Sunday 26 November 2017

आरक्षण और गाँधी

 *आरक्षण और गाँधी*

सन 1930 में साइमन कमीशन भारत में आया था ! जिसका श्री मोहनदास करमचंद गांधी और गाँधी के इशारे पर उसके चेलों और चमचों ने कडा विरोध किया था ! श्री गाँधी एंड कम्पनी ने “गो-बैक साइमन कमीशन” का नारा दिया था ! *किन्तु श्री गाँधी और उसके चेलों की परवाह किये बगैर साइमन कमीशन ने भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के अस्पर्श्य वर्गों का गहराई से सर्वेक्षण और अध्ययन किया !* साथ ही विभिन्न प्रकार के अस्पर्श्यों की गणना भी की थी और अपनी रिपोर्ट में भारत के अस्पर्श्यों की जनसँख्या उस समय चार करोड़ पैंतालिस लाख बताई गई थी !

बाद में इन सभी अस्प्रश्य वर्गों की एक सूची तैयार की गई ! जिसे 1935 में अधिनियम बनाकर “अनुसूचित जाति” नाम दिया गया ! साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार अस्प्रश्यों की *जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर ही अंग्रेजों से बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अस्प्रश्यों को प्रथक निर्वाचन और दो वोट देने का विशेष अधिकार प्राप्त करने में कामयाब हुए थे !*

किन्तु *सितम्बर 1932 में यरवदा जेल पर श्री मोहनदास करमचंद गाँधी द्वारा आमरण अनशन करने के कारण पूना-समझौता में अस्प्रश्यों का एक वोट का अधिकार छीन लिया गया !* पूना-समझौते के समय श्री गांधी ने सरकारी नौकरियों, शिक्षा, राजनीती और अन्य सभी क्षेत्रों में अछूतों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर से वादा किया था ! किन्तु बाबा साहेब को श्री गांधी की मानसिकता पर विश्वास नहीं था ! विषम परिस्थितियों में किये गए पूना-समझौते को तभी तो बाबा साहेब ने अपनी भूल कहा था !

आरक्षण के मामले में यदि पूरे देश के इतिहास पर नजर डाली जाये तो *24 सितम्बर 1932 को बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर और मोहनदास कर्मचंद गाँधी के बीच हुए पूना-समझौते (पूना-पैक्ट) से पूर्व सरकारी सेवाओं में दलितों का प्रतिनिधित्व नगण्य था ! जिसका मुख्य कारण शैक्षिक रूप से पिछड़ापन था ! यह सर्व विदित है कि अस्पर्श्य वर्गों का शैक्षिक रूप से पिछड़ेपन का सबसे बड़ा मुख्य कारण इन वर्गों के साथ सदियों से किया गया जातिभेद और छूआछूत का वर्ताव ही रहा है !*

1992-93 की राष्ट्रीय अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति आयोग की रिपोर्ट में जानकारी मिलती है कि *सन 1934 में पहली बार औपचारिक आरक्षण की घोषणा के बिना ही यह अनुदेश जारी किये गए थे, कि अपेक्षित योग्यता प्राप्त दलित वर्गों के उम्मीदवारों को नियुक्ति के उचित अवसरों से मात्र इसलिए वंचित नहीं किया जाना चाहिए कि वे खुली प्रतियोगिता में सफल नहीं हो सके ! इसके बाद इन अस्पर्श्य वर्गों को भारत सरकार अधिनियम 1935 में अनुसूचित जातियां नाम दिया गया !*

सर्वप्रथम 1943 में भारत सरकार ने खुली प्रतियोगिता के माध्यम से सीधी भर्ती वाले पदों में अनुसूचित जातियों के लिए 8.33 प्रतिशत आरक्षण का प्राविधान किया और आयु सीमा तथा परीक्षा शुल्क में छूट की भी घोषणा की गई !  1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनुसूचित जातियों के लिए खुली प्रतियोगिता की सीधी भर्ती में 12.50 प्रतिशत तथा खुली प्रतियोगिता से भिन्न तरीके से भर्ती मामलो में 16.75 प्रतिशत की दर से आरक्षण का प्राविधान किया गया ! जबकि अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रथम बार 5.00 प्रतिशत आरक्षण का प्राविधान देश में संविधान लागू होने पर सन 1950 में ही किया गया !

दिनांक 25-03-1970 से अनुसूचित जाति का आरक्षण 12.50 प्रतिशत से बढाकर 15.00 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 5.00 प्रतिशत से बढाकर 7.50 प्रतिशत कर दिया गया था ! वर्तमान में देश के अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों की जनसँख्या का अनुपात बढ़ गया है, किन्तु आरक्षण पुरानी दर पर ही चला आ रहा है !

यहाँ हमने आरक्षण का इतिहास बताना इसलिए जरुरी समझा कि उपरोक्त इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की व्यवस्था, अस्पर्श्यों (अछूतों) को केवल आर्थिक मदद पहुंचाना नहीं है और *आरक्षण केवल गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम भी नहीं है ! बल्कि अछूतों को शासन-प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देकर जातिभेद और छूआछूत के उन्मूलन का भी एक साधन है ! ताकि अछूतों को भी आत्मसम्मान प्राप्त करने के अवसर प्राप्त हो सके !*

यहाँ यह तत्थ रखना आवश्यक है कि प्रतियेक हिन्दू व्यक्ति किसी न किसी जाति में जन्म लेता है ! उसकी वह जाति ही उसके धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक जीवन का निर्धारण करती है ! हिन्दुओं में यह स्थिति माँ की गोद से लेकर‌‍‍‍‍ म्रत्यु की गोद तक तक रहती है ! *बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर कहते है कि अस्पर्श्य लोग हिन्दू समाज के नही है और हिन्दू भी यह नहीं समझते हैं कि वे और अस्पर्श्य दोनों एक ही समाज के लोग हैं ! यही कारण है कि हिन्दुओं में नैतिक द्रष्टि से अस्पर्श्यों के प्रति कोई चिंता या ममत्व नहीं होता ! हिन्दू अपनी हठधर्मिता और अन्याय को गलत नहीं समझते ! उनका यह विवेक अभाव अस्प्रश्यता (छूआछूत) के निवारण के रास्ते में बहुत बड़ी बाधा है !*



 भारतीय संविधान के 2 भाग ऐसे हैं जिसका डाइरेक्ट कनेक्शन आम जनता को प्रभावित करता है उनमें से -
1. मौलिक अधिकार &
2. राज्य के नीति निदेशक तत्व
मौलिक हक का हनन होने पर माननीय न्यायालयों से न्याय की मांग की जाती है &
दूसरा सीधे सरकार से न्याय की गुहार लगाई जाती है
इसी लिए शायद डॉ. अम्बेडकर ने कहा है कि ," *यदि कोई सरकार इसकी उपेक्षा करती है, तो उन्हें निश्चित ही इसके लिए मतदाताओं के समक्ष उत्तरदायी होना पड़ेगा*"

*न्याय सबके लिए*
*************
विभिन्न पहलुओं को देखते हुए समझ में आता है कि न्याय किसी व्यक्ति विशेष का न होकर संविधान निर्माताओं ने सभी के लिए समान न्याय का प्रावधान किया है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39 A जो राज्य के नीति निदेशक तत्व में प्रावधान किया गया है ।
राज्य के नीति निदेशक तत्वों में अंतर्निहित उद्देश्य के सम्बन्ध में *डॉ. भीम राव अम्बेडकर* ने कहा कि , "  *ये भारतीय संविधान की अनोखी विशेषताएं हैं , इसमें लोक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य निहित है* ।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39(क) के अनुसार - कानूनी सहायता प्राप्त करना किसी भी ऐसे व्यक्ति का अधिकार है जो कानूनी सहायता का पात्र है किंतु वह एक वकील की सेवा लेने में समर्थ नहीं है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39(क) के अनुसार
समान न्याय और निःशुल्क विधिक व्यवस्था अर्थात -
कानूनी सहायता प्राप्त करना ।

न्याय के अवधारणा को समझने के लिए इसके विभिन्न आयामों को जानना होगा क्योंकि जीवन के विभिन्न पक्षों में न्याय का संदर्भ भिन्न है।  सुविधानुसार इसे हम विधिक, समाजिक, आर्थिक  एवं राजनीतिक आयामों के रूप में देख सकते हैं , लेकिन इसका उद्देष्य न्याय का पृथकता नही है क्योंकि न्याय एक संपूर्ण प्रत्यय है।

1. कानूनी या विधिक न्याय:-

विधिक न्याय का अर्थ है कि ’विधि के समक्ष’ प्रत्येक व्यक्ति समान है और प्रत्येक व्यक्ति को ’विधि का समान’ संरक्षण प्राप्त है   यह व्यवस्था भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में अपनाया गया है।

 2. राजनीतिक न्याय

राजनीतिक न्याय का आशय ‘एक व्यक्ति एक मत’ से है जिसमें धर्म, लिंग, जाति, वर्ण व वर्ग आदि के आधार पर कोइ भेद न हो । राजनीतिक व्यवस्था में सभी को समान रूप से हिस्सा लेने का अवसर मिलना आवश्यक है।

3- सामाजिक न्याय:-

व्यक्तिगत व सामाजिक हितों की बीच सामाजस्य स्थापित करने का प्रयास है। सामाजिक न्याय का मुख्य आधार है कि व्यक्तिगत हित से अधिक सामाजिक हित महत्वपूर्ण होतें हैं। सामाजिक न्याय से आशय है कि समाज में जाति, वर्ण, लिंग, धर्म इत्यादि का भेद किये बिना सभी मनुष्यओ के प्रति समान दृष्टिकोण रखना आदि। अनुच्छेद 17, 18, नीति निर्देशक तत्व जैसे प्रावधान सामाजिक न्याय को अभिव्यक्ति करतें है। सामाजिक न्याय की स्थापना किसी समाज की अभीष्ट लक्ष्य होता है। यह प्रगतिशीलता का प्रतीक है क्योंकि यह सामाजिक परिवर्तन व सुधार में विश्वास व्यक्त करता है।


*विशालतम संविधान*

सर आइबर जेनिग्स ने भारतीय संविधान को " *विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान* " कहा है
*मूल संविधान में*
395 अनुच्छेद थे जो 22 भागों में विभाजित थे और 8 अनुसूचियाँ थीं ।
किन्तु *86th संविधान संशोधन अधिनियम 2000 के पश्चात संविधान में अब कुल 448 अनुच्छेद हो गए हैं जो 26 भागों में विभाजित हैं और उसमें 12 अनुसूचियाँ हैं*।
1950 से 2003 के दौरान 21 अनुच्छेदों को संविधान से निरस्त किया गया है, और 69 नये अनुच्छेदों को जोड़ा गया है जो निनमलिखित है :----- 39क, 43क, 48क, 51क, 134क, 139क, 144क, 224क, 233क, 239क, 239क क, 239क ख तक बारह, 243 A से 243 O तक पन्द्रह और 243 P
 से 243 ZG तक तेईस अर्थात कुल उनसठ।
*एक नया अनुच्छेद और जोड़ा गया 86th Amendment  2002 में अनुच्छेद 21A , जिसके अधीन शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया*

88th संविधान संशोधन, 2003 द्वारा अनुच्छेद 268क जोड़ा गया , 89th संविधान संशोधन 2003 द्वारा अनुच्छेद 338क और 91th संविधान संशोधन , 2004 द्वारा नया अनु. 361ख जोड़ा गया

3 comments:

  1. गांधी से नाराज़ क्यों हैं दलित?
    http://www.bbc.com/hindi/india/2012/10/120927_gandhi_dalit_da

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  2. वर्तमान में जो स्थिति पंचायती राज की है इससे प्रतीत होता है कि डॉ .अम्बेडकर का विरोध जायज था लेकिन..
    https://www.youtube.com/watch?v=F4PkTxKtqF4&feature=youtu.be

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  3. संविधान का पहला अक्षर We The People Of India पर संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने घोर आपत्ति दर्ज की और
    https://www.youtube.com/watch?v=RqE4CrftmbI&feature=youtu.be

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