Saturday, 28 October 2017

थोपी हुई नास्तिकता वंचित वर्गों की एकजुटता में बाधक

थोपी हुई नास्तिकता वंचित वर्गों की एकजुटता में बाधक
12 जुलाई, 2017 को मैंने * 'कुछ लोग डंडे के बल पर लोगों को बदलना चाहते हैं। ऐसे लोग मोस्ट वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं।'* शीर्षक से लिखे लेख में लिखा था कि-
1. हम सब को अभिव्यक्ति की आजादी है, लेकिन जमीनी सच्चाई को नकारना मेरी दृष्टि में बुद्धिमता नहीं। यद्यपि विचारणीय तथ्य यह है कि केवल और *केवल डिग्रीधारी या उच्च पद दिलाने वाली शिक्षा के अहंकार से संचालित लोगों की शैक्षिक ईगो (अहंकार) जीवन और समाज को दिशा देने के मामले में खतरनाक सिद्ध हो सकती है। बल्कि खतरनाक सिद्ध हो ही रही है।* मानव व्यवहार शास्त्र और मानव मनोविज्ञान का ज्ञान रखने वाले विश्वस्तरीय विद्वान्/मनीषी इस बात को जानते और मानते हैं कि *दुनिया केवल कानून, तर्क और तथ्यों से न कभी चली है और न कभी चल सकती। जीवन मानव के अवचेतन मन के गहरे तल पर हजारों सालों से स्थापित अच्छे-बुरे संस्कार, ज्ञान, अवधारणाओं, परम्पराओं और अनचाही आदतों से संचालित होता है।*
2. भारत के मोस्ट वर्ग में एक छोटा सा, बल्कि *मुठ्ठीभर लोगों का ऐसा समुदाय है, जो धर्म, अध्यात्म आदि को सीधे-सीधे ढोंग तथा अवैज्ञानिक करार देता है। ऐसे लोगों के समर्थन में भारत की एक फीसदी आबादी भी नहीं है।* जबकि यह वैज्ञानिक सत्य है कि अध्यात्म, प्रार्थना और मैडीटेशन का अवचेतन मन की शक्ति से सीधा जुड़ाव है। जिसे जाने और समझे बिना *अधिकतर आम आस्तिक लोग परमेश्वर, दैवीय शक्ति या अपने आराध्य की प्रार्थना करते हैं और आश्चर्यजनक रूप से उनको, उनकी प्रार्थनाओं के परिणाम भी मिलते हैं। जिसे मनोवैज्ञानिकों ने संसार के अनेक देशों, धर्मों और नस्लों के लोगों में बार-बार सत्य पाया है। यह अलग बात है कि प्रार्थनाओं से मिलने वाले परिणाम दैवीय शक्ति या आराध्य के ही कारण ही मिलते हैं, इसका आज तक कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला है, लेकिन जिन आस्तिक लोगों को परिणाम मिलते हैं। उनकी आस्था को झुठलाना वैज्ञानिक रूप से इतना सरल नहीं है, जितना कि कुछ कथित कट्टरपंथी नास्तिक समझते हैं।*
3. कड़वा सच तो यह है कि *खुद को नास्तिक कहने और बोलने वाले सबसे बड़े/कट्टर आस्तिक होते हैं। इस विषय में, मेरी ओर से 23 अक्टूबर, 2016 को ''नास्तिकता और आस्तिकता दोनों ही मनोवैज्ञानिक और मानव व्यवहारशास्त्र से जुड़ी अवधारणाएं हैं'' शीर्षक से एक आलेख लिखा था। जिसमें मूलत: स्पष्ट किया गया था कि-
(1) मैं अनेक बार चाहकर भी अनेक (नास्तिकता और आस्तिकता से जुड़े) विषयों पर इस कारण से नहीं लिखता, क्योंकि अधिकांश लोग अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त हुए बिना किसी बात को महामानव बुद्ध की दृष्टि से समझने को सहमत ही नहीं होते हैं। ऐसे लोगों के पास अपना खुद का कोई चिन्तन, शोधन या परिष्कार नहीं होता है, बल्कि तोतारटन्त ज्ञान को अन्तिम ज्ञान मानकर विचार व्यक्त करते रहते हैं।
(2) नास्तिक और आस्तिक दोनों शब्द भी इसी कारण से समझने में दिक्कत पैदा करते हैं। हमारे यहां पर अधिसंख्य लोग और विशेषकर वे लोग जिनको मनुवादी कारणों से अस्पृश्यता और विभेद का दंश झेलना पड़ा है या झेल रहे हैं, जिनमें मैं भी एक हूं, उन में से अधिकाँश को हर एक बात धार्मिक चश्मे से ही दिखाई देती है।
(3) जबकि नास्तिकता और आस्तिकता दोनों ही मनोवैज्ञानिक और मानव व्यवहारशास्त्र से जुड़ी अवधारणाएं हैं, लेकिन मनुवाद विरोधी धर्म के चश्मे से देखने की उनकी आदत निष्पक्षता को छीन चुकी है।
(4) उदाहरण: एक भगवान को नहीं मानने वाला भारतीय व्यक्ति बेशक अपने आप को नास्तिक कहता रहे, लेकिन बीमार होने पर वह अपना उपचार उसी चिकित्सा पद्धति और उसी डॉक्टर से करवाता है। जिसके प्रति उसके मन में अनुराग, आस्था अर्थात् आस्तिकता होती है। इसी प्रकार रिश्तों, जाति, रंग, पूंजीवाद, समाजवाद या साम्यवाद आदि के प्रति अनुराग या आस्था होना भी मनोव्यवहारीय (मनोवैज्ञानिक) दृष्टिकोण से आस्तिकता का वैज्ञानिक प्रमाण है। मुझे पता है कि मनुवाद विरोधी चश्में से इन अवधारणाओं पर चिन्तन असम्भव है। अत: अनेक लोग कुतर्क और बहस कर सकते हैं, जबकि यह गहन चिन्तन और चर्चा का विषय है।
12 जुलाई, 2017 को लिखे लेख में मैंने आगे लिखा था कि-
4. जानने और समझने वाली बात यह है कि *इस संसार में ऐसी बहुत सी अज्ञात शक्तियां और ज्ञान की शाखाएं हैं, जिनके बारे में जाने बिना, उन विषयों पर (अन्तिम) निर्णय सुनाने वाले वास्तव में सबसे बड़े अमानवीय और अन्यायी हैं। वंचित/मोस्ट वर्ग में एक समुदाय ऐसे अन्यायी और नास्तिक लोगों की कट्टरपंथी फौज तैयार कर रहा है। जिसकी प्रतिक्रिया में वंचित वर्ग के एक तबके पर लगातार अत्याचार, व्यभिचार और अन्याय बढ़ते जा रहे हैं। जिसकी कीमत सम्पूर्ण मोस्ट वर्ग को चुकानी पड़ रही है। इस विषय में भी, मैं अनेक बार विस्तार से लिख चुका हूँ। फिर भी ऐसे लोगों की पूर्वाग्रही धारणाएं शिथिल नहीं हो रही हैं। जो मोस्ट वर्ग की एकता के लिये सबसे खतरनाक तथा भयावह स्थिति है।*
5. जिन लोगों को अवचेतन मन की शक्ति, मैडिटेशन (ध्यान की निश्छल नीरवता) और लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन का प्राथमिक ज्ञान भी रहा होता है, उनके द्वारा कभी भी धर्म, आध्यात्म और आस्तिकता का विरोध नहीं किया जा सकता। लेकिन *कट्टरपंथियों द्वारा ब्रेन वाश किया हुआ पूर्वाग्रही विचारों से ओतप्रोत तथा शाब्दिक ज्ञान की धारा पर तरंगित मन-अवचेतन मन की शक्ति, आकर्षण, न्याय, युक्तियुक्तता, ऋजु इत्यादि अवधारणाओं को न तो जान सकता है और न ही उसे दूसरों की आस्थाओं, विश्वासों, संवेदनाओं तथा सिद्धांतों की परवाह होती है।*
6. वजह साफ है, क्योंकि ऐसे ब्रेन वाश किये हुए कट्टरपंथी लोगों और आतंकवादियों के मानसिक स्तर में कोई अंतर नहीं होता। बल्कि दोनों में मौलिक समानता होती है। वजह वैचारिक रूप से दोनों ही कट्टरपंथी होते हैं। कट्टरपंथियों और आतंकियों के अवचेतन मन में मौलिक रूप से एक बात बिठायी जाती है- *मैं जो जानता हूँ, जो करता हूँ, जो बोलता हूँ, वही सच है। अतः इस सच को सारी दुनिया को जानना और मानना चाहिए। जो नहीं मानते वे मूर्ख, गद्दार, देशद्रोही और असामाजिक हैं। अतः ऐसे लोगों को बहिष्कृत किया जाए या तुरंत रास्ते से हटा दिया जाए। दुष्परिणाम हर दिन हत्याएं और बलात्कार हो रहे हैं!*
7. भारत 1947 में आजाद हुआ। भारत में 1950 से लोकतंत्र की गणतंत्रीय व्यवस्था का संचालक संविधान लागू हुआ। इसके बावजूद भी सामाजिक न्याय से वंचित लोगों को संविधान के प्रावधानों के होते हुए न्याय नहीं मिल रहा है। अन्याय और अत्याचार यथावत जारी रहे हैं। वंचित-मोस्ट वर्ग संख्यात्मक दृष्टि से बहुसंख्यक एवं सशक्त होते हुए भी सात दशक बाद भी बिखरा हुआ है और हर मुकाम पर अपमानित तथा शोषित होने को विवश है। *जिसका मूल कारण है-आपसी एकता का अभाव है। मोस्ट वर्ग की एकता में बाधक वही लोग हैं, जिनके हाथ में मोस्ट वर्ग की लगाम रही है। उनको इतनी समझ तक नहीं कि लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करके, उनका स्नेह, अपनापन, सम्मान, मत और समर्थन हासिल नहीं किया जा सकता।*
8. ऐसे लोग इस देश की सत्ता को किसी न किसी बहाने अपने कब्जे में लेने के सपने तो देखते रहते हैं, लेकिन मतदाता के मनोभाव को नहीं समझना चाहते। अत: इनके सपने पूरे होना कभी भी सम्भव नहीं है। जो कोई भी व्यक्ति आम लोगों की सुन नहीं सकता, वह कभी भी अच्छा वक्ता नहीं बन सकता। क्योंकि वक्ता होने के लिए श्रोताओं की जरूरत होती है और श्रोता उसी को सुनते हैं, जो उनकी आस्थाओं, विश्वासों, भावनाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं और जरूरतों का आदर करता हो। *क्या कोई नास्तिक कभी भारत में 99 फीसदी से अधिक आस्तिक मोस्ट वर्ग के लोगों की भावनाओं को धुत्कार कर, उनका चहेता बन सकता है? मेरी राय में कभी नहीं।*
9. याद रहे-*पाखण्ड और आस्थाओं में अंतर होता है। कोई भी व्यक्ति एक बार पाखण्ड को छोड़ने या त्यागने को सहमत किया भी जा सकता है, लेकिन वही व्यक्ति यकायक अपनी आस्थाओं और विश्वासों को नहीं त्याग सकता।* हमें इस बात को स्वीकारना होगा कि परिवर्तन सतत प्रक्रिया है। जिसमें समय लगता है। पीढियां गुजर जाती हैं। तब कहीं थोड़े-बहुत बदलाव दिखने लगते हैं। इस बात को जाने बिना कुछ लोग डंडे के बल पर लोगों को बदलना चाहते हैं। ऐसे लोग मोस्ट वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं। *दुःखद स्थिति यह कि मोस्ट की कमान ऐसे ही लोगों के ही हाथों में है। इससे भी दुःखद यह कि इन लोगों में भी अधिकाँश लोग ढोंगी हैं।*
उपरोक्त लेख का देश के अधिसंख्य अपूर्वाग्रही विद्वानों ने समर्थन किया जो लेख की मूल भावना तथा लेखक का सम्मान है। इसी विषय में मुझे आगे यह और कहना है कि-
10. नास्तिकता और आस्तिकता जैसे विषयों पर सोशल मीडिया पर या वाट्सएप पर चैटिंग के मार्फ़त वांछित परिणाम मिलना तो संदिग्ध है ही, साथ ही साथ, इस कारण नजदीकी लोगों में आपसी दूरियाँ भी बढ़ रही हैं। अतः नास्तिकता समर्थक विद्वानों को कम से कम वंचित/मोस्ट वर्ग के विद्वानों को इस विषय पर समसामयिक हालातों के अनुसार समग्र समाज के हित और अहित को ध्यान में रखकर चिंतन करना होगा। अन्यथा बाद में पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।
11. मैं निजी तौर पर संविधान के अनुच्छेद 14, 21 एवं 25 के प्रकाश में धार्मिक मामलों को भारत के लोगों का निजी विषय मानकर, इन पर किसी के भी द्वारा, किसी पर भी अपने नास्तिकता के विचार थोपने या आस्तिकता का मजाक उड़ाने या नास्तिकता को स्थापित करने के लिये आस्तिकों को अपमानित करने के समर्थन में नहीं हूँ। हाँ पाखण्ड, ढोंग, अंधविश्वास आदि का आमजन के धार्मिक विश्वास और उस विश्वास के दैनिक जीवन में पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभावों का निष्पक्ष अध्ययन करने के बाद, इन पर अत्यधिक संवेदनशीलता के साथ काम करने की जरूरत है। जिससे कि लोगों की भावनाओं को आहत किये बिना, उनको स्वेच्छा से इन्हें छोड़ने के लिए सहमत किया जा सके।
12. निःसन्देह धर्मांधता वंचित वर्गों के समग्र विकास में बाधक है, लेकिन थोपी हुई नास्तिकता वंचित वर्गों की एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा है! नास्तिकता का आरोपण करोड़ों लोगों के जीवन जीने के आधार धर्म, आस्था तथा विश्वास को कुचलने के समान है। हम जिन वंचित लोगों को आगे बढाने के लिये काम करना चाहते हैं। हम जिन वंचित लोगों के समर्थन से राजनीतिक सत्ता पाना चाहते हैं। यदि वही लोग असहज या नाखुश अनुभव करके, हम से दूर जाने लगें तो ऐसी नास्तिकता किस काम की? समझने वाली महत्वूपर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे लोगों को सत्य के ज्ञान के साथ-साथ, सत्य का अनुभव भी होगा, स्वत: ही बदलाव की बयार बहने लगेगी।
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल
(HRD Mission-90 For MOST) 9875066111, 11092017
http://hrd-newsletter.blogspot.in/2017/09/blog-post_11.html

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