Monday, 17 April 2017

भारत माता कौन?

भारत माता कौन?

मै /हम
भारत माता की जय बोलुंगा/बोलुंगी/बोलेंगें?
पर मेरे /हमारे कुछ सवालों के पहले जवाब चाहिए और उन जवाबों से मैं/हम संतुष्ट हुआ/हुये तो ?


१:/भारत माता के पिता और माता का नाम बताओं?
२:/भारत माता का जन्म कब और कंहा हुआ?
३:/भारत माता का विवाह किससे हुआ?
४:/भारत माता कंहा रहतीं हैं?
५:/भारत माता की संतानों ने कब और कैसे जन्म लिया और उनके क्या नाम हैं?
६:/जब भारत माता के पेट से सभी ने जन्म लिया तो ?भारत में जातियां क्यों?
७:/अगर भारत के सम्पूर्ण नागरिकों की भारत माता हैं ?यदि हा तो?
८:/क्या भारत माता ने अलग अलग जाति के लोगों से विवाह किया था? जो भारत में अनेक जातियां हुई?
९:/ऐ भारत माता कैसी हैं जो अपने बच्चों में भेंद करती हैं? एक को शुद्र तो दुसरे को ब्राह्मण तिसरे को क्षत्रिय और चौथे को वैश्य बनाया क्या आपने जिसके पेट से जन्म लिया वह भी आपसे छुआछूत भेदभाव करती हैं?
१०:/भारत माता की जय मै क्यों बोलुं जब वह मुझसे छुआछूत और भेदभाव करती हैं?
११:/भारत माता ने शेर की सवारी कबकी और क्यों की?और ऐसा उसे क्यों करना पड़ा?
१२:/भारत माता के हाथ मे तिरंगा झंडा हैं या लाल झंडा? अगर लाल झंडा हैं तो वह भारत माता कैसे हुई?
१३:/भारत माता कंहा रहती थी या रहती हैं?
१४:/जब भारत माता के हाथ मे तिरंगा झंडा नहीं हैं तो भारत के सभी लोग उसे माता क्यों माने?
१५:/अंतिम सवाल देश मे भारत माता, पशु गाय माता, नदी गंगा, यमुना अन्य माता और अन्य तरह२ की माताऐं तो पिता कौन हैं?
अगर सच्चे मूलनिवासी हो तो इसे जादा से जादा सेयर करो और उक्त सवालों के जवाब तलाशों और सामने वाले को मूहं तोड़ जवाब दो और फिर उससॆ बुलवाओ भारत माता की जय?

धर्म और धम्म”के अंतर

“धर्म और धम्म”के अंतर को जानिये.....


धर्म एक अनिश्चित शब्द है जिसका कोई स्थिर अर्थ नही है ।

किन्तु इसके अर्थ अनेक है इसका कारण है धर्म बहुत सी अवस्थाओं से होकर गुजरा है।
हर अवस्था मे हम उस मान्यता विशेष को धर्म ही कहते रहे है।

 निसन्देह हर एक समय कि मान्यता अपने से पूर्व की मान्यताओ से भिन्न रही है।धर्म की कल्पना भी कभी स्थिर नही रही है यह. हर समय बदलती चली आयी है।

एक समय था जब बिजली वर्षा और बाढ की घटनाये आम आदमी की समझ. से सर्वथा परे की बात थी इन सब पर काबू पाने के लिये जो भी कुछ टोना टुटका किया जाता था उस समय धर्म और जादू एक ही चीज के दो नाम थे।

धर्म के विकाश मे दूसरा समय आया इस समय धर्म का मतलब था आदमी के विश्वास, धार्मिक कर्मकाण्ड, रीति रिवाज, प्रार्थनाये और बलियो वाले यज्ञ. ।

लेकिन धर्म का स्वरुप व्युत्पन्न. है।धर्म का केन्द्रबिन्दु इस विश्वास पर निर्भर करता है कि कोई शक्ति विशेष है जिनके कारण ये सभी घटनाये घटती है और जो आदमी की समझ से परे की बात है।अब इस अवस्था मे पहुँच कर जादू का प्रभाव जाता रहा। आरंभ मे यह शक्ति शैतान के रुप मे थी किन्तु बाद मे यह माना जाने लगा कि शिव( कल्याण) रुप हो सकती है । तरह- तरह के विश्वास, कर्मकाण्ड. शिव स्वरुप शक्ति को प्रसन्न करने के लिये एवं क्रोध रुपी शक्ति को सन्तुष्ट रखने के लिये आवश्यक थे आगे चलकर वही शक्ति ईश्वर, परमात्मा या दुनिया को बनाने वाली कहलाई।

तब धर्म की मान्यता ने तीसरी शक्ल ग्रहण की तब यह माने जाने लगा कि इस एक ही शक्ति ने आदमी और दुनिया बनाया है यानि दोनो को पैदा किया है।इसके बाद धर्म की मान्यता मे एक बात और भी शामिल हो गयी कि हर आदमी के शरीर मे एक आत्मा है और आदमी जो भी भला और बुरा काम करता है उस आत्मा को ईश्वर के प्रति उत्तरदायी रहना पडता है यही धर्म की मान्यता के विकास का इतिहास है।अब धर्म का यही अर्थ हो गया है या धर्म से यही भावार्थ ग्रहण किया जाता है कि ईश्वर मे विश्वास ,आत्मा मे विश्वास, ईस्वर की पूजा, आत्मा मे सुधार, प्रार्थना आदि करके ईस्वर को प्रसन्न रखना।
तथागत गौतम बुद्ध जिसे धम्म कहते है वह धर्म से सर्वथा भिन्न है । कहा जाता है कि धर्म या रिलिजन व्यक्तिगत. चीज है और आदमी को अपने तक सिमित रखना चाहिये। इसे सार्वजनिक जीवन मे बिल्कुल दखल नही देना चाहिये जबकि धम्म एक सामाजिक वस्तु है धम्म का मतलब है सदाचरण। जिसका मतलब है जीवन के सभी क्षेत्रों मे एक आदमी का दुसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार। इससे स्पष्ट. होता है कि यदि कही एक आदमी अकेला ही हो तो उसे किसी धम्म की आवश्यकता नही लेकिन कही दो आदमी एक साथ रहते हो तो वो चाहे या ना चाहे धम्म के लिये जगह बनानी ही होगी। दोनो मे से कोई एक बचकर नही जा सकता। दूसरे शब्दो मे धम्म के बिना समाज का काम नही चल सकता।



तथागत के अनुशार धम्म के दो प्रधान तत्व है प्रज्ञा और करुणा। प्रज्ञा का मतलब है बुद्धि (निर्मल बुद्धि) बुद्ध ने प्रज्ञा को सर्वप्रथम इसलिये माना है कि वे नही चाहते थे कि मिथ्या विश्वासों के लिये कही कोई गुन्जाईश बची रहे दूसरा करुणा जिसका मतलब है दया, मैत्री, प्रेम इसके बिना न समाज रह सकता है न समाज की उन्नति हो सकती है ।

 तथागत की धम्म देशना का यही उद्देश्य है कि जो धम्म के अनुसार आचरण करेगा वह अपने दु:ख का नाश करेगा॥

जबकि धर्म का सरोकार ईश्वर और सृष्टि से है और धम्म का इन सब वातो से कोई सरोकार नही उनका कहना है कि ईश्वर कहाँ है ,सन्सार असीम है आत्मा और शरीर एक है, इन प्रश्नो के उत्तर मे जाने से किसी को कोई लाभ होने वाला नही है इनका धम्म से कोई भी सम्बन्ध नही है, इनसे आदमी का आचरण सुधारने मे कुछ भी सहायता नही मिलती, इनसे विराग नही बढता, इनसे राग द्वेष से मुक्ति लाभ नही मिलता, इससे विद्या( ज्ञान) प्राप्त. नही होता।

तथागत ने बताया कि दु:ख क्या है ,दु:ख का मूल कारण क्या है, दु:ख को रोकने का मार्ग क्या है, इनसे लोगो को लाभ है, इनसे आदमी को अपना आचरण सुधारने मे सहायता मिलती है, राग द्वेष से मुक्ति मिलती है, इसे शान्ति मिलती है विद्या प्राप्त होती है और ये निर्वाण ( मोक्ष) की ओर अग्रसर. होते है।

नैतिकता का धर्म और रेलिजिन मे कोई स्थान नही है। नैतिकता धर्म का मूलाधार नही है यह एक रेल के उस डिब्बे के समान है कि जब चाहे इन्जन मे जोड दिया जाये और जब चाहे पृथक कर दिया जाये अर्थात धर्म मे नैतिकता का स्थानआकस्मिक है ताकि व्यवस्था और शान्ति मे उपयोगी सिद्ध हो सके। जबकि धम्म मे नैतिकता का स्थान है दुसरे शब्दो मे धम्म ही नैतिकता है अथवा नैतिकता ही धम्म है । यद्यपि धम्म मे ईश्वर के लिये कोई स्थान नही है तो भी धम्म मे नैतिकता का वही स्थान है जो धर्म मे ईश्वर का।
धम्म मे जो नैतिकता है उसका सीधा मूल श्रोत आदमी को आदमी से मैत्री करने की जो आवश्यकता है वही है अपने भले के लिये अथवा दुसरे के भले के लिये यह आवश्यक है कि वह धम्म का आचरण कर मैत्री करे।
हर कोई जानता है कि मानव समाज का जो विकाश हुआ वह जीवन सन्घर्ष के कारण हुआ क्योकि आरम्भिक युग मे भोजन ,सामग्री बडी सिमित मात्रा मे थी जिससे भयानक सन्घर्ष रहा और योग्यतम/ श्रेष्ठतम ही बचा रहा। मानव की मूल अवस्था ऎसी ही रही। किन्तु क्या योग्यतम( सबसे अधिक शक्ति सम्पन्न) ही श्रेष्ठतम माना जाना चाहिये क्या जो निर्बलतम है उसे भी सरक्षण देकर यदि बचाया जाये तो क्या यह आगे चलकर समाज के हित की दृष्टि से अच्छा सिद्ध नही होगा ?

अत्त द्वपो भवः।




 संजय जोठे (Sanjay Jothe)


बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध के सबसे पुराने और सबसे शातिर दुश्मनों को आप आसानी से पहचान सकते हैं. यह दिन बहुत ख़ास है इस दिन आँखें खोलकर चारों तरफ देखिये. बुद्ध की मूल शिक्षाओं को नष्ट करके उसमे आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की बकवास भरने वाले बाबाओं को आप काम करता हुआ आसानी से देख सकेंगे. भारत में तो ऐसे त्यागियों, योगियों, रजिस्टर्ड भगवानों और स्वयं को बुद्ध का अवतार कहने वालों की कमी नहीं है. जैसे इन्होने बुद्ध को उनके जीते जी बर्बाद करना चाहा था वैसे ही ढंग से आज तक ये पाखंडी बाबा लोग बुद्ध के पीछे लगे हुए हैं.


 बुद्ध पूर्णिमा के दिन भारत के वेदांती बाबाओं सहित दलाई लामा जैसे स्वघोषित बुद्ध अवतारों को देखिये. ये विशुद्ध राजनेता हैं जो अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए बुद्ध की शिक्षाओं को उलटा सीधा तोड़ मरोड़कर उसमे आत्मा परमात्मा घुसेड देते हैं. भारत के एक फाइव स्टार रजिस्टर्ड भगवान् – भगवान् रजनीश ने तो दावा कर ही दिया था कि बुद्ध उनके शरीर में आकर रहे, इस दौरान उनके भक्तों ने प्रवचनों के दौरान उन्हें बुद्ध के नाम से ही संबोधित किया लेकिन ये "परीक्षण" काम नहीं किया और भगवान रजनीश ने खुद को बुद्ध से भी बड़ा बुद्ध घोषित करते हुए सब देख भालकर घोषणा की कि "बुद्ध मेरे शरीर में भी आकर एक ही करवट सोना चाहते हैं, आते ही अपना भिक्षा पात्र मांग रहे हैं, दिन में एक ही बार नहाने की जिद करते हैं" ओशो ने आगे कहा कि बुद्ध की इन सब बातों के कारण मेरे सर में दर्द हो गया और मैंने बुद्ध को कहा कि आप अब मेरे शरीर से निकल जाइए.

जरा गौर कीजिये. ये भगवान् रजनीश जैसे महागुरुओं का ढंग है बुद्ध से बात करने का. और कहीं नहीं तो कम से कम कल्पना और गप्प में ही वे बुद्ध का सम्मान कर लेते लेकिन वो भी इन धूर्त बाबाजी से न हो सका. आजकल ये बाबाजी और उनके फाइव स्टार शिष्य बुद्ध के अधिकृत व्याख्याता बने हुए हैं और बहुत ही चतुराई से बुद्ध की शिक्षाओं और भारत में बुद्ध के साकार होने की संभावनाओं को खत्म करने में लगे हैं. इसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि दलित बहुजन समाज के और अंबेडकरवादी आन्दोलन के लोग भी इन जैसे बाबाओं से प्रभावित होकर अपने और इस देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं.

 इस बात को गौर से समझना होगा कि भारतीय वेदांती बाबा किस तरह बुद्ध को और उनकी शिक्षाओं को नष्ट करते आये हैं. इसे ठीक से समझिये. बुद्ध की मूल शिक्षा अनात्मा की है. अर्थात कोई 'आत्मा नहीं होती'. जैसे अन्य धर्मों में इश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म होता है वैसे बुद्ध के धर्म में इश्वर आत्मा और पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं है. बुद्ध के अनुसार हर व्यक्ति का शरीर और उसका मन मिलकर एक आभासी स्व का निर्माण करता है जो अनेकों अनेक गुजर चुके शरीरों और मन के अवशेषों से और सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आदि आदि कारकों के प्रभाव से बनता है, ये शुद्धतम भौतिकवादी निष्पत्ति है. किसी व्यक्ति में या जीव में कोई सनातन या अजर अमर आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती. और इसी कारण एक व्यक्ति का पुनर्जन्म होना एकदम असंभव है.

जो लोग पुनर्जन्म के दावे करते हैं वे बुद्ध से धोखा करते हैं. इस विषय में दलाई लामा का उदाहरण लिया जा सकता है. ये सज्जन कहते हैं कि वे पहले दलाई लामा के तेरहवें या चौदहवें अवतार हैं और हर बार खोज लिए जाते हैं. अगर इनकी बात मानें तो इसका मतलब हुआ कि इनके पहले के दलाई लामाओं का सारा संचित ज्ञान, अनुभव और बोध बिना रुकावट के इनके पास आ रहा है. सनातन और अजर-अमर आत्मा के पुनर्जन्म का तकनीकी मतलब यही होता है कि अखंडित आत्मा अपने समस्त संस्कारों और प्रवृत्तियों के साथ अगले जन्म में जा रही है.

अब इस दावे की मूर्खता को ठीक से देखिये. ऐसे लामा और ऐसे दावेदार खुद को किसी अन्य का पुनर्जन्म बताते हैं लेकिन ये गजब की बात है कि इन्हें हर जन्म में शिक्षा दीक्षा और जिन्दगी की हर जेरुरी बात को ए बी सी डी से शुरू करना पड़ता है. भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि ही नहीं बल्कि इनका अपना पालतू विषय – अध्यात्म और ध्यान भी किसी नए शिक्षक से सीखना होता है. अगर इनका पुनर्जन्म का दावा सही है तो अपने ध्यान से ही इन चीजों को पिछले जन्म से 'री-कॉल' क्यों नहीं कर लेते? आपको भी स्पेशल ट्यूटर रखने होते हैं तो एक सामान्य आदमी में और इन अवतारों में क्या अंतर है?

इस बात को ठीक से देखिये. इससे साफ़ जाहिर होता है कि अवतार की घोषणा असल में एक राष्ट्राध्यक्ष के राजनीतिक पद को वैधता देने के लिए की जाती है. जैसे ही नया नेता खोजा जाता है उसे पहले वाले का अवतार बता दिया जाता है इससे असल में जनता में उस नेता या राजा के प्रति पैदा हो सकने वाले अविश्वास को खत्म कर दिया जाता है या उस नेता या राजा की क्षमता पर उठने वाले प्रश्न को भी खत्म कर दिया जाता है, जनता इस नये नेता को पुराने का पुनर्जन्म मानकर नतमस्तक होती रहती है और शिक्षा, रोजगार, विकास, न्याय आदि का प्रश्न नहीं उठाती, इसी मनोविज्ञान के सहारे ये गुरु सदियों सदियों तक गरीब जनता का खून चूसते हैं. यही भयानक राजनीति भारत में अवतारवाद के नाम पर हजारों साल से खेली जाती रही है. इसी कारण तिब्बत जैसा खुबसूरत मुल्क अन्धविश्वासी और परलोकवादी बाबाओं के चंगुल में फंसकर लगभग बर्बाद हो चुका है. वहां न शिक्षा है न रोजगार है न लोकतंत्र या आधुनिक समाज की कोई चेतना बच सकी है.

अब ये लामा महाशय तिब्बत को बर्बाद करके धूमकेतु की तरह भारत में घूम रहे हैं और अपनी बुद्ध विरोधी शिक्षाओं से भारत के बौद्ध आन्दोलन को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं.

भारत के बुद्ध प्रेमियों को ओशो रजनीश जैसे धूर्त वेदान्तियों और दलाई लामा जैसे अवसरवादी राजनेताओं से बचकर रहना होगा. डॉ. अंबेडकर ने हमें जिस ढंग से बुद्ध और बौद्ध धर्म को देखना सिखाया है उसी नजरिये से हमे बुद्ध को देखना होगा. और ठीक से समझा जाए तो अंबेडकर जिस बुद्ध की खोज करके लाये हैं वही असली बुद्ध हैं. ये बुद्ध आत्मा और पुनर्जन्म को सिरे से नकारते हैं.

लेकिन भारतीय बाबा और फाइव स्टार भगवान लोग एकदम अलग ही खिचडी पकाते हैं. ये कहते हैं कि सब संतों की शिक्षा एक जैसी है, सबै सयाने एकमत और फिर उन सब सयानों के मुंह में वेदान्त ठूंस देते हैं. कहते हैं बुद्ध ने आत्मा और परमात्मा को जानते हुए भी इन्हें नकार दिया क्योंकि वे देख रहे थे कि आत्मा परमात्मा के नाम पर लोग अंधविश्वास में गिर सकते थे. यहाँ दो सवाल उठते हैं, पहला ये कि क्या बुद्ध ने स्वयं कहीं कहा है कि उन्होंने आत्मा परमात्मा को जानने के बाद भी उसे नकार दिया? दुसरा प्रश्न ये है कि बुद्ध अंधविश्वास को हटाने के लिए ऐसा कर रहे थे तो अन्धविश्वास का भय क्या उस समय की तुलना में आज एकदम खत्म हो गया है?

दोनों सवालों का एक ही उत्तर है – "नहीं".

गौतम बुद्ध कुटिल राजनेता या वेदांती मदारी नहीं हैं. वे एक इमानदार क्रांतिचेता और मनोवैज्ञानिक की तरह तथ्यों को उनके मूल रूप में रख रहे हैं. उनका अनात्मा का अपना विशिष्ठ दर्शन और विश्लेषण है. उसमे वेदांती ढंग की सनातन आत्मा का प्रक्षेपण करने वाले गुरु असल में बुद्ध के मित्र या हितैषी नहीं बल्कि उनके सनातन दुश्मन हैं. आजकल आप किसी भी बाबाजी के पंडाल या ध्यान केंद्र में चले जाइए. या यहीं फेसबुक पर ध्यान की बकवास पिलाने वालों को देख लीजिये. वे कृष्ण और बुद्ध को एक ही सांस में पढ़ाते हैं, ये गजब का अनुलोम विलोम है. जबकि इनमे थोड़ी भी बुद्धि हो तो समझ आ जाएगा कि बुद्ध आत्मा को नकारते हैं और कृष्ण आत्मा को सनातन बताते हैं, कृष्ण और बुद्ध दो विपरीत छोर हैं. लेकिन इतनी जाहिर सी बात को भी दबाकर ये बाबा लोग अपनी दूकान कैसे चला लेते हैं? लोग इनके झांसे में कैसे आ जाते हैं? यह बात गहराई से समझना चाहिए.

असल में ये धूर्त लोग भारतीय भीड़ की गरीबी, कमजोरी, संवादहीनता, कुंठा, अमानवीय शोषण, जातिवाद आदि से पीड़ित लोगों की सब तरह की मनोवैज्ञानिक असुरक्षाओं और मजबूरियों का फायदा उठाते हैं और तथाकथित ध्यान या समाधि या चमत्कारों के नाम पर मूर्ख बनाते हैं. इन बाबाओं की किताबें देखिये, आलौकिक शक्तियों के आश्वासन और अगले जन्म में इस जन्म के अमानवीय कष्ट से मुक्ति के आश्वासन भरे होते हैं. इनका मोक्ष असल में इस जमीन पर बनाये गये अमानवीय और नारकीय जीवन से मुक्त होने की वासना का साकार रूप है. इस काल्पनिक मोक्ष में हर गरीब शोषित इंसान ही नहीं बल्कि हराम का खा खाकर अजीर्ण, नपुंसकता और कब्ज से पीड़ित हो रहे राजा और सामंत भी घुस जाना चाहते हैं. आत्मा को सनातन बताकर गरीब को उसके आगामी जन्म की विभीषिका से डराते हैं और अमीर को ऐसे ही जन्म की दुबारा लालच देकर उसे फंसाते हैं, इस तरह इस मुल्क में एक शोषण का सनातन साम्राज्य बना रहता है. और शोषण का ये अमानवीय ढांचा एक ही बिंदु पर खड़ा है वह है – सनातन आत्मा का सिद्धांत.

इसके विपरीत बुद्ध ने जिस निर्वाण की बात कही है या बुद्ध ने जिस तरह की अनत्ता की टेक्नोलोजी दी है और उसका जो ऑपरेशनल रोडमेप दिया है उसके आधार पर यह स्थापित होता है कि आत्मा यानी व्यक्तित्व और स्व जैसी किसी चीज की कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है. यह एक कामचलाऊ स्व या व्यक्तित्व है जो आपने अपने जन्म के बाद के वातावरण में बहुत सारी कंडीशनिंग के प्रभाव में पैदा किया है, ये आपने अपने हाथ से बनाया है और इसे आप रोज बदलते हैं.

आप बचपन में स्कूल में जैसे थे आज यूनिवर्सिटी में या कालेज में या नौकरी करते हुए वैसे ही नहीं हैं, आपका स्व या आत्म या तथाकथित आत्मा रोज बदलती रही है. शरीर दो पांच दस साल में बदलता है लेकिन आत्मा या स्व तो हर पांच मिनट में बदलता है. इसी प्रतीति और अनुभव के आधार पर ध्यान की विधि खोजी गयी. बुद्ध ने कहा कि इतना तेजी से बदलता हुआ स्व – जिसे हम अपना होना या आत्मा कहते हैं – इसी में सारी समस्या भरी हुयी है. इसीलिये वे इस स्व या आत्मा को ही निशाने पर लेते हैं. बुद्ध के अनुसार यह स्व या आत्मा एक कामचलाऊ धारणा है, ये आत्म सिर्फ इस जीवन में लोगों से संबंधित होने और उनके साथ समाज में जीने का उपकरण भर है. इस स्व या आत्म की रचना करने वाले शरीर, कपड़े, भोजन, शिक्षा और सामाजिक धार्मिक प्रभावों को अगर अलग कर दिया जाए तो इसमें अपना आत्यंतिक कुछ भी नहीं है. यही अनात्मा का सिद्धांत है. यही आत्मज्ञान है. बुद्ध के अनुसार एक झूठे स्व या आत्म के झूठेपन को देख लेना ही आत्मज्ञान है.

लेकिन वेदांती बाबाओं ने बड़ी होशियारी से बुद्ध के मुंह में वेदान्त ठूंस दिया है और इस झूठे अस्थाई स्व, आत्म या आत्मा को सनातन बताकर बुद्ध के आत्मज्ञान को 'सनातन आत्मा के ज्ञान' के रूप में प्रचारित कर रखा है. अगर आप इस गहराई में उतरकर इन बाबाओं और उनके अंधभक्तों से बात करें तो वे कहते हैं कि ये सब अनुभव का विषय है इसमें शब्दजाल मत रचिए. ये बड़ी गजब की बात है. बुद्ध की सीधी सीधी शिक्षा को इन्होने न जाने कैसे कैसे श्ब्द्जालों और ब्रह्म्जालों से पाट दिया है और आदमी कन्फ्यूज होकर जब दिशाहीन हो जाता है तो ये उसे तन्त्र मन्त्र सिखाकर और भयानक कंडीशनिंग में धकेल देते हैं. इसकी पड़ताल करने के लिए इनकी गर्दन पकड़ने निकलें तो ये कहते हैं कि ये अनुभव का विषय है. इनसे फिर खोद खोद कर पूछिए कि आपको क्या अनुभव हुआ ? तब ये जलेबियाँ बनाने लगते हैं. ये इनकी सनातन तकनीक है.

असल में सनातन आत्मा सिखाने वाला कोई भी अनुशासन एक धर्म नहीं है बल्कि ये एक बल्कि राजनीती है. इसी हथकंडे से ये सदियों से समाज में सृजनात्मक बातों को उलझाकर नष्ट करते आये हैं. भक्ति भाव और सामन्ती गुलामी के रूप में उन्होंने जो भक्तिप्रधान धर्म रचा है वो असल में भगवान और उसके प्रतिनिधि राजा को सुरक्षा देता आया है. यही बात है कि हस्ती मिटती नहीं इनकी, इस भक्ति में ही सारा जहर छुपा हुआ है. इसी से भारत में सब तरह के बदलाव रोके जाते हैं. और इतना ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में अनात्मा के अभ्यास या ज्ञान से जो स्पष्टता और समाधि (बौद्ध समाधी)फलित हो सकती है वह भी असंभव बन जाती है.

ये पाखंडी गुरु एक तरफ कहते हैं कि मैं और मेरे से मुक्त हो जाना ही ध्यान, समाधि और मोक्ष है और दूसरी तरफ इस मैं और मेरे के स्त्रोत – इस सनातन आत्मा – की घुट्टी भी पिलाए जायेंगे. एक हाथ से जहर बेचेंगे दुसरे हाथ से दवाई. एक तरफ मोह माया को गाली देंगे और अगले पिछले जन्म के मोह को भी मजबूत करेंगे. एक तरह शरीर, मन और संस्कारों सहित आत्मा के अनंत जन्मों के कर्मों की बात सिखायेंगे और दुसरी तरफ अष्टावक्र की स्टाइल में ये भी कहेंगे कि तू मन नहीं शरीर नहीं आत्मा नहीं, तू खुद भी नहीं ये जान ले और अभी सुखी हो जा. ये खेल देखते हैं आप? ले देकर आत्मभाव से मुक्ति को लक्ष्य बतायेंगे और साथ में ये भी ढपली बजाते रहेंगे कि आत्मा अजर अमर है हर जन्म के कर्मों का बोझ लिए घूमती है.

अब ऐसे घनचक्कर में इन बाबाओं के सौ प्रतिशत लोग उलझे रहते हैं, ये भक्त अपने बुढापे में भयानक अवसाद और कुंठा के शिकार हो जाते हैं. ऐसे कई बूढों को आप गली मुहल्लों में देख सकते हैं. इनके जीवन को नष्ट कर दिया गया है. ये इतना बड़ा अपराध है जिसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती. दुर्भाग्य से अपना जीवन बर्बाद कर चुके ये धार्मिक बूढ़े अब चाहकर भी मुंह नहीं खोल सकते.

लेकिन बुद्ध इस घनचक्कर को शुरू होने से पहले ही रोक देते हैं. बुद्ध कहते हैं कि ऐसी कोई आत्मा होती ही नहीं इसलिए इस अस्थाई स्व में जो विचार संस्कार और प्रवृत्तियाँ हैं उन्हें दूर से देखा जा सकता है और जितनी मात्रा में उनसे दूरी बनती जाती है उतनी मात्रा में निर्वाण फलित होता जाता है. निर्वाण का कुल जमा अर्थ 'नि+वाण' है अर्थात दिशाहीन हो जाना. अगर आप किसी विचार या योजना या अतीत या भविष्य का बोध लेकर घूम रहे हैं तो आप 'वाण' की अवस्था में हैं अगर आप अनंत पिछले जन्मों और अनंत अगले जन्मों द्वारा दी गयी दिशा और उससे जुडी मूर्खता को त्याग दें तो आप अभी ही 'निर्वाण' में आ जायेंगे. लेकिन ये धूर्त फाइव स्टार भगवान् और इनके जैसे वेदांती बाबा इतनी सहजता से किसी को मुक्त नहीं होने देते. वे बुद्ध और निर्वाण के दर्शन को भी धार्मिक पाखंड की राजनीति का हथियार बना देते हैं और अपने भोग विलास का इन्तेजाम करते हुए करोड़ों लोगों का जीवन बर्बाद करते रहते हैं.

 बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर इन बातों को गहराई से समझिये और दूसरों तक फैलाइये. एक बात ठीक से नोट कर लीजिये कि भारत में गरीबॉन, दलितों, मजदूरों, स्त्रीयों और आदिवासियों के लिए बुद्ध का अनात्मा का और निरीश्वरवाद का दर्शन बहुत काम का साबित होने वाला है. बुद्ध का निरीश्वरवाद और अनात्मवाद असल में भारत के मौलिक और ऐतिहासिक भौतिकवाद से जन्मा है. ऐसे भौतिकवाद पर आज का पूरा विज्ञान खड़ा है और भविष्य में एक स्वस्थ, नैतिक और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण भी इसी भौतिकवाद की नींव पर होगा. आत्मा इश्वर और पुनर्जन्म जैसी भाववादी या अध्यात्मवादी बकवास को जितनी जल्दी दफन किया जाएगा उतना ही इस देश का और इंसानियत का फायदा होगा.

अब शेष समाज इसे समझे या न समझे, कम से कम भारत के दलितों, आदिवासियों, स्त्रीयों और शूद्रों (ओबीसी) सहित सभी मुक्तिकामियों को इसे समझ लेना चाहिए. इसे समझिये और बुद्ध के मुंह से वेदान्त बुलवाने वाले बाबाओं और उनके शीशों के षड्यंत्रों को हर चौराहे पर नंगा कीजिये. इन बाबाओं के षड्यंत्रकारी सम्मोहन को कम करके मत आंकिये. ये बाबा ही असल में भारत में समाज और सरकार को बनाते बिगाड़ते आये हैं. अगर आप ये बात अब भी नहीं समझते हैं तो आपके लिए और इस समाज के लिए कोई उम्मीद नहीं है. इसलिए आपसे निवेदन है कि बुद्ध को ठीक से समझिये और दूसरों को समझाइये.

~



संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे है


ब्राह्मण -- मै जन्म से श्रेष्ठ हूँ

बुध्द --  कैसे  ?


ब्राह्मण -- क्योंकि मै ब्राह्मण हूँ ।


बुद्ध -- ठीक है, अच्छा एक बात बताइए ,.......आपके घर की महिलाए गर्भवती होती है ?


ब्राह्मण -- हां होती है ।


बुद्ध -- वैसे ही होती है जैसे अन्य महिलाए होती ......या फिर ....?


ब्राह्मण -- हां वैसे ही होती है ।


बुद्ध -- आपकी महिलाओ की गर्भावस्था उतने ही समय की होती है जितने समय की अन्य महिलाओ की होती है ?


ब्राह्मण -- हां उतने ही समय की होती है ।


बुद्ध -- बच्चा पैदा अर्थात प्रसूति भी वैसे ही होती है जैसे अन्य महिलाओ के जरिए होती है ?


ब्राह्मण -- हां वैसे ही होती है ।


बुद्ध -- जब गर्भवती होने का तरीका, गर्भावस्था का समय और बच्चा प्रसूति का भी तरीका ....ये सभी प्रक्रियाएं एक ही समान है तो आप ब्राह्मण अपने आप को किस आधार पर कहते है कि हम ब्राह्मण पैदा होते ही अर्थात जन्म से ही श्रेष्ठ है ......?? ?


बुद्ध के इस प्रश्न का उत्तर ब्राह्मण के पास नही था .....


बुद्ध --  मतलब यह है कि मानव अपने कर्म से श्रेष्ठ है अपने कर्म से ही महान है ना कि जन्म से .....

ब्राह्मण का राज उनके ज्ञान पर नहीं तुम्हारे अज्ञान पर टिका है।
ब्राह्मण तुमसे पेड़ पुजवा सकता है,
पत्थर पुजवा सकता है, धरती, आकाश, जल, अग्नि, वायु, देहरी (चौखट), तस्वीर, लोहा, ईंट, पशु, पक्षी या जो कुछ भी उसे दिखाई दिया। उसने तुमसे खुले आम पुजवा दिया।

और ये सब एक अनपढ़ ब्राह्मण ने आपके पढ़े लिखे IAS, IPS, वक़ील, मजिस्ट्रेट, इंजीनियर, डॉक्टर से करवाया है।

 फिर भी आप कैसे कहते हैं के आप ब्राह्मण के ग़ुलाम नही हैं??
                                                        ब्राह्मणों की कहानी

जब भूकम्प आने वाला हो तो उनको पता नहीं होता ,


जब हुदहुद तूफान आने वाला हो तो पता नहीं होता


जब ट्रेन पलटने वाली या लड़ने  वाली हो तो पता नहीं होता,


जब नोट बदलने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब अपने देश पर हमला होने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब देश अगर मैं नहीं जानता कि विस्फोट के लिए जा रहा है bamma है


जब केदार नाथ बाढ़ मे बह जाने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब भारत की राजधानी में किसी बस में लड़की का रेप होने वाला हो तो पता नहीं होता ,


जब देश मे आतंकवादी घूम रहे होते तो पता नहीं होता,


जब सीमा के सैनिकों का गला कटने वाला हो तो पता नही होता,


जब चारो धाम जाते समय यात्री बस खाई मे गिरने वाला हो तो पता नहीं होता,


जब कोई प्लेन लुप्त होने वाली हो तो पता नहीं होता,


जब बारिस होने पर बिजली कड़कने वाली हो और किसी के ऊपर बिजली गिरने वाली हो तो इन्हें पता नहीं होता।


इनको केवल वह पता होता जो सम्भव नहीं।


जैसे

किसी पर ग्रह नक्षत्र

-दोष ,पिछले जन्म का पाप,


मरने के बाद स्वर्ग दिलाना,


माता-पिता को मरने के बाद बैठाना,


 बच्चे को सत्तईसा में पड़ना


आदि सभी अन्ध विश्वास

मनगढंत बातें।

जिनको पिछले जन्म की

और स्वर्ग की जानकारी हो; वे ये सब क्यों नहीं जानते ?

इसलिए नहीं जानते क्योंकि ये सब देखे जा सकते हैं,


हक़ीकत जाना जा सकता है।



 *(एक आदमी एक मूर्ति के सामने रो रहा था)*

भगवान बुद्ध:- आप पत्थर से बनी मूर्ति से क्या चाहते हो?

भक्त :- सुख!

बुद्ध:- तो दुःख क्यूं नही चाहिये?

भक्त:-(गुस्से में) दुःख है,इसलिये सुख माँग रहा हूँ.

बुद्ध:- क्या तुम सवाल पुछे बगैर जवाब दे सकते हो?

भक्त:- सवाल के बाद जवाब आता है!
बिना सवाल जवाब कैसे दें? 

बुद्ध:- मेरे प्यारे इंसान, तो फिर दुःख के बिना सुख की आशा क्यूँ रखता है?

सुख तब मिलेंगा जब दुःख को तुम संघर्ष और मेहनत से दूर करोगे, 

दुःख , मूर्ति के सामने बैठ कर  और रो कर खत्म नही होता,

बल्कि और बढ़ जाता है,
क्यूँकि पत्थर की चीजें कभी दुःख दूर नही करती हैं. 

क्यूँकि वे निर्जीव है,

तुम सजीव हो, इंसान हो दुःख दूर करने के कई
उपाय है, 

और सुख पाने के भी उपाय है,

मगर वो उपाय सत्य पर आधारित  होना चाहिये,

असत्य के राह पर मिलने वाला हर सुख, दुःख बन जाता है। 

सत्य के राह पर हासिल किया सुख निरंतर और प्रेरणादायी रहता है, 

जब तक अज्ञान है ,तब तक दुःख रहेगा, अज्ञान जाने के बाद दुःख भी नही रहता,

दुःख के बिना सुख अधुरा है, मगर जिसे तुम दुःख समझते हो उसे तुम हरा सकते हो,

भक्त:-कैसे?

बुद्ध :- दुःख एक चीज से पैदा होता है ,वह है तृष्णा,

( लालच,लगाव,अति प्रेम,अति मोह और उन जैसी चीजों को पाने की आशा )
अगर इन तृष्णाओं को आप जीत जाते हैं, तो हर दुःख, सुख के समान हो जाता है,

जो चीज अपनी नहीं है ये जानते हुये भी ,
उसे पाने जाते है ,इसका मतलब,

दुःख आपके पास नही आप दुःख के पास जाते हो, 

इसलिये असत्य राह, पत्थर के भगवान से दुवा मांगने से दुःख दूर नही होता, 

बल्कि अमूल्य समय और मन की शांति चली जाती है,

और इस खूबसूरत दुनिया में तुम उदास बने रहते हो, 

भक्त:- आप कोन हो ?

बुद्ध:- मै एक जागृत इंसान हूँ । 

भक्त:- क्या आपके पास दुःख नही है?
बुद्ध:- दुःख है, मगर मेरे पास तृष्णा नही है.

*जिसके पास, तृष्णा है उसके पास दुःख, चुंबक के तरह चिपके रहता है,* 

*और जिसके पास तृष्णा नही है, उसके आजू बाजू दुःख रहते है मगर उसे छु नही पाते,,*

भक्त:- तो क्या ये पत्थर की मूर्तियाँ मेरी सून रही है?

बुद्ध:- *आप भली भाँति जानते हो,पत्थर एक निर्जीव है, अगर सच मे भगवान कोई होता तो, सामने प्रकट होगा, पत्थर में क्यूँ जायेगा*?

भक्त:- आपका सत्य, वास्तविक सत्य ज्ञान, यह सच है, 

*जो चीज अपनी नहीं है,उसे मेहनत के बगैर पाने कि इच्छा रखना यही दुःख है,*

बुद्ध :- मगर इस दुनिया से बिछुड़ जानेवाली चीजें मेहनत से नही मिलती, 
उस दुःख का अंत उस चीज के साथ होता है,

दुनिया से बिछुडी़ चीजें वापस नही आती उसका दुःख करना मूर्खता के बराबर है,

भक्त,:- मैं मानसिक रोगी हो गया था, वास्तविक सच देखते हुये भी, काल्पनिक विचारों में व्यस्त रहता था, मुझे आपके जैसा जागृत होना है, मैं आपके विचारों की शरण आ गया हूँ !

बुद्ध:- साधू साधू साधू!!!

बौद्ध ज्ञान ही सत्य है,बाकी सब काल्पनिक सोच है,उस काल्पनिक सोच का वास्तविक जीवन से कोई संबंध नहीं है,

मगर बुद्ध ज्ञान जीवन का सत्य मार्ग है,



पोस्ट - 32 - अष्‍टावक्र: महागीता

धर्म से जो तुम अर्थ समझ रहे हो धारणा का, वैसा अर्थ नहीं है। धारणा, कनसेप्ट धर्म नहीं है। धर्म शब्द बना है जिस धातु से, उसका अर्थ है : जिसने सबको धारण किया है; जो सबका धारक है; जिसने सबको धारा है। धारणा नहीं—जिसने सबको धारण किया है।

यह जो विराट, ये जो चांद—तारे, यह जो सूरज, ये जो वृक्ष और पक्षी और मनुष्य, और अनंत— अनंत तक फैला हुआ अस्तित्व है—इसको जो धारे हुए है, वही धर्म है।

धर्म का कोई संबंध धारणा से नहीं है। तुम्हारी धारणा हिंदू की है, किसी की मुसलमान की है, किसी की ईसाई की है—इससे धर्म का कोई संबंध नहीं। ये धारणाएं हैं, ये बुद्धि की धारणाएं हैं। धर्म तो उस मौलिक सत्य का नाम है, जिसने सबको सम्हाला है; जिसके बिना सब बिखर जायेगा; जो सबको जोड़े हुए है; जो सबकी समग्रता है; जो सबका सेतु है—वही!

जैसे हम फूल की माला बनाते हैं। ऐसे फूल का ढेर लगा हो और फूल की माला रखी हो—फर्क क्या है? ढेर अराजक है। उसमें कोई एक फूल का दूसरे फूल से संबंध नहीं है, सब फूल असंबंधित हैं। माला में एक धागा पिरोया। वह धागा दिखायी नहीं पड़ता; वह फूलों में छिपा है। लेकिन एक फूल दूसरे फूल से जुड़ गया।

इस सारे अस्तित्व में जो धागे की तरह पिरोया हुआ है, उसका नाम धर्म है। जो हमें वृक्षों से जोड़े है, चांद—तारों से जोड़े है, जो कंकड़—पत्थरों को सूरज से जोड़े है, जो सबको जोड़े है, जो सबका जोड़ है—वही धर्म है।

धर्म से संस्कृति का निर्माण नहीं होता। संस्कृति तो संस्कार से बनती है। धर्म तो तब पता चलता है जब हम सारे संस्कारों का त्याग कर देते हैं।

हिंदू की संस्कृति अलग है, मुसलमान की संस्कृति अलग है, बौद्ध की संस्कृति अलग है, जैन की संस्कृति अलग है। दुनियां में हजारों संस्कृतियां हैं, क्योंकि हजारों ढंग के संस्कार हैं। कोई पूरब की तरफ बैठकर प्रार्थना करता है, कोई पश्चिम की तरफ मुंह करके प्रार्थना करता है—यह संस्कार है। कोई ऐसे कपड़े पहनता, कोई वैसे कपड़े पहनता; कोई इस तरह का खाना खाता, कोई उस तरह का खाना खाता—ये सब संस्कार हैं।

दुनियां में संस्कृतियां तो रहेंगी—रहनी चाहिए। क्योंकि जितनी विविधता हो उतनी दुनियां सुंदर है। मैं नहीं चाहूंगा कि दुनियां में बस एक संस्कृति हो—बडी बेहूदी, बेरौनक, उबाने वाली होगी। दुनियां में हिंदुओं की संस्कृति होनी चाहिए मुसलमानों की, ईसाइयों की, बौद्धों की, जैनों की, चीनियों की, रूसियों की—हजारो संस्कृतियां होनी चाहिए। क्योंकि वैविध्य जीवन को सुंदर बनाता है। बगीचे में बहुत तरह के फूल होने चाहिए। एक ही तरह के फूल बगीचे को ऊब से भर देंगे।

संस्कृतियां तो अनेक होनी चाहिए—अनेक हैं, अनेक रहेंगी। लेकिन धर्म एक होना चाहिए, क्योंकि धर्म एक है। और कोई उपाय नहीं है।


ओशो: अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–1) प्रवचन–4 (पोस्ट 32)

मंदिर में नारियल क्यो फोड़ा जाता है??

मंदिर में नारियल क्यो फोड़ा जाता है??

मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में चक्रवर्ति सम्राट अशोक के वंशज मोर्य वंश के बौद्ध सम्राट राजा बृहद्रथ मोर्य की हत्या उसी के सेनापति ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने धोखे से की थी और खुद को मगध का राजा घोषित कर लिया था।
उसने राजा बनने पर पाटलिपुत्र से श्यालकोट तक सभी बौद्ध विहारों को ध्वस्त करवा दिया था तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओ का कत्लेआम किया था।
पुष्यमित्र शुंग, बौद्धों पर बहुत अत्याचार करता था और ताकत के बल पर उनसे ब्राह्मणों द्वारा रचित मनुस्मृति अनुसार वर्ण (हिन्दू) धर्म कबूल करवाता था।
इसके बाद ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने अपने समर्थको के साथ मिलकर पाटलिपुत्र और श्यालकोट के मध्य क्षेत्र पर अधिकार किया और अपनी राजधानी साकेत को बनाया।पुष्यमित्र शुंग ने इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया। अयोध्या अर्थात-बिना युद्ध के बनायीं गयी राजधानी...
राजधानी बनाने के बाद पुष्यमित्र शुंग ने घोषणा की कि जो भी व्यक्ति, भगवाधारी बौद्ध भिक्षु का सर(सिर) काट कर लायेगा, उसे 100 सोने की मुद्राएँ इनाम में दी जायेंगी।
इस तरह सोने के सिक्कों के लालच में पूरे देश में बौद्ध भिक्षुओ का कत्लेआम हुआ।
राजधानी में बौद्ध भिक्षुओ के सर आने लगे।
इसके बाद कुछ चालक व्यक्ति अपने लाये सर को चुरा लेते थे और उसी सर को दुबारा राजा को दिखाकर स्वर्ण मुद्राए ले लेते थे।
राजा को पता चला कि लोग ऐसा धोखा भी कर रहे है तो राजा ने एक बड़ा पत्थर रखवाया और राजा,
बौद्ध भिक्षु का सर देखकर उस पत्थर पर मरवाकर उसका चेहरा बिगाड़ देता था।
इसके बाद बौद्ध भिक्षु के सर को घाघरा नदी में फेंकवा दता था।
राजधानी अयोध्या में बौद्ध भिक्षुओ के इतने सर आ गये कि कटे हुये सरों से युक्त नदी का नाम सरयुक्त अर्थात "सरयू" हो गया।
इसी "सरयू" नदी के तट पर पुष्यमित्र शुंग के राजकवि वाल्मीकि ब्रम्हाण ने "रामायण" लिखी थी।
जिसमें राम के रूप में पुष्यमित्र शुंग और रावण के रूप में मौर्य सम्राट का वर्णन करते हुए उसकी राजधानी अयोध्या का गुणगान किया था और राजा से बहुत अधिक पुरुष्कार पाया था।
इतना ही नहीं, रामायण, महाभारत, स्मृतियां आदि बहुत से काल्पनिक ब्राह्मण धर्मग्रन्थों की रचना भी पुष्यमित्र शुंग की इसी अयोध्या में "सरयू" नदी के किनारे हुई।
बौद्ध भिक्षुओ के कत्लेआम के कारण सारे बौद्ध विहार खाली हो गए।
तब आर्य ब्राह्मणों ने सोचा' कि इन बौद्ध विहारों का क्या करे की आने वाली पीढ़ियों को कभी पता ही नही लगे कि बीते वर्षो में यह क्या थे?
तब उन्होंने इन सब बौद्ध विहारों को मन्दिरो में बदल दिया और इसमे अपने पूर्वजो व काल्पनिक पात्रो को भगवान बनाकर स्थापित कर दिया और पूजा के नाम पर यह दुकाने खोल दी।
ध्यान रहे उक्त ब्रह्दथ मोर्य की हत्या से पूर्व भारत में मन्दिर शब्द ही नही था ना ही इस तरह की संस्क्रति थी।वर्तमान में ब्राह्मण धर्म में पत्थर पर मारकर नारियल फोड़ने की परंपरा है ये परम्परा पुष्यमित्र शुंग के बौद्ध भिक्षु के सर को पत्थर पर मारने का प्रतीक है।
पेरियार रामास्वामी नायकर ने भी "सच्ची रामायण" पुस्तक लिखी जिसका इलाहबाद हाई कोर्ट केस नम्बर 412/1970 में वर्ष 1970-1971 व् सुप्रीम कोर्ट 1971 -1976 के बिच में केस अपील नम्बर 291/1971 चला।
जिसमे सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस पी एन भगवती जस्टिस वी आर कृषणा अय्यर, जस्टिस मुतजा फाजिल अली ने दिनाक 16.9.1976 को निर्णय दिया की सच्ची रामायण पुस्तक सही है और इसके सारे तथ्य वेध है।
सच्ची रामायण पुस्तक यह सिद्ध करती है कि "रामायण नामक देश में जितने भी ग्रन्थ है वे सभी काल्पनिक है और इनका पुरातातविक कोई आधार नही है।
अथार्त् फर्जी है।

*ब्राह्मणवाद :---*
*********

(1) ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा है, जिसमे ब्राह्मणों को ही श्रेष्ठ माना जाता है, और उन्हें ही व्यवस्था में सबसे ऊँचे पद दिए जाते हैं ।

(2) आज तक शंकराचार्य सिर्फ ब्राह्मणों  को ही बनाया जाता रहा है, चाहे दूसरी जातियों के  ब्राह्मणों से ज्यादा योग्य व्यक्ति उपलब्ध हों ।

(3) हिंदुओं के सारे धर्म  ग्रन्थ घूम फिरकर ब्राह्मणवाद को ही मज़बूत करते हैं । हिंदुओं का एक भी धर्म ग्रन्थ ऐसा नही है, जिसमे SC, ST और OBC को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ माना गया हो ।

(4) ब्राह्मणवाद का इतना ज्यादा असर रहा है, कि अक्सर राजा भी ब्राह्मणों के चरण छूते रहे हैं और ब्राह्मणों की आज्ञाओं का पालन करते रहे हैं ।

(5) आरएसएस और बीजेपी के बड़े बड़े नेता तो आज भी शंकराचार्य के चरण छूते हैं, क्योंकि शंकराचार्य ब्राह्मण है ।

(6) बल्कि कभी कभी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश और बड़े बड़े अफसर भी शंकराचार्य के आगे झुकते या चरण छूते पाये गए हैं, क्योंकि शंकराचार्य ब्राह्मण है ।

(7) ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था पूरी तरह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, और एक दूसरे की रक्षा करते हैं ।
   बल्कि गोत्र व्यवस्था और ज्योतिषशास्त्र भी किसी ना किसी तरह से ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था को ही मज़बूत करते रहे हैं ।

(8) ब्राह्मणवाद एक बेहद खतरनाक बीमारी है और इसने भारत की जड़ों को अक्सर कमज़ोर किया है तथा भारत के वैज्ञानिक विकास में बाधा पैदा की है ।
   सामान्यतः नामकरण, विवाह मुहूर्त, जन्मकुंडली जैसी बातें ब्राह्मणों द्वारा ही निर्धारित की जाती रही हैं, जो कि पूरी तरह कपोल कल्पित ज्ञान पर आधारित हैं और अंधविश्वास को बढाती हैं ।

(9) राहु केतु, मंगल गृह की दशा, शनि गृह की दशा, आदि बातों के कारण भी भारत के वैज्ञानिक विकास में रुकावटें पैदा हुई हैं और हिन्दू लोग अंधविश्वासों, कर्मकांडों में उलझे हैं ।

(10) बाबा साहेब आंबेडकर हर मामले में पण्डित जवाहर लाल नेहरू से कई गुना महान थे, लेकिन प्रधानमन्त्री नेहरू को ही बनाया गया, क्योंकि वो ब्राह्मण थे ।

(11) बल्कि भारत की ब्राह्मणवादी और सामन्तवादी ताकतों ने तो बाबा साहेब  अम्बेडकर के रास्ते में काफी सारी बाधाएं पैदा कर दी थीं, और उन्हें कानून मंत्री भी काफी मुश्किल से बनने दिया था ।

(12) अगर पण्डित जवाहर लाल नेहरू की बजाय बाबा साहेब आंबेडकर को प्रधानमन्त्री बनाया गया होता, तो भारत आज चीन से काफी आगे होता, और भारत की सारी समस्याएं खत्म हो चुकी होतीं, क्योंकि बाबा साहेब आंबेडकर तो पण्डित जवाहर लाल नेहरू से हर मामले में  कई गुना ज्यादा काबिल थे ।

लेकिन ब्राह्मणवाद को बचाने के चक्कर में भारत की सामन्तवादी, पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी ताकतों ने पण्डित नेहरू को ही प्रधानमन्त्री बनाया ।

(13) आज नतीज़ा यह है, कि भारत अब जापान, कोरिया, इटली, जर्मनी जैसे छोटे छोटे देशों से भी पिछड़ गया है ।

(14) जब तक भारत से  ब्राह्मणवाद, जाति व्यवस्था, पाखण्ड, अंधविश्वास, धार्मिक नफ़रत और हरामखोरी को खत्म नही किया जाएगा, तब तक भारत एक महाशक्ति नही बन सकता ।


*डीएनए रिपोर्ट में वैदिक ब्राह्मण विदेशी*
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अब तक वैदिक ब्राह्मणी साहित्य, काल्पनिक ग्रंथ, तथा वैदिक ब्राह्मणों का शुद्रो व अछूतो के प्रति व्यबहार से सिद्ध हो गया कि भारत मे रहने बाले लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का पूर्वज एक नही है। परंतु झूठ को सत्य बनाने में वैदिक ब्राह्मण को महारथ हासिल है। इसका मानना है कि एक झूठ को हजार बार बोलो तो वह सत्य जैसा लगता है। वैदिक ब्राह्मण झूठ बोलता है, झूठ लिखता है औए झूठ का प्रचार भी करता है। यह अपने झूठ को मरते दम तक सत्य बोलते रहेगा। सत्य का प्रमाण होता है ये लोग प्रमाण नही दे पाता है तो बोलेगा आस्था का मामला है। 100% झूठा बात को सत्य बोलते रहेगा। उदाहरण के लिए लिखा है। हनुमान चालीसा का एक पद लेते है।
बाल समय रवि भक्ष लियो तो।
तिनहू लोक भयो अँधियारो।।
   अर्थ हुआ बचपन मे हनुमान जी सूर्य को निगल गये तो तीनों लोक में अंधेरा छा गया था। आप सोचो सूर्य को एक बालक कैसे निगल सकता है। आदि आदि। उसी तरह वैदिक ब्राह्मण अभी कहते नही थकता की भारत मे कोई बाहर से नही आया या ये कहेगा कि भारत मे सभी बाहर से आया सिर्फ आदिवासी छोड़ कर कारण आदिवासी तो प्रतिकार नही कर सकता है। परंतु तथागत भगवान बुद्ध ने कहे है तीन चीज कभी छुपती नही है ।सूरज, चाँद व सत्य। जो डीएनए टेस्ट से सामने आ गया है। इसे वैदिक ब्राह्मण झुठला नही सकता है। यह टेस्ट वैदिक ब्राह्मणों के ताबूत का अंतिम कील सावित हुआ है, जिसे नकारना वैदिक ब्राह्नणों के बस की बात नही अब सारी दुनिया मे एक्सपोज हो गया है।

1 मई, 2001 को अख़बार “TIMES OF INDIA” में भारत के लोगों के DNA से सम्बंधित शोध रिपोर्ट छपी
भारत के ब्राह्मण, क्षत्रिय औऱ वैश्य भारत के मूलनिवासी नही, ये विदेशी यूरेशियन लोग है।

 लेकिन मातृभाषा या हिंदी अखबारों में यह बात क्यों नहीं छापी गयी? क्योकि इंग्लिश अखबार ज्यादातर विदेशी लोग यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लोग ही पढ़ते है।  विदेशी यूरेशियन जानकारी के बारे में अतिसंवेदनशील लोग है और अपने लोगो को बाख़बर करना चाहते थे, ये इसके पीछे मकसद था। मूलनिवासी लोगो को यूरेशियन सच से अनजान बनाये रखना चाहते है। 

THE HIDE AND THE
HIGHLIGHT TWO POINT PROGRAM. 

 सुचना शक्ति का स्तोत्र होता है।

यूरोपियन लोगो को हजारों सालों से भारत के लोगो, परम्पराओं और प्रथाओं में बहुत ज्यादा दिलचस्पी है। क्योकि यहाँ जिस प्रकार की धर्मव्यवस्था, वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, अस्पृश्यता, रीति-रिवाज, पाखंड और आडम्बर पर आधारित धर्म परम्पराए है, उनका मिलन दुनिया के किसी भी दूसरे देश से नहीं होता। इसी कारण यूरोपियन लोग भारत के लोगों के बारे ज्यादा से ज्यादा जानने के लिए भारत के लोगों और धर्म आदि पर शोध करते रहते है। 

यही कुछ कारण है जिसके कारण विदेशियों के मन में भारत को लेकर बहुत जिज्ञासा है। इन सभी “व्यवस्थाओं के पीछे मूल कारण क्या है ”इसी बात पर विदेशों में बड़े पैमाने पर शोध हो रहे है। मुश्किल से मुश्किल हालातों में भी विदेशी भारत में स्थापित ब्राह्मणवाद को उजागर करने में लगे हुए है। 
  आज कल बहुत से भारतीय छात्र भी इन सभी व्यवस्थों पर बहुत सी विदेशी संस्थाओं और विद्यालयों में शोध कर रहे है।

अमेरिका के उताह विश्वविद्यालय वाशिंगटन में माइकल बामशाद नाम के आदमी ने जो BIOTECHNOLOGY DEPARTMENT का HOD ने भारत के लोगों के DNA परीक्षण का प्रोजेक्ट तैयार किया था। बामशाद ने प्रोजेक्ट तो शुरू कर दिया, लेकिन उसे लगा भारत के लोग इस प्रोजेक्ट के निष्कर्ष (RESULT REPORT) को स्वीकार नहीं करेंगे या उसके शोध को मान्यता नहीं देंगे। इसलिए माईकल ने एक रास्ता निकला।
    माईकल ने भारत के वैज्ञानिकों को भी अपने शोध में शामिल कर लिया ताकि DNA परिक्षण पर जो शोध हो रहा है वो पूर्णत पारदर्शी और प्रमाणित हो और भारत के लोग इस शोध के परिणाम को स्वीकार भी कर ले। 
   इसलिए मद्रास, विशाखापटनम में स्थित BIOLOGUCAL DEPARTMENT, भारत सरकार मानववंश शास्त्र – ENTHROPOLOGY के लोगों को भी माइकल ने इस शोध परिक्षण में शामिल कर लिया। यह एक सांझा शोध परीक्षण था जो यूरोपियन और भारत के वैज्ञानिको ने मिल कर करना था। उन भारतीय और यूरोपियन वैज्ञानिकों ने मिलकर शोध किया। ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों के डीएनए का नमूना लेकर सारी दुनिया के आदमियों के डीएनए के सिद्धांत के आधार पर, सभी जाति और धर्म के लोगों के डीएनए के साथ परिक्षण किया गया।

  यूरेशिया प्रांत में मोरूवा समूह है, रूस के पास काला सागर नमक क्षेत्र के पास, अस्किमोझी भागौलिक क्षेत्र में, मोरू नाम की जाति के लोगों का DNA भारत में रहने वाले ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों से मिला। इस शोध से ये प्रमाणित हो गया कि ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य भारत के मूलनिवासी नहीं है।

 महिलाओं में पाए जाने वाले MITICONDRIYAL DNA(जो हजारों सालों में सिर्फ महिलाओं से महिलाओं में ट्रान्सफर होता है) पर हुए परीक्षण के आधार पर यह भी साबित हुआ कि भारतीय महिलाओं का DNA किसी भी विदेशी महिलाओं की जाति से मेल नहीं खाता। भारत के सभी महिलाओं एस सी, एस टी, ओबीसी, ब्राह्मणों की औरतों, राजपूतों की महिलाओं और वैश्यों की औरतों का DNA एक है और 100% आपस में मिलता है। वैदिक धर्मशास्त्रों में भी कहा गया है कि औरतों की कोई जाति या धर्म नहीं होता। यह बात भी इस शोध से सामने आ गई कि जब सभी महिलाओं का DNA एक है तो इसी आधार पर यह बात वैदिक धर्मशास्त्रों में कही गई होगी। अब इस शोध के द्वारा इस बात का वैज्ञानिक प्रमाण भी मिल गया है। सारी दुनिया के साथ-साथ भारतीय उच्चतम न्यायलय ने भी इस शोध को मान्यता दी। क्योकि यह प्रमाणित हो चूका है कि किसका कितना DNA युरेशियनों के साथ मिला है:

ब्राह्मणों का DNA 99.99% युरेशियनों के साथ मिलता है।

राजपूतों(क्षत्रियों) का DNA 99.88% युरेशियनों के साथ मिलता है।

और वैश्य जाति के लोगों का DNA 99.86% युरेशियनों के साथ मिलता है।

राजीव दीक्षित नाम का ब्राह्मण (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर) ने एक किताब लिखी। उसका पूना में एक चाचा, जो जोशी(ब्राह्मण) है, ने वो किताब भारतमें प्रकाशित की, में भी लिखा है “ब्राह्मण, राजपूत और वैश्यों का DNA रूस में, काला सागर के पास यूरेशिया नामक स्थान पर पाई जाने वाली मोरू जाति और यहूदी जाति (ज्यूज – हिटलर ने जिसको मारा था) के लोगों से मिलता है। 
  राजिव दीक्षित ने ऐसा क्यों किया ? ताकि अमेरिकन लोग भारत के ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य जाति के लोगों को अमेरिका में एशियन ना कहे। राजीव दीक्षित ने बामशाद के शोध को आधार बनाकर यूरेशिया कहाँ है ये भी बता दिया था। राजीव दीक्षित एक महान संशोधक था और वास्तव में भारत रत्न का हक़दार था।

*DNA परिक्षण की जरुरत क्यों पड़ी ?*

संस्कृत और रूस की भाषा में हजारों ऐसे शब्द है जो एक जैसे है। यह बात पुरातत्व विभाग, मानववंश शास्त्र विभाग, भाषाशास्त्र विभाग आदि ने भी सिद्ध की, लेकिन फिर भी ब्राह्मणों ने इस बात को नहीं माना जोकि सच थी। 

ब्राहमण भ्रांतियां पैदा करने में बहुत माहिर है, पूरी दुनिया में ब्राह्मणों का इस मामले में कोई मुकाबला नहीं है। इसीलिए DNA के आधार पर शोध हुआ। ब्राह्मणों का DNA प्रमाणित होने के बाद उन्होंने सोचा कि अगर हम इस बात का विरोध करेंगे तो दुनिया में हम लोग बेवकूफ साबित हो जायेंगे। 
   तथ्यों पर दोनों तरफ से चर्चा होने वाली थी इसीलिए ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य लोगों ने चुप रहने का निर्णय लिया। “ब्राह्मण जब ज्यादा बोलता है तो खतरा है, ब्राह्मण जब मीठा बोलता है तो खतरा बहुत नजदीक पहुँच गया है और जब ब्राह्मण बिलकुल नहीं बोलता। एक दम चुप हो जाता है तो भी खतरा है।“ 

ITS CONSPIRACY OF SILENCE- DR. B.R. AMBEDKAR अगर ब्राह्मण चुप है और कुछ छुपा रहा है तो हमे जोर से बोलना चाहिए।

    इस शोध का परिणाम यह हुआ कि अब हमे अपना इतिहास नए सिरे से लिखना होगा। जो भी आज तक लिखा गया है वो सब ब्राह्मणों ने झूठ और अनुमानों पर आधारित लिखा है। अब अगर DNA को आधार पर विश्लेषण किया जाये, और इतिहास फिर से ना लिखा जाये तो दुनिया ब्राह्मणों को BACKWARD HISTORIAN कहेंगे। 

DNA पीढ़ी दर पीढ़ी बिना किसी बदलाव के स्थानांतरित होता रहता है। आक्रमणकारी लोग हमेशा अल्पसंख्यक होते है और वहां की प्रजा बहुसंख्यक होती है। जब भी अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की बात आती है तो आक्रमणकारी लोगों के मन में बहुसंख्यकों के प्रति हीन भावना का विकास होता है। इसीलिए ब्राह्मणों के मन में मूलनिवासियों के प्रति हीन भावना का विकास हुआ। 
  
 युद्ध में हारे हुए लोगों को गुलाम बनाना एक बात है, लेकिन गुलामों को हमेशा के लिए गुलाम बनाये रखना दूसरी बात है। यह समस्या ब्राह्मणों के सामने थी।

ऋग्वेद में ब्राह्मणों को देव और मूलनिवासियों को असुर, राक्षस, शुद्र, दैत्य या दानव कहा गया है यह बात प्रमाणित है और इस बात के बहुत से सबुत भी है। भारत के बहुत से लेखकों ने इस बात को कई बार प्रमाणित किया है। 

यहाँ तक डॉ भीम राव अम्बेडकर ने भी अपनी किताबों में इस बात को प्रमाणित किया है। एक सबुत यह भी है कि देव अब ब्राह्मण कैसे हो गये? दीर्घकाल तक मूलनिवासियों को गुलाम बनाने के लिए ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था स्थापित की। 

मूलनिवासियों को शुद्र घोषित किया गया। क्रमिक असमानता में ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों को अधिकार प्राप्त है, मूलनिवासी शूद्रों को कोई अधिकार नहीं दिया गया। मूलनिवासियों को भी अधिकार होना चाहिए था मगर उनको शुद्र बना कर सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया। 

ऐसा क्यों किया गया? खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए, ताकि मूलनिवासी हमेशा शुद्र बने रहे और बिना किसी युद्ध के ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों के गुलाम बने रहे।

ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य अगर एक है तो उन्होंने अपनों को तीन हिस्सों में क्यों बंटा? मूलनिवासियों को हमेशा के लिए गुलाम बनाने के लिए व्यवस्था बनाना जरुरी था। संस्कृत में वर्ण का अर्थ होता है रंग।

 तो वर्णव्यवस्था का अर्थ है रंगव्यवस्था। संस्कृत के शब्दकोष में आपको आज भी वर्ण का अर्थ रंग ही मिलेगा। ये रंगव्यवस्था/वर्णव्यवस्था क्यों? क्योकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का रंग तो एक ही है। 

इसीलिए रंगव्यवस्था में ये तीनों वर्ण अधिकार सम्पन है। चौथे रंग का आदमी उनके रंग का नहीं है। इसीलिए अधिकार वंचित है। DNA की वजह से विश्लेषण करना संभव है। नस्लीय भेदभाव की विचारधारा का नाम ही ब्राह्मणवाद है। वर्णव्यवस्था के द्वारा ही गुलाम बनाना और दीर्घ काल तक गुलाम बनाये रखना ब्राह्मणों के लिए संभव हो पाया।

ब्राह्मणों ने सभी धर्मशास्त्रों में महिलाओं को शुद्र क्यों घोषित किया? ये आज तक का सबसे मुश्किल सवाल था, ब्राह्मणों ने अपनी माँ, बहन, बेटी और पत्नी तक को शुद्र घोषित कर रखा है। 

DNA में MITOCONDRIVAL DNA के आधार पर ये सच सामने आया कि भारत की सभी महिलाओं का DNA 100% एक है और भारत की महिलाओं का DNA किसी भी विदेशी महिला के DNA से नहीं मिलाता। 

इस से साबित हो जाता है कि भारत की सभी महिलाये मूलनिवासी है, इसीलिए ब्राह्मणों ने अपनी माँ, बहन, बेटी और पत्नी तक को शुद्र घोषित कर रखा है। ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य जानते है कि उन्होंने केवल प्रजनन के लिए महिलाओं का उपयोग किया है। 

इसीलिए भी अपनी माँ, बेटी और बहन को शुद्र घोषित कर रखा है। ब्राह्मण हमेशा शुद्धता की बात करता है। ब्राह्मण जानता है कि आदमी का DNA सिर्फ आदमी में स्थानांतरित होता है, इसीलिए ब्रहामण स्त्री को पाप योनी मानता है।

क्योकि वो उनकी कभी थी ही नहीं DNA और धर्मशास्त्र दोनों के आधार पर ये बात सिद्ध की जा सकती है। इससे ये भी साबित हुआ कि आर्य ब्राह्मण स्थानांतरित नहीं हुए, आर्य आक्रमण करने के उद्देश्य से भारत में आये थे। 

क्योकि जो आक्रमण करने आते है वो अपनी महिलाओं को कभी अपने साथ नहीं लाते। ऐसी उस समय की मान्यता थी इसीलिए आज भी आर्यों का स्वाभाव आज तक वैसा ही बना हुआ है।

बुद्ध ने वर्णव्यवस्था को समाप्त किया। हमारे गुलामी के विरोघ में लड़ाने वाला सबसे पुराना और बड़ा पूर्वज था। इसका मतलब ये है कि वर्णव्यवस्था बुद्ध के काल में भी थी। यह बात प्रामाणिक है कि इस जन आंदोलन में बुद्ध को मूलनिवासियों ने ही सबसे जयादा जन समर्थन दिया। 

जैसे ही वर्णव्यवस्था ध्वस्त हुई तो चतुसूत्री पर आधारित नई समाज रचना का निर्माण हुआ। उसमें समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय पर आधारित समाज की व्यवस्था की गई।

इस क्रांति के बाद प्रतिक्रांति हुई, जो पुष्यमित्र शुंग(राम) ने बृहदत की हत्या करके की। वाल्मीकि शुंग दरबार का राजकवि था और उसने पुष्यमित्र शुंग और बृहदत को सामने रख कर ही रामायण लिखी। इसका सबूत “वाल्मीकि रामायण” में है। 

बृहदत की हत्या पाटलिपुत्र में हुई थी, पुष्यमित्र शुंग की राजधानी अयोध्या में थी। रामायण के अनुसार राम की राजधानी भी अयोध्या में थी। पुरातात्विक प्रमाण है, कोई भी राजा अपनी राजधानी का निर्माण करता है तो उस जगह को युद्ध में जीतता है, फिर अपनी राजधानी बनाता है।

 मगर अयोध्या युद्ध में जीत गई राजधानी नहीं थी। इसिलए उसका नाम रखा गया अयोध्या अर्थात अ+योद्ध्या; युद्ध में ना जीत गई राजधानी। पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध यज्ञ किया, रामायण में राम ने भी अश्वमेध यज्ञ किया।

पुष्यमित्र ने जो प्रतिक्रांति की इसके बाद भारत में जाति व्यवस्था को स्थापित किया गया। पहले गुलाम बनाने के लिए वर्णव्यवस्था और प्रतिक्रांति के बाद मूलनिवासी हमेशा गुलाम बने रहे, उसके लिए जाति व्यवस्था का निर्माण किया गया। 

मूलनिवासियों का प्रतिकार हमेशा के लिए खत्म करने के लिए विदेशी आर्यों ने योजना बना कर सभी मूलनिवासियों को अलग अलग 6743 जातियों में बाँट दिया। जिससे मूलनिवासियों में एक मानसिक स्थिति पैदा हो गई कि हम प्रतिकार करने योग्य नहीं रह गये। गुलामों में ही ऐसी मानसिक स्थिति होती है।

ब्राह्मणों ने जातिव्यवस्था को क्रमिक असमानता पर खड़ा किया गया। असमान लोग एक होने चाहिए थे लेकिन ब्राह्मणों ने असमान लोगों को भी क्रमिक असमानता में विभाजित किया। प्रतिकार अंदर ही अंदर होता है। लेकिन जिसने गुलामी लादी उसका प्रतिकार करने का ख्याल भी मन में नहीं आता क्योकि ब्राह्मणों ने मूलनिवासियों में जाति पर आधारित लड़ाईयां करवाना शुरू कर दिया।

जिससे मूलनिवासी आपस में ही लड़ने लगे और उन्होंने असली गुलामी लादने वाले का प्रतिकार करना बंद कर दिया। DNA शोध सिद्ध करता है कि जाति/वर्ण व्यवस्था का निर्माणकर्ता ब्राह्मण है उसने सभी को विभाजित किया लेकिन खुद को कभी विभाजित नहीं होने दिया।

जाति के साथ ब्राह्मणों की सर्वोच्चता जुडी हुई है। इसलिए ब्राह्मणों के सामने हमेशा संकट खड़ा रहा कि इस व्यवस्था को कैसे कायम रखा जाये। जाति प्रथा को बनाये रखने के लिए ब्राह्मणों ने निम्न परम्पराओं और प्रथाओं का विकास किया;

कन्यादान परम्परा – कन्या कोई वस्तु नहीं है जिसका दान किया जाये। लेकिन ब्राह्मणों ने बड़ी चालाकी के साथ धर्म का प्रयोग करते हुए, ऐसी व्यवस्था बनाई कि जब कन्या शादी योग्य हो जाये तो उसकी शादी की जिमेवारी माँ-बाप की होगी। माँ-बाप कन्या की शादी ब्राह्मणों द्वारा स्थापित “ब्राह्मण सामाजिक व्यवस्था” के अनुसार ही करेंगे। 

अगर लडकी जाति से बाहर अपनी पसंद से शादी करेगी तो जाति व्यवस्था समाप्त हो जायेगी और ब्राह्मणों की सर्वोच्चता समाप्त हो जायेगी। ऐसे तो मूलनिवासियों की गुलामी समाप्त हो जायेगी, ये नहीं होना चाहिए इसीलिए “ब्राह्मण सामाजिक व्यवस्था” स्थापित करके कन्यादान की प्रणाली विकसित की गई।

बाल विवाह प्रथा – लडकी विवाह योग्य होने पर अपनी पसंद से शादी कर सकती है और उस से जातिव्यवस्था समाप्त हो सकती है तो उसके लिए बालविवाह व्यवस्था को स्थापित किया गया। ताकि बचपन में ही लडकी की शादी कर दी जाये। 

क्योकि माँ-बाप तो अपनी ही जाति में लडकी की शादी करवाएंगे और मूलनिवासी गुलाम के गुलाम ही बने रहेंगे। ज्यादा जानकारी के लिए CAST IN INDIA और ANHILATION OF CASTE किताबे पढ़े, जो डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने लिखी है।

विधवा विवाह प्रथा – विधवा विवाह निषेध कर दिया गया। अगर कोई विधवा किसी विवाह योग्य लडके से शादी कर लेती है तो समाज में एक लड़का कम हो जायेगा, और जिस लडकी के लिए लड़का कम होगा वो लडकी जाति से बाहर जा कर शादी कर सकती है। इससे भी जाति प्रथा को खतरा था तो विधवा विवाह भी निषेध कर दिया गया था। 

जाति अंतर्गत विवाह जाति बनाये रखने का सूत्र है और जाति व्यवस्था वनाये रखने के लिए महिलाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए विधवाओं पर मन मने अत्याचार होते थे। ब्राह्मणों ने देखा कि विधवा को टिकाये रखना संभव नहीं है तो विधवाओं के लिए नए क़ानून बनाये गये। विधवा सुन्दर नहीं दिखनी चाहिए इसलिए उनके बाल काट दिए जाते थे। 

कोई उनकी ओर आकर्षित ना हो जाये इसलिए उनको साफ़ सफाई से रहने का अधिकार नहीं था। ताकि कोई उनके साथ शादी करने को तैयार ना हो जाये। यानी किसी भी स्थिति में जातिव्यवस्था बनी रहनी चाहिए।

सतीप्रथा – ब्राह्मणों ने विधवा औरतों से निपटने और जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए दूसरा रास्ता सती प्रथा निकला। धर्म के नाम पर औरतों में गौरव भाव का निर्माण किया। जैसे कि मरने वाली स्त्री सचे चरित्र, पतिव्रता और पवित्र है इसीलिए सती है। 

जो स्त्री सची है उसे अपने पति की चिता में जिन्दा जल जाना चाहिए। स्त्रियों में गौरव की भावना का निर्माण करने के लिए बडसावित्री नाम की प्रथा को जन्म दिया गया। ब्राह्मणों ने जितने भी घटिया काम किये उन पर गर्व किया। और महिलाये बिना सच को जाने अपनी जान देती रही।

बडसावित्री संस्कार भी बहुत योजनाबढ तरीके से बनाया गया है। इस में औरत हाथ में धागा लेकर चक्कर कटती है और कहती है “यही पति मुझे अगले सात जन्मों तक मिलाना चाहिए, यह शराबी है, मुझे मारता पिटता है, मेरे पर अत्याचार करता है, फिर भी मुझे यही पति मिलाना चाहिए।“ यह ब्राह्मणों का एक बहुत गहरा षड्यंत्र है, यह त्यौहार हर साल आता है।

 हर साल स्त्रियों के मन में यह संस्कार डाला जाता है। यही पति तुम को मिलाने वाला है और कोई नहीं मिलेगा और अगर तुम जिन्दा रहती हो तो जब तक  में बहुत देरी हो जायेगी। अगर तुम अपने पति के साथ चिता पर मर जोगी तो एक ही तारीख में, एक ही समय में, एक साथ पैदा हो जाओगी, पुनर्जन्म हो जायेगा। फिर दोनों का मिलन भी हो जायेगा। 

ब्राह्मणों ने यह योजना जाति व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बनाई। जैसे कोई चोर यह नहीं कहता कि में चोर हूँ; यही हाल ब्राह्मणों का है। जन्म जन्म का काल्पनिक सिद्धांत बना कर स्त्रियों पर मन चाहे अत्याचार किये गये ताकि जातिव्यवस्था बनी रहे।

क्रमिक असमानता – जाति बंधन डालने के बाद उसे बनाये रखना संभव नहीं था। गुलाम को गुलाम बनाये रखने के लिए हर किसी के ऊपर किसी को रखना ही इस समस्या का समाधान था। सारे मूलनिवासी आपस में लड़ते रहे, मूलनिवासी कभी ब्राह्मणों के खिलाफ खड़े ना हो जाये। इसीलिए ब्राह्मणों ने मूलनिवासियों को ऊँची और नीची जातियों में बाँट दिया। उंच नीच की भावना मानवता की भावना को खत्म कर देती है। 

इसीलिए ब्राह्मणों ने क्रमिक असमानता के साथ जाति व्यवस्था का निर्माण किया है। और आज भी हर मूलनिवासी जाति और धर्म के नाम पर लड़ता रहता है और ब्राह्मण मज़े से तमाशा देख कर हँसता है।

अस्पृश्यता – जातिव्यवस्था बुद्ध पूर्व काल में नहीं थी इसीलिए उस समय के साहित्य में जाति या वर्ण व्यवस्था का वर्णन नहीं आता। इसीलिए यह भ्रान्ति फैली हुई है जिन बौद्धों ने ब्राह्मण धर्म का अनुसरण किया, और ब्राह्मणों ने जिन बौद्धों को अपना लिया वो आज के समय में ओबीसी में आते है। 

उन पर आज भी ब्राह्मणों का प्रभाव है जिसके कारण ओबीसी में आने वाले लोग दूसरे मूलनिवासियों से अपने आप को उच्च समझते है। ओबीसी भी पुष्यमित्र शुंग की प्रतिक्रांति के बाद बनाया गया मूलनिवासी लोगों का समूह है।

सिंधु घाटी की सभ्यता पैदा करने वाले भारतीय लोगो से इतनी बड़ी महान सभ्यता कैसे नष्ट हुई,जो 4500-5000 ईसा पूर्व से स्थापित थी?ये इंग्रेजो ने पूछा था, एक अंग्रेज अफसर को इस का शोध करने के लिए भी बोला गया था। 

बाद में इसके शोध को राघवन और एक संशोधक ने शुरू किया। पत्थर और ईंटों के परिक्षण में पता चला कि ये संस्कृति अपने आप नहीं मिटी थी। बल्कि सिंधु घटी की सभ्यता को मिटाया गया था। दक्षिण राज्य केरल में हडप्पा और मोहनजोदड़ों 429 अवशेष मिले। ब्राम्हण भारत में ईसा पूर्व 1600-1500 शताब्दी पूर्व आया।

ऋग्वेद में इंद्र के संदर्भ में 250 श्लोक आतें हैं। ब्राह्मणों के नायक इन्द्र पर लिखे सभी श्लोकों में यह बार बार आता है कि “हे इंद्र उन असुरों के दुर्ग को गिराओं” “उन असुरों(बहुजनों) की सभ्यता को नष्ट करो”। ये धर्मशास्त्र नहीं बल्कि ब्रहामणों के अपराधों से भरेदस्तावेज हैं।

भाषाशास्त्र के आधार पर ग्रिअरसन ने भी ये सिद्ध किया की अलग-अलग राज्यों में जो भाषा बोली जाती हैं,वो सारी भाषाओँ का स्त्रोतपाली है।

DNA के परिक्षण से प्राप्त हुआ सबूतनिर्विवाद और निर्णायक है। क्योकि वो किसी तर्क या दलील पर खड़ा नहीं किया गया है। इस शोध को विज्ञान के द्वारा कभी भी प्रमाणित किया जा सकता है। विज्ञान कोई जाति या धर्म नहीं है। इस शोध को करने वाले पूरी दुनिया से 265 लोग थे। बामशाद का यह शोध 21 मई 2001 के TIMES OF INDIA में NATURE नामक पेज पर छपा, जो दुनिया का सबसे ज्यादा वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त अंक है।

बाबासाहब आंबेडकर की उम्र सिर्फ 22 साल थी जब उन्होंने विश्व का जाति का मूलक्या है, इसकी खोज की थी।  और 2001 में जो DNA परिक्षणहुआ था, बाबासाहब का और माइकल बामशाद का मत एक ही निकला था।

ब्राम्हण सारी दुनिया के सामने पुरे बेनकाब हो चुके थे। फिर भी ब्राह्मणों ने अपनी असलियत को छुपाने के लिए अपनी ब्रह्माणी सिद्धांत को अपनाया और ऐसा प्रचारित किया कि भारत में दक्षिणी ब्राह्मण दो नस्लों के होते है। 

ब्राह्मणों ने DNA के परिक्षण को पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया और एक और झूठ मीडिया द्वारा प्रचारित करना शुरू कर दिया कि अब कोई मूलनिवासी नहीं है सभी लोग संमिश्र हो चुके है। उन्होंने कहा मापदंड ढूंढा? 

ब्राह्मणों ने दलील देकर कहा कि अन्डोमान और निकोबार द्वीप समूह की जो आदिवासी जनजाति है वो अफ्रीकन के वंशज है, वो उधर से आया था, और यूरेशियन देशों में चला गया है, इस पर भी शोध होना चाहिए। 

बामशाद के द्वारा किये गये शोध को नकारने के लिए ब्राह्मणों ने सिर्फ विज्ञान शब्द का प्रयोग किया और उसे झूठा प्रचारित किया। 

ब्राह्मण अगर यह झूठी कहानी सुनाये तो उस से पूछो कि दोनों ब्राह्मण नस्लों में से विदेश से कौन आया है? विदेशी का DNA बताओ? DNA के आधार पर ब्राह्मण अपनी बातों को सिद्ध नहीं कर सकता।

*ब्राह्मण मुसलमान विरोधी घृणा आंदोलन क्यों चलता है?*

क्योकि ब्राह्मणवाद और बुद्धिज्म के टकराव के समय बहुत से बौद्धिष्ट मुसलमान बन गये थे उन्होंने ब्राह्मण धर्म को नहीं अपनाया था। ब्राह्मण जनता है कि आज भारत में जितने भी मुसलमान है वो सब मूलनिवासी है इसीलिए ब्राह्मण मुसलमानों के खिलाफ घृणा का आंदोलन चलता रहता है ताकि ब्राह्मण किसी भी तरह मूलनिवासियों की एक शाखा को पूरी तरह खत्म कर सके।

अंग्रेजों के गुलाम ब्राह्मण था और उनके गुलाम मूलनिवासी थे। आज़ादी की जंग में आज़ादी के लिए आंदोलन करने वाले लोगों के सामने यह सबसे बड़ी समस्या थी। 

इसीलिए डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने अंग्रेजों को कहा कि ब्राह्मणों को आज़ाद करने से पहले मूलनिवासी बहुजनों को जरुर आज़ाद कर देना चाहिए। अगर ब्राह्मण मूलनिवासियों से पहले आज़ाद हो गया तो ब्राह्मण मूलनिवासियों को कभी आज़ाद नहीं करेगा। ये आशंका सिर्फ डॉ. भीम राव अम्बेडकर के मन में ही नहीं थी बल्कि मुसलमान नेताओं के मन में भी थी। इसीलिए 14 अगस्त को पाकिस्तान बना।

 मुसलमानों ने अंग्रेजों को कहा कि गाँधी से एक दिन पहले हमे आज़ादी देना और हमारे बाद गाँधी को देना। अगर तुमने पहले गाँधी को आज़ादी दे दी तो गाँधी बनिया है हमको कुछ नहीं देगा। ब्राह्मणों ने अपनी आज़ादी की लड़ाई मूलनिवासियों को सीडी बनाकर लड़ी और वो अंग्रेजों को भगा कर आज़ाद हो गये।

DNA संशोधन से सामने आया कि ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य भारत के मूलनिवासी नहीं है। व्यवहारिक रूप से भी देखा जाये तो ब्राह्मणों ने कभी भारत को अपना देश माना भी नहीं है। ब्राह्मण हमेशा राष्ट्रवाद का सिद्धांत बताता आया है लेकिन खुद कितना देशभक्त है ये बात किसी को नहीं बताता। इसका मतलब एक विदेशी गया और दूसरा विदेशी मालिक हो गया, DNA ने सिद्ध कर दिया।

 दूसरे विदेशी ब्राह्मणों ने ये प्रचार किया कि भारत आज़ाद हो गया। लेकिन आज भी भारत पर आज भी ब्राह्मणों का राज है। इससे यह साबित होता है कि मूलनिवासियों को भविष्य में आज़ादी हासिल करने का कार्यक्रम चलाना ही पड़ेगा। DNA परिक्षण के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि आज भी देश के 130 करोड में से 32 करोड लोग बाकि 98 करोड़ लोगों पर राज कर रहा है। कल्पना करो कितना मुलभुत और महत्वपूर्ण संशोधन है।

    इसि कारण से वैदिक आर्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) आज तक भारत के मूलनिवासी को सही इतिहास की जानकारी ना देकर कपोल कल्पित कहानी बनाकर भरमा रहा है। वैदिक ब्राह्मणी संगठन आरएसएस भी भारतीय लोगो को हिन्दू बनाकर एक रखने में कोई कसर नही छोर रहा हैऔर भारत के मूलनिवासी के अपने को पढ़े लिखे विद्वान समझने बाले नोजवान वैदिक ब्रहामण का झंडा टांगते फिर रहा है।समाज को पहले इसी को समझना होगा।

Tuesday, 4 April 2017

मोदी जी की निशुल्क सुझाव देशवासियो के नाम

जय भीम जय भारत दोस्तों आइए हम मोदी जी की निशुल्क सुझाव देशवासियो के नाम पर गौर करते हैं
पाकिस्तान को ग़रीबी, अशिक्षा, बीमारी और बेरोज़गारी से लड़ना चाहिए।।?


और भारत को गोरक्षा के नाम पर हिंसा करनी चाहिए।

विद्यालय न बना कर श्मशान कब्रिस्तान बनाया जाए।।

बहुजन महापुरुषों के इतिहास को खत्म करना चाहिए संविधान के जगह पर गीता महाभारत का पाठ स्कूल  कालेजों में करना चाहिए

ताकि अंधविश्वास में बहुजन समाज फंसे रहे।

अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियों आरक्षण , ओबीसी का खत्म करना चाहिए।

ताकि हर रूप से कमजोर हो जाए और फिर हम 5000 वर्षों का इतिहास दोहरा सके

आदिवासियों की ज़मीन छीननी चाहिए।
ताकि उधोगपतियो को माला माला कर सके।

स्कॉलरशिप रोक देनी चाहिए।

ताकि कोई भी रोहित पैदा न हो सके।

मुजफ्फरनगर जैसे दंगे मेरे मंत्री को करने चाहिए।
ताकि दलित वर्ग हिन्दू मुसलमान में उलझा रहे।।

चर्च जलाने चाहिए।?
ताकि कोई भी चर्च न जाएँ।।

पक्की नौकरियों पर रोक लगा देनी चाहिए।?
ताकि कोई भी वंचित समाज नौकरी न लें
राइट?
नोट - =याद रखे दोस्तों हमारा समाज धार्मिक ग्रंथों के कारण ही गुलाम रहा है और वही ग्रंथ फिर से स्कूलों में कॉलेजों में रहने के लिए बीजेपी शासित राज्यों ने कमर कस ली है लेकिन हमारे समाज को इस धार्मिक ग्रंथों से कोई विकास नहीं बल्कि विनाश होगा हमारा समाज का विकास संविधान और आरक्षण से हुआ है और उसी से होगा इसलिए अपने बुद्धि विवेक का प्रयोग करें


जय भीम जय भारत दोस्तों
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

 जागो और जगाओ अंधविश्वास पाखंड वाद मनुवादी ब्राह्मण वाद भगाओ समाज को जागरुक करो शिक्षित करो संगठित करो
Rb Paswan

नफरत का कॉमन कॉज़

 नफरत का कॉमन कॉज़:



मैं 84 की सिख विरोधी हिंसा का चश्मदीद हूँ. सिखो की दूकानो को पुलिस और प्रशासन की निगरानी में लुटते देखा है. मैं सिख नही था तो दूसरी तरफ से इसे देखना आसान था. ये हिंदू समाज के एक तबके की प्रतिक्रिया थी. उस हिंसा और लूट के पीछे मूल भवना न राष्ट्रवाद थी और न ही इंदिरा गांधी के प्रति सम्मान. इसमे इंदिरा गांधी के विरोधी भी शामिल थे. वो भी जो इमरजेंसी में अंडरग्राउंड थे.
मूल भावना थी सिखो के प्रति ईर्ष्या. उनका बढ़ता कारोबार चुभ रहा था. सिख दूकानदारो के मकान अच्छे हो गये थे. उनकी दूकाने पहले से बड़ी हो गई थी. कुछ व्यापार खासकर मोटर स्पेयर पार्ट्स और रेडिमेड कपड़ो में तो लगभग पूरी पकड़ थी. मेरे एक पड़ोसी एक दूकान से अच्छा खासा माल लूट कर लाये थे. वो जिस दूकान का था वो दिन भर वहीं बैठते थे, उसी की चाय पीते थे, उधार भी लेते थे. ऐसे बहुत से थे.
लूट का माल कुछ दिन में चुक गया और सिख दूकानदार फिर खड़े हो गये. अभी भी व्यापार में वैसा की कब्ज़ा है उनका. जिन्होने सिखो को सबक सिखाने के लूटा था उन्हे भी देखता हू. वो भी वहीं हैं जहॉ थे. वैसे ही मकान, कोई छोटी मोटी नौकरी या दूकान. अगली पीढ़ी भी कुछ खास नही कर पाई. शुरुआती गुंडागर्दी के बाद नाली-गिट्टी-खड़िंजे के ठेकेदार ही बन पाये.
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अस्सी के दशक के बिलकुल शुरुआती दौर की बात है. तब राम मंदिर का मुद्दा पैदा भी नही हुआ था. लेकिन विश्व हिंदू परिषद था. उसकी एक बैठक घर के पास हो रही थी. जो बाते हो रही थी उसे सुना. बैठक “पेट्रो डालर” पर केंद्रित थी. खाड़ी के देशो से मुसलमान के पास पैसा आ रहा था उसके खिलाफ आंदोलन चलाने की बात हो रही थी.
सत्तर के दशक में बड़ी संख्या में मुसलमान खाड़ी के देशो में काम धंधे के लिये गये. एक गया तो उसने अपने परिवार या जानने वालो में चार को और बुलाया. ये आमतौर पर छोटे काम धंधे वाले लोग थे. जब लौटते थे तो अपने साथ बड़े बड़े टेप रिकार्डर और इलेट्रानिक्स का दूसरा सामान लाते थे. कपड़े सूती की जगह सिंथेटिक हो गये थे इनके. शाम को तैयार होकर, सेंट लगा कर शहर में घूमते थे. विदेशो के किस्से उनसे सुनने पर लगता था कि किसी परी लोक को देख कर आये थे. एक दोस्त था महफूज़. अंडे की दूकान थी उसकी. उसके भाई भी वहॉ नौकरी करने गये थे. बड़ा टेप रिकार्डर वही देखा था पहली बार.
कई साल बाद विश्व हिंदू परिषद के उस “पेट्रो डालर” के खिलाफ अभियान और खाड़ी से लौटे मुसलमान के बड़े टेप रिकार्डर का रिश्ता समझ में आया. हॉ राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद का आंदोलन शुरु होते ही ये समझ में आ गया था कि इसकी मूल वज़ह बाबर नही महफूज़ के भाई का टेप रिकार्डर है.

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कुछ महीने पहले मेट्रो स्टेशन से घर आरहा था. रिक्शे पर था. रास्ते में रिक्शेवाले से बात होने लगी. बिहार के छपरा का था. मैंने पूछा किसे वोट दिया था चुनाव में. बिना किसी हिचक के उसने जवाब दिया “लालू जी” को. मैंने पूछा क्यों – उनकी सरकार में कोई विकास नही हुआ, घोटाले का आरोप भी लगता है – जेल भी काट आये. उसका जवाब था कि आप शहर में रहने वाले कभी नही समझ पायेंगे कि लालू जी ने क्या दिया है हमको.
आगे उसने बताया कि पहले अगर गांव में हम साइकिल पर जा रहे हों और सामने से कोई “बड़ा आदमी” आदमी आ जाये तो हम साइकिल से उतरते थे, उसके पैर छूते थे और फिर साइकिल पर चढ़ते थे. लालू जी के आने बाद अब हम किसी के पैर नही छूते है – हाथ मिलाते हैं.
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ये तीन कहानिया तीन अलग अलग समाज की है. लेकिन एक किरदार है जो तीनो में मौजूद है. उसे पहचानिये.  

आदर्श ग्राम’ की हालत

भावी उप-राष्ट्रपति के

 ‘आदर्श ग्राम’
 की हालत पर DBN की
ग्राउंड रिपोर्ट, ‘असुविधा के
लिए खेद है’
Edited by: vikarn raj on March 22, 2017.
बीजे बिकास, मधुबनी: मधुबनी संसदीय क्षेत्र के
सांसद व देश के संभावित भावी उप-राष्ट्रपति
हुकुमदेव नारायण यादव के द्वारा आदर्श ग्राम
योजना के तहत चयनित आदर्श पंचायत बनकट्टा
के लोगों को अभी तक अपने पंचायत के विकास
की दरकार और माननीय सांसद के दर्शन का
इंतज़ार है. सांसद यादव द्वारा गोद लिया गया
यह गांव बिहार के मधुबनी जिले के बेनीपट्टी
प्रखण्ड मुख्यालय से 4 किलोमीटर की दुरी पर
स्थित है.
ग्रामीण बताते है कि भाजपा सांसद हुकुमदेव
नारायण यादव के द्वारा बड़े ही ताम-झाम से इस
पंचायत को गोद लिया गया था. जिसके बाद
पंचायत के लोगों को ख़ुशी का ठिकाना नहीं
रहा था. ताम-झाम के बीच सांसद हुकुमदेव
नारायण यादव को लाखों खर्च कर सम्मानित
किया गया. लेकिन यह ताम-झाम का
सिलसिला यही थम गया. ग्रामीण बताते है कि
जितने राशि से ग्रामीणों ने बनकट्टा को आदर्श
ग्राम पंचायत में चयनित करने के बाद माननीय
सांसद का सम्मान में खर्च किया गया था.
उतने राशि का भी काम अभी तक इस पंचायत में
नही हो सका है. लगभग 3 साल बीत जाने के बाद
भी बनकट्टा पंचायत का दामोदरपुर गांव आदर्श
गांव का दर्जा प्राप्त करने के बाद भी विकास
के लिए कराह रहा है. पंचायत में जहां समुचित
ग्रामीण पथ नहीं है, वहीं दामोदरपुर, बलिया
और बिस्फी जाने का एकमात्र पथ के बीच
बछराजा नदी पर बने पुल लगभग डेढ़ साल से टूटा
हुआ है, जिससे गांव वालों को आवागमन की भी
समस्या आ गयी है.
आदर्श ग्राम पंचायत के घोषणा उपरांत सांसद के
सम्मान समारोह के गवाह रहे ग्रामीण बताते है
कि पंचायत में बेहतर स्वास्थ्य सेवा, इंटरनेट
सुविधा, बैंकिंग सुविधा और पशुपालकों के लिए
कई घोषणाऐं विभाग के पदाधिकारी के द्वारा
लगातार की गई, मगर आज तक एक भी घोषणा
पर अमल नहीं हो सका है. ग्रामीणों बताते है कि
उन्हें आदर्श पंचायत के जनता होने में भी असहजता
महसूस हो रही है. जिस समय इसकी घोषणा हुई
थी उस समय सभी विभागों के द्वारा स्टाल
लगाकर लोंगो को कई लोक-लुभावन सपने
दिखाये गये थे.
पंचायत के दामोदरपुर गांव के पहले एक पुल है जो
विकास की गाथा का फुट-फुटकर बखान करती
है. यह पुल सालों से दो भागों में बंटकर टूट चूका है.
पुल निर्माण के बजाय पुल होकर चलने वालों को
सतर्क करने के लिए बिहार सरकार के ग्रामीण
कार्य विभाग ने पुल छतिग्रस्त है का बोर्ड लगा
रखा है, जिसपर धीरे चलने का संदेश दिया जा
रहा है. विडंबना इस बात की है की आदर्श
पंचायत की घोषणा होने के लगभग 3 साल बीत
जाने के बाद भी दामोदरपुर गांव के लोग
स्थानीय सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के दर्शन
नहीं हो पाए है. सासंद इस गांव में गोद लेने के दिन
कार्यक्रम में पहुंचे उसके बाद वो दोबारा गांव में
नहीं आये.