मृत्यु क्या है ?
मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है ? हम मृत्यु से इतना क्यों डरते हैं ? जिस समय से पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई , एक कोशकीय जीव के रूप में , उस समय से ही स्वयं को खतरे से बचाने की प्रवित्ति और जीवन को सुरक्षित रखने की प्रवित्ति का जन्म जीव के अंदर एक अविभाज्य अंग के रूप में हुआ | वो जीव जिनमे स्वयं को बचाने की प्रवित्ति नहीं थी वो पृथ्वी से विलुप्त हो गए | यही प्रवित्ति विकास के क्रम में मानव तक पहुँचने पर भय के रूप में स्थापित हुई | मृत्यु जीवन के लिए सिर्फ एक छोटी या बड़ी समस्या भर नहीं है बल्कि यह जीवन को पूरी तरह ख़ारिज करने की घटना है | जीवन को बचाने की प्रवित्ति का अधिकतम रूप मृत्यु के प्रति भय के रूप में प्रदर्शित होता है |पूरी तरह से ख़त्म हो जाने का विचार हमारे मन में भयंकर खलबली मचा देता है | जीवन को बचा पाने की ललक , जीवन को पाने की भूख का परिणाम हुआ की प्राचीन समय में मानव ने ‘आत्मा’ की परिकल्पना की ,जो मृत्यु से परे है | आत्मा की परिकल्पना को स्थापित करने में एक और मानवीय गुण ने साथ दिया , वह गुण उसने evolution के क्रम में पाया था , जिसे consciousness कहते हैं ; यह thought (विचार ) या perception (बोध )आदि गुणों के लिए एक सामान्य नाम है | हम हमारा हाथ ,पैर, आँख ,नाक ,पेट , छाती आदि नहीं हैं , बल्कि इस सब के अंदर कुछ रहता है , ऐसा विचार हमें consciousness की वजह से आता है | इसलिए प्राचीन मानव के विचार में आत्मा की परिकल्पना आयी | शरीर से अलग आत्मा की परिकल्पना ने प्राचीन समय में भूत की परिकल्पना को भी जन्म दिया | जब धीरे धीरे मानव सभ्यता के समय धर्मों का जन्म हुआ , आत्मा की परिकल्पना ने धर्म के अंदर और भी ठोस रूप लिया | भारत में आत्मा के बारे में जो समझ पैदा हुई वो यह थी की आत्मा , परमात्मा का ही छोटा हिस्सा है जो अलग अलग योनियों में पुनर्जन्म लेता है और जब पाप और पुण्य बराबर हो जाते हैं तो वापस परमात्मा में मिल जाता है , जिसे मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं | लेकिन यहूदी , ईसाई, इस्लाम धर्म ने माना की मृत्यु के बाद आत्मा क़यामत के दिन तक इंतज़ार करती है और उस दिन पाप और पुण्य के आधार पर स्वर्ग या नर्क में जाती है |मॉडर्न बायोलॉजी आत्मा के अस्तित्व को पूरी तरह गलत साबित करती है | और इस प्रकार भूत , पुनर्जन्म , स्वर्ग ,नर्क आदि सभी परिकल्पनाओं को गलत साबित करती है | आधुनिक विज्ञान की बहुत सी बातें व्यावहारिक बुद्धि से नहीं समझी जा सकतीं , जैसे की आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी , जिसके अनुसार समय और स्थान वक्राकार हैं !!! वैसे ही आधुनिक जीव विज्ञान के इस परिणाम को समझना आसान नहीं की हमारे अंदर कोई आत्मा नहीं | फिर भी , एक किताब साधारण लोगों की समझ के लिए विख्यात वैज्ञानिक फ्रांसिस क्रिक द्वारा लिखी गयी जिन्हे १९६२ में नोबल पुरस्कार मिला ; किताब का नाम था The Astonishing Hypothesis: The Scientific Search For The Soul. ( विज्ञान द्वारा आत्मा की खोज ) अगर आत्मा नहीं है तो फिर जीवन क्या है और मृत्यु क्या है ? जीव विज्ञान के अनुसार जीवन कोई वस्तु , या शक्ति या ऊर्जा नहीं है , बल्कि यह कुछ गुणों के समूह का सामान्य नाम है जैसे की उपापचय ,प्रजनन , प्रतिक्रियाशीलता ,वृद्धि ,अनुकूलन (Metabolism, Reproduction, Responsiveness, Growth, Adaptation) आदि | अभी तक हम जितना जानते हैं उसके अनुसार ये गुण जटिल कार्बन यौगिकों के मिश्रण द्वारा प्रदर्शित होते हैं जिन्हे कोशिका के नाम से जाना जाता है | और सबसे सरल कोशिका जिसे हम जानते हैं वह है वायरस |अपनी सहज प्रवित्ति की वजह से यदि ये कोशिकाएं एक दुसरे के साथ सहयोग में आती है और किसी वातावरण में साथ में रहती है तो वे एक संगठन बनाती है जिसे हम जीव कहते है | अगर किसी जीव में कुछ कोशिकाएं बाकि कोशिकाओं के सहयोग में नहीं रहतीं तो इसे कैंसर कहते हैं | जब ज़्यादा से ज़्यादा कोशिकाएं एक दुसरे के सहयोग में आती हैं और जटिल संगठन का निर्माण करती हैं तो हमें और दुसरे जीव प्राप्त होते हैं जैसे की कीड़े मकोड़े , सरीसृप , मछली , स्तनधारी .......मनुष्य | विकास के क्रम में हर पड़ाव पर जीवों में कुछ नए गुणों की वृद्धि हुई और जब विकास क्रम मानव तक पहुंचा तो जो गुण विकसित हुआ वह था "बोध " (कांशसनेस ) | बहुत पहले , पूरे विश्व में सभी मानव जातियों में यह विश्वास था की आत्मा हृदय के अंदर रहती है | उदहारण के लिए , भारत में महानारायण उपनिषद और चरक सहिंता में यह बात कही गयी है | १९६४ में डॉक्टर जेम्स डी हार्डी ने अपने एक रोगी के हृदय के स्थान पर एक चिंपांज़ी के हृदय का प्रत्यारोपण किया | १९६७ में Christiaan Barnard ने एक रोगी के हृदय के स्थान पर एक दूसरे मनुष्य के हृदय का प्रत्यारोपण किया | इस सब की वजह से हृदय में आत्मा के उपस्थित होने के विश्वास को बड़ा धक्का लगा |
हर मानव शरीर में लगभग ३७ लाख करोड़ कोशिकाएं होती हैं | हर कोशिका में जीवन है और मानव इन्ही कोशिकाओं का समूह है , तो इस प्रकार तो मेरे अंदर ३७ लाख करोड़ आत्माएं हैं !! मेरी मृत्यु होने पर , २४ घंटों के बाद मेरी त्वचा की कोशिकाएं मरती हैं, ४८ घंटों बाद हड्डी की कोशिकाएं मरती हैं और ३ दिन के बाद रक्त धमनी की कोशिकाएं मरती हैं | यही कारन हैं की मृत्यु के बाद भी अंग दान (ऑर्गन डोनेशन ) संभव हैं | अगर हम अपनी आँख दान करें तो आंख की कोशिकाएं वर्षों जीवित रहेंगीं | अगर हमें ब्रेन स्ट्रोक होता हैं , २ -३ मिनट के अंदर मस्तिष्क की वो कोशिकाएं मर जायेंगीं जहाँ रक्त प्रवाह रुक गया था | अगर हमें Alzheimer रोग हो जाये तो हमारे मस्तिष्क की कोशिकाएं एक एक कर मरने लगेगीं और पूरा मस्तिष्क धीरे धीरे मर जायेगा (सिर्फ ब्रेन स्टेम जीवित रह जायेगा )लेकिन हम जीवित होंगे लेकिन एक वनस्पति की तरह | तो फिर , मृत्यु क्या है ? मनुष्य की मृत्यु उसके brain stem की मृत्यु है | ( चित्र में मस्तिष्क की फोटो देखें ) मस्तिष्क के दुसरे हिस्से शरीर की बहुत सी चीज़ों को संचालित करते हैं जैसे की वाकशक्ति , दृष्टि , सुनने की शक्ति , स्वाद , सूंघने की शक्ति , चलने की शक्ति , सोचने की शक्ति , बुद्धिमत्ता , मनोभाव आदि ; मस्तिष्क का सबसे नीचे का हिस्सा जिसे ब्रेन स्टेम कहते हैं , वह बहुत ही आधारभूत क्रियाएं सम्पादित करता है , जैसे की हृदय गति , श्वास की प्रक्रिया , रक्तचाप आदि | जब सांस रुक जाती है तो हृदय धड़कना बंद कर देता है , रक्त प्रवाह बंद हो जाता है , और एक एक कर के प्रत्येक ऑर्गन काम करना बंद कर देता है | सांस का रुकना या हृदय गति का रुकना मृत्यु का कारण बन सकते हैं लेकिन मृत्यु नहीं है , इस अवस्था से बहार निकला जा सकता है | लेकिन अगर ब्रेन स्टेम काम करना बंद कर दे तो फिर उसे वापस नहीं क्रियान्वित कर सकते | अगर ब्रेन स्टेम मर जाता है तो फिर दुसरे ऑर्गन जीवित भी हैं तो भी मनुष्य मृत ही है , ज़्यादा से ज़्यादा हम जीवित ऑर्गन का दान किसी और जीवित शरीर को कर सकते हैं | alzheimer रोग के आखिरी पड़ाव में ब्रेन स्टेम को छोड़कर सभी मस्तिष्क कोशिकाएं मर जाती हैं | हमारे भाव , विचार और बोध मस्तिष्क के दुसरे हिस्से की वजह से होते हैं ; ब्रेन स्टेम का इसमें कोई कार्य नहीं | तो फिर हमारा आत्म बोध यानि "मैं " की भावना Cerebrum और Cerebellum की वजह से हैं न की ब्रेन स्टेम की वजह से | तो फिर हम आत्मा के बोध के बिना भी जीवित वस्तुकी तरह रह सकते हैं , जैसे की वनस्पति या alzheimer रोगी |
अगर हम किसी रोग या दुर्घटना में नहीं मरते हैं तो वृद्ध अवस्था में मृत्यु हो जाती है , लेकिन क्यों ?? १९६२ में Leonard Hayflick ने खोज की कि मानव शरीर कि कोशिकाएं अधिकतम ५० गुना विभाजित हो सकती हैं जिसे Hayflick Limit कहते हैं | जब हम बच्चे होते हैं तो कोशिका विभाजन कि दर काफी ऊँची होती है , फिर समय के साथ यह दर काफी धीमी हो जाती है | कोशिका का विभाजन कोशिका के nucleus में पाए जाने वाले डीएनए द्वारा होता है और डीएनए के सिरे पर Telomere होता है जो Hayflick Limit निर्धारित करता है | Telomere ५० बार से अधिक विभाजित नहो हो पाता| इसकी खोज १९९३ में Barbara McClintock ने कि जिसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार मिला | Telomere दरअसल अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकता है , दुसरे शब्दों में कहें तो यह कैंसर से बचाता है | लेकिन इस नियंत्रण कि प्रक्रिया में
जब हम वृद्धावस्था में पहुँचते हैं तबतक Telomere कोशिका विभाजन नियंत्रण कि सीमा पूरी कर चूका होता है , उसके बाद कोशिका विभाजन सिर्फ कैंसर को जन्म देता है | जिसका मतलब है कि अगर हम किसी और कारण से नहीं मरते हैं तो वृद्धावस्था में कैंसर ही मृत्यु कि वजह बनता है | बचने का कोई रास्ता नहीं , मृत्यु निश्चित है | लेकिन सभी जीव कि मृत्यु ही होगी ऐसा ज़रूरी नहीं , जैसे कि वायरस पैदा होने के बाद कभी मरता नहीं , बस कुछ परिस्थितियों में जैसे अधिक तापमान या किसी रसायन से मारा जा सकता है | वैसे ही 'जेली फिश ' जो करोङों साल पहले ेवोलुशन के क्रम में बनी, कभी नहीं मरती | जीव जो मरते नहीं !!
लोग जो आत्मा में विश्वास करते हैं , वे भी किसी स्वजन कि मृत्यु पर फूट फूट कर रोते हैं, जब आत्मा मरती नहीं तो फिर इस मातम का क्या अर्थ है ? दरअसल लोगों को स्वयं के विश्वासों पर भरोसा नहीं !! ये बेकार के विश्वास भी उन्हें कठिन परिस्थितियों में आराम नहीं देते | तो क्यों न वे ऐसे विश्वासों को छोड़कर सच को समझें और उसका सामना करें ? इसीलिए कार्ल मार्क्स ने इन सभी विश्वासों को नशा कहा था | वे नशे से ज़्यादा कुछ नहीं | लेकिन अगर सोचें कि हम वैज्ञानिक सच को स्वीकार करें और हर मनुष्य को एक मृत्यु कि और बढ़ते एक साथी के रूप में देखें तो सभी से प्रेम करना आसान होगा | नहीं तो एक इस्लामी आतंकवादी के लिए मृत्यु के बाद के जीवन कि आशा पर , जीवित लोगों को मारना आसान हो जाता है | गीता आत्मा के आधार पर ही हत्या को उचित ठहराती है कि आत्मा तो नहीं मरती और मृत्यु के बाद आत्मा को न्याय मिलता है | जब वे समझें कि मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं , तब ही समाज में दबे कुचले लोगों के लिए न्याय कि बात अभी इसी जीवन में पृथ्वी पर होगी क्योंकि तब मारने वाले और मरने वाले किसी के भी पास मृत्यु के बाद स्वर्ग या नर्क मिलने कि आशा या परमात्मा के न्याय कि आशा नहीं होगी |
मृत्यु के बाद हमारा क्या होता है ? हम मृत्यु से इतना क्यों डरते हैं ? जिस समय से पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई , एक कोशकीय जीव के रूप में , उस समय से ही स्वयं को खतरे से बचाने की प्रवित्ति और जीवन को सुरक्षित रखने की प्रवित्ति का जन्म जीव के अंदर एक अविभाज्य अंग के रूप में हुआ | वो जीव जिनमे स्वयं को बचाने की प्रवित्ति नहीं थी वो पृथ्वी से विलुप्त हो गए | यही प्रवित्ति विकास के क्रम में मानव तक पहुँचने पर भय के रूप में स्थापित हुई | मृत्यु जीवन के लिए सिर्फ एक छोटी या बड़ी समस्या भर नहीं है बल्कि यह जीवन को पूरी तरह ख़ारिज करने की घटना है | जीवन को बचाने की प्रवित्ति का अधिकतम रूप मृत्यु के प्रति भय के रूप में प्रदर्शित होता है |पूरी तरह से ख़त्म हो जाने का विचार हमारे मन में भयंकर खलबली मचा देता है | जीवन को बचा पाने की ललक , जीवन को पाने की भूख का परिणाम हुआ की प्राचीन समय में मानव ने ‘आत्मा’ की परिकल्पना की ,जो मृत्यु से परे है | आत्मा की परिकल्पना को स्थापित करने में एक और मानवीय गुण ने साथ दिया , वह गुण उसने evolution के क्रम में पाया था , जिसे consciousness कहते हैं ; यह thought (विचार ) या perception (बोध )आदि गुणों के लिए एक सामान्य नाम है | हम हमारा हाथ ,पैर, आँख ,नाक ,पेट , छाती आदि नहीं हैं , बल्कि इस सब के अंदर कुछ रहता है , ऐसा विचार हमें consciousness की वजह से आता है | इसलिए प्राचीन मानव के विचार में आत्मा की परिकल्पना आयी | शरीर से अलग आत्मा की परिकल्पना ने प्राचीन समय में भूत की परिकल्पना को भी जन्म दिया | जब धीरे धीरे मानव सभ्यता के समय धर्मों का जन्म हुआ , आत्मा की परिकल्पना ने धर्म के अंदर और भी ठोस रूप लिया | भारत में आत्मा के बारे में जो समझ पैदा हुई वो यह थी की आत्मा , परमात्मा का ही छोटा हिस्सा है जो अलग अलग योनियों में पुनर्जन्म लेता है और जब पाप और पुण्य बराबर हो जाते हैं तो वापस परमात्मा में मिल जाता है , जिसे मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं | लेकिन यहूदी , ईसाई, इस्लाम धर्म ने माना की मृत्यु के बाद आत्मा क़यामत के दिन तक इंतज़ार करती है और उस दिन पाप और पुण्य के आधार पर स्वर्ग या नर्क में जाती है |मॉडर्न बायोलॉजी आत्मा के अस्तित्व को पूरी तरह गलत साबित करती है | और इस प्रकार भूत , पुनर्जन्म , स्वर्ग ,नर्क आदि सभी परिकल्पनाओं को गलत साबित करती है | आधुनिक विज्ञान की बहुत सी बातें व्यावहारिक बुद्धि से नहीं समझी जा सकतीं , जैसे की आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी , जिसके अनुसार समय और स्थान वक्राकार हैं !!! वैसे ही आधुनिक जीव विज्ञान के इस परिणाम को समझना आसान नहीं की हमारे अंदर कोई आत्मा नहीं | फिर भी , एक किताब साधारण लोगों की समझ के लिए विख्यात वैज्ञानिक फ्रांसिस क्रिक द्वारा लिखी गयी जिन्हे १९६२ में नोबल पुरस्कार मिला ; किताब का नाम था The Astonishing Hypothesis: The Scientific Search For The Soul. ( विज्ञान द्वारा आत्मा की खोज ) अगर आत्मा नहीं है तो फिर जीवन क्या है और मृत्यु क्या है ? जीव विज्ञान के अनुसार जीवन कोई वस्तु , या शक्ति या ऊर्जा नहीं है , बल्कि यह कुछ गुणों के समूह का सामान्य नाम है जैसे की उपापचय ,प्रजनन , प्रतिक्रियाशीलता ,वृद्धि ,अनुकूलन (Metabolism, Reproduction, Responsiveness, Growth, Adaptation) आदि | अभी तक हम जितना जानते हैं उसके अनुसार ये गुण जटिल कार्बन यौगिकों के मिश्रण द्वारा प्रदर्शित होते हैं जिन्हे कोशिका के नाम से जाना जाता है | और सबसे सरल कोशिका जिसे हम जानते हैं वह है वायरस |अपनी सहज प्रवित्ति की वजह से यदि ये कोशिकाएं एक दुसरे के साथ सहयोग में आती है और किसी वातावरण में साथ में रहती है तो वे एक संगठन बनाती है जिसे हम जीव कहते है | अगर किसी जीव में कुछ कोशिकाएं बाकि कोशिकाओं के सहयोग में नहीं रहतीं तो इसे कैंसर कहते हैं | जब ज़्यादा से ज़्यादा कोशिकाएं एक दुसरे के सहयोग में आती हैं और जटिल संगठन का निर्माण करती हैं तो हमें और दुसरे जीव प्राप्त होते हैं जैसे की कीड़े मकोड़े , सरीसृप , मछली , स्तनधारी .......मनुष्य | विकास के क्रम में हर पड़ाव पर जीवों में कुछ नए गुणों की वृद्धि हुई और जब विकास क्रम मानव तक पहुंचा तो जो गुण विकसित हुआ वह था "बोध " (कांशसनेस ) | बहुत पहले , पूरे विश्व में सभी मानव जातियों में यह विश्वास था की आत्मा हृदय के अंदर रहती है | उदहारण के लिए , भारत में महानारायण उपनिषद और चरक सहिंता में यह बात कही गयी है | १९६४ में डॉक्टर जेम्स डी हार्डी ने अपने एक रोगी के हृदय के स्थान पर एक चिंपांज़ी के हृदय का प्रत्यारोपण किया | १९६७ में Christiaan Barnard ने एक रोगी के हृदय के स्थान पर एक दूसरे मनुष्य के हृदय का प्रत्यारोपण किया | इस सब की वजह से हृदय में आत्मा के उपस्थित होने के विश्वास को बड़ा धक्का लगा |
हर मानव शरीर में लगभग ३७ लाख करोड़ कोशिकाएं होती हैं | हर कोशिका में जीवन है और मानव इन्ही कोशिकाओं का समूह है , तो इस प्रकार तो मेरे अंदर ३७ लाख करोड़ आत्माएं हैं !! मेरी मृत्यु होने पर , २४ घंटों के बाद मेरी त्वचा की कोशिकाएं मरती हैं, ४८ घंटों बाद हड्डी की कोशिकाएं मरती हैं और ३ दिन के बाद रक्त धमनी की कोशिकाएं मरती हैं | यही कारन हैं की मृत्यु के बाद भी अंग दान (ऑर्गन डोनेशन ) संभव हैं | अगर हम अपनी आँख दान करें तो आंख की कोशिकाएं वर्षों जीवित रहेंगीं | अगर हमें ब्रेन स्ट्रोक होता हैं , २ -३ मिनट के अंदर मस्तिष्क की वो कोशिकाएं मर जायेंगीं जहाँ रक्त प्रवाह रुक गया था | अगर हमें Alzheimer रोग हो जाये तो हमारे मस्तिष्क की कोशिकाएं एक एक कर मरने लगेगीं और पूरा मस्तिष्क धीरे धीरे मर जायेगा (सिर्फ ब्रेन स्टेम जीवित रह जायेगा )लेकिन हम जीवित होंगे लेकिन एक वनस्पति की तरह | तो फिर , मृत्यु क्या है ? मनुष्य की मृत्यु उसके brain stem की मृत्यु है | ( चित्र में मस्तिष्क की फोटो देखें ) मस्तिष्क के दुसरे हिस्से शरीर की बहुत सी चीज़ों को संचालित करते हैं जैसे की वाकशक्ति , दृष्टि , सुनने की शक्ति , स्वाद , सूंघने की शक्ति , चलने की शक्ति , सोचने की शक्ति , बुद्धिमत्ता , मनोभाव आदि ; मस्तिष्क का सबसे नीचे का हिस्सा जिसे ब्रेन स्टेम कहते हैं , वह बहुत ही आधारभूत क्रियाएं सम्पादित करता है , जैसे की हृदय गति , श्वास की प्रक्रिया , रक्तचाप आदि | जब सांस रुक जाती है तो हृदय धड़कना बंद कर देता है , रक्त प्रवाह बंद हो जाता है , और एक एक कर के प्रत्येक ऑर्गन काम करना बंद कर देता है | सांस का रुकना या हृदय गति का रुकना मृत्यु का कारण बन सकते हैं लेकिन मृत्यु नहीं है , इस अवस्था से बहार निकला जा सकता है | लेकिन अगर ब्रेन स्टेम काम करना बंद कर दे तो फिर उसे वापस नहीं क्रियान्वित कर सकते | अगर ब्रेन स्टेम मर जाता है तो फिर दुसरे ऑर्गन जीवित भी हैं तो भी मनुष्य मृत ही है , ज़्यादा से ज़्यादा हम जीवित ऑर्गन का दान किसी और जीवित शरीर को कर सकते हैं | alzheimer रोग के आखिरी पड़ाव में ब्रेन स्टेम को छोड़कर सभी मस्तिष्क कोशिकाएं मर जाती हैं | हमारे भाव , विचार और बोध मस्तिष्क के दुसरे हिस्से की वजह से होते हैं ; ब्रेन स्टेम का इसमें कोई कार्य नहीं | तो फिर हमारा आत्म बोध यानि "मैं " की भावना Cerebrum और Cerebellum की वजह से हैं न की ब्रेन स्टेम की वजह से | तो फिर हम आत्मा के बोध के बिना भी जीवित वस्तुकी तरह रह सकते हैं , जैसे की वनस्पति या alzheimer रोगी |
अगर हम किसी रोग या दुर्घटना में नहीं मरते हैं तो वृद्ध अवस्था में मृत्यु हो जाती है , लेकिन क्यों ?? १९६२ में Leonard Hayflick ने खोज की कि मानव शरीर कि कोशिकाएं अधिकतम ५० गुना विभाजित हो सकती हैं जिसे Hayflick Limit कहते हैं | जब हम बच्चे होते हैं तो कोशिका विभाजन कि दर काफी ऊँची होती है , फिर समय के साथ यह दर काफी धीमी हो जाती है | कोशिका का विभाजन कोशिका के nucleus में पाए जाने वाले डीएनए द्वारा होता है और डीएनए के सिरे पर Telomere होता है जो Hayflick Limit निर्धारित करता है | Telomere ५० बार से अधिक विभाजित नहो हो पाता| इसकी खोज १९९३ में Barbara McClintock ने कि जिसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार मिला | Telomere दरअसल अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकता है , दुसरे शब्दों में कहें तो यह कैंसर से बचाता है | लेकिन इस नियंत्रण कि प्रक्रिया में
जब हम वृद्धावस्था में पहुँचते हैं तबतक Telomere कोशिका विभाजन नियंत्रण कि सीमा पूरी कर चूका होता है , उसके बाद कोशिका विभाजन सिर्फ कैंसर को जन्म देता है | जिसका मतलब है कि अगर हम किसी और कारण से नहीं मरते हैं तो वृद्धावस्था में कैंसर ही मृत्यु कि वजह बनता है | बचने का कोई रास्ता नहीं , मृत्यु निश्चित है | लेकिन सभी जीव कि मृत्यु ही होगी ऐसा ज़रूरी नहीं , जैसे कि वायरस पैदा होने के बाद कभी मरता नहीं , बस कुछ परिस्थितियों में जैसे अधिक तापमान या किसी रसायन से मारा जा सकता है | वैसे ही 'जेली फिश ' जो करोङों साल पहले ेवोलुशन के क्रम में बनी, कभी नहीं मरती | जीव जो मरते नहीं !!
लोग जो आत्मा में विश्वास करते हैं , वे भी किसी स्वजन कि मृत्यु पर फूट फूट कर रोते हैं, जब आत्मा मरती नहीं तो फिर इस मातम का क्या अर्थ है ? दरअसल लोगों को स्वयं के विश्वासों पर भरोसा नहीं !! ये बेकार के विश्वास भी उन्हें कठिन परिस्थितियों में आराम नहीं देते | तो क्यों न वे ऐसे विश्वासों को छोड़कर सच को समझें और उसका सामना करें ? इसीलिए कार्ल मार्क्स ने इन सभी विश्वासों को नशा कहा था | वे नशे से ज़्यादा कुछ नहीं | लेकिन अगर सोचें कि हम वैज्ञानिक सच को स्वीकार करें और हर मनुष्य को एक मृत्यु कि और बढ़ते एक साथी के रूप में देखें तो सभी से प्रेम करना आसान होगा | नहीं तो एक इस्लामी आतंकवादी के लिए मृत्यु के बाद के जीवन कि आशा पर , जीवित लोगों को मारना आसान हो जाता है | गीता आत्मा के आधार पर ही हत्या को उचित ठहराती है कि आत्मा तो नहीं मरती और मृत्यु के बाद आत्मा को न्याय मिलता है | जब वे समझें कि मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं , तब ही समाज में दबे कुचले लोगों के लिए न्याय कि बात अभी इसी जीवन में पृथ्वी पर होगी क्योंकि तब मारने वाले और मरने वाले किसी के भी पास मृत्यु के बाद स्वर्ग या नर्क मिलने कि आशा या परमात्मा के न्याय कि आशा नहीं होगी |
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