Monday, 17 April 2017

धर्म और धम्म”के अंतर

“धर्म और धम्म”के अंतर को जानिये.....


धर्म एक अनिश्चित शब्द है जिसका कोई स्थिर अर्थ नही है ।

किन्तु इसके अर्थ अनेक है इसका कारण है धर्म बहुत सी अवस्थाओं से होकर गुजरा है।
हर अवस्था मे हम उस मान्यता विशेष को धर्म ही कहते रहे है।

 निसन्देह हर एक समय कि मान्यता अपने से पूर्व की मान्यताओ से भिन्न रही है।धर्म की कल्पना भी कभी स्थिर नही रही है यह. हर समय बदलती चली आयी है।

एक समय था जब बिजली वर्षा और बाढ की घटनाये आम आदमी की समझ. से सर्वथा परे की बात थी इन सब पर काबू पाने के लिये जो भी कुछ टोना टुटका किया जाता था उस समय धर्म और जादू एक ही चीज के दो नाम थे।

धर्म के विकाश मे दूसरा समय आया इस समय धर्म का मतलब था आदमी के विश्वास, धार्मिक कर्मकाण्ड, रीति रिवाज, प्रार्थनाये और बलियो वाले यज्ञ. ।

लेकिन धर्म का स्वरुप व्युत्पन्न. है।धर्म का केन्द्रबिन्दु इस विश्वास पर निर्भर करता है कि कोई शक्ति विशेष है जिनके कारण ये सभी घटनाये घटती है और जो आदमी की समझ से परे की बात है।अब इस अवस्था मे पहुँच कर जादू का प्रभाव जाता रहा। आरंभ मे यह शक्ति शैतान के रुप मे थी किन्तु बाद मे यह माना जाने लगा कि शिव( कल्याण) रुप हो सकती है । तरह- तरह के विश्वास, कर्मकाण्ड. शिव स्वरुप शक्ति को प्रसन्न करने के लिये एवं क्रोध रुपी शक्ति को सन्तुष्ट रखने के लिये आवश्यक थे आगे चलकर वही शक्ति ईश्वर, परमात्मा या दुनिया को बनाने वाली कहलाई।

तब धर्म की मान्यता ने तीसरी शक्ल ग्रहण की तब यह माने जाने लगा कि इस एक ही शक्ति ने आदमी और दुनिया बनाया है यानि दोनो को पैदा किया है।इसके बाद धर्म की मान्यता मे एक बात और भी शामिल हो गयी कि हर आदमी के शरीर मे एक आत्मा है और आदमी जो भी भला और बुरा काम करता है उस आत्मा को ईश्वर के प्रति उत्तरदायी रहना पडता है यही धर्म की मान्यता के विकास का इतिहास है।अब धर्म का यही अर्थ हो गया है या धर्म से यही भावार्थ ग्रहण किया जाता है कि ईश्वर मे विश्वास ,आत्मा मे विश्वास, ईस्वर की पूजा, आत्मा मे सुधार, प्रार्थना आदि करके ईस्वर को प्रसन्न रखना।
तथागत गौतम बुद्ध जिसे धम्म कहते है वह धर्म से सर्वथा भिन्न है । कहा जाता है कि धर्म या रिलिजन व्यक्तिगत. चीज है और आदमी को अपने तक सिमित रखना चाहिये। इसे सार्वजनिक जीवन मे बिल्कुल दखल नही देना चाहिये जबकि धम्म एक सामाजिक वस्तु है धम्म का मतलब है सदाचरण। जिसका मतलब है जीवन के सभी क्षेत्रों मे एक आदमी का दुसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार। इससे स्पष्ट. होता है कि यदि कही एक आदमी अकेला ही हो तो उसे किसी धम्म की आवश्यकता नही लेकिन कही दो आदमी एक साथ रहते हो तो वो चाहे या ना चाहे धम्म के लिये जगह बनानी ही होगी। दोनो मे से कोई एक बचकर नही जा सकता। दूसरे शब्दो मे धम्म के बिना समाज का काम नही चल सकता।



तथागत के अनुशार धम्म के दो प्रधान तत्व है प्रज्ञा और करुणा। प्रज्ञा का मतलब है बुद्धि (निर्मल बुद्धि) बुद्ध ने प्रज्ञा को सर्वप्रथम इसलिये माना है कि वे नही चाहते थे कि मिथ्या विश्वासों के लिये कही कोई गुन्जाईश बची रहे दूसरा करुणा जिसका मतलब है दया, मैत्री, प्रेम इसके बिना न समाज रह सकता है न समाज की उन्नति हो सकती है ।

 तथागत की धम्म देशना का यही उद्देश्य है कि जो धम्म के अनुसार आचरण करेगा वह अपने दु:ख का नाश करेगा॥

जबकि धर्म का सरोकार ईश्वर और सृष्टि से है और धम्म का इन सब वातो से कोई सरोकार नही उनका कहना है कि ईश्वर कहाँ है ,सन्सार असीम है आत्मा और शरीर एक है, इन प्रश्नो के उत्तर मे जाने से किसी को कोई लाभ होने वाला नही है इनका धम्म से कोई भी सम्बन्ध नही है, इनसे आदमी का आचरण सुधारने मे कुछ भी सहायता नही मिलती, इनसे विराग नही बढता, इनसे राग द्वेष से मुक्ति लाभ नही मिलता, इससे विद्या( ज्ञान) प्राप्त. नही होता।

तथागत ने बताया कि दु:ख क्या है ,दु:ख का मूल कारण क्या है, दु:ख को रोकने का मार्ग क्या है, इनसे लोगो को लाभ है, इनसे आदमी को अपना आचरण सुधारने मे सहायता मिलती है, राग द्वेष से मुक्ति मिलती है, इसे शान्ति मिलती है विद्या प्राप्त होती है और ये निर्वाण ( मोक्ष) की ओर अग्रसर. होते है।

नैतिकता का धर्म और रेलिजिन मे कोई स्थान नही है। नैतिकता धर्म का मूलाधार नही है यह एक रेल के उस डिब्बे के समान है कि जब चाहे इन्जन मे जोड दिया जाये और जब चाहे पृथक कर दिया जाये अर्थात धर्म मे नैतिकता का स्थानआकस्मिक है ताकि व्यवस्था और शान्ति मे उपयोगी सिद्ध हो सके। जबकि धम्म मे नैतिकता का स्थान है दुसरे शब्दो मे धम्म ही नैतिकता है अथवा नैतिकता ही धम्म है । यद्यपि धम्म मे ईश्वर के लिये कोई स्थान नही है तो भी धम्म मे नैतिकता का वही स्थान है जो धर्म मे ईश्वर का।
धम्म मे जो नैतिकता है उसका सीधा मूल श्रोत आदमी को आदमी से मैत्री करने की जो आवश्यकता है वही है अपने भले के लिये अथवा दुसरे के भले के लिये यह आवश्यक है कि वह धम्म का आचरण कर मैत्री करे।
हर कोई जानता है कि मानव समाज का जो विकाश हुआ वह जीवन सन्घर्ष के कारण हुआ क्योकि आरम्भिक युग मे भोजन ,सामग्री बडी सिमित मात्रा मे थी जिससे भयानक सन्घर्ष रहा और योग्यतम/ श्रेष्ठतम ही बचा रहा। मानव की मूल अवस्था ऎसी ही रही। किन्तु क्या योग्यतम( सबसे अधिक शक्ति सम्पन्न) ही श्रेष्ठतम माना जाना चाहिये क्या जो निर्बलतम है उसे भी सरक्षण देकर यदि बचाया जाये तो क्या यह आगे चलकर समाज के हित की दृष्टि से अच्छा सिद्ध नही होगा ?

अत्त द्वपो भवः।




 संजय जोठे (Sanjay Jothe)


बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध के सबसे पुराने और सबसे शातिर दुश्मनों को आप आसानी से पहचान सकते हैं. यह दिन बहुत ख़ास है इस दिन आँखें खोलकर चारों तरफ देखिये. बुद्ध की मूल शिक्षाओं को नष्ट करके उसमे आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की बकवास भरने वाले बाबाओं को आप काम करता हुआ आसानी से देख सकेंगे. भारत में तो ऐसे त्यागियों, योगियों, रजिस्टर्ड भगवानों और स्वयं को बुद्ध का अवतार कहने वालों की कमी नहीं है. जैसे इन्होने बुद्ध को उनके जीते जी बर्बाद करना चाहा था वैसे ही ढंग से आज तक ये पाखंडी बाबा लोग बुद्ध के पीछे लगे हुए हैं.


 बुद्ध पूर्णिमा के दिन भारत के वेदांती बाबाओं सहित दलाई लामा जैसे स्वघोषित बुद्ध अवतारों को देखिये. ये विशुद्ध राजनेता हैं जो अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए बुद्ध की शिक्षाओं को उलटा सीधा तोड़ मरोड़कर उसमे आत्मा परमात्मा घुसेड देते हैं. भारत के एक फाइव स्टार रजिस्टर्ड भगवान् – भगवान् रजनीश ने तो दावा कर ही दिया था कि बुद्ध उनके शरीर में आकर रहे, इस दौरान उनके भक्तों ने प्रवचनों के दौरान उन्हें बुद्ध के नाम से ही संबोधित किया लेकिन ये "परीक्षण" काम नहीं किया और भगवान रजनीश ने खुद को बुद्ध से भी बड़ा बुद्ध घोषित करते हुए सब देख भालकर घोषणा की कि "बुद्ध मेरे शरीर में भी आकर एक ही करवट सोना चाहते हैं, आते ही अपना भिक्षा पात्र मांग रहे हैं, दिन में एक ही बार नहाने की जिद करते हैं" ओशो ने आगे कहा कि बुद्ध की इन सब बातों के कारण मेरे सर में दर्द हो गया और मैंने बुद्ध को कहा कि आप अब मेरे शरीर से निकल जाइए.

जरा गौर कीजिये. ये भगवान् रजनीश जैसे महागुरुओं का ढंग है बुद्ध से बात करने का. और कहीं नहीं तो कम से कम कल्पना और गप्प में ही वे बुद्ध का सम्मान कर लेते लेकिन वो भी इन धूर्त बाबाजी से न हो सका. आजकल ये बाबाजी और उनके फाइव स्टार शिष्य बुद्ध के अधिकृत व्याख्याता बने हुए हैं और बहुत ही चतुराई से बुद्ध की शिक्षाओं और भारत में बुद्ध के साकार होने की संभावनाओं को खत्म करने में लगे हैं. इसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि दलित बहुजन समाज के और अंबेडकरवादी आन्दोलन के लोग भी इन जैसे बाबाओं से प्रभावित होकर अपने और इस देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं.

 इस बात को गौर से समझना होगा कि भारतीय वेदांती बाबा किस तरह बुद्ध को और उनकी शिक्षाओं को नष्ट करते आये हैं. इसे ठीक से समझिये. बुद्ध की मूल शिक्षा अनात्मा की है. अर्थात कोई 'आत्मा नहीं होती'. जैसे अन्य धर्मों में इश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म होता है वैसे बुद्ध के धर्म में इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं है. बुद्ध के अनुसार हर व्यक्ति का शरीर और उसका मन मिलकर एक आभासी स्व का निर्माण करता है जो अनेकों अनेक गुजर चुके शरीरों और मन के अवशेषों से और सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आदि आदि कारकों के प्रभाव से बनता है, ये शुद्धतम भौतिकवादी निष्पत्ति है. किसी व्यक्ति में या जीव में कोई सनातन या अजर अमर आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती. और इसी कारण एक व्यक्ति का पुनर्जन्म होना एकदम असंभव है.

जो लोग पुनर्जन्म के दावे करते हैं वे बुद्ध से धोखा करते हैं. इस विषय में दलाई लामा का उदाहरण लिया जा सकता है. ये सज्जन कहते हैं कि वे पहले दलाई लामा के तेरहवें या चौदहवें अवतार हैं और हर बार खोज लिए जाते हैं. अगर इनकी बात मानें तो इसका मतलब हुआ कि इनके पहले के दलाई लामाओं का सारा संचित ज्ञान, अनुभव और बोध बिना रुकावट के इनके पास आ रहा है. सनातन और अजर-अमर आत्मा के पुनर्जन्म का तकनीकी मतलब यही होता है कि अखंडित आत्मा अपने समस्त संस्कारों और प्रवृत्तियों के साथ अगले जन्म में जा रही है.

अब इस दावे की मूर्खता को ठीक से देखिये. ऐसे लामा और ऐसे दावेदार खुद को किसी अन्य का पुनर्जन्म बताते हैं लेकिन ये गजब की बात है कि इन्हें हर जन्म में शिक्षा दीक्षा और जिन्दगी की हर जेरुरी बात को ए बी सी डी से शुरू करना पड़ता है. भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि ही नहीं बल्कि इनका अपना पालतू विषय – अध्यात्म और ध्यान भी किसी नए शिक्षक से सीखना होता है. अगर इनका पुनर्जन्म का दावा सही है तो अपने ध्यान से ही इन चीजों को पिछले जन्म से 'री-कॉल' क्यों नहीं कर लेते? आपको भी स्पेशल ट्यूटर रखने होते हैं तो एक सामान्य आदमी में और इन अवतारों में क्या अंतर है?

इस बात को ठीक से देखिये. इससे साफ़ जाहिर होता है कि अवतार की घोषणा असल में एक राष्ट्राध्यक्ष के राजनीतिक पद को वैधता देने के लिए की जाती है. जैसे ही नया नेता खोजा जाता है उसे पहले वाले का अवतार बता दिया जाता है इससे असल में जनता में उस नेता या राजा के प्रति पैदा हो सकने वाले अविश्वास को खत्म कर दिया जाता है या उस नेता या राजा की क्षमता पर उठने वाले प्रश्न को भी खत्म कर दिया जाता है, जनता इस नये नेता को पुराने का पुनर्जन्म मानकर नतमस्तक होती रहती है और शिक्षा, रोजगार, विकास, न्याय आदि का प्रश्न नहीं उठाती, इसी मनोविज्ञान के सहारे ये गुरु सदियों सदियों तक गरीब जनता का खून चूसते हैं. यही भयानक राजनीति भारत में अवतारवाद के नाम पर हजारों साल से खेली जाती रही है. इसी कारण तिब्बत जैसा खुबसूरत मुल्क अन्धविश्वासी और परलोकवादी बाबाओं के चंगुल में फंसकर लगभग बर्बाद हो चुका है. वहां न शिक्षा है न रोजगार है न लोकतंत्र या आधुनिक समाज की कोई चेतना बच सकी है.

अब ये लामा महाशय तिब्बत को बर्बाद करके धूमकेतु की तरह भारत में घूम रहे हैं और अपनी बुद्ध विरोधी शिक्षाओं से भारत के बौद्ध आन्दोलन को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं.

भारत के बुद्ध प्रेमियों को ओशो रजनीश जैसे धूर्त वेदान्तियों और दलाई लामा जैसे अवसरवादी राजनेताओं से बचकर रहना होगा. डॉ. अंबेडकर ने हमें जिस ढंग से बुद्ध और बौद्ध धर्म को देखना सिखाया है उसी नजरिये से हमे बुद्ध को देखना होगा. और ठीक से समझा जाए तो अंबेडकर जिस बुद्ध की खोज करके लाये हैं वही असली बुद्ध हैं. ये बुद्ध आत्मा और पुनर्जन्म को सिरे से नकारते हैं.

लेकिन भारतीय बाबा और फाइव स्टार भगवान लोग एकदम अलग ही खिचडी पकाते हैं. ये कहते हैं कि सब संतों की शिक्षा एक जैसी है, सबै सयाने एकमत और फिर उन सब सयानों के मुंह में वेदान्त ठूंस देते हैं. कहते हैं बुद्ध ने आत्मा और परमात्मा को जानते हुए भी इन्हें नकार दिया क्योंकि वे देख रहे थे कि आत्मा परमात्मा के नाम पर लोग अंधविश्वास में गिर सकते थे. यहाँ दो सवाल उठते हैं, पहला ये कि क्या बुद्ध ने स्वयं कहीं कहा है कि उन्होंने आत्मा परमात्मा को जानने के बाद भी उसे नकार दिया? दुसरा प्रश्न ये है कि बुद्ध अंधविश्वास को हटाने के लिए ऐसा कर रहे थे तो अन्धविश्वास का भय क्या उस समय की तुलना में आज एकदम खत्म हो गया है?

दोनों सवालों का एक ही उत्तर है – "नहीं".

गौतम बुद्ध कुटिल राजनेता या वेदांती मदारी नहीं हैं. वे एक इमानदार क्रांतिचेता और मनोवैज्ञानिक की तरह तथ्यों को उनके मूल रूप में रख रहे हैं. उनका अनात्मा का अपना विशिष्ठ दर्शन और विश्लेषण है. उसमे वेदांती ढंग की सनातन आत्मा का प्रक्षेपण करने वाले गुरु असल में बुद्ध के मित्र या हितैषी नहीं बल्कि उनके सनातन दुश्मन हैं. आजकल आप किसी भी बाबाजी के पंडाल या ध्यान केंद्र में चले जाइए. या यहीं फेसबुक पर ध्यान की बकवास पिलाने वालों को देख लीजिये. वे कृष्ण और बुद्ध को एक ही सांस में पढ़ाते हैं, ये गजब का अनुलोम विलोम है. जबकि इनमे थोड़ी भी बुद्धि हो तो समझ आ जाएगा कि बुद्ध आत्मा को नकारते हैं और कृष्ण आत्मा को सनातन बताते हैं, कृष्ण और बुद्ध दो विपरीत छोर हैं. लेकिन इतनी जाहिर सी बात को भी दबाकर ये बाबा लोग अपनी दूकान कैसे चला लेते हैं? लोग इनके झांसे में कैसे आ जाते हैं? यह बात गहराई से समझना चाहिए.

असल में ये धूर्त लोग भारतीय भीड़ की गरीबी, कमजोरी, संवादहीनता, कुंठा, अमानवीय शोषण, जातिवाद आदि से पीड़ित लोगों की सब तरह की मनोवैज्ञानिक असुरक्षाओं और मजबूरियों का फायदा उठाते हैं और तथाकथित ध्यान या समाधि या चमत्कारों के नाम पर मूर्ख बनाते हैं. इन बाबाओं की किताबें देखिये, आलौकिक शक्तियों के आश्वासन और अगले जन्म में इस जन्म के अमानवीय कष्ट से मुक्ति के आश्वासन भरे होते हैं. इनका मोक्ष असल में इस जमीन पर बनाये गये अमानवीय और नारकीय जीवन से मुक्त होने की वासना का साकार रूप है. इस काल्पनिक मोक्ष में हर गरीब शोषित इंसान ही नहीं बल्कि हराम का खा खाकर अजीर्ण, नपुंसकता और कब्ज से पीड़ित हो रहे राजा और सामंत भी घुस जाना चाहते हैं. आत्मा को सनातन बताकर गरीब को उसके आगामी जन्म की विभीषिका से डराते हैं और अमीर को ऐसे ही जन्म की दुबारा लालच देकर उसे फंसाते हैं, इस तरह इस मुल्क में एक शोषण का सनातन साम्राज्य बना रहता है. और शोषण का ये अमानवीय ढांचा एक ही बिंदु पर खड़ा है वह है – सनातन आत्मा का सिद्धांत.

इसके विपरीत बुद्ध ने जिस निर्वाण की बात कही है या बुद्ध ने जिस तरह की अनत्ता की टेक्नोलोजी दी है और उसका जो ऑपरेशनल रोडमेप दिया है उसके आधार पर यह स्थापित होता है कि आत्मा यानी व्यक्तित्व और स्व जैसी किसी चीज की कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है. यह एक कामचलाऊ स्व या व्यक्तित्व है जो आपने अपने जन्म के बाद के वातावरण में बहुत सारी कंडीशनिंग के प्रभाव में पैदा किया है, ये आपने अपने हाथ से बनाया है और इसे आप रोज बदलते हैं.

आप बचपन में स्कूल में जैसे थे आज यूनिवर्सिटी में या कालेज में या नौकरी करते हुए वैसे ही नहीं हैं, आपका स्व या आत्म या तथाकथित आत्मा रोज बदलती रही है. शरीर दो पांच दस साल में बदलता है लेकिन आत्मा या स्व तो हर पांच मिनट में बदलता है. इसी प्रतीति और अनुभव के आधार पर ध्यान की विधि खोजी गयी. बुद्ध ने कहा कि इतना तेजी से बदलता हुआ स्व – जिसे हम अपना होना या आत्मा कहते हैं – इसी में सारी समस्या भरी हुयी है. इसीलिये वे इस स्व या आत्मा को ही निशाने पर लेते हैं. बुद्ध के अनुसार यह स्व या आत्मा एक कामचलाऊ धारणा है, ये आत्म सिर्फ इस जीवन में लोगों से संबंधित होने और उनके साथ समाज में जीने का उपकरण भर है. इस स्व या आत्म की रचना करने वाले शरीर, कपड़े, भोजन, शिक्षा और सामाजिक धार्मिक प्रभावों को अगर अलग कर दिया जाए तो इसमें अपना आत्यंतिक कुछ भी नहीं है. यही अनात्मा का सिद्धांत है. यही आत्मज्ञान है. बुद्ध के अनुसार एक झूठे स्व या आत्म के झूठेपन को देख लेना ही आत्मज्ञान है.

लेकिन वेदांती बाबाओं ने बड़ी होशियारी से बुद्ध के मुंह में वेदान्त ठूंस दिया है और इस झूठे अस्थाई स्व, आत्म या आत्मा को सनातन बताकर बुद्ध के आत्मज्ञान को 'सनातन आत्मा के ज्ञान' के रूप में प्रचारित कर रखा है. अगर आप इस गहराई में उतरकर इन बाबाओं और उनके अंधभक्तों से बात करें तो वे कहते हैं कि ये सब अनुभव का विषय है इसमें शब्दजाल मत रचिए. ये बड़ी गजब की बात है. बुद्ध की सीधी सीधी शिक्षा को इन्होने न जाने कैसे कैसे श्ब्द्जालों और ब्रह्म्जालों से पाट दिया है और आदमी कन्फ्यूज होकर जब दिशाहीन हो जाता है तो ये उसे तन्त्र मन्त्र सिखाकर और भयानक कंडीशनिंग में धकेल देते हैं. इसकी पड़ताल करने के लिए इनकी गर्दन पकड़ने निकलें तो ये कहते हैं कि ये अनुभव का विषय है. इनसे फिर खोद खोद कर पूछिए कि आपको क्या अनुभव हुआ ? तब ये जलेबियाँ बनाने लगते हैं. ये इनकी सनातन तकनीक है.

असल में सनातन आत्मा सिखाने वाला कोई भी अनुशासन एक धर्म नहीं है बल्कि ये एक बल्कि राजनीती है. इसी हथकंडे से ये सदियों से समाज में सृजनात्मक बातों को उलझाकर नष्ट करते आये हैं. भक्ति भाव और सामन्ती गुलामी के रूप में उन्होंने जो भक्तिप्रधान धर्म रचा है वो असल में भगवान और उसके प्रतिनिधि राजा को सुरक्षा देता आया है. यही बात है कि हस्ती मिटती नहीं इनकी, इस भक्ति में ही सारा जहर छुपा हुआ है. इसी से भारत में सब तरह के बदलाव रोके जाते हैं. और इतना ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में अनात्मा के अभ्यास या ज्ञान से जो स्पष्टता और समाधि (बौद्ध समाधी)फलित हो सकती है वह भी असंभव बन जाती है.

ये पाखंडी गुरु एक तरफ कहते हैं कि मैं और मेरे से मुक्त हो जाना ही ध्यान, समाधि और मोक्ष है और दूसरी तरफ इस मैं और मेरे के स्त्रोत – इस सनातन आत्मा – की घुट्टी भी पिलाए जायेंगे. एक हाथ से जहर बेचेंगे दुसरे हाथ से दवाई. एक तरफ मोह माया को गाली देंगे और अगले पिछले जन्म के मोह को भी मजबूत करेंगे. एक तरह शरीर, मन और संस्कारों सहित आत्मा के अनंत जन्मों के कर्मों की बात सिखायेंगे और दुसरी तरफ अष्टावक्र की स्टाइल में ये भी कहेंगे कि तू मन नहीं शरीर नहीं आत्मा नहीं, तू खुद भी नहीं ये जान ले और अभी सुखी हो जा. ये खेल देखते हैं आप? ले देकर आत्मभाव से मुक्ति को लक्ष्य बतायेंगे और साथ में ये भी ढपली बजाते रहेंगे कि आत्मा अजर अमर है हर जन्म के कर्मों का बोझ लिए घूमती है.

अब ऐसे घनचक्कर में इन बाबाओं के सौ प्रतिशत लोग उलझे रहते हैं, ये भक्त अपने बुढापे में भयानक अवसाद और कुंठा के शिकार हो जाते हैं. ऐसे कई बूढों को आप गली मुहल्लों में देख सकते हैं. इनके जीवन को नष्ट कर दिया गया है. ये इतना बड़ा अपराध है जिसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती. दुर्भाग्य से अपना जीवन बर्बाद कर चुके ये धार्मिक बूढ़े अब चाहकर भी मुंह नहीं खोल सकते.

लेकिन बुद्ध इस घनचक्कर को शुरू होने से पहले ही रोक देते हैं. बुद्ध कहते हैं कि ऐसी कोई आत्मा होती ही नहीं इसलिए इस अस्थाई स्व में जो विचार संस्कार और प्रवृत्तियाँ हैं उन्हें दूर से देखा जा सकता है और जितनी मात्रा में उनसे दूरी बनती जाती है उतनी मात्रा में निर्वाण फलित होता जाता है. निर्वाण का कुल जमा अर्थ 'नि+वाण' है अर्थात दिशाहीन हो जाना. अगर आप किसी विचार या योजना या अतीत या भविष्य का बोध लेकर घूम रहे हैं तो आप 'वाण' की अवस्था में हैं अगर आप अनंत पिछले जन्मों और अनंत अगले जन्मों द्वारा दी गयी दिशा और उससे जुडी मूर्खता को त्याग दें तो आप अभी ही 'निर्वाण' में आ जायेंगे. लेकिन ये धूर्त फाइव स्टार भगवान् और इनके जैसे वेदांती बाबा इतनी सहजता से किसी को मुक्त नहीं होने देते. वे बुद्ध और निर्वाण के दर्शन को भी धार्मिक पाखंड की राजनीति का हथियार बना देते हैं और अपने भोग विलास का इन्तेजाम करते हुए करोड़ों लोगों का जीवन बर्बाद करते रहते हैं.

 बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर इन बातों को गहराई से समझिये और दूसरों तक फैलाइये. एक बात ठीक से नोट कर लीजिये कि भारत में गरीबॉन, दलितों, मजदूरों, स्त्रीयों और आदिवासियों के लिए बुद्ध का अनात्मा का और निरीश्वरवाद का दर्शन बहुत काम का साबित होने वाला है. बुद्ध का निरीश्वरवाद और अनात्मवाद असल में भारत के मौलिक और ऐतिहासिक भौतिकवाद से जन्मा है. ऐसे भौतिकवाद पर आज का पूरा विज्ञान खड़ा है और भविष्य में एक स्वस्थ, नैतिक और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण भी इसी भौतिकवाद की नींव पर होगा. आत्मा इश्वर और पुनर्जन्म जैसी भाववादी या अध्यात्मवादी बकवास को जितनी जल्दी दफन किया जाएगा उतना ही इस देश का और इंसानियत का फायदा होगा.

अब शेष समाज इसे समझे या न समझे, कम से कम भारत के दलितों, आदिवासियों, स्त्रीयों और शूद्रों (ओबीसी) सहित सभी मुक्तिकामियों को इसे समझ लेना चाहिए. इसे समझिये और बुद्ध के मुंह से वेदान्त बुलवाने वाले बाबाओं और उनके शीशों के षड्यंत्रों को हर चौराहे पर नंगा कीजिये. इन बाबाओं के षड्यंत्रकारी सम्मोहन को कम करके मत आंकिये. ये बाबा ही असल में भारत में समाज और सरकार को बनाते बिगाड़ते आये हैं. अगर आप ये बात अब भी नहीं समझते हैं तो आपके लिए और इस समाज के लिए कोई उम्मीद नहीं है. इसलिए आपसे निवेदन है कि बुद्ध को ठीक से समझिये और दूसरों को समझाइये.

~



संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे है


ब्राह्मण -- मै जन्म से श्रेष्ठ हूँ

बुध्द --  कैसे  ?


ब्राह्मण -- क्योंकि मै ब्राह्मण हूँ ।


बुद्ध -- ठीक है, अच्छा एक बात बताइए ,.......आपके घर की महिलाए गर्भवती होती है ?


ब्राह्मण -- हां होती है ।


बुद्ध -- वैसे ही होती है जैसे अन्य महिलाए होती ......या फिर ....?


ब्राह्मण -- हां वैसे ही होती है ।


बुद्ध -- आपकी महिलाओ की गर्भावस्था उतने ही समय की होती है जितने समय की अन्य महिलाओ की होती है ?


ब्राह्मण -- हां उतने ही समय की होती है ।


बुद्ध -- बच्चा पैदा अर्थात प्रसूति भी वैसे ही होती है जैसे अन्य महिलाओ के जरिए होती है ?


ब्राह्मण -- हां वैसे ही होती है ।


बुद्ध -- जब गर्भवती होने का तरीका, गर्भावस्था का समय और बच्चा प्रसूति का भी तरीका ....ये सभी प्रक्रियाएं एक ही समान है तो आप ब्राह्मण अपने आप को किस आधार पर कहते है कि हम ब्राह्मण पैदा होते ही अर्थात जन्म से ही श्रेष्ठ है ......?? ?


बुद्ध के इस प्रश्न का उत्तर ब्राह्मण के पास नही था .....


बुद्ध --  मतलब यह है कि मानव अपने कर्म से श्रेष्ठ है अपने कर्म से ही महान है ना कि जन्म से .....

ब्राह्मण का राज उनके ज्ञान पर नहीं तुम्हारे अज्ञान पर टिका है।
ब्राह्मण तुमसे पेड़ पुजवा सकता है,
पत्थर पुजवा सकता है, धरती, आकाश, जल, अग्नि, वायु, देहरी (चौखट), तस्वीर, लोहा, ईंट, पशु, पक्षी या जो कुछ भी उसे दिखाई दिया। उसने तुमसे खुले आम पुजवा दिया।

और ये सब एक अनपढ़ ब्राह्मण ने आपके पढ़े लिखे IAS, IPS, वक़ील, मजिस्ट्रेट, इंजीनियर, डॉक्टर से करवाया है।

 फिर भी आप कैसे कहते हैं के आप ब्राह्मण के ग़ुलाम नही हैं??
                                                        ब्राह्मणों की कहानी

जब भूकम्प आने वाला हो तो उनको पता नहीं होता ,


जब हुदहुद तूफान आने वाला हो तो पता नहीं होता


जब ट्रेन पलटने वाली या लड़ने  वाली हो तो पता नहीं होता,


जब नोट बदलने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब अपने देश पर हमला होने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब देश अगर मैं नहीं जानता कि विस्फोट के लिए जा रहा है bamma है


जब केदार नाथ बाढ़ मे बह जाने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब भारत की राजधानी में किसी बस में लड़की का रेप होने वाला हो तो पता नहीं होता ,


जब देश मे आतंकवादी घूम रहे होते तो पता नहीं होता,


जब सीमा के सैनिकों का गला कटने वाला हो तो पता नही होता,


जब चारो धाम जाते समय यात्री बस खाई मे गिरने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब कोई प्लेन लुप्त होने वाली हो तो पता नहीं होता,


जब बारिस होने पर बिजली कड़कने वाली हो और किसी के ऊपर बिजली गिरने वाली हो तो इन्हें पता नहीं होता।


इनको केवल वह पता होता जो सम्भव नहीं।


जैसे

किसी पर ग्रह नक्षत्र

-दोष ,पिछले जन्म का पाप,


मरने के बाद स्वर्ग दिलाना,


माता-पिता को मरने के बाद बैठाना,


 बच्चे को सत्तईसा में पड़ना


आदि सभी अन्ध विश्वास

मनगढंत बातें।

जिनको पिछले जन्म की

और स्वर्ग की जानकारी हो; वे ये सब क्यों नहीं जानते ?

इसलिए नहीं जानते क्योंकि ये सब देखे जा सकते हैं,


हक़ीकत जाना जा सकता है।



 *(एक आदमी एक मूर्ति के सामने रो रहा था)*

भगवान बुद्ध:- आप पत्थर से बनी मूर्ति से क्या चाहते हो?

भक्त :- सुख!

बुद्ध:- तो दुःख क्यूं नही चाहिये?

भक्त:-(गुस्से में) दुःख है,इसलिये सुख माँग रहा हूँ.

बुद्ध:- क्या तुम सवाल पुछे बगैर जवाब दे सकते हो?

भक्त:- सवाल के बाद जवाब आता है!
बिना सवाल जवाब कैसे दें? 

बुद्ध:- मेरे प्यारे इंसान, तो फिर दुःख के बिना सुख की आशा क्यूँ रखता है?

सुख तब मिलेंगा जब दुःख को तुम संघर्ष और मेहनत से दूर करोगे, 

दुःख , मूर्ति के सामने बैठ कर  और रो कर खत्म नही होता,

बल्कि और बढ़ जाता है,
क्यूँकि पत्थर की चीजें कभी दुःख दूर नही करती हैं. 

क्यूँकि वे निर्जीव है,

तुम सजीव हो, इंसान हो दुःख दूर करने के कई
उपाय है, 

और सुख पाने के भी उपाय है,

मगर वो उपाय सत्य पर आधारित  होना चाहिये,

असत्य के राह पर मिलने वाला हर सुख, दुःख बन जाता है। 

सत्य के राह पर हासिल किया सुख निरंतर और प्रेरणादायी रहता है, 

जब तक अज्ञान है ,तब तक दुःख रहेगा, अज्ञान जाने के बाद दुःख भी नही रहता,

दुःख के बिना सुख अधुरा है, मगर जिसे तुम दुःख समझते हो उसे तुम हरा सकते हो,

भक्त:-कैसे?

बुद्ध :- दुःख एक चीज से पैदा होता है ,वह है तृष्णा,

( लालच,लगाव,अति प्रेम,अति मोह और उन जैसी चीजों को पाने की आशा )
अगर इन तृष्णाओं को आप जीत जाते हैं, तो हर दुःख, सुख के समान हो जाता है,

जो चीज अपनी नहीं है ये जानते हुये भी ,
उसे पाने जाते है ,इसका मतलब,

दुःख आपके पास नही आप दुःख के पास जाते हो, 

इसलिये असत्य राह, पत्थर के भगवान से दुवा मांगने से दुःख दूर नही होता, 

बल्कि अमूल्य समय और मन की शांति चली जाती है,

और इस खूबसूरत दुनिया में तुम उदास बने रहते हो, 

भक्त:- आप कोन हो ?

बुद्ध:- मै एक जागृत इंसान हूँ । 

भक्त:- क्या आपके पास दुःख नही है?
बुद्ध:- दुःख है, मगर मेरे पास तृष्णा नही है.

*जिसके पास, तृष्णा है उसके पास दुःख, चुंबक के तरह चिपके रहता है,* 

*और जिसके पास तृष्णा नही है, उसके आजू बाजू दुःख रहते है मगर उसे छु नही पाते,,*

भक्त:- तो क्या ये पत्थर की मूर्तियाँ मेरी सून रही है?

बुद्ध:- *आप भली भाँति जानते हो,पत्थर एक निर्जीव है, अगर सच मे भगवान कोई होता तो, सामने प्रकट होगा, पत्थर में क्यूँ जायेगा*?

भक्त:- आपका सत्य, वास्तविक सत्य ज्ञान, यह सच है, 

*जो चीज अपनी नहीं है,उसे मेहनत के बगैर पाने कि इच्छा रखना यही दुःख है,*

बुद्ध :- मगर इस दुनिया से बिछुड़ जानेवाली चीजें मेहनत से नही मिलती, 
उस दुःख का अंत उस चीज के साथ होता है,

दुनिया से बिछुडी़ चीजें वापस नही आती उसका दुःख करना मूर्खता के बराबर है,

भक्त,:- मैं मानसिक रोगी हो गया था, वास्तविक सच देखते हुये भी, काल्पनिक विचारों में व्यस्त रहता था, मुझे आपके जैसा जागृत होना है, मैं आपके विचारों की शरण आ गया हूँ !

बुद्ध:- साधू साधू साधू!!!

बौद्ध ज्ञान ही सत्य है,बाकी सब काल्पनिक सोच है,उस काल्पनिक सोच का वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है,

मगर बुद्ध ज्ञान जीवन का सत्य मार्ग है,



पोस्ट - 32 - अष्‍टावक्र: महागीता

धर्म से जो तुम अर्थ समझ रहे हो धारणा का, वैसा अर्थ नहीं है। धारणा, कनसेप्ट धर्म नहीं है। धर्म शब्द बना है जिस धातु से, उसका अर्थ है : जिसने सबको धारण किया है; जो सबका धारक है; जिसने सबको धारा है। धारणा नहीं—जिसने सबको धारण किया है।

यह जो विराट, ये जो चांद—तारे, यह जो सूरज, ये जो वृक्ष और पक्षी और मनुष्य, और अनंत— अनंत तक फैला हुआ अस्तित्व है—इसको जो धारे हुए है, वही धर्म है।

धर्म का कोई संबंध धारणा से नहीं है। तुम्हारी धारणा हिंदू की है, किसी की मुसलमान की है, किसी की ईसाई की है—इससे धर्म का कोई संबंध नहीं। ये धारणाएं हैं, ये बुद्धि की धारणाएं हैं। धर्म तो उस मौलिक सत्य का नाम है, जिसने सबको सम्हाला है; जिसके बिना सब बिखर जायेगा; जो सबको जोड़े हुए है; जो सबकी समग्रता है; जो सबका सेतु है—वही!

जैसे हम फूल की माला बनाते हैं। ऐसे फूल का ढेर लगा हो और फूल की माला रखी हो—फर्क क्या है? ढेर अराजक है। उसमें कोई एक फूल का दूसरे फूल से संबंध नहीं है, सब फूल असंबंधित हैं। माला में एक धागा पिरोया। वह धागा दिखायी नहीं पड़ता; वह फूलों में छिपा है। लेकिन एक फूल दूसरे फूल से जुड़ गया।

इस सारे अस्तित्व में जो धागे की तरह पिरोया हुआ है, उसका नाम धर्म है। जो हमें वृक्षों से जोड़े है, चांद—तारों से जोड़े है, जो कंकड़—पत्थरों को सूरज से जोड़े है, जो सबको जोड़े है, जो सबका जोड़ है—वही धर्म है।

धर्म से संस्कृति का निर्माण नहीं होता। संस्कृति तो संस्कार से बनती है। धर्म तो तब पता चलता है जब हम सारे संस्कारों का त्याग कर देते हैं।

हिंदू की संस्कृति अलग है, मुसलमान की संस्कृति अलग है, बौद्ध की संस्कृति अलग है, जैन की संस्कृति अलग है। दुनियां में हजारों संस्कृतियां हैं, क्योंकि हजारों ढंग के संस्कार हैं। कोई पूरब की तरफ बैठकर प्रार्थना करता है, कोई पश्चिम की तरफ मुंह करके प्रार्थना करता है—यह संस्कार है। कोई ऐसे कपड़े पहनता, कोई वैसे कपड़े पहनता; कोई इस तरह का खाना खाता, कोई उस तरह का खाना खाता—ये सब संस्कार हैं।

दुनियां में संस्कृतियां तो रहेंगी—रहनी चाहिए। क्योंकि जितनी विविधता हो उतनी दुनियां सुंदर है। मैं नहीं चाहूंगा कि दुनियां में बस एक संस्कृति हो—बडी बेहूदी, बेरौनक, उबाने वाली होगी। दुनियां में हिंदुओं की संस्कृति होनी चाहिए मुसलमानों की, ईसाइयों की, बौद्धों की, जैनों की, चीनियों की, रूसियों की—हजारो संस्कृतियां होनी चाहिए। क्योंकि वैविध्य जीवन को सुंदर बनाता है। बगीचे में बहुत तरह के फूल होने चाहिए। एक ही तरह के फूल बगीचे को ऊब से भर देंगे।

संस्कृतियां तो अनेक होनी चाहिए—अनेक हैं, अनेक रहेंगी। लेकिन धर्म एक होना चाहिए, क्योंकि धर्म एक है। और कोई उपाय नहीं है।


ओशो: अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–1) प्रवचन–4 (पोस्ट 32)

2 comments:

  1. मनुवादियों को बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर की मूर्तियों से खतरा कम, उनकी लिखी हुई किताबों से ज्यादा है।और हमारे लोगों को उनकी लिखी हुई किताबों से लगाव कम मूर्तियों से ज्यादा है..यही उनकी दुर्दशा/गुलामी का असली कारण है। पूजने से नहीं मानने से सुधार होगा इसलिए जानो पढ़ो समझो| तुम्हारे बहुत से ऐतिहासिक महापुरुष के संगर्ष और विचारधारा को ख़तम करके उनकी मूर्ती/देवता बना कर पूजा जा रहा है, इस पूजन से तुम्हारा नहीं पुजारियों का भला होता है…समयबुद्धा
    मेन्यू
    इसे छोड़कर सामग्री पर बढ़ने के लिए
    डी: गौतम बुद्ध और उनका धम्म
    बौद्ध धम्म साहित्य में एक तरफ तो लिखा है फलां बात ऐसे है वहीँ कहीं दूसरी तरफ लिखा है फलां बात ऐसे नहीं ऐसे है|आज बौद्ध धम्म की तरफ अग्रसर लोगों की सबसे बड़ी परेशानी ये है की वो किसको सही माने किसको गलत,किसको अपनाएं किसको छोड़ें|बौद्ध धम्म के पतन के लिए न केवल दमन से बल्कि विरोधियों ने भिक्षु बन कर बौद्ध साहित्य में बहुत ज्यादा मिलावट कर दी थी| वही मिलावट का साहित्य आज मार्किट में उपलब्ध है जिसका सार यही बनता है जी जीवन नीरस है कुछ मत करो या ये बनता है की भगवान् बुद्धा एक इश्वरिये शक्ति थे उनकी पूजा करो और कृपा लाभ मिलेगा |असल में बौद्ध धम्म मनुवादी षडियन्त्र और अन्याय द्वारा व्याप्त दुःख को मिटने वाली क्रांति है ये इश्वरिये सिद्धांत को नकारता है|इस सबसे बचने का यही इलाज है की आप अन्यत्र किसी धम्म साहित्य ज्यादा ध्यान मत दो| युगपुरुष महाज्ञानी बहुजन मसीहा एव आधुनिक भारत के उत्क्रिस्ट शिल्पकार बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की निम्न तीन पुस्तकों को शुरुआती ज्ञान से लेकर अंतिम रेफरेंस तक मनो :
    १. भगवन बुद्धा और उनका धम्म
    २. भगवन बुद्धा और कार्ल मार्क्स
    ३. प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति
    ये बात स्वेव बाबा साहब की है वे खुद बौध धम्म को सही मायेने में

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  2. काले धागे में छिपी ब्राह्मणवादी समाज की काली हकीकत http://www.nationaldastak.com/opinion/why-are-the-black-thread-

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