भारत का संक्षिप्त इतिहास
भारत का इतिहास
▶ इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता ( 3200 BC से पहले )
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व ( 3200 BC से पहले ) भारत मे इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता का इतिहास मिलता हैं और यह सभ्यता दुनिया के अग्रणी सभ्यताओं मे मानी जाती थी । यह सभ्यता महान नागवंशियों और द्रविड़ों द्वारा स्थापित की गयी थी जिनको आज एससी, एसटी, ओबीसी और आदिवासी कहा जाता हैं, यह लोग भारत के मूलनिवासी हैं । इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता एक नगर सभ्यता थी जो कि आधुनिक नगरों की तरह पूर्णतः योजनाबद्ध एवं वैज्ञानिक ढंग से बसी हुयी थी ।
▶ विदेशी आर्य आक्रमण ( 3100BC-1500 )
विदेशी आर्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जोकि असभ्य, जंगली एवं ख़ानाबदोश थे और यूरेशिया से देश निकाले की सजा के द्वारा निकले गए लोग थे । इन युरेशियनों के आगमन से पूर्व हमारे समाज के लोग प्रजातान्त्रिक एवं स्वतंत्र सोच के थे एवं उनमे कोई भी जाति व्यवस्था नहीं थी । सब लोग मिलकर प्रेम एवं भाईचारे के साथ मिलजुल कर रहते थे । ऐसा इतिहास इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता का मिलता हैं । फिर विदेशी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लगभग 3100 ईसा पूर्व भारत आये और उनका यहाँ के मूलनिवासीयों के साथ संघर्ष हुआ ।
▶ वैदिक काल ( 1500-600BC )
युरेशियन लोग ( ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) साम, दाम, दंड एवं भेद की नीत से किसी तरह संघर्ष में जीत गए । परन्तु युरेशियनों की समस्या थी कि बहुसंख्यक मूलनिवासी लोगों को हमेशा के लिए नियंत्रित कैसे रखा जाए । इसलिए उन्होंने मूलनिवासीयों को पहले वात्य-स्तोम ( धर्म परिवर्तन ) करवाके अपने धर्म में जोड़ा । फिर युरेशियनों ने मूलनिवासीयों को नीच साबित करने के लिए वर्ण व्यवस्था स्थापित की, जिसमें मूलनिवासीयों को चौथे वर्ण शूद्र में रख दिया गया । समय के साथ यूरेशियन ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों ने मूलनिवासियों को वर्ण पर आधारित कानून बना कर शिक्षा ( ज्ञान बल ), अस्त्र-शस्त्र रखने ( शस्त्र बल ), और संपत्ति ( धन बल ) के अधिकार से वंचित कर दिया गया । इस नियम को ऋग्वेद में डालकर और ऋग्वेद को ईश्वरीकृत घोषित कर दिया और इस तरह बहुसंख्यक आबादी को ( ज्ञान बल ), अस्त्र-शस्त्र रखने ( शस्त्र बल ), और संपत्ति रखने ( धन बल ), के अधिकार से वंचित कर मानसिक रूप से गुलाम और लाचार बना दिया गया । इसे वैदिक संस्कृति, आश्रम संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति कहते हैं जो श्रेणीबद्ध असमानता का सिद्धांत पर समाज को चारो वर्णो मे विभक्त करती हैं ।
▶ तथागत गौतम बुद्ध ( श्रमण संस्कृति का उत्थान ) 563 BC-483BC...
तथागत बुद्ध ने वैदिक संस्कृति के विरुद्ध आंदोलन किया और अनित्य, अनात्म एवं दुख का दर्शन देकर वेद के “ईश्वरी कृत” होने और “आत्मा” के सिधान्त को चुनौती दी । उन्होंने वैदिक संस्कृत के “जन्मना सिधान्त” को नकार “कर्मणा सिधान्त” का प्रतिपादन किया और वर्ण व्यवस्था के सिधान्त को नकार दिया और समतावादी और मानवतावादी दर्शन का प्रचार किया । वैदिक संस्कृति के यज्ञों मे पशुओं की बली दी जाती थी । इस तरह के कर्म कांड को भी तथागत गौतम बुध्द ने नकार दिया । तथागत गौतम बुद्ध के मानवीय शिक्षाओं के प्रसार के बाद ब्राह्मणों का वैदिक धर्म बुरी तरह हीन माना जाने लगा था । तथागत गौतम बुध्द ने अपने पुरे जीवन को इस दर्शन को स्थापित करने में लगाया और पुनः श्रमण संस्कृत को स्थापित किया । जो कि मूलनिवासीयों की संस्कृति थी । तब भारतीय इतिहास का सम्राट अशोक का स्वर्ण काल आया ।
▶ प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन ( 483BC )....
‘प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन 483 ई.पू. में राजगृह ( आधुनिक राजगिरि ), बिहार की ‘सप्तपर्णि गुफ़ा’ में किया गया था । तथागत गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही इस संगीति का आयोजन हुआ था । इसमें बौद्ध स्थविरों ( थेरों ) ने भाग लिया और तथागत बुद्ध के प्रमुख शिष्य महाकाश्यप ने उसकी अध्यक्षता की । चूँकि तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए प्रथम संगीति में उनके तीन शिष्यों - ‘महापण्डित महाकाश्यप’, सबसे वयोवृद्ध ‘उपालि’ तथा सबसे प्रिय शिष्य ‘आनन्द’ ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया ।
▶ द्वितीय बौद्ध संगीति ( 383 BC )....
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई । इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया ।
▶ तृतीय बौद्ध संगीति ( 249 BC )......
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट अशोक के संरक्षण में तृतीय संगीति 249 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र में हुई थी । इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी । विश्वास किया जाता हैं कि इस संगीति में त्रिपिटक को अन्तिम रूप प्रदान किया गया । यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा ।
▶ चतुर्थ बौद्ध संगीति....
चतुर्थ और अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल ( लगभग 120-144 ई. ) में हुई । यह संगीति कश्मीर के ‘कुण्डल वन’ में आयोजित की गई थी । इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे । अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था । इसी संगीति में बौद्ध धम्म दो शाखाओं में एक हीनयान और दुसरा महायान में विभाजित हो गया ।
हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन व संस्करण हुआ । इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए पाली भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ । इस संगीति में नागार्जुन भी शामिल हुए थे । इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको ‘महाविभाषा’ नाम की पुस्तक में संकलित किया गया । इस पुस्तक को बौद्ध धम्म का ‘विश्वकोष’ भी कहा जाता हैं ।
सम्राट अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था और चंद्रगुप्त का पौत्र था । जिसका जन्म लगभग 304 ईसा पूर्व में चैत्र शुक्ल अष्टमी को माना जाता हैं । 272 ईसा पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया । अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया । चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी । कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धम्म अपना लिया । अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की । इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया । बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद युरेशियन ब्राह्मणों ने “पुरोहित का कर्म त्यागकर” सैनिक वृत्ति को अपना लिया था । पुष्यमित्र शुंग नाम के एक ब्राह्मण ने घुसपैठ करके मौर्य वंश के 10 वे उत्तराधिकारी “बृहद्रथ” का सेनापति बनकर एक दिन सेना का निरिक्षण करते समय धोखे से उसका कत्ल कर दिया । उसने ‘सेनानी’ की उपाधि धारण की थी । दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र शुंग इसी रुप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी । शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ तथा मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी समय में हुई । वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे को पुनः कठोरता से लागू किया । इसी कारण इसका काल वैदिक प्रतिक्रांति अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता हैं । पुष्यमित्र शुंग ने घोषणा किया जो बुद्धिस्ट भिख्खु ( Monk ) का सिर लाकर देगा वो उसे 100 सोने की सिक्के देगा । बौध्दों का बहुतही कत्ले आम हुआ ।
श्रमण संस्कृत के मानने वाले चार वर्ग मे विभक्त हो गए —
1 ) जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लिए वो सछूत शूद्र बने अर्थात आज का ओबीसी ( OBC ) !
2 ) जो लड़ाई से दूर जंगल और पहाड़ मे चले गए अर्थात आज का अनुसूचित जन जाति ( ST ) !
3 ) जो ब्राह्मणवाद के सामने नहीं झुका वो है आज का अछूत अतिशूद्र अर्थात अनुसूचित जाति SC !
4 ) जो आज भी ब्राह्मणवाद के आगे नहीं झुके हैं और जंगलों में रहते हैं अर्थात आदिवासी !
मनुस्मृति की रचना के बाद ब्राह्मणों ने एक बहुत बड़ा जातिप्रथा नाम का षड्यंत्र रचा और फिर इस बार मूलनिवासीयों ( SC, ST, OBC ) को 6743 जातियों, टुकडों में तोड़ कर जन बल से भी वंचित कर दिया गया । ऐसा तंत्र तैयार किया गया कि इसको तोड़ना अत्यंत कठिन रहें । और उनमे श्रेणीबध्द असमानता का सिद्धांत अर्थात जातिव्यवस्था का सिद्धांत, लागु किया और उनको धर्म, वेदों एवं शास्त्रों के माध्यम से मानसिक रूप से गुलाम बनाया ।
उसके बाद समय समय पर ब्राह्मणों ने बहुत से धर्म शास्त्रों की रचना करके जो अंधश्रद्धा और अन्धविश्वास पर आधारित लिखें हैं और उनको मूलनिवासीयों पर जबरदस्ती धर्म के नाम पर थोप दिया गया हैं । इस प्रकार हम देखते है कि धर्म ही मूलनिवासीयों की गुलामी का मुख्य आधार हैं यही वो षड्यंत्र हैं जिसके कारण आज भी मूलनिवासी बहुजन समाज मानसिक तौर से गुलाम हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आज भी इसी षड्यंत्र के माध्यम से देश पर राज कर रहे हैं ।
इतिहास में हजारों मूलनिवासी महापुरुष हुए जिन्होंने मानवता पर आधारित मानव जीवन की शिक्षा दी, लेकिन किसी भी महापुरुष ने ना तो कोई धर्म बनाया और ना ही किसी धर्म की कभी बात की । हमारे मूलनिवासी महापुरुष जानते थे कि धर्म का सही अर्थ सिर्फ शोषण हैं । रविदास, नानक, कबीर, ज्योतीराव फुले, नारायण गुरु, पेरियार, सावित्री बाई फुले और बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़कर ने कोई भी धर्म नहीं बनाया । मूलनिवासी महापुरुष जानते थे कि अगर हम कोई धर्म बनाते हैं तो यह वही बात हो जायेगी कि लोगों को एक अंधे कुए से निकल कर दूसरे अंधे कुए में धकेल देना । कोई भी महापुरुष मूलनिवासी लोगों को अंधश्रध्दा और अविश्वास के कुए में नहीं धकेलना चाहता था । बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़करजी ने अपने जीवन काल में धर्म का त्याग करके धम्म को अपनाया क्योकि बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़करजी जानते थे कि आडम्बरों, पाखंडों और ढोंगों पर आधारित धर्मों से कभी भी मूलनिवासीयों का भला नहीं हो सकता । इसीलिए बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़करजी ने धर्म छोड़ कर बुद्धि और तर्क पर आधारित बौध्द धम्म को अपना कर सन्देश दिया ।
सभी मूलनिवासीयों से प्रार्थना हैं कि धर्म का त्याग करे और बौद्ध धम्म को अपनाये । शायद कुछ लोग यहाँ तर्क भी करेंगे कि हम बौध्द धम्म को ही क्यों अपनाये तो उन लोगों से प्रार्थना हैं कि फालतू में सोच कर या तर्क करके अपना समय और उर्जा खर्च ना करें । आप सभी को ज्ञात ही हैं कि जब तक हम ब्राह्मण निर्मित धर्म में रहेंगे हम शुद्र, नीच आदि कहलाते रहेंगे । आप सभी धर्म को छोड़ दे और मानवीय मूल्यों के आधार पर जीवन जीना शुरू कर दे । जब आप सभी लोग धर्म को त्याग कर मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीना शुरू करेंगे तो निश्चय से ही देश के मूलनिवासीयों का भला ही होगा ।
जागों मूलनिवासी बहुजनों जागों...!
1918 में पहली बार इस्तेमाल हुआ हिन्दू धर्म शब्द , ब्राह्मण नहीं इस देश का निवासी❗
तुलसीदास ने रामचरित मानस मुगलकाल में लिखी , पर मुगलों की बुराई मे एक भी चौपाई नही लिखी ?❗
क्यों ?❗
क्या उस समय हिंदू मुसलमान का मामला नहीं था ? हां उस समय हिंदू मुसलमान का मामला नहीं था❗
क्योंकि उस समय हिंदू नाम का कोई धर्म ही नहीं था
तो फिर उस समय कौनसा धर्म था ?❗
उस समय ब्राह्मण धर्म था और ब्राह्मण मुगलो के साथ मिलजुल कर यहाँ तक कि आपस में रिश्तेदार बनकर भारत पर राज कर रहे थे उस समय वर्ण व्यवस्था थी ❗वर्ण व्यवस्था में शुद्र अधिकार वंचित था कार्य सिर्फ सेवा करना था मतलब
सिधे शब्दों में गुलाम था
तो फिर हिंदू नाम का धर्म कब से आया ?❗
ब्राह्मण धर्म का नया नाम हिंदू तब आया जब वयस्क मताधिकार का मामला आया ,❗ जब इंग्लैंड में वयस्क मताधिकार का कानून लागू हुआ और इसको भारत में भी लागू करने की बात हुई ,❗
इसी पर तिलक ने बोला “ क्या ये तेली तम्बोली संसद में जा कर तेल बेचेगा क्या ?? इसलिए स्वराज इनका नहीं मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है , हिन्दू शब्द का प्रयोग पहली बार १९१८ में इस्तेमाल किया गया
तो ब्राह्मण धर्म खतरे में पड गया क्यों ?❗
क्योंकि भारत में उस समय अँगरेजों का राज था वहाँ वयस्क मताधिकार लागू हुआ तो फिर भारत में तो होना ही था❗
ब्राह्मण 3.5% है
अल्पसंख्यक है
राज कैसे करेगा ?❗
ब्राह्मण धर्म के सारे ग्रन्थ शुद्रों के विरोध में मतलब हक अधिकार छिन ने के लिए शुद्रों कि
मानसिकता बनाने के लिए षड्यंत्र के रूप में आज का ओबीसी ही ब्राह्मण धर्म का शुद्र है❗
SC (अनुसूचित जाति)) के लोगों को तो अछुत घोषित कर वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा क्योंकि उन्होंने ही युरेशियन आर्यों से सबसे ज्यादा संघर्ष किया ,❗
ST (अनुसूचित जनजाति)के लोग तो जंगलों में थे उनसे ब्राह्मण धर्म को क्या खतरा उनको तो युरेशियन आर्यों के सिंधु घाटी सभ्यता से संघर्ष के समय से ही वन में जाने रहने को मजबूर कर दिया उनको वनवासी कह दिया❗
इसलिए ब्राह्मणों ने षड्यंत्र से हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया जिससे सबको समानता का अहसास हो❗
परन्तू ब्राह्मणों ने समाज में व्यवस्था ब्राह्मण धर्म कि ही रखी उसमें जातियां रखी जातियां ब्राह्मण धर्म का प्राण तत्व है इसके बिना ब्राह्मण का वर्चस्व खत्म है❗
इसलिए उस समय हिंदू मुसलमान कि समस्या नहीं थी ब्राह्मण धर्म को जिंदा रखने के लिए वर्ण व्यवस्था थी
उसमें शुद्रों को गुलाम रखना था❗
इसलिए
तुलसीदास जी ने मुसलमानों के विरोध में नहीं शुद्रों के विरोध में गुलाम बनाए रखने के लिए लिखा❗
ढोल गवार शुद्र पशु नारी
सकल ताडन के अधिकारी
अब जब मुगल चले गये❗
देश में SC/ST/ OBC के लोग ब्राह्मण धर्म के विरोध में ब्राह्मण धर्म के अन्याय अत्याचार से दुखी होकर इस्लाम अपना लिया तो ब्राह्मण अगर मुसलमानों के विरोध में जाकर षड्यंत्र नहीं करेगा तो SC/ST/OBC के लोगों को प्रतिक्रिया से हिंदू बना कर
बहुसंख्यक लोगों का हिंदू के नाम पर ध्रूवीकरण करके अल्पसंख्यक ब्राह्मण बहुसंख्यक बनकर राज कैसे करेगा❗
इसलिए आज हिंदू मुसलमान कि समस्या देश में खडी कि गई तथा कथित हिंदू( SC ST OBC) मुसलमान लडे तथाकथित हिंदू (SC ST OBC )मरे या मुस्लिम दोनों तरफ मूलनिवासी का मरना तय है❗
क्या कभी सुना है की किसी दंगे में कोई ब्राह्मण मरा है जहर घोलनें वाले कभी जहर नहीं पिते हैं❗
इसलिए, युरेशियन सेफ का सेफ कोई दर्द नहीं कोई फर्क नहीं आराम से टीवी में डिबेट को तैयार❗
दुनिया के भ्रष्टाचार मुक्त देशों में शीर्ष पर गिने जाने वाले न्यूजीलैंण्ड के एक लेखक ब्रायन ने भारत में व्यापक रूप से फैंलें भष्टाचार पर एक लेख लिखा है। ये लेख सोशल मीडि़या पर काफी वायरल हो रहा है। लेख की लोकप्रियता और प्रभाव को देखते हुए विनोद कुमार जी ने इसे हिन्दी भाषीय पाठ़कों के लिए अनुवादित किया है। –
*न्यूजीलैंड से एक बेहद तल्ख आर्टिकिल।*
*भारतीय लोग होब्स विचारधारा वाले है (सिर्फ अनियंत्रित असभ्य स्वार्थ की संस्कृति वाले)*
भारत मे भ्रष्टाचार का एक कल्चरल पहलू है। भारतीय भ्रष्टाचार मे बिलकुल असहज नही होते, भ्रष्टाचार यहाँ बेहद व्यापक है। भारतीय भ्रष्ट व्यक्ति का विरोध करने के बजाय उसे सहन करते है। कोई भी नस्ल इतनी जन्मजात भ्रष्ट नही होती
*ये जानने के लिये कि भारतीय इतने भ्रष्ट क्यो होते हैं उनके जीवनपद्धति और परम्पराये देखिये।*
भारत मे धर्म लेनेदेन वाले व्यवसाय जैसा है। भारतीय लोग भगवान को भी पैसा देते हैं इस उम्मीद मे कि वो बदले मे दूसरे के तुलना मे इन्हे वरीयता देकर फल देंगे। ये तर्क इस बात को दिमाग मे बिठाते हैं कि अयोग्य लोग को इच्छित चीज पाने के लिये कुछ देना पडता है। मंदिर चहारदीवारी के बाहर हम इसी लेनदेन को भ्रष्टाचार कहते हैं। धनी भारतीय कैश के बजाय स्वर्ण और अन्य आभूषण आदि देता है। वो अपने गिफ्ट गरीब को नही देता, भगवान को देता है। वो सोचता है कि किसी जरूरतमंद को देने से धन बरबाद होता है।
*जून 2009 मे द हिंदू ने कर्नाटक मंत्री जी जनार्दन रेड्डी द्वारा स्वर्ण और हीरो के 45 करोड मूल्य के आभूषण तिरुपति को चढाने की खबर छापी थी। भारत के मंदिर इतना ज्यादा धन प्राप्त कर लेते हैं कि वो ये भी नही जानते कि इसका करे क्या। अरबो की सम्पत्ति मंदिरो मे व्यर्थ पडी है।*
*जब यूरोपियन इंडिया आये तो उन्होने यहाँ स्कूल बनवाये। जब भारतीय यूरोप और अमेरिका जाते हैं तो वो वहाँ मंदिर बनाते हैं।*
*भारतीयो को लगता है कि अगर भगवान कुछ देने के लिये धन चाहते हैं तो फिर वही काम करने मे कुछ कुछ गलत नही है। इसीलिये भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्ट बन जाते हैं।*
*भारतीय कल्चर इसीलिये इस तरह के व्यवहार को आसानी से आत्मसात कर लेती है, क्योंकि*
1 नैतिक तौर पर इसमे कोई नैतिक दाग नही आता। एक अति भ्रष्ट नेता जयललिता दुबारा सत्ता मे आ जाती है, जो आप पश्चिमी देशो मे सोच भी नही सकते ।
2 भारतीयो की भ्रष्टाचार के प्रति संशयात्मक स्थिति इतिहास मे स्पष्ट है। भारतीय इतिहास बताता है कि कई शहर और राजधानियो को रक्षको को गेट खोलने के लिये और कमांडरो को सरेंडर करने के लिये घूस देकर जीता गया। ये सिर्फ भारत मे है
भारतीयो के भ्रष्ट चरित्र का परिणाम है कि भारतीय उपमहाद्वीप मे बेहद सीमित युद्ध हुये। ये चकित करने वाला है कि भारतीयो ने प्राचीन यूनान और माडर्न यूरोप की तुलना मे कितने कम युद्ध लडे। नादिरशाह का तुर्को से युद्ध तो बेहद तीव्र और अंतिम सांस तक लडा गया था। भारत मे तो युद्ध की जरूरत ही नही थी, घूस देना ही ही सेना को रास्ते से हटाने के लिये काफी था। कोई भी आक्रमणकारी जो पैसे खर्च करना चाहे भारतीय राजा को, चाहे उसके सेना मे लाखो सैनिक हो, हटा सकता था।
प्लासी के युद्ध मे भी भारतीय सैनिको ने मुश्किल से कोई मुकाबला किया। क्लाइव ने मीर जाफर को पैसे दिये और पूरी बंगाल सेना 3000 मे सिमट गई। भारतीय किलो को जीतने मे हमेशा पैसो के लेनदेन का प्रयोग हुआ। गोलकुंडा का किला 1687 मे पीछे का गुप्त द्वार खुलवाकर जीता गया। मुगलो ने मराठो और राजपूतो को मूलतः रिश्वत से जीता श्रीनगर के राजा ने दारा के पुत्र सुलेमान को औरंगजेब को पैसे के बदले सौंप दिया। ऐसे कई केसेज हैं जहाँ भारतीयो ने सिर्फ रिश्वत के लिये बडे पैमाने पर गद्दारी की।
सवाल है कि भारतीयो मे सौदेबाजी का ऐसा कल्चर क्यो है जबकि जहाँ तमाम सभ्य देशो मे ये सौदेबाजी का कल्चर नही है
3- *भारतीय इस सिद्धांत मे विश्वास नही करते कि यदि वो सब नैतिक रूप से व्यवहार करेंगे तो सभी तरक्की करेंगे क्योंकि उनका “विश्वास/धर्म” ये शिक्षा नही देता। उनका कास्ट सिस्टम उन्हे बांटता है। वो ये हरगिज नही मानते कि हर इंसान समान है। इसकी वजह से वो आपस मे बंटे और दूसरे धर्मो मे भी गये। कई हिंदुओ ने अपना अलग धर्म चलाया जैसे सिख, जैन बुद्ध, और कई लोग इसाई और इस्लाम अपनाये। परिणामतः भारतीय एक दूसरे पर विश्वास नही करते। भारत मे कोई भारतीय नही है, वो हिंदू ईसाई मुस्लिम आदि हैं। भारतीय भूल चुके हैं कि 1400 साल पहले वो एक ही धर्म के थे। इस बंटवारे ने एक बीमार कल्चर को जन्म दिया। ये असमानता एक भ्रष्ट समाज मे परिणित हुई, जिसमे हर भारतीय दूसरे भारतीय के विरुद्ध है, सिवाय भगवान के जो उनके विश्वास मे खुद रिश्वतखोर है।*
लेखक-ब्रायन,
गाडजोन न्यूजीलैंड
http://www.madhyamarg.com/mudde/article-of-brian-on-corruption/
👀👀सम्राट अशोक ने अपने राज्य में पशु हत्या पर पाबन्दी लगा दी थी, जिसके कारन ब्राह्मणों की रोजगार योजना बंद हो गई थी, उसके बाद सम्राट अशोक ने तीसरी धम्म संगती में ६०,००० ब्राह्मणों को बुद्ध धम्म से निकाल बाहर किया था, तो ब्राह्मण १४० सालों तक गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रहे थे, उस वक़्त ब्राह्मण आर्थिक दुर्बल घटक बनके जी रहे थे, ब्राह्मणों का वर्चस्व और उनकी परंपरा खत्म हो गई थी, उसे वापस लाने के लिए ब्राह्मणों के पास बौद्ध धम्म के राज्य के विरोध में युद्ध करना यही एक मात्र विकल्प रह गया था, ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस लाने के लिए
*👇👇 अखण्ड भारत में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में अखण्ड भारत के निर्माता चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक महान के पौत्र , मौर्य वंश के 10 वें न्यायप्रिय सम्राट राजा बृहद्रथ मौर्य की हत्या धोखे से उन्हीं के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में ईसा.पूर्व. १८५ में रक्त रंजिस साजिश के तहत प्रतिक्रांति की और खुद को मगध का राजा घोषित कर लिया था ।*
और इस प्रकार ब्राह्मणशाही का विजय हुआ।
👆🏻 *उसने राजा बनने पर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक सभी बौद्ध विहारों को ध्वस्त करवा दिया था तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओ का खुलेआम कत्लेआम किया था। पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों व यहाँ की जनता पर बहुत अत्याचार करता था और ताकत के बल पर उनसे ब्राह्मणों द्वारा रचित मनुस्मृति अनुसार वर्ण (हिन्दू) धर्म कबूल करवाता था*।
👆🏻 *उत्तर-पश्चिम क्षेत्र पर यूनानी राजा मिलिंद का अधिकार था। राजा मिलिंद बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। जैसे ही राजा मिलिंद को पता चला कि पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों पर अत्याचार कर रहा है तो उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। पाटलिपुत्र की जनता ने भी पुष्यमित्र शुंग के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया, इसके बाद पुष्यमित्र शुंग जान बचाकर भागा और उज्जैनी में जैन धर्म के अनुयायियों की शरण ली*।
*जैसे ही इस घटना के बारे में कलिंग के राजा खारवेल को पता चला तो उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित करके पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया*। *पाटलिपुत्र से यूनानी राजा मिलिंद को उत्तर पश्चिम की ओर धकेल दिया*।
👆🏻 *इसके बाद ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग राम ने अपने समर्थको के साथ मिलकर पाटलिपुत्र और श्यालकोट के मध्य क्षेत्र पर अधिकार किया और अपनी राजधानी साकेत को बनाया। पुष्यमित्र शुंग ने इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया। अयोध्या अर्थात-बिना युद्ध के बनायीं गयी राजधानी*...
👆🏻 *राजधानी बनाने के बाद पुष्यमित्र शुंग राम ने घोषणा की कि जो भी व्यक्ति, बौद्ध भिक्षुओं का सर (सिर) काट कर लायेगा, उसे 100 सोने की मुद्राएँ इनाम में दी जायेंगी। इस तरह सोने के सिक्कों के लालच में पूरे देश में बौद्ध भिक्षुओ का कत्लेआम हुआ। राजधानी में बौद्ध भिक्षुओ के सर आने लगे । इसके बाद कुछ चालक व्यक्ति अपने लाये सर को चुरा लेते थे और उसी सर को दुबारा राजा को दिखाकर स्वर्ण मुद्राए ले लेते थे। राजा को पता चला कि लोग ऐसा धोखा भी कर रहे है तो राजा ने एक बड़ा पत्थर रखवाया और राजा, बौद्ध भिक्षु का सर देखकर उस पत्थर पर मरवाकर उसका चेहरा बिगाड़ देता था । इसके बाद बौद्ध भिक्षु के सर को घाघरा नदी में फेंकवा दता था*।
*राजधानी अयोध्या में बौद्ध भिक्षुओ के इतने सर आ गये कि कटे हुये सरों से युक्त नदी का नाम सरयुक्त अर्थात वर्तमान में अपभ्रंश "सरयू" हो गया*।
👆🏻 *इसी "सरयू" नदी के तट पर पुष्यमित्र शुंग के राजकवि वाल्मीकि ने "रामायण" लिखी थी। जिसमें राम के रूप में पुष्यमित्र शुंग और "रावण" के रूप में मौर्य सम्राटों का वर्णन करते हुए उसकी राजधानी अयोध्या का गुणगान किया था और राजा से बहुत अधिक पुरस्कार पाया था। इतना ही नहीं, रामायण, महाभारत, स्मृतियां आदि बहुत से काल्पनिक ब्राह्मण धर्मग्रन्थों की रचना भी पुष्यमित्र शुंग की इसी अयोध्या में "सरयू" नदी के किनारे हुई*।
👆🏻 *बौद्ध भिक्षुओ के कत्लेआम के कारण सारे बौद्ध विहार खाली हो गए। तब आर्य ब्राह्मणों ने सोचा' कि इन बौद्ध विहारों का क्या करे की आने वाली पीढ़ियों को कभी पता ही नही लगे कि बीते वर्षो में यह क्या थे*
*तब उन्होंने इन सब बौद्ध विहारों को मन्दिरो में बदल दिया और इसमे अपने पूर्वजो व काल्पनिक पात्रों, देवी देवताओं को भगवान बनाकर स्थापित कर दिया और पूजा के नाम पर यह दुकाने खोल दी*।
साथियों, इसके बाद ब्राह्मणों ने मूलनिवासियो से बदला लेने के लिए षडयन्त्र पूर्वक (रंग-भेद) वर्णव्यवस्था का निर्माण किया गया, वर्णव्यवस्था के तहत, जाती व्यवस्था में ६००० जातीया बनाई, और उसमे ७२००० उप जातीया बनाई। और इसे ब्राह्मणों ने इश्वर निर्मित बताया ताकि इसे सहजता से स्वीकार कर ले। मूलनिवासियो को इतने छोटे-छोटे जातियों के टुकड़ो में बाँटा ताकि मूलनिवासी ब्राह्मणों से फिर से युद्ध न कर सके और ब्राह्मणों पर फिर से विजय प्राप्त न कर सके।
👆🏻 *ध्यान रहे उक्त बृहद्रथ मौर्य की हत्या से पूर्व भारत में मन्दिर शब्द ही नही था, ना ही इस तरह की संस्कृती थी। वर्तमान में ब्राह्मण धर्म में पत्थर पर मारकर नारियल फोड़ने की परंपरा है ये परम्परा पुष्यमित्र शुंग के बौद्ध भिक्षु के सर को पत्थर पर मारने का प्रतीक है*।
👆🏻 *पेरियार रामास्वामी नायकर ने भी " सच्ची रामायण" पुस्तक लिखी जिसका इलाहबाद हाई कोर्ट केस नम्बर* *412/1970 में वर्ष 1970-1971 व् सुप्रीम कोर्ट 1971 -1976 के बीच में केस अपील नम्बर 291/1971 चला* ।
*जिसमे सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस पी एन भगवती जस्टिस वी आर कृषणा अय्यर, जस्टिस मुतजा फाजिल अली ने दिनाक 16.9.1976 को निर्णय दिया की सच्ची रामायण पुस्तक सही है और इसके सारे तथ्य सही है। सच्ची रामायण पुस्तक यह सिद्ध करती है कि "रामायण" नामक देश में जितने भी ग्रन्थ है वे सभी काल्पनिक है और इनका पुरातात्विक कोई आधार नही है*।
👆🏻 *अथार्त् 100% फर्जी व काल्पनिक है*।
👆🏻 *एक ऐतिहासिक सत्य जो किसी किसी को पता है...*
जागो मुलनिवासियों, बहुजनों, अपने मुल इतिहास को जानों, पाखण्डि ब्राह्मणवादियों के बहकावे में न आयें। अन्यथा वो दिन जब हमें पानी पीने, तन में कपड़ा पहनने का, पढ़ने-लिखने, अधिकार नहीं था, एक जानवरों से भी बत्तर जिंदगी जीने पर मजबूर किया करते थे, ऐसा दिन आने में दूर नहीं। को दूसरे बाबासाहेब हमें बचाने नहीं आयेंगें।
👆🏻 *जागरूक रहें, जागरूक करें और अधिक से अधिक अधिक शेयर करें...*
भारत का इतिहास
▶ इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता ( 3200 BC से पहले )
आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व ( 3200 BC से पहले ) भारत मे इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता का इतिहास मिलता हैं और यह सभ्यता दुनिया के अग्रणी सभ्यताओं मे मानी जाती थी । यह सभ्यता महान नागवंशियों और द्रविड़ों द्वारा स्थापित की गयी थी जिनको आज एससी, एसटी, ओबीसी और आदिवासी कहा जाता हैं, यह लोग भारत के मूलनिवासी हैं । इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता एक नगर सभ्यता थी जो कि आधुनिक नगरों की तरह पूर्णतः योजनाबद्ध एवं वैज्ञानिक ढंग से बसी हुयी थी ।
▶ विदेशी आर्य आक्रमण ( 3100BC-1500 )
विदेशी आर्य ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जोकि असभ्य, जंगली एवं ख़ानाबदोश थे और यूरेशिया से देश निकाले की सजा के द्वारा निकले गए लोग थे । इन युरेशियनों के आगमन से पूर्व हमारे समाज के लोग प्रजातान्त्रिक एवं स्वतंत्र सोच के थे एवं उनमे कोई भी जाति व्यवस्था नहीं थी । सब लोग मिलकर प्रेम एवं भाईचारे के साथ मिलजुल कर रहते थे । ऐसा इतिहास इंडस वैली ( सिन्धु घाटी ) की सभ्यता का मिलता हैं । फिर विदेशी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लगभग 3100 ईसा पूर्व भारत आये और उनका यहाँ के मूलनिवासीयों के साथ संघर्ष हुआ ।
▶ वैदिक काल ( 1500-600BC )
युरेशियन लोग ( ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) साम, दाम, दंड एवं भेद की नीत से किसी तरह संघर्ष में जीत गए । परन्तु युरेशियनों की समस्या थी कि बहुसंख्यक मूलनिवासी लोगों को हमेशा के लिए नियंत्रित कैसे रखा जाए । इसलिए उन्होंने मूलनिवासीयों को पहले वात्य-स्तोम ( धर्म परिवर्तन ) करवाके अपने धर्म में जोड़ा । फिर युरेशियनों ने मूलनिवासीयों को नीच साबित करने के लिए वर्ण व्यवस्था स्थापित की, जिसमें मूलनिवासीयों को चौथे वर्ण शूद्र में रख दिया गया । समय के साथ यूरेशियन ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों ने मूलनिवासियों को वर्ण पर आधारित कानून बना कर शिक्षा ( ज्ञान बल ), अस्त्र-शस्त्र रखने ( शस्त्र बल ), और संपत्ति ( धन बल ) के अधिकार से वंचित कर दिया गया । इस नियम को ऋग्वेद में डालकर और ऋग्वेद को ईश्वरीकृत घोषित कर दिया और इस तरह बहुसंख्यक आबादी को ( ज्ञान बल ), अस्त्र-शस्त्र रखने ( शस्त्र बल ), और संपत्ति रखने ( धन बल ), के अधिकार से वंचित कर मानसिक रूप से गुलाम और लाचार बना दिया गया । इसे वैदिक संस्कृति, आश्रम संस्कृति या ब्राह्मण संस्कृति कहते हैं जो श्रेणीबद्ध असमानता का सिद्धांत पर समाज को चारो वर्णो मे विभक्त करती हैं ।
▶ तथागत गौतम बुद्ध ( श्रमण संस्कृति का उत्थान ) 563 BC-483BC...
तथागत बुद्ध ने वैदिक संस्कृति के विरुद्ध आंदोलन किया और अनित्य, अनात्म एवं दुख का दर्शन देकर वेद के “ईश्वरी कृत” होने और “आत्मा” के सिधान्त को चुनौती दी । उन्होंने वैदिक संस्कृत के “जन्मना सिधान्त” को नकार “कर्मणा सिधान्त” का प्रतिपादन किया और वर्ण व्यवस्था के सिधान्त को नकार दिया और समतावादी और मानवतावादी दर्शन का प्रचार किया । वैदिक संस्कृति के यज्ञों मे पशुओं की बली दी जाती थी । इस तरह के कर्म कांड को भी तथागत गौतम बुध्द ने नकार दिया । तथागत गौतम बुद्ध के मानवीय शिक्षाओं के प्रसार के बाद ब्राह्मणों का वैदिक धर्म बुरी तरह हीन माना जाने लगा था । तथागत गौतम बुध्द ने अपने पुरे जीवन को इस दर्शन को स्थापित करने में लगाया और पुनः श्रमण संस्कृत को स्थापित किया । जो कि मूलनिवासीयों की संस्कृति थी । तब भारतीय इतिहास का सम्राट अशोक का स्वर्ण काल आया ।
▶ प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन ( 483BC )....
‘प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन 483 ई.पू. में राजगृह ( आधुनिक राजगिरि ), बिहार की ‘सप्तपर्णि गुफ़ा’ में किया गया था । तथागत गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही इस संगीति का आयोजन हुआ था । इसमें बौद्ध स्थविरों ( थेरों ) ने भाग लिया और तथागत बुद्ध के प्रमुख शिष्य महाकाश्यप ने उसकी अध्यक्षता की । चूँकि तथागत बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं को लिपिबद्ध नहीं किया था, इसीलिए प्रथम संगीति में उनके तीन शिष्यों - ‘महापण्डित महाकाश्यप’, सबसे वयोवृद्ध ‘उपालि’ तथा सबसे प्रिय शिष्य ‘आनन्द’ ने उनकी शिक्षाओं का संगायन किया ।
▶ द्वितीय बौद्ध संगीति ( 383 BC )....
एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई । इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया ।
▶ तृतीय बौद्ध संगीति ( 249 BC )......
बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के 236 वर्ष बाद सम्राट अशोक के संरक्षण में तृतीय संगीति 249 ईसा पूर्व में पाटलीपुत्र में हुई थी । इसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ ‘कथावत्थु’ के रचयिता तिस्स मोग्गलीपुत्र ने की थी । विश्वास किया जाता हैं कि इस संगीति में त्रिपिटक को अन्तिम रूप प्रदान किया गया । यदि इसे सही मान लिया जाए कि अशोक ने अपना सारनाथ वाला स्तम्भ लेख इस संगीति के बाद उत्कीर्ण कराया था, तब यह मानना उचित होगा, कि इस संगीति के निर्णयों को इतने अधिक बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियों ने स्वीकार नहीं किया कि अशोक को धमकी देनी पड़ी कि संघ में फूट डालने वालों को कड़ा दण्ड दिया जायेगा ।
▶ चतुर्थ बौद्ध संगीति....
चतुर्थ और अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल ( लगभग 120-144 ई. ) में हुई । यह संगीति कश्मीर के ‘कुण्डल वन’ में आयोजित की गई थी । इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष अश्वघोष थे । अश्वघोष कनिष्क का राजकवि था । इसी संगीति में बौद्ध धम्म दो शाखाओं में एक हीनयान और दुसरा महायान में विभाजित हो गया ।
हुएनसांग के मतानुसार सम्राट कनिष्क की संरक्षता तथा आदेशानुसार इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन व संस्करण हुआ । इसके समय से बौद्ध ग्रंथों के लिए पाली भाषा का प्रयोग हुआ और महायान बौद्ध संप्रदाय का भी प्रादुर्भाव हुआ । इस संगीति में नागार्जुन भी शामिल हुए थे । इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको ‘महाविभाषा’ नाम की पुस्तक में संकलित किया गया । इस पुस्तक को बौद्ध धम्म का ‘विश्वकोष’ भी कहा जाता हैं ।
सम्राट अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र था और चंद्रगुप्त का पौत्र था । जिसका जन्म लगभग 304 ईसा पूर्व में चैत्र शुक्ल अष्टमी को माना जाता हैं । 272 ईसा पूर्व अशोक को राजगद्दी मिली और 232 ई. पूर्व तक उसने शासन किया । अशोक ने 40 वर्ष राज्य किया । चंद्रगुप्त की सैनिक प्रसार की नीति ने वह स्थायी सफलता नहीं प्राप्त की, जो अशोक की धम्म विजय ने की थी । कलिंग के युद्ध के बाद अशोक ने व्यक्तिगत रूप से बौद्ध धम्म अपना लिया । अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोगाली पुत्र तिष्या ने की । इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गये जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया । बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के फ़लस्वरुप अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने के बाद युरेशियन ब्राह्मणों ने “पुरोहित का कर्म त्यागकर” सैनिक वृत्ति को अपना लिया था । पुष्यमित्र शुंग नाम के एक ब्राह्मण ने घुसपैठ करके मौर्य वंश के 10 वे उत्तराधिकारी “बृहद्रथ” का सेनापति बनकर एक दिन सेना का निरिक्षण करते समय धोखे से उसका कत्ल कर दिया । उसने ‘सेनानी’ की उपाधि धारण की थी । दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारण पुष्यमित्र शुंग इसी रुप में विख्यात था तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी । शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनरुत्थान हुआ तथा मनुस्मृति के वर्तमान स्वरुप की रचना इसी समय में हुई । वैदिक धर्म एवं आदेशों की जो अशोक के शासनकाल में अपेक्षित हो गये थे को पुनः कठोरता से लागू किया । इसी कारण इसका काल वैदिक प्रतिक्रांति अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल कहलाता हैं । पुष्यमित्र शुंग ने घोषणा किया जो बुद्धिस्ट भिख्खु ( Monk ) का सिर लाकर देगा वो उसे 100 सोने की सिक्के देगा । बौध्दों का बहुतही कत्ले आम हुआ ।
श्रमण संस्कृत के मानने वाले चार वर्ग मे विभक्त हो गए —
1 ) जो उनकी अधीनता स्वीकार कर लिए वो सछूत शूद्र बने अर्थात आज का ओबीसी ( OBC ) !
2 ) जो लड़ाई से दूर जंगल और पहाड़ मे चले गए अर्थात आज का अनुसूचित जन जाति ( ST ) !
3 ) जो ब्राह्मणवाद के सामने नहीं झुका वो है आज का अछूत अतिशूद्र अर्थात अनुसूचित जाति SC !
4 ) जो आज भी ब्राह्मणवाद के आगे नहीं झुके हैं और जंगलों में रहते हैं अर्थात आदिवासी !
मनुस्मृति की रचना के बाद ब्राह्मणों ने एक बहुत बड़ा जातिप्रथा नाम का षड्यंत्र रचा और फिर इस बार मूलनिवासीयों ( SC, ST, OBC ) को 6743 जातियों, टुकडों में तोड़ कर जन बल से भी वंचित कर दिया गया । ऐसा तंत्र तैयार किया गया कि इसको तोड़ना अत्यंत कठिन रहें । और उनमे श्रेणीबध्द असमानता का सिद्धांत अर्थात जातिव्यवस्था का सिद्धांत, लागु किया और उनको धर्म, वेदों एवं शास्त्रों के माध्यम से मानसिक रूप से गुलाम बनाया ।
उसके बाद समय समय पर ब्राह्मणों ने बहुत से धर्म शास्त्रों की रचना करके जो अंधश्रद्धा और अन्धविश्वास पर आधारित लिखें हैं और उनको मूलनिवासीयों पर जबरदस्ती धर्म के नाम पर थोप दिया गया हैं । इस प्रकार हम देखते है कि धर्म ही मूलनिवासीयों की गुलामी का मुख्य आधार हैं यही वो षड्यंत्र हैं जिसके कारण आज भी मूलनिवासी बहुजन समाज मानसिक तौर से गुलाम हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आज भी इसी षड्यंत्र के माध्यम से देश पर राज कर रहे हैं ।
इतिहास में हजारों मूलनिवासी महापुरुष हुए जिन्होंने मानवता पर आधारित मानव जीवन की शिक्षा दी, लेकिन किसी भी महापुरुष ने ना तो कोई धर्म बनाया और ना ही किसी धर्म की कभी बात की । हमारे मूलनिवासी महापुरुष जानते थे कि धर्म का सही अर्थ सिर्फ शोषण हैं । रविदास, नानक, कबीर, ज्योतीराव फुले, नारायण गुरु, पेरियार, सावित्री बाई फुले और बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़कर ने कोई भी धर्म नहीं बनाया । मूलनिवासी महापुरुष जानते थे कि अगर हम कोई धर्म बनाते हैं तो यह वही बात हो जायेगी कि लोगों को एक अंधे कुए से निकल कर दूसरे अंधे कुए में धकेल देना । कोई भी महापुरुष मूलनिवासी लोगों को अंधश्रध्दा और अविश्वास के कुए में नहीं धकेलना चाहता था । बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़करजी ने अपने जीवन काल में धर्म का त्याग करके धम्म को अपनाया क्योकि बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़करजी जानते थे कि आडम्बरों, पाखंडों और ढोंगों पर आधारित धर्मों से कभी भी मूलनिवासीयों का भला नहीं हो सकता । इसीलिए बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेड़करजी ने धर्म छोड़ कर बुद्धि और तर्क पर आधारित बौध्द धम्म को अपना कर सन्देश दिया ।
सभी मूलनिवासीयों से प्रार्थना हैं कि धर्म का त्याग करे और बौद्ध धम्म को अपनाये । शायद कुछ लोग यहाँ तर्क भी करेंगे कि हम बौध्द धम्म को ही क्यों अपनाये तो उन लोगों से प्रार्थना हैं कि फालतू में सोच कर या तर्क करके अपना समय और उर्जा खर्च ना करें । आप सभी को ज्ञात ही हैं कि जब तक हम ब्राह्मण निर्मित धर्म में रहेंगे हम शुद्र, नीच आदि कहलाते रहेंगे । आप सभी धर्म को छोड़ दे और मानवीय मूल्यों के आधार पर जीवन जीना शुरू कर दे । जब आप सभी लोग धर्म को त्याग कर मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीना शुरू करेंगे तो निश्चय से ही देश के मूलनिवासीयों का भला ही होगा ।
जागों मूलनिवासी बहुजनों जागों...!
1918 में पहली बार इस्तेमाल हुआ हिन्दू धर्म शब्द , ब्राह्मण नहीं इस देश का निवासी❗
तुलसीदास ने रामचरित मानस मुगलकाल में लिखी , पर मुगलों की बुराई मे एक भी चौपाई नही लिखी ?❗
क्यों ?❗
क्या उस समय हिंदू मुसलमान का मामला नहीं था ? हां उस समय हिंदू मुसलमान का मामला नहीं था❗
क्योंकि उस समय हिंदू नाम का कोई धर्म ही नहीं था
तो फिर उस समय कौनसा धर्म था ?❗
उस समय ब्राह्मण धर्म था और ब्राह्मण मुगलो के साथ मिलजुल कर यहाँ तक कि आपस में रिश्तेदार बनकर भारत पर राज कर रहे थे उस समय वर्ण व्यवस्था थी ❗वर्ण व्यवस्था में शुद्र अधिकार वंचित था कार्य सिर्फ सेवा करना था मतलब
सिधे शब्दों में गुलाम था
तो फिर हिंदू नाम का धर्म कब से आया ?❗
ब्राह्मण धर्म का नया नाम हिंदू तब आया जब वयस्क मताधिकार का मामला आया ,❗ जब इंग्लैंड में वयस्क मताधिकार का कानून लागू हुआ और इसको भारत में भी लागू करने की बात हुई ,❗
इसी पर तिलक ने बोला “ क्या ये तेली तम्बोली संसद में जा कर तेल बेचेगा क्या ?? इसलिए स्वराज इनका नहीं मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है , हिन्दू शब्द का प्रयोग पहली बार १९१८ में इस्तेमाल किया गया
तो ब्राह्मण धर्म खतरे में पड गया क्यों ?❗
क्योंकि भारत में उस समय अँगरेजों का राज था वहाँ वयस्क मताधिकार लागू हुआ तो फिर भारत में तो होना ही था❗
ब्राह्मण 3.5% है
अल्पसंख्यक है
राज कैसे करेगा ?❗
ब्राह्मण धर्म के सारे ग्रन्थ शुद्रों के विरोध में मतलब हक अधिकार छिन ने के लिए शुद्रों कि
मानसिकता बनाने के लिए षड्यंत्र के रूप में आज का ओबीसी ही ब्राह्मण धर्म का शुद्र है❗
SC (अनुसूचित जाति)) के लोगों को तो अछुत घोषित कर वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा क्योंकि उन्होंने ही युरेशियन आर्यों से सबसे ज्यादा संघर्ष किया ,❗
ST (अनुसूचित जनजाति)के लोग तो जंगलों में थे उनसे ब्राह्मण धर्म को क्या खतरा उनको तो युरेशियन आर्यों के सिंधु घाटी सभ्यता से संघर्ष के समय से ही वन में जाने रहने को मजबूर कर दिया उनको वनवासी कह दिया❗
इसलिए ब्राह्मणों ने षड्यंत्र से हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया जिससे सबको समानता का अहसास हो❗
परन्तू ब्राह्मणों ने समाज में व्यवस्था ब्राह्मण धर्म कि ही रखी उसमें जातियां रखी जातियां ब्राह्मण धर्म का प्राण तत्व है इसके बिना ब्राह्मण का वर्चस्व खत्म है❗
इसलिए उस समय हिंदू मुसलमान कि समस्या नहीं थी ब्राह्मण धर्म को जिंदा रखने के लिए वर्ण व्यवस्था थी
उसमें शुद्रों को गुलाम रखना था❗
इसलिए
तुलसीदास जी ने मुसलमानों के विरोध में नहीं शुद्रों के विरोध में गुलाम बनाए रखने के लिए लिखा❗
ढोल गवार शुद्र पशु नारी
सकल ताडन के अधिकारी
अब जब मुगल चले गये❗
देश में SC/ST/ OBC के लोग ब्राह्मण धर्म के विरोध में ब्राह्मण धर्म के अन्याय अत्याचार से दुखी होकर इस्लाम अपना लिया तो ब्राह्मण अगर मुसलमानों के विरोध में जाकर षड्यंत्र नहीं करेगा तो SC/ST/OBC के लोगों को प्रतिक्रिया से हिंदू बना कर
बहुसंख्यक लोगों का हिंदू के नाम पर ध्रूवीकरण करके अल्पसंख्यक ब्राह्मण बहुसंख्यक बनकर राज कैसे करेगा❗
इसलिए आज हिंदू मुसलमान कि समस्या देश में खडी कि गई तथा कथित हिंदू( SC ST OBC) मुसलमान लडे तथाकथित हिंदू (SC ST OBC )मरे या मुस्लिम दोनों तरफ मूलनिवासी का मरना तय है❗
क्या कभी सुना है की किसी दंगे में कोई ब्राह्मण मरा है जहर घोलनें वाले कभी जहर नहीं पिते हैं❗
इसलिए, युरेशियन सेफ का सेफ कोई दर्द नहीं कोई फर्क नहीं आराम से टीवी में डिबेट को तैयार❗
दुनिया के भ्रष्टाचार मुक्त देशों में शीर्ष पर गिने जाने वाले न्यूजीलैंण्ड के एक लेखक ब्रायन ने भारत में व्यापक रूप से फैंलें भष्टाचार पर एक लेख लिखा है। ये लेख सोशल मीडि़या पर काफी वायरल हो रहा है। लेख की लोकप्रियता और प्रभाव को देखते हुए विनोद कुमार जी ने इसे हिन्दी भाषीय पाठ़कों के लिए अनुवादित किया है। –
*न्यूजीलैंड से एक बेहद तल्ख आर्टिकिल।*
*भारतीय लोग होब्स विचारधारा वाले है (सिर्फ अनियंत्रित असभ्य स्वार्थ की संस्कृति वाले)*
भारत मे भ्रष्टाचार का एक कल्चरल पहलू है। भारतीय भ्रष्टाचार मे बिलकुल असहज नही होते, भ्रष्टाचार यहाँ बेहद व्यापक है। भारतीय भ्रष्ट व्यक्ति का विरोध करने के बजाय उसे सहन करते है। कोई भी नस्ल इतनी जन्मजात भ्रष्ट नही होती
*ये जानने के लिये कि भारतीय इतने भ्रष्ट क्यो होते हैं उनके जीवनपद्धति और परम्पराये देखिये।*
भारत मे धर्म लेनेदेन वाले व्यवसाय जैसा है। भारतीय लोग भगवान को भी पैसा देते हैं इस उम्मीद मे कि वो बदले मे दूसरे के तुलना मे इन्हे वरीयता देकर फल देंगे। ये तर्क इस बात को दिमाग मे बिठाते हैं कि अयोग्य लोग को इच्छित चीज पाने के लिये कुछ देना पडता है। मंदिर चहारदीवारी के बाहर हम इसी लेनदेन को भ्रष्टाचार कहते हैं। धनी भारतीय कैश के बजाय स्वर्ण और अन्य आभूषण आदि देता है। वो अपने गिफ्ट गरीब को नही देता, भगवान को देता है। वो सोचता है कि किसी जरूरतमंद को देने से धन बरबाद होता है।
*जून 2009 मे द हिंदू ने कर्नाटक मंत्री जी जनार्दन रेड्डी द्वारा स्वर्ण और हीरो के 45 करोड मूल्य के आभूषण तिरुपति को चढाने की खबर छापी थी। भारत के मंदिर इतना ज्यादा धन प्राप्त कर लेते हैं कि वो ये भी नही जानते कि इसका करे क्या। अरबो की सम्पत्ति मंदिरो मे व्यर्थ पडी है।*
*जब यूरोपियन इंडिया आये तो उन्होने यहाँ स्कूल बनवाये। जब भारतीय यूरोप और अमेरिका जाते हैं तो वो वहाँ मंदिर बनाते हैं।*
*भारतीयो को लगता है कि अगर भगवान कुछ देने के लिये धन चाहते हैं तो फिर वही काम करने मे कुछ कुछ गलत नही है। इसीलिये भारतीय इतनी आसानी से भ्रष्ट बन जाते हैं।*
*भारतीय कल्चर इसीलिये इस तरह के व्यवहार को आसानी से आत्मसात कर लेती है, क्योंकि*
1 नैतिक तौर पर इसमे कोई नैतिक दाग नही आता। एक अति भ्रष्ट नेता जयललिता दुबारा सत्ता मे आ जाती है, जो आप पश्चिमी देशो मे सोच भी नही सकते ।
2 भारतीयो की भ्रष्टाचार के प्रति संशयात्मक स्थिति इतिहास मे स्पष्ट है। भारतीय इतिहास बताता है कि कई शहर और राजधानियो को रक्षको को गेट खोलने के लिये और कमांडरो को सरेंडर करने के लिये घूस देकर जीता गया। ये सिर्फ भारत मे है
भारतीयो के भ्रष्ट चरित्र का परिणाम है कि भारतीय उपमहाद्वीप मे बेहद सीमित युद्ध हुये। ये चकित करने वाला है कि भारतीयो ने प्राचीन यूनान और माडर्न यूरोप की तुलना मे कितने कम युद्ध लडे। नादिरशाह का तुर्को से युद्ध तो बेहद तीव्र और अंतिम सांस तक लडा गया था। भारत मे तो युद्ध की जरूरत ही नही थी, घूस देना ही ही सेना को रास्ते से हटाने के लिये काफी था। कोई भी आक्रमणकारी जो पैसे खर्च करना चाहे भारतीय राजा को, चाहे उसके सेना मे लाखो सैनिक हो, हटा सकता था।
प्लासी के युद्ध मे भी भारतीय सैनिको ने मुश्किल से कोई मुकाबला किया। क्लाइव ने मीर जाफर को पैसे दिये और पूरी बंगाल सेना 3000 मे सिमट गई। भारतीय किलो को जीतने मे हमेशा पैसो के लेनदेन का प्रयोग हुआ। गोलकुंडा का किला 1687 मे पीछे का गुप्त द्वार खुलवाकर जीता गया। मुगलो ने मराठो और राजपूतो को मूलतः रिश्वत से जीता श्रीनगर के राजा ने दारा के पुत्र सुलेमान को औरंगजेब को पैसे के बदले सौंप दिया। ऐसे कई केसेज हैं जहाँ भारतीयो ने सिर्फ रिश्वत के लिये बडे पैमाने पर गद्दारी की।
सवाल है कि भारतीयो मे सौदेबाजी का ऐसा कल्चर क्यो है जबकि जहाँ तमाम सभ्य देशो मे ये सौदेबाजी का कल्चर नही है
3- *भारतीय इस सिद्धांत मे विश्वास नही करते कि यदि वो सब नैतिक रूप से व्यवहार करेंगे तो सभी तरक्की करेंगे क्योंकि उनका “विश्वास/धर्म” ये शिक्षा नही देता। उनका कास्ट सिस्टम उन्हे बांटता है। वो ये हरगिज नही मानते कि हर इंसान समान है। इसकी वजह से वो आपस मे बंटे और दूसरे धर्मो मे भी गये। कई हिंदुओ ने अपना अलग धर्म चलाया जैसे सिख, जैन बुद्ध, और कई लोग इसाई और इस्लाम अपनाये। परिणामतः भारतीय एक दूसरे पर विश्वास नही करते। भारत मे कोई भारतीय नही है, वो हिंदू ईसाई मुस्लिम आदि हैं। भारतीय भूल चुके हैं कि 1400 साल पहले वो एक ही धर्म के थे। इस बंटवारे ने एक बीमार कल्चर को जन्म दिया। ये असमानता एक भ्रष्ट समाज मे परिणित हुई, जिसमे हर भारतीय दूसरे भारतीय के विरुद्ध है, सिवाय भगवान के जो उनके विश्वास मे खुद रिश्वतखोर है।*
लेखक-ब्रायन,
गाडजोन न्यूजीलैंड
http://www.madhyamarg.com/mudde/article-of-brian-on-corruption/
👀👀सम्राट अशोक ने अपने राज्य में पशु हत्या पर पाबन्दी लगा दी थी, जिसके कारन ब्राह्मणों की रोजगार योजना बंद हो गई थी, उसके बाद सम्राट अशोक ने तीसरी धम्म संगती में ६०,००० ब्राह्मणों को बुद्ध धम्म से निकाल बाहर किया था, तो ब्राह्मण १४० सालों तक गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रहे थे, उस वक़्त ब्राह्मण आर्थिक दुर्बल घटक बनके जी रहे थे, ब्राह्मणों का वर्चस्व और उनकी परंपरा खत्म हो गई थी, उसे वापस लाने के लिए ब्राह्मणों के पास बौद्ध धम्म के राज्य के विरोध में युद्ध करना यही एक मात्र विकल्प रह गया था, ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस लाने के लिए
*👇👇 अखण्ड भारत में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में अखण्ड भारत के निर्माता चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक महान के पौत्र , मौर्य वंश के 10 वें न्यायप्रिय सम्राट राजा बृहद्रथ मौर्य की हत्या धोखे से उन्हीं के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग के नेतृत्व में ईसा.पूर्व. १८५ में रक्त रंजिस साजिश के तहत प्रतिक्रांति की और खुद को मगध का राजा घोषित कर लिया था ।*
और इस प्रकार ब्राह्मणशाही का विजय हुआ।
👆🏻 *उसने राजा बनने पर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक सभी बौद्ध विहारों को ध्वस्त करवा दिया था तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओ का खुलेआम कत्लेआम किया था। पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों व यहाँ की जनता पर बहुत अत्याचार करता था और ताकत के बल पर उनसे ब्राह्मणों द्वारा रचित मनुस्मृति अनुसार वर्ण (हिन्दू) धर्म कबूल करवाता था*।
👆🏻 *उत्तर-पश्चिम क्षेत्र पर यूनानी राजा मिलिंद का अधिकार था। राजा मिलिंद बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। जैसे ही राजा मिलिंद को पता चला कि पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों पर अत्याचार कर रहा है तो उसने पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। पाटलिपुत्र की जनता ने भी पुष्यमित्र शुंग के विरुद्ध विद्रोह खड़ा कर दिया, इसके बाद पुष्यमित्र शुंग जान बचाकर भागा और उज्जैनी में जैन धर्म के अनुयायियों की शरण ली*।
*जैसे ही इस घटना के बारे में कलिंग के राजा खारवेल को पता चला तो उसने अपनी स्वतंत्रता घोषित करके पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया*। *पाटलिपुत्र से यूनानी राजा मिलिंद को उत्तर पश्चिम की ओर धकेल दिया*।
👆🏻 *इसके बाद ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग राम ने अपने समर्थको के साथ मिलकर पाटलिपुत्र और श्यालकोट के मध्य क्षेत्र पर अधिकार किया और अपनी राजधानी साकेत को बनाया। पुष्यमित्र शुंग ने इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया। अयोध्या अर्थात-बिना युद्ध के बनायीं गयी राजधानी*...
👆🏻 *राजधानी बनाने के बाद पुष्यमित्र शुंग राम ने घोषणा की कि जो भी व्यक्ति, बौद्ध भिक्षुओं का सर (सिर) काट कर लायेगा, उसे 100 सोने की मुद्राएँ इनाम में दी जायेंगी। इस तरह सोने के सिक्कों के लालच में पूरे देश में बौद्ध भिक्षुओ का कत्लेआम हुआ। राजधानी में बौद्ध भिक्षुओ के सर आने लगे । इसके बाद कुछ चालक व्यक्ति अपने लाये सर को चुरा लेते थे और उसी सर को दुबारा राजा को दिखाकर स्वर्ण मुद्राए ले लेते थे। राजा को पता चला कि लोग ऐसा धोखा भी कर रहे है तो राजा ने एक बड़ा पत्थर रखवाया और राजा, बौद्ध भिक्षु का सर देखकर उस पत्थर पर मरवाकर उसका चेहरा बिगाड़ देता था । इसके बाद बौद्ध भिक्षु के सर को घाघरा नदी में फेंकवा दता था*।
*राजधानी अयोध्या में बौद्ध भिक्षुओ के इतने सर आ गये कि कटे हुये सरों से युक्त नदी का नाम सरयुक्त अर्थात वर्तमान में अपभ्रंश "सरयू" हो गया*।
👆🏻 *इसी "सरयू" नदी के तट पर पुष्यमित्र शुंग के राजकवि वाल्मीकि ने "रामायण" लिखी थी। जिसमें राम के रूप में पुष्यमित्र शुंग और "रावण" के रूप में मौर्य सम्राटों का वर्णन करते हुए उसकी राजधानी अयोध्या का गुणगान किया था और राजा से बहुत अधिक पुरस्कार पाया था। इतना ही नहीं, रामायण, महाभारत, स्मृतियां आदि बहुत से काल्पनिक ब्राह्मण धर्मग्रन्थों की रचना भी पुष्यमित्र शुंग की इसी अयोध्या में "सरयू" नदी के किनारे हुई*।
👆🏻 *बौद्ध भिक्षुओ के कत्लेआम के कारण सारे बौद्ध विहार खाली हो गए। तब आर्य ब्राह्मणों ने सोचा' कि इन बौद्ध विहारों का क्या करे की आने वाली पीढ़ियों को कभी पता ही नही लगे कि बीते वर्षो में यह क्या थे*
*तब उन्होंने इन सब बौद्ध विहारों को मन्दिरो में बदल दिया और इसमे अपने पूर्वजो व काल्पनिक पात्रों, देवी देवताओं को भगवान बनाकर स्थापित कर दिया और पूजा के नाम पर यह दुकाने खोल दी*।
साथियों, इसके बाद ब्राह्मणों ने मूलनिवासियो से बदला लेने के लिए षडयन्त्र पूर्वक (रंग-भेद) वर्णव्यवस्था का निर्माण किया गया, वर्णव्यवस्था के तहत, जाती व्यवस्था में ६००० जातीया बनाई, और उसमे ७२००० उप जातीया बनाई। और इसे ब्राह्मणों ने इश्वर निर्मित बताया ताकि इसे सहजता से स्वीकार कर ले। मूलनिवासियो को इतने छोटे-छोटे जातियों के टुकड़ो में बाँटा ताकि मूलनिवासी ब्राह्मणों से फिर से युद्ध न कर सके और ब्राह्मणों पर फिर से विजय प्राप्त न कर सके।
👆🏻 *ध्यान रहे उक्त बृहद्रथ मौर्य की हत्या से पूर्व भारत में मन्दिर शब्द ही नही था, ना ही इस तरह की संस्कृती थी। वर्तमान में ब्राह्मण धर्म में पत्थर पर मारकर नारियल फोड़ने की परंपरा है ये परम्परा पुष्यमित्र शुंग के बौद्ध भिक्षु के सर को पत्थर पर मारने का प्रतीक है*।
👆🏻 *पेरियार रामास्वामी नायकर ने भी " सच्ची रामायण" पुस्तक लिखी जिसका इलाहबाद हाई कोर्ट केस नम्बर* *412/1970 में वर्ष 1970-1971 व् सुप्रीम कोर्ट 1971 -1976 के बीच में केस अपील नम्बर 291/1971 चला* ।
*जिसमे सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस पी एन भगवती जस्टिस वी आर कृषणा अय्यर, जस्टिस मुतजा फाजिल अली ने दिनाक 16.9.1976 को निर्णय दिया की सच्ची रामायण पुस्तक सही है और इसके सारे तथ्य सही है। सच्ची रामायण पुस्तक यह सिद्ध करती है कि "रामायण" नामक देश में जितने भी ग्रन्थ है वे सभी काल्पनिक है और इनका पुरातात्विक कोई आधार नही है*।
👆🏻 *अथार्त् 100% फर्जी व काल्पनिक है*।
👆🏻 *एक ऐतिहासिक सत्य जो किसी किसी को पता है...*
जागो मुलनिवासियों, बहुजनों, अपने मुल इतिहास को जानों, पाखण्डि ब्राह्मणवादियों के बहकावे में न आयें। अन्यथा वो दिन जब हमें पानी पीने, तन में कपड़ा पहनने का, पढ़ने-लिखने, अधिकार नहीं था, एक जानवरों से भी बत्तर जिंदगी जीने पर मजबूर किया करते थे, ऐसा दिन आने में दूर नहीं। को दूसरे बाबासाहेब हमें बचाने नहीं आयेंगें।
👆🏻 *जागरूक रहें, जागरूक करें और अधिक से अधिक अधिक शेयर करें...*
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