd.
*“गांधी को गरीब दिखाने के लिए लाखों ,करोडो रूपये खर्च करने पड़ते है!” -सरोजनी नायडू.*
उक्त कथन को समझना है तो अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में जाकर देख सकते हो।
मोहनदास करमचंद गांधी ने देश का सत्यानाश किया है ।गांधी,नेहरू ने आरएसएस की स्थापना की ,कांग्रेस और आरएसएस,बीजेपी एक ही है ।गांधी का सपना राम राज था यानि मनु का राज लाना यह उनका उद्देश्य था उसे ही साकार करने का काम अब बीजेपी,आरएसएस,कम्युनिस्ट एकसाथ evm घोटाला करके साकार कर रहे है ।
गांधी को तीन बार नोबल प्राइज़ से रिजेक्ट किया।नोबल प्राइज़ कमिटी का कहना था कि गांधी नोबल प्राइज़ के हकदार इसलिए नहीं है क्यों की वे रेसिस्ट यानि वंशवादी थे।अभी साऊथ अफ्रीका से एक किताब प्रकाशित हुई है जिसमे यह बात गांधी जी के ही दस्तावेजों के आधार पर लिखी है कि गांधी जी ने अंग्रेजो को खत लिखा था कि हम बनिया और ब्राम्हणो को आप लोग काले लोगो साथ न देखे आप जैसे ही हम लोग विदेशी है ।आप हमारे खून के भाई है ।गांधी बहुत बड़ा षड्यन्त्रकारी था ।पूना पैक्ट इस बात का सबूत है ।डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी का राउण्ड टेबल कॉन्फ्रन्स में गांधी ने सेपरेट एलोक्ट्रेट का विरोध करते हुए कहा था कि मैं सेपरेट एलोक्ट्रेट का इसलिए विरोध करता हूँ क्यों की इससे हिंदुत्व खतरे आता है !!!
गांधी का चरित्र हमें ही लिखना है क्यों मक्कार और धोकेबाक गांधी को उसी के जुबान के आधार पर एक्सपोज करना जरुरी है ।
एक बार गांधी ने एक मीटिंग में कहा कि "इन मुसलमान और अछूत गुंडों को आज़ादी मिलती है तो मैं ऐसे आज़ादी को लात मारता हूं!"
साथियो,अब गांधी जैसे गुंडे की समाधी तक उखाड़ने की तैयारी में है !
हम जब आज़ाद होंगे तब साबरमती आश्रम को उखाड़ फेकेंगे और उस जगह पर अस्पताल खोलेंगे!!!
आखरी बात इन तस्वीरों में गांधी ने भंगियो को गालिया दी है । गांधी बहुत धोकेबाज़ और मक्कार व्यक्ति थे ।एक बार यूपी के मुझफरनगर के एक ग्र्यजुएट लड़के ने गांधी की बिनती की उसे संविधान सभा में कांग्रेस की तरफ से चुनकर भेजे ।तब गांधी ने उसका खत हरिजन पत्रिका में छापा और उसे जवाब देते हुए कहा कि तुम नीच जाति के हो तुम वही काम करो जो तुम्हारे बाप जादे करते आए है।बल्कि तुम पढ़े लिखे हो इसलिए पैखाना शरीर पर कैसे न गिरे ऐसा तुम काम करो।ऊंचा ध्येय मत रखो जिससे ब्राम्हण नाराज हो जाए!!!
गांधी की धोखेबाजी को हम एक्सपोज करेंगे।हमें मालूम है कि गांधी को जब हम नंगा करेंगे तब गांधी की नाजायज अवलाद आरएसएस,बीजेपी हमें विरोध करने के लिए सामने आएगी।तब बहुत मजा आएगा।
राहुल गांधी हमारा विरोध करने के लिए सामने आएगा तब उसे तुरंत इटली भेजेंगे सोनिया के साथ!!!
पूना करार धिक्कार बार बार।
गाँधीजी को और पूना करार से पैदा हुए दलाल और भड़वो का जाहिर धिक्कार।
http://youtub.bid/watch/QFBQTGNCQnRuc0RF/-.html
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