Sunday, 16 July 2017

बलात्कार की वो चीखें

 23 औरतों के बलात्कार की वो चीखें, 
जो भारत को कभी सोने नहीं देंगी..

क्या कुनन-पाशपोरा आपको याद है?

23 और 24 फरवरी 1991 की रात को कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के कुनन और पाशपोरा दो गांवों में, 23 औरतों के बलात्कार हुए. कुछ लोग इस संख्या को 40 भी बताते हैं. इसका आरोप भारतीय सेना पर लगा. 26 साल बीत चुके हैं, पर इस घटना के दोषी पकड़े नहीं गए. बहुत सालों तक तो इस घटना को स्वीकार ही नहीं किया गया कि ऐसा कुछ हुआ भी है. 24 साल बाद इन औरतों में से 5 ने अपनी बातें बताईं और ये बातें एक किताब के रूप में बाहर आईं. ये किताब उस ओर की घटना है, जिसकी तरफ से सारा देश आंख मूंदे रहता है. हमें ये लगता है कि सेना का ही वर्जन सही है. पाकिस्तान और आतंकवादियों से लड़ाई में कौन असली विक्टिम है, उसे जानना हमारे लिए जरूरी नहीं होता. मैं अक्सर ऐसा सोचता हूं, कि अगर हम वहां होते, तो क्या करते. क्या सोचते. किससे नाराज होते. किसको मारना चाहते. क्या सोचते देश के बारे में.

2015 में ये किताब “Sexual Violence and Impunity in South Asia” प्रोजेक्ट के तहत जुबान पब्लिकेशन की सीरीज में आई थी. ये उस सीरीज की पहली किताब थी. पांच युवा लेखिकाओं एस्सार बतूल, इफरा बट, समरीना मुश्ताक, मुनाजा राशिद और नताशा राथर ने इस किताब को लिखा. सरकारों के खिलाफ आवाज उठाती ये किताब है. ये वो लोग हैं जिनकी आवाज पर 2013 में इस केस को फिर खोला गया था. इन लड़कियों की हिम्मत काबिले तारीफ है. निर्भया बलात्कार कांड के बाद इन लोगों की हिम्मत और बढ़ी. क्योंकि ये बात औरतों की है. जिनके लिए कोई भी दरिंदा बन जाता है.


किताब के मुताबिक 23 और 24 फरवरी 1991 की रात को चौथी राजपूताना राइफल्स के सिपाही कुनन-पाशपोरा गए थे. ये लाइन ऑफ कंट्रोल के पास है. ये कॉर्डन और सर्च ऑपरेशन था. मतलब खाली कराकर आतंकियों की खोज करना.
इस किताब का एक अंश आपको पढ़ा रहे हैं-

Quote 4
मैं और मेरी बहन चिपक के खड़े हो गए. हम दरवाजे पर हो रही धपधप से डर गए थे. ऐसा लग रहा था कि कोई हमारे दरवाजे को तोड़ रहा है. मेरे दादाजी उठ गए और उन्होंने दरवाजा खोल दिया. मैंने कुछ शब्द सुने – “कितने आदमी हो घर में”. “कोई नहीं साहिब, बस मैं हूं”. मैंने उठने की कोशिश की. पर किसी ने रोक दिया. ये अमीना थी. उसने मेरा हाथ पकड़ रखा था. कड़ी नजर से मुझे देखा. अब मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की. मैंने देखा कि अमीना और फातिमा भी यही कर रही थीं. इसके बीच में मैंने एक औरत की आवाज सुनी. ये मेरी अम्मी थीं. किसी से गिड़गिड़ा रही थीं. अचानक आवाज आई, “हा ख़ुदा!”.

तुरंत ही एक सिपाही हमारे सामने आ गया. मैं उसकी शराब को सूंघ सकती थी. उसके हाथ में बोतल थी. मेरा गला सूख गया था. मैं चिल्ला भी नहीं पा रही थी. मैं खड़ी भी नहीं हो पा रही थी. मेरे पैर जमीन में सट गए थे. फातिमा और अमीना ने मुझे दोनों तरफ से पकड़ रखा था. उनकी उंगलियां मेरी बांहों में धंस गई थीं.

किताब
किताब (जुबान सीरीज)
तभी मैंने देखा कि सिपाही एक से बढ़कर छह हो गए. मैं चिल्लाना चाहती थी. पर मेरे दादाजी भी कुछ नहीं बोल पा रहे थे. मुझे नहीं पता कि वो मेरी अम्मी को कहां ले गए थे. मुझे बस मेरा गिड़गिड़ाना याद है. ख़ुदा के लिए हमें छोड़ दो, हमने कुछ नहीं किया. मैंने उनके जूतों पर सिर रख दिया. पर वो मुझे किचन में घसीट ले गया. मेरी मां वहीं पर थी. मैंने पूरी ताकत से आवाज दी – “अम्मी, बचा लो”. पर मैं कह नहीं सकती कि मैंने उसे किस हालत में देखा और उसके साथ क्या हो रहा था. मेरा पैरहन फाड़ दिया गया. और उसी के साथ मेरी पूरी जिंदगी भी.

जब मुझे होश आया तो मेरा सिर खाली हो चुका था. मैं सुन्न हो गई थी. मेरा चेहरा भीग गया था. मैं नंगी थी, मेरा शरीर ही नहीं, मेरी आत्मा भी नंगी हो चुकी थी. मेरी मां उसी कमरे में मेरे साथ थी. वो शायद होश खो बैठी थी या फिर जान-बूझ के नहीं देख रही थी. उसने अपना चेहरा मेरी तरफ से घुमा लिया था. तभी मैंने किसी को रोते हुए सुना. वो मेरा भाई था. उसने किसी चीज से मुझे ढंक दिया. मुझे साफ-साफ याद नहीं है कि ये क्या था. मैंने आज तक उससे पूछा नहीं है. उस रात के बारे में हमने कभी बात नहीं की है. पर मुझे याद है कि उसके बाद मैं अपने शरीर के नीचे वाले हिस्से को महसूस नहीं कर सकती थी.

वो एक रात मेरी जिंदगी बन गई. मैं कुछ भी कर लूं, कहीं चली जाऊं, कुछ भी सोच लूं वो रात मेरा पीछा नहीं छोड़ती. ये मेरे साथ हर वक्त रहती है. चाहे मैं नमाज पढ़ूं, खाना बनाऊं, या खुद को खूब साफ करूं. मैं सिपाहियों को बद्दुआएं देती हूं. हर वक्त. पूरी जिंदगी देती रहूंगी. लोग मुझे धीरज बंधाते हैं. कहते हैं कि तुम्हें सब भूल जाना चाहिए और जिंदगी में आगे बढ़ना चाहिए. पर वो कहना आसान है. करना नहीं. बहुत मुश्किल है. जैसे कि कोई अपनी आंखें खो दे और लोग भरोसा दिलाएं कि तुम्हारे पास आंखें थी ही नहीं.

मैंने पुलिस को कोई स्टेटमेंट नहीं दिया. मेरे परिवार को डर था कि कोई मुझसे शादी नहीं करेगा. पर मैंने कभी शादी नहीं की. ऐसा नहीं है कि मैं करना नहीं चाहती, मेरी हेल्थ मुझे अनुमति नहीं देती. मैं शादी करने लायक नहीं हूं. मैं किसी की जिंदगी बर्बाद नहीं करना चाहती. इसके अलावा जब मैं ये देखती हूं कि मेरे गांव की लड़कियों को उनके ससुराल वाले कैसे लेते हैं, तो मेरा और मन नहीं करता. हम लोगों ने मेरी दोस्त अमीना के रेप के बारे में कभी नहीं बोला. उसके बाद मैं जब भी उससे मिली, हम लोग खूब रोए. हम अभी भी दोस्त हैं, पर हमारे बीच एक अनकहा नियम है. उस रात के बारे में बात नहीं करनी है. मैं कुनन-पाशपोरा की रेप सर्वाइवर हूं. मैं सांस ले रही हूं, पर जिंदा नहीं हूं.”

ये घटना उस वक्त हुई थी जब कश्मीर में आतंकवाद चरम पर पहुंचा था. पर हमने इन चीजों को सिर्फ एक नजर से देखा था. वहां नजर आने वाला हर इंसान हमें आतंकी नजर आ रहा था. हम अपनी गलतियां देख ही नहीं पा रहे थे. भरोसा जीतने के लिए अपने इरादों को साबित करना पड़ता है. हम वो नहीं कर रहे थे. हम ताकत के दम पर सब सही करना चाहते थे. शायद हम अपनी कमजोरियों को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. इसलिए डरा रहे थे. इसका नतीजा भोगा उन लोगों ने, जिनका इसमें कोई रोल नहीं था. हम इसको मानने के लिए भी तैयार नहीं थे. हम कभी ये नहीं सोच पाए कि अगर हम वहां होते तो क्या करते. अगर समझना ही है तो इस किताब को एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए. नहीं तो हम सिर्फ गोलियों की गूंज सुनकर ही किसी को सही डिक्लेयर करते रहेंगे. यही वजह है कि सैनिकों के कश्मीर में विशेष अधिकारों पर जरूर बात होनी चाहिए. वही अधिकार जिनके खिलाफ मणिपुर में इरोम शर्मिला लड़ाई लड़ती रही हैं. ध्यान से देखें तो देश में असली लड़ाई औरतों की ही है. हर राज्य में. प्रूफ चाहिए तो हर राज्य के अखबार पढ़ लेने की जरूरत है. एक दिन का ही. इसके सबूत हमें यूएन की तरफ से गई पीसकीपिंग फोर्सेज के कामों में भी मिलते हैं. कई देशों में सैनिकों द्वारा रेप किए जाने के आरोप लगे थे. यूएन के पूर्व चीफ कोफी अन्नान ने इस बात पर कई देशों को फटकार लगाई थी.

सच छुपेगा नहीं.                   

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